तिल शैल के दान की विधि और उसका माहात्म्य | til shail ke daan kee vidhi aur usaka maahaatmy

मत्स्य पुराण सतासीवाँ अध्याय

तिलशैल के दान की विधि और उसका माहात्म्य

ईश्वर उवाच

अतः परं प्रवक्ष्यामि तिलशैलं विधानतः । 
यत्प्रदानान्नरो याति विष्णुलोकं सनातनम् ॥ १

ईश्वरने कहा- नारद! इसके बाद मैं तिलशैलका वर्णन कर रहा हूँ, जिसका विधिपूर्वक दान करनेसे मनुष्य सनातन विष्णुलोकको प्राप्त होता है।

उत्तमो दशभिर्द्राणैर्मध्यमः पञ्चभिः स्मृतः । 
त्रिभिः कनिष्ठो विप्रेन्द्र तिलशैलः प्रकीर्तितः ॥ २

पूर्ववच्चापरान् सर्वान् विष्कम्भानभितो गिरीन् ।
दानमन्त्रान् प्रवक्ष्यामि यथावन्मुनिपुङ्गव ।। ३

यस्मान्मधुवधे विष्णोर्देहस्वेदसमुद्भवाः।
तिलाः कुशाश्च माषाश्च तस्माच्छान्त्यै भवत्विह ।। ४

हव्ये कव्ये च यस्माच्च तिलैरेवाभिरक्षणम्। 
भवादुद्धर शैलेन्द्र तिलाचल नमोऽस्तु ते ॥५

इत्यामन्त्र्य च यो दद्यात् तिलाचलमनुत्तमम् । 
स वैष्णवं पदं याति पुनरावृत्तिदुर्लभम् ॥ ६

दीर्घायुष्यमवाप्नोति पुत्रपौत्रैश्च मोदते। 
पितृभिर्देवगन्धर्वैः पूज्यमानो दिवं व्रजेत् ॥ ७

विप्रवर। दस द्रोण तिलका बना हुआ तिलशैल उत्तम, पाँच द्रोणका मध्यम और तीन द्रोणका कनिष्ठ बतलाया गया है। इसके चारों दिशाओंमें विष्कम्भपर्वतोंकी स्थापना तथा अन्यान्य सारा कार्य पूर्ववत् करना चाहिये। मुनिपुङ्गव। अब मैं दानके मन्त्रोंको यथार्थरूपसे बतला रहा हूँ। 'चूँकि मधुदैत्यके वधके समय भगवान् विष्णुके शरीरसे उत्पन्न हुए पसीनेको बूँदोंसे तिल, कुश और उड़दकी उत्पत्ति हुई थी, इसलिये तुम इस लोकमें मुझे शान्ति प्रदान करो। शैलेन्द्र तिलाचल ! चूंकि देवताओंके हव्य और पितरोंके कव्य- दोनोंमें सम्मिलित होकर तिल ही सब ओरसे (भूत-प्रेतादिसे) रक्षा करता है, इसलिये तुम मेरा भवसागरसे उद्धार करो, तुम्हें नमस्कार है। इस प्रकार आमन्त्रित कर जो मनुष्य श्रेष्ठ तिलाचलका दान करता है, वह पुनरागमनरहित विष्णुपदको प्राप्त हो जाता है। उसे इस लोकमें दीर्घायुकी प्राप्ति होती है, वह पुत्र एवं पौत्रोंको प्राप्तकर उनके साथ आनन्द मनाता है तथा अन्तमें देवताओं, गन्धर्वी और पितरोंद्वारा पूजित होकर स्वर्गलोकको चला जाता है॥ २-७॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे तिलाचलकीर्तनं नाम सप्ताशीतितमोऽध्यायः ॥ ८७ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें तिलाचलकीर्तन नामक सतासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ ८७ ॥

टिप्पणियाँ