त्रिपुर में दैत्योंका सुख पूर्वक निवास, मय का स्वप्न-दर्शन और दैत्यों का अत्याचार | tripur mein daityonka sukh poorvak nivaas, may ka svapn-darshan aur daityon ka atyaachaar

मत्स्य पुराण एक सौ इकतीसवाँ अध्याय

त्रिपुर में दैत्यों का सुख पूर्वक निवास, मय का स्वप्न-दर्शन और दैत्यों का अत्याचार

सूत उवाच

निर्मिते त्रिपुरे दुर्गे मयेनासुरशिल्पिना। 
तद् दुर्गं दुर्गतां प्राप बद्धर्वैरैः सुरासुरैः ॥ १

सूतजी कहते हैं- ऋषियो! इस प्रकार असुरशिल्पी मयने त्रिपुर नामक दुर्गका निर्माण किया, परंतु अन्ततोगत्वा परस्पर बँधे हुए वैरवाले देवताओं और असुरोंके लिये वह दुर्ग दुर्गम हो गया। १

सकलत्राः सपुत्राश्च शस्त्रवन्तोऽन्तकोपमाः ।
मयादिष्टानि विविशुर्गृहाणि हृषिताश्च ते ॥२

सिंहा वनमिवानेके मकरा इव सागरम् । 
रोषैश्चैवातिपारुष्यैः शरीरमिव संहतैः ॥ ३

तद्वद् बलिभिरध्यस्तं तत्पुरं देवतारिभिः ।
त्रिपुरं संकुलं जातं दैत्यकोटिशताकुलम् ॥ ४

सुतलादपि निष्पत्य पातालाद् दानवालयात् ।
उपतस्थुः पयोदाभा ये च गिर्युपजीविनः ॥ ५

यो यं प्रार्थयते कामं सम्प्राप्तस्त्रिपुराश्रयात् । 
तस्य तस्य मयस्तत्र मायया विदधाति सः ॥ ६

सचन्द्रेषु प्रदोषेषु साम्बुजेषु सरःसु च। 
आरामेषु सचूतेषु तपोधनवनेषु च ॥ ७

स्वङ्गाश्चन्दनदिग्धाङ्गा मातङ्गाः समदा इव।
मृष्टाभरणवस्त्राश्च मृष्टस्त्रगनुलेपनाः ॥ ८

प्रियाभिः प्रियकामाभिर्हावभावप्रसूतिभिः ।
नारीभिः सततं रेमुर्मुदिताश्चैव दानवाः ॥ ९

उस समय वे सभी शस्त्रधारी दैत्य जो यमराजके समान भयंकर थे, मयके आदेशसे अपनी स्त्रियों और पुत्रोंके साथ हर्षपूर्वक उन गृहोंमें प्रविष्ट हुए। जैसे अनेकों सिंह वनको, अनेकों मगरमच्छ सागरको और क्रोध एवं अत्यन्त कठोरता परस्पर सम्मिलित होकर शरीरको अपने अधिकारमें कर लेते हैं, वैसे ही उन महाबली देव-शत्रुओंद्वारा वह पुर व्याप्त हो गया। इस प्रकार वह त्रिपुर असंख्य (अरबों) दैत्योंसे भर गया। उस समय सुतल और पाताल (दानवोंके निवासस्थान) से निकलकर आये हुए दानव तथा (देवताओंके भयसे छिपकर) पर्वतोंपर जीवन निर्वाह करनेवाले दैत्य भी, जो काले बादलकी-सी कान्तिवाले थे, (शरणार्थीक रूपमें) वहाँ उपस्थित हुए। त्रिपुरमें आश्रय लेनेके कारण जो असुर जिस वस्तुकी कामना करता था, उसकी उस कामनाको मयदानव मायाद्वारा पूर्ण कर देता था। जिनके सुडौल शरीरपर चन्दनका अनुलेप लगा था, जो निर्मल आभूषण, वस्त्र, माला और अङ्गरागसे अलंकृत थे तथा मतवाले गजेन्द्रसरीखे दीख रहे थे, ऐसे दानव चाँदनी रातोंमें एवं सायंकालके समय कमलसे सुशोभित सरोवरोंके तटपर, आमके बगीचों और तपोवनोंमें अपनी पत्नियोंके साथ निरन्तर हर्षपूर्वक विहार करते थे ॥ २-९॥

मयेन निर्मिते स्थाने मोदमाना महासुराः ।
अर्थे धर्मे च कामे च निदधुस्ते मतीः स्वयम् ॥ १०

तेषां त्रिपुरयुक्तानां त्रिपुरे त्रिदशारिणाम्।
व्रजति स्म सुखं कालः स्वर्गस्थानां यथा तथा ॥ ११

शुश्रूषन्ते पितृन् पुत्राः पल्यश्चापि पर्तीस्तथा।
विमुक्तकलहाश्चापि प्रीतयः प्रचुराभवन् ॥ १२

नाधर्मस्त्रिपुरस्थानां बाधते वीर्यवानपि।
अर्चयन्तो दितेः पुत्रास्त्रिपुरायतने हरम् ॥ १३

पुण्याहशब्दानुच्चेरुराशीर्वादांश्च वेदगान्।
स्वनूपुररवोन्मिश्रान् वेणुवीणारवानपि ॥ १४

हासश्च वरनारीणां चित्तव्याकुलकारकः ।
त्रिपुरे दानवेन्द्राणां रमतां श्रूयते सदा ॥ १५

तेषामर्चयतां देवान् ब्राह्मणांश्च नमस्यताम् । 
धर्मार्थकामतन्त्राणां महान् कालोऽभ्यवर्तत ॥ १६

अथालक्ष्मीरसूया च तृड्बुभुक्षे तथैव च।
कलिश्च कलहश्चैव त्रिपुरं विविशुः सह ।। १७

संध्याकालं प्रविष्टास्ते त्रिपुरं च भयावहाः।
समध्यासुः समं घोराः शरीराणि यथाऽऽमयाः ॥ १८

सर्व एते विशन्तस्तु मयेन त्रिपुरान्तरम्।
स्वप्ने भयावहा दृष्टा आविशन्तस्तु दानवान् ॥ १९

उदिते च सहस्त्रांशी शुभभासाकरे रखी।
मयः सभामाविवेश भास्कराभ्यामिवाम्बुदः ॥ २०

मेरुकूटनिभे रम्य आसने स्वर्णमण्डिते।
आसीनाः काञ्चनगिरेः शृङ्गे तोयमुचो यथा ॥ २१

पार्श्वयोस्तारकाख्यश्च विद्युन्माली च दानवः ।
उपविष्टौ मयस्यान्ते हस्तिनः कलभाविव ॥ २२

इस प्रकार मयद्वारा निर्मित उस स्थानपर निवास करते हुए वे महासुर आनन्दका उपभोग कर रहे थे। उन्होंने स्वयं ही धर्म, अर्थ और कामके सम्पादनमें अपनी बुद्धि लगायी। त्रिपुरमें निवास करनेवाले उन  देव-शत्रुओंका समय ऐसा सुखमय व्यतीत हो रहा था, जैसे स्वर्गवासियोंका व्यतीत होता है। वहाँ पुत्र पितृगणोंकी तथा पत्नियाँ पतियोंकी सेवा करती थीं। वे परस्पर कलह नहीं करते थे। उनमें परम प्रेम था। किसी प्रकारका अधर्म प्रबल होनेपर भी त्रिपुर- निवासियोंको बाधा नहीं पहुँचाता था। वे दैत्य शिव- मन्दिरमें शङ्करजीकी अर्चना करते हुए वेदोक्त माङ्गलिक शब्दों एवं आशीर्वादोंका उच्चारण करते थे। त्रिपुरमें आनन्द मनानेवाले दानवेन्द्रोंके अपने नूपुरकी झनकारसे मिश्रित वेणु एवं वीणाके शब्द तथा सुन्दरी नारियोंके चित्तको व्याकुल कर देनेवाले हास सदा सुनायी पड़ते थे। 
इस प्रकार देवताओंकी अर्चना और ब्राह्मणोंको नमस्कार करनेवाले तथा धर्म, अर्थ एवं कामके साधक उन दैत्योंका महान् समय व्यतीत होता गया। तदनन्तर अलक्ष्मी (दरिद्रता), असूया (गुणोंमें दोष निकालना), तृष्णा, बुभुक्षा (भूख), कलि और कलह-ये सब एक साथ मिलकर त्रिपुरमें प्रविष्ट हुए। इन भयदायक दुर्गुणोंने सायंकाल त्रिपुरमें प्रवेश किया था। इन्होंने राक्षसोंपर ऐसा अधिकार जनाया, जैसे भयंकर व्याधियाँ शरीरोंको काबूमें कर लेती हैं। त्रिपुरके भीतर प्रवेश करते हुए इन दुर्गुणोंको मयने स्वप्रमें दानवोंके शरीरमें भयानक रूपसे प्रविष्ट होते हुए देख लिया। तब सहस्र किरणधारी एवं उज्वल प्रकाश करनेवाले सूर्यके उदय होनेपर मयने (तारक और विद्युन्मालीके साथ) दो सूर्योसे युक्त बादलकी तरह सभाभवनमें प्रवेश किया। वहाँ वे मेरुगिरिके शिखरके समान सुन्दर स्वर्णमण्डित रमणीय आसनपर आसीन हो गये। उस समय वे ऐसे प्रतीत हो रहे थे मानो सुमेरुगिरिके शिखरपर बादल उमड़ आये हों। मयदानवके निकट एक और तारकासुर और दूसरी ओर दानवश्रेष्ठ विद्युन्माली बैठे हुए थे, जो हाथीके बच्चेकी तरह दीख रहे थे॥१०-२२॥

ततः सुरारयः सर्वेऽशेषकोपा रणाजिरे।
उपविष्टा दृढं विद्धा दानवा देवशत्रवः ॥ २३

तेष्वासीनेषु सर्वेषु सुखासनगतेषु च।
मयो मायाविजनक इत्युवाच स दानवान् ॥ २४

खेचराः खेचरारावा भो भो दाक्षायणीसुताः ।
निशामयध्वं स्वप्नोऽयं मया दृष्टो भयावहः ।। २५

चतस्त्रः प्रमदास्तत्र त्रयो मर्त्या भयावहाः।
कोपानलादीप्तमुखाः प्रविष्टास्त्रिपुरार्दिनः ॥ २६

प्रविश्य रुषितास्ते च पुराण्यतुलविक्रमाः । 
प्रविष्टाः स्म शरीराणि भूत्वा बहुशरीरिणः ॥ २७

नगरं त्रिपुरं चेदं तमसा समवस्थितम्। 
सगृहं सह युष्माभिः सागराम्भसि मज्जितम् ॥ २८

उलूकं रुचिरा नारी नग्नाऽऽरूढा खरं तथा। 
पुरुषः सिन्दुतिलकश्चतुर‌ङ्क्षिस्त्रिलोचनः ॥ २९

येन सा प्रमदा नुन्ना अहं चैव विबोधितः । 
ईदृशी प्रमदा दृष्टा मया चातिभयावहा ॥ ३०

एष ईदृशिकः स्वप्नो दृष्टो वै दितिनन्दनाः। 
दृष्टः कथं हि कष्टाय असुराणां भविष्यति ॥ ३१

यदि वोऽहं क्षमो राजा यदिदं वेत्थ चेद्धितम् । 
निबोधध्वं सुमनसो न चासूयितुमर्हथ ॥ ३२

कामं चेष्ाँ च कोपं च असूयां संविहाय च।
सत्ये दमे च धर्मे च मुनिवादे च तिष्ठत ॥ ३३

शान्तयश्च प्रयुज्यन्तां पूज्यतां च महेश्वरः। 
यदि नामास्य स्वप्नस्य होवं चोपरमो भवेत् ॥ ३४

कुप्यते नो धुर्व रुद्रो देवदेवस्त्रिलोचनः । 
भविष्याणि च दृश्यन्ते यतो नस्त्रिपुरेऽसुराः ॥ ३५

कलहं वर्जयन्तश्च अर्जयन्तस्तथाऽऽर्जवम् । 
स्वप्प्रोदयं प्रतीक्षध्वं कालोदयमथापि च ॥ ३६

तत्पश्चात् युद्धस्थलमें अत्यन्त घायल होनेके कारण जिनके क्रोध शेष रह गये थे, वे सभी देवशत्रु दानव वहाँ आकर यथास्थान बैठ गये। इस प्रकार उन सबके सुखपूर्वक आसनपर बैठ जानेके पश्चात् मायाके उत्पादक मयने उन दानवोंसे इस प्रकार कहा- 'अरे दाक्षायणीके पुत्रो। तुमलोग आकाशमें विचरण करनेवाले तथा आकाशचारियोंमें विशेषरूपसे गर्जना करनेवाले हो। मैंने यह एक भयानक स्वप्न देखा है, उसे तुमलोग ध्यानपूर्वक सुनो। मैंने स्वप्नमें चार स्त्रियों और तीन पुरुषोंको पुरमें प्रवेश करते हुए देखा है। उनके रूप भयानक थे तथा मुख क्रोधाग्निसे उद्दीप्त हो रहे थे, जिससे ऐसा लगता था मानो वे त्रिपुरके विनाशक हैं। वे अतुल पराक्रमशाली प्राणी क्रोधसे भरे हुए थे और पुरोंमें प्रवेश करके अनेकों शरीर धारणकर दानवोंके शरीरोंमें भी घुस गये हैं। यह त्रिपुर नगर अन्धकारसे आच्छन्न हो गया है और गृह तथा तुमलोगोंके साथ ही सागरके जलमें डूब गया है। एक सुन्दरी स्त्री नंगी होकर उलूकपर सवार थी तथा उसके साथ एक पुरुष था, जिसके ललाटमें लाल तिलक लगा था। 
उसके चार पैर और तीन नेत्र थे। वह गधेपर चढ़ा हुआ था। उसने उस स्त्रीको प्रेरित किया, तब उसने मुझे नोंदसे जगा दिया। इस प्रकारको अत्यन्त भयावनी नारीको मैंने स्वप्रमें देखा है। दितिपुत्रो! मैंने इस प्रकारका स्वप्न देखा है और यह भी देखा है कि यह स्वप्र असुरोंके लिये किस प्रकार कष्टदायक होगा। इसलिये यदि तुमलोग हमें अपना उचितरूपसे राजा मानते हो और यह समझते हो कि इनका कथन हितकारक होगा तो मन लगाकर मेरी बात सुनो। तुमलोग किसीकी असूया (झूठी निन्दा) मत करो। काम, क्रोध, ईर्ष्या, असूया आदि दुर्गुणोंको एकदम छोड़कर सत्य, दम, धर्म और मुनिमार्गका आश्रय लो। शान्तिदायक अनुष्ठानोंका प्रयोग करो और महेश्वरकी पूजा करो। सम्भवतः ऐसा करनेसे स्वप्रकी शान्ति हो जाय। असुरो! (ऐसा प्रतीत हो रहा है कि) त्रिनेत्रधारी देवाधिदेव भगवान् रुद्र निश्चय ही हमलोगोंपर कुपित हो गये हैं; क्योंकि हमारे त्रिपुरमें भविष्यमें घटित होनेवाली घटनाएँ अभीसे दीख पड़ रही हैं। अतः तुमलोग कलहका परित्याग तथा सरलताका आश्रय लेकर इस दुःस्वप्रके परिणामस्वरूप आनेवाले कालकी प्रतीक्षा करो' ॥ २३-३६ ॥

श्रुत्वा दाक्षायणीपुत्रा इत्येवं मयभाषितम्।
क्रोधेर्व्यावस्थया युक्ता दृश्यन्ते च विनाशगाः ॥ ३७

विनाशमुपपश्यन्तो हालक्ष्म्याध्यापितासुराः ।
तत्रैव दृष्ट्वा तेऽन्योन्यं संक्रोधापूरितेक्षणाः ॥ ३८

अथ दैवपरिध्वस्ता दानवास्त्रिपुरालयाः ।
हित्वा सत्यं च धर्म च अकार्याण्युपचक्रमुः ॥ ३९

द्विषन्ति ब्राह्मणान् पुण्यान्न चार्चन्ति हि देवताः । 
गुरुं चैव न मन्यन्ते हान्योन्यं चापि चुकुधुः ॥ ४०

कलहेषु च सज्जन्ते स्वधर्मेषु हसन्ति च।
परस्परं च निन्दन्ति अहमित्येव वादिनः ॥ ४१

उच्चैर्गुरून् प्रभाषन्ते नाभिभाषन्ति पूजिताः ।
अकस्मात् सानुनयना जायन्ते च समुत्सुकाः ॥ ४२

दधिसक्तून् पयश्चैव कपित्थानि च रात्रिषु। 
भक्षयन्ति च शेरन्त उच्छिष्टाः संवृतास्तथा ॥ ४३

मूत्रं कृत्वोपस्पृशन्ति चाकृत्वा पादधावनम् । 
संविशन्ति च शय्यासु शौचाचारविवर्जिताः ॥ ४४

संकुचन्ति भयाच्चैव मार्जाराणां यथाऽऽखुकः ।
भार्थ्यां गत्वा न शुध्यन्ति रहोवृत्तिषु निस्त्रपाः ।। ४५

पुरा सुशीला भूत्वा च दुःशीलत्वमुपागताः ।
देवांस्तपोधनांश्चैव बाधन्ते त्रिपुरालयाः ॥ ४६

मयेन वार्यमाणापि ते विनाशमुपस्थिताः ।
विप्रियाण्येव विप्राणां कुर्वाणाः कलहैषिणः ।। ४७

वैभ्राजं नन्दनं चैव तथा चैत्ररथं वनम् ।
अशोकं च वराशोकं सर्वर्तुकमथापि च ॥ ४८

स्वर्गं च देवतावासं पूर्वदेववशानुगाः ।
विध्वंसयन्ति संकुद्धास्तपोधनवनानि च ॥ ४९

विध्वस्तदेवायतनाश्रमं च सम्भग्नदेवद्विजपूजकं तु।
जगद्वभूवामरराजदुष्ट- रभिद्रुतं सस्यमिवालिवृन्दैः ॥ ५०

इस प्रकार मयदानवका भाषण सुनकर सभी दानव क्रोध और ईर्ष्याके वशीभूत हो गये तथा विनाशकी ओर जाते हुए-से दीखने लगे। अलक्ष्मीद्वारा प्रभावित हुए वे असुर अपने भावी विनाशको संनिकट देखते हुए भी परस्पर एक-दूसरेकी ओर देखकर वहीं क्रोधसे भर गये। उनकी आँखें लाल हो गयीं। तदनन्तर दैव (भाग्य)- से परिच्युत हुए त्रिपुरनिवासी दानव सत्य और धर्मका परित्याग कर निन्द्य कर्मोंमें प्रवृत्त हो गये। वे पवित्र ब्राह्मणोंसे द्वेष करने लगे। उन्होंने देवताओंकी अर्चना छोड़ दी। वे गुरुजनोंका मान नहीं करते थे और  परस्पर क्रोधपूर्ण व्यवहार करने लगे। वे कलहमें प्रवृत्त होकर अपने धर्मका उपहास करने लगे और 'मैं ही सब कुछ हूँ' ऐसा कहते हुए परस्पर एक- दूसरेकी निन्दा करने लगे। वे गुरुजनोंसे कड़े शब्दोंमें बोलते थे। स्वयं सत्कृत होनेपर भी उन्होंने अपनेसे नीची कोटिवालोंसे बोलना भी छोड़ दिया। उनकी आँखोंमें अकस्मात् आँसू उमड़ आते थे और वे उत्कण्ठित से जो जाते थे। वे रातमें दही, सत्तू, दूध और कैथका फल खाने लगे। जूठे मुँह रहकर घिरे हुए स्थानमें शयन करने लगे। 
उनका शौचाचार ऐसा विनष्ट हो गया कि वे मूत्र त्यागकर जलका स्पर्श तो करते, परंतु बिना पैर धोये ही बिछौनोंपर शयन करने लगे। वे अकस्मात् भयसे इस प्रकार संकुचित हो जाते थे, जैसे बिलावको देखकर चूहे हो जाते हैं। उन्होंने स्त्री-सहवासके बाद शरीरकी शुद्धि करना छोड़ दिया और गोपनीय कार्योंमें भी निर्लज्ज हो गये। वे त्रिपुरनिवासी दैत्य पहले सुशील थे, पर अब बड़े क्रूर हो गये तथा देवताओं और तपस्वियोंको कष्ट देने लगे। मयके मना करनेपर भी वे विनाशकी ओर बढ़ने लगे। उनके मनमें कलहकी इच्छा जाग उठी, जिससे वे ब्राह्मणोंका अपकार ही करते थे। इस प्रकार जो पहले देवताओंके वशीभूत थे, वे दानवगण सम्प्रति त्रिपुरका आश्रय पानेसे संक्रुद्ध होकर वैभ्राजके नन्दन, चैत्ररथ, अशोक, वराशोक, सर्वर्तुक आदि वनों, देवताओंके निवास स्थान स्वर्ग तथा तपस्वियोंके वनोंका विध्वंस करने लगे। उस समय देव मन्दिर और आश्रम नष्ट कर दिये गये। देवताओं और ब्राह्मणोंके उपासक मार डाले गये। इस प्रकार देवराज इन्द्रके शत्रुओंद्वारा विध्वस्त किया हुआ जगत् ऐसा लगने लगा, जैसे टिड्डीदलों द्वारा नष्ट की हुई अन्नको फसल हो ॥ ३७-५० ॥

इति श्रीमात्ये महापुराणे त्रिपुरोपाख्याने दुःस्वप्नदर्शनं नामैकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३१ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके त्रिपुरोपाख्यानमें दुःस्वप्र दर्शन नामक एक सौ इकतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १३१ ॥

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