मत्स्य पुराण एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय
त्रिपुर-विध्वं सार्थ शिव जी के विचित्र रथ का निर्माण और देवता ओं के साथ उनका युद्ध के लिये प्रस्थान
सूत उवाच
ब्रह्माद्यैः स्तूयमानस्तु देवैर्देवो महेश्वरः।
प्रजापतिमुवाचेदं देवानां क्व भयं महत् ॥ १
सूतजी कहते हैं ऋषियो! ब्रह्मा आदि देवताओंद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर देवाधिदेव महेश्वरने प्रजापति ब्रह्मासे यह कहा- अरे। १
भो देवाः स्वागतं वोऽस्तु ब्रूत यद् वो मनोगतम् ।
तावदेव प्रयच्छामि नास्त्यदेयं मया हि वः ॥ २
युष्माकं नितरां शं वै कर्ताहं विबुधर्षभाः ।
चरामि महदत्युग्रं यच्चापि परमं तपः ॥ ३
विद्विष्टा वो मम द्विष्टाः कष्टाः कष्टपराक्रमाः ।
तेषामभावः सम्पाद्यो युष्माकं भव एव च ॥ ४
एवमुक्तास्तु देवेन प्रेम्णा सब्रह्मकाः सुराः।
रुद्रमाहुर्महाभागं भागार्हाः सर्व एव ते ॥ ५
भगवंस्तैस्तपस्तप्तं रौद्रं रौद्रपराक्रमैः ।
असुरैर्वध्यमानाः स्म वयं त्वां शरणं गताः ॥ ६
मयो नाम दितेः पुत्रत्रिनेत्र कलहप्रियः ।
त्रिपुरं येन तदुर्ग कृतं पाण्डुरगोपुरम् ॥ ७
तदाश्रित्य पुरं दुर्गं दानवा वरनिर्भयाः।
बाधन्तेऽस्मान् महादेव प्रेष्यमस्वामिनं यथा ॥ ८
उद्यानानि च भग्नानि नन्दनादीनि यानि च।
वराश्चाप्सरसः सर्वा रम्भाद्या दनुजैर्हताः ॥ ९
इन्द्रस्य वाह्याश्च गजाः कुमुदाञ्जनवामनाः ।
ऐरावताद्यापहृता देवतानां महेश्वर ॥ १०
ये चेन्द्ररथमुख्याश्च हरयोऽपहृतासुरैः।
जाताश्च दानवानां ते रथयोग्यास्तुरङ्गमाः ॥ ११
ये रथा ये गजाश्चैव याः स्त्रियो वसु यच्च नः।
तन्नो व्यपहृतं दैत्यैः संशयो जीविते पुनः ॥ १२
आप देवताओंको यह महान् भय कहाँसे आया? देवगण ! आपलोगोंका स्वागत है। आपलोगोंके मनमें जो अभिलाषा हो, उसे कहिये। मैं उसे अवश्य प्रदान करूंगा; क्योंकि आपलोगोंके लिये मुझे कुछ भी अदेय नहीं है। श्रेष्ठ देवगण! मैं सदा आपलोगोंका कल्याण ही करता रहता हूँ। यहाँतक कि जो महान्, अत्यन्त उग्र एवं घोर तप करता हूँ, वह भी आपलोगोंके लिये ही करता हूँ। जो आपलोगोंसे विद्वेष करते हैं, वे मेरे भी घोर शत्रु हैं। इसलिये जो आपलोगोंको कष्ट देनेवाले हैं, वे कितने ही घोर पराक्रमी क्यों न हों, मुझे उनका अन्त और आपका श्रेयः सम्पादन करना है।' महादेवजीद्वारा प्रेमपूर्वक इस प्रकार कहे जानेपर ब्रह्मासहित समस्त भाग्यशाली देवताओंने महाभाग शङ्करजीसे कहा-' भगवन् ! भयंकर पराक्रमी उन असुरोंने अत्यन्त भीषण तप किया है,
जिसके प्रभावसे वे हमें काट दे रहे हैं। इसलिये हमलोग आपकी शरणमें आये हैं। त्रिलोचन (आप तो जानते ही हैं) दितिका पुत्र मय स्वभावतः कलहप्रिय है। उसने ही पीले रंगके फाटकवाले उस त्रिपुर नामक दुर्गका निर्माण किया है। उस त्रिपुरदुर्गका आश्रय लेकर दानव वरदानके प्रभावसे निर्भय हो गये हैं। महादेव! वे हमलोगोंको इस प्रकार कष्ट दे रहे हैं, मानो अनाथ नौकर हों। उन दानवोंने नन्दन आदि जितने उद्यान थे, उन सबको विनष्ट कर दिया तथा रम्भा आदि सभी श्रेष्ठ अप्सराओंका अपहरण कर लिया। महेश्वर! वे इन्द्रके वाहन तथा दिशागज कुमुद, अञ्जन, वामन और ऐरावत आदि गजेन्द्रोंको भी छीन ले गये। इन्द्रके रथमें जुतनेवाले जो मुख्य अश्व थे, उन्हें भी वे असुर हरण कर ले गये और अब वे घोड़े दानवोंके रथमें जोते जाते हैं। (कहाँतक कहें) हमलोगोंके पास जितने रथ, जितने हाथी, जितनी स्त्रियाँ और जो कुछ भी धन था, हमारा वह सब दैत्योंने अपहरण कर लिया है और अब हमलोगोंके जीवनमें भी सन्देह उत्पन्न हो गया हैं' ॥ २-१२॥
त्रिनेत्र एवमुक्तस्तु देवैः शक्रपुरोगमैः ।
उवाच देवान् देवेशो वरदो वृषवाहनः ॥ १३
व्यपगच्छतु वो देवा महद् दानवजं भयम्।
तदहं त्रिपुरं धक्ष्ये क्रियतां यद् ब्रवीमि तत् ॥ १४
यदीच्छथ मया दग्धुं तत्पुरं सहदानवम् ।
रथमौपयिकं महां सज्जयध्वं किमास्यते ॥ १५
दिग्वाससा तथोक्तास्ते सपितामहकाः सुराः ।
तथेत्युक्त्वा महादेवं चक्रुस्ते रथमुत्तमम् ॥ १६
धरां कूबरकौ द्वौ तु रुद्रपार्श्वचरावुभौ।
अधिष्ठानं शिरो मेरोरक्षो मन्दर एव च ॥ १७
चकुश्चन्द्रं च सूर्य च चक्रं काञ्चनराजते।
कृष्णपक्षं शुक्लपक्षं पक्षद्वयमपीश्वराः ॥ १८
रथनेमिद्वयं चकुर्देवा ब्रह्मपुरःसराः ।
आदिद्वयं पक्षयन्त्रं यन्त्रमेताश्च देवताः ॥ १९
कम्बलाश्वतराभ्यां च नागाभ्यां समवेष्टितम् ।
भार्गवश्चाङ्गिराश्चैव बुधोऽङ्गारक एव च ॥ २०
शनैश्चरस्तथा चात्र सर्वे ते देवसत्तमाः ।
वरूथं गगनं चकुश्चारुरूपं रथस्य ते ॥ २९
कृतं द्विजिह्वनयनं त्रिवेणुं शातकौम्भिकम्।
मणिमुक्तेन्द्रनीलैश्च वृतं हृष्टमुखैः सुरैः ॥ २२
इन्द्र आदि देवताओंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर त्रिनेत्रधारी, वरदायक, वृषवाहन, देवेश्वर शङ्करने देवताओंसे कहा- 'देवगण! अब आपलोगोंका दानवोंसे उत्पन्न हुआ महान् भय दूर हो जाना चाहिये। मैं उस त्रिपुरको जला डालूँगा, किंतु मैं जो कह रहा हूँ, वैसा उपाय कीजिये। यदि आपलोग मेरे द्वारा दानवोंसहित उस त्रिपुरको जला देनेकी इच्छा रखते हैं तो मेरे लिये समस्त साधनोंसे सम्पन्न एक रथ सुसज्जित कीजिये। अब देर मत कीजिये।' दिग्वासा शङ्करजीद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर ब्रह्मासहित उन देवताओंने महादेवजीसे 'बहुत अच्छा' कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। फिर तो वे एक उत्तम रथका निर्माण करनेमें लग गये। उन्होंने पृथ्वीको रथ, रुद्रके दो पार्श्वचरोंको, दोनों कूबर मेरुको रथका शिरः- स्थान और मन्दरको धुरा बनाया। सूर्य और चन्द्रमा रथके सोने-चाँदीके दोनों पहिये बनाये गये। ब्रह्मा आदि ऐश्वर्यशाली देवोंने शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष-दोनोंसे रथकी दोनों नेमियाँ बनायीं। देवताओंने कम्बल और अश्वतर नामक नागोंसे परिवेष्टित कर दोनों बगलके पक्ष- यन्त्र बनाये। शुक्र, बृहस्पति, बुध, मङ्गल तथा शनैश्चर ये सभी देवश्रेष्ठ उसपर विराजित हुए। उन देवताओंने गगन-मण्डलको रथका सौन्दर्यशाली वरूथ बनाया। सपौके नेत्रोंसे उसका त्रिवेणु बनाया गया, जो सुवर्ण-सा चमक रहा था। वह मणि, मुक्ता और इन्द्रनील मणिके समान आठ प्रधान देवताओंसे घिरा था॥ १३-२२॥
गङ्गा सिन्धुः शतहुश्च चन्द्रभागा इरावती।
वितस्ता च विपाशा च यमुना गण्डकी तथा ॥ २३
सरस्वती देविका च तथा च सरयूरपि।
एताः सरिद्वराः सर्वा वेणुसंज्ञा कृता रथे ॥ २४
धृतराष्ट्राश्च ये नागास्ते च रश्म्यात्मकाः कृताः ।
वासुकेः कुलजा ये च ये च रैवतवंशजाः ॥ २५
ते सर्फ दर्पसम्पूर्णाश्चापतूणेष्वनूनगाः ।
अवतस्थुः शरा भूत्वा नानाजातिशुभाननाः ॥ २६
सुरसा सरमा कद्रूर्विनता शुचिरेव च।
तृषा बुभुक्षा सर्वोग्रा मृत्युः सर्वशमस्तथा ।। २७
ब्रह्मवघ्या च गोवध्या बालवध्या प्रजाभयाः ।
गदा भूत्वा शक्तयश्च तदा देवरथेऽभ्ययुः ॥ २८
युगं कृतयुगं चात्र चातुर्होत्रप्रयोजकाः ।
चतुर्वर्णाः सलीलाश्च बभूवुः स्वर्णकुण्डलाः ॥ २९
तद्युगं युगसंकाशं रथशीर्षे प्रतिष्ठितम्।
धृतराष्ट्रेण नागेन बद्धं बलवता महत् ॥ ३०
ऋग्वेदः सामवेदश्च यजुर्वेदस्तथापरः ।
वेदाश्चत्वार एवैते चत्वारस्तुरगाऽभवन् ॥ ३१
अन्नदानपुरोगाणि यानि दानानि कानिचित्।
तान्यासन् वाजिनां तेषां भूषणानि सहस्त्रशः ।। ३२
पद्मद्वयं तक्षकश्च कर्कोटकधनञ्जयौ।
नागा बभूवुरेवैते हयानां वालबन्धनाः ॥ ३३
ओङ्कारप्रभवास्ता वा मन्त्रयज्ञक्रतुक्रियाः ।
उपद्रवाः प्रतीकाराः पशुबन्धेष्टयस्तथा ॥ ३४
यज्ञोपवाहान्येतानि तस्मिल्लोकरथे शुभे।
मणिमुक्ताप्रवालैस्तु भूषितानि सहस्रशः ।। ३५
प्रतोदोङ्कार एवासीत्तदयं च वषट्कृतम्।
सिनीवाली कुहू राका तथा चानुमतिः शुभा ॥ ३६
योक्त्राण्यासंस्तुरङ्गाणामपसर्पणविग्रहाः ॥ ३७
कृष्णान्यथ च पीतानि श्वेतमाञ्जिष्ठकानि च।
अवदाताः पताकास्तु बभूवुः पवनेरिताः ॥ ३८
ऋतुभिश्च कृतः षड्भिर्धनुः संवत्सरोऽभवत् ।
अजरा ज्याभवच्चापि साम्बिका धनुषो दृढा ॥ ३९
कालो हि भगवान् रुद्रस्तं च संवत्सरं विदुः ।
तस्मादुमा कालरात्रिर्धनुषो ज्याजराभवत् ॥ ४०
सगर्भ त्रिपुरं येन दग्धवान् स त्रिलोचनः ।
स इषुर्विष्णुसोमाग्नित्रिदैवतमयोऽभवत् ॥ ४१
आननं ह्यग्ग्रिरभवच्छल्यं सोमस्तमोनुदः ।
तेजसः समवायोऽथ चेषोस्तेजो रथाङ्गधृक् ॥ ४२
तस्मिश्च वीर्यवृद्धयर्थं वासुकिर्नागपार्थिवः ।
तेजः संवसनार्थं वै मुमोचातिविषो विषम् ॥ ४३
गङ्गा, सिन्धु, शतहु, चन्द्रभागा, इरावती, वितस्ता, विपाशा, यमुना, गण्डकी, सरस्वती, देविका तथा सरयू - इन सभी श्रेष्ठ नदियोंको उस रथमें वेणुस्थानपर नियुक्त किया गया। धृतराष्ट्रके वंशमें उत्पन्न होनेवाले जो नाग थे, वे बाँधनेके लिये रस्सी बने हुए थे। जो वासुकि और रैवतके वंशमें उत्पन्न होनेवाले नाग थे, वे सभी दर्पसे पूर्ण और शीघ्रगामी होनेके कारण नाना प्रकारके सुन्दर मुखवाले बाण बनकर धनुषके तरकसोंमें अवस्थित हुए। सबसे उग्र स्वभाववाली सुरसा, देवशुनी, सरमा, कडू, विनता, शुचि, तृषा, बुभुक्षा तथा सबका शमन करनेवाली मृत्यु, ब्रह्महत्या, गौहत्या, बालहत्या और प्रजाभय-ये सभी उस समय गदा और शक्तिका रूप धारण कर उस देवरथमें उपस्थित हुईं। कृतयुगका जूआ बनाया गया। चातुर्होत्र यज्ञके प्रयोजक लीलासहित चारों वर्ण स्वर्णमय कुण्डल हुए। उस युग-सदृश जूएको रथके शीर्षस्थानपर रखा गया और उसे बलवान् धृतराष्ट्र नागद्वारा कसकर बाँध दिया गया। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद- ये चारों वेद चार घोड़े हुए।
अन्नदान आदि जितने प्रमुख दान हैं, वे सभी उन घोड़ोंके हजारों प्रकारके आभूषण बने। पद्मद्वय, तक्षक, कर्कोटक, धनञ्जय-ये नाग उन घोड़ोंके बाल बाँधनेके लिये रस्सी हुए। ओंकारसे उत्पन्न होनेवाली मन्त्र, यज्ञ और क्रतुरूप क्रियाएँ, उपद्रव, उनकी शान्तिके लिये प्रायश्चित्त, पशुबन्ध आदि इष्टियाँ, यज्ञोपवीत आदि संस्कार ये सभी उस सुन्दर लोकरथमें शोभा- वृद्धिके लिये मणि, मुक्ता और मूँगेके रूपमें उपस्थित हुए। ओंकारका चाबुक बना और वषट्कार उसका अग्रभाग हुआ। सिनीवाली (चतुर्दशीय अमा), कुहू (अमावास्याकी अधिष्ठात्री देवी), राका (शुद्ध पूर्णिमा तिथि) तथा शुभदायिनी अनुमति (प्रतिपदयुक्ता पूर्णिमा)- ये सभी घोड़ोंको रथमें जोतनेके लिये रस्सियाँ और बागडोर बनीं। उसमें काले, पीले, श्वेत और लाल रंगकी निर्मल पताकाएँ लगी थीं, जो वायुके वेगसे फहरा रही थीं। छहों ऋतुओंसहित संवत्सरका धनुष बनाया गया। अम्बिकादेवी उस धनुषकी कभी जीर्ण न होनेवाली सुदृढ़ प्रत्यञ्चा हुई। भगवान् रुद्र कालस्वरूप हैं। उन्हींको संवत्सर कहा जाता है, इसी कारण अम्बिकादेवी कालरात्रिरूपसे उस धनुषको कभी न कटनेवाली प्रत्यञ्चा बनीं। त्रिलोचन भगवान् शङ्कर जिस बाणसे अन्तर्भागसहित त्रिपुरको जलानेवाले थे, वह श्रेष्ठ बाण विष्णु, सोम, अग्नि-इन तीनों देवताओंके संयुक्त तेजसे निर्मित हुआ था। उस बाणका मुख अग्नि और फाल अन्धकारविनाशक चन्द्रमा थे। चक्रधारी विष्णुका तेज समूचे बाणमें व्याप्त था। इस प्रकार वह बाण तेजका समन्वित रूप था। उस बाणपर नागराज वासुकिने उसके पराक्रमकी वृद्धि एवं तेजकी स्थिरताके लिये अत्यन्त उग्र विष उगल दिया था॥ २३-४३ ॥4
कृत्वा देवा रथं चापि दिव्यं दिव्यप्रभावतः ।
लोकाधिपतिमभ्येत्य इदं वचनमब्रुवन् ॥ ४४
संस्कृतोऽयं रथोऽस्माभिस्तव दानवशत्रुजित् ।
इदमापत्परित्राणं देवान् सेन्द्रपुरोगमान् ॥ ४५
तं मेरुशिखराकारं त्रैलोक्यरथमुत्तमम्।
प्रशस्य देवान् साध्विति रथं पश्यति शङ्करः ॥ ४६
मुहुर्दृष्ट्वा रथं साधु साध्वित्युक्त्वा मुहुर्मुहुः ।
उवाच सेन्द्रानमरानमराधिपतिः स्वयम् ॥ ४७
यादृशोऽयं रथः क्लृप्तो युष्माभिर्मम सत्तमाः ।
ईदृशो रथसम्पत्त्या यन्ता शीघ्रं विधीयताम् ॥ ४८
इत्युक्ता देवदेवेन देवा विद्धा इवेषुभिः ।
अवापुर्महतीं चिन्तां कथं कार्यमिति ब्रुवन् ॥ ४९
महादेवस्य देवोऽन्यः को नाम सदृशो भवेत्।
मुक्त्वा चक्रायुधं देवं सोऽप्यस्येषु समाश्रितः ॥ ५०
धुरि युक्ता इवोक्षाणो घटन्त इव पर्वतैः।
निःश्वसन्तः सुराः सर्वे कथमेतदिति बुवन् ॥ ५१
देवेष्वाह देवदेवो लोकनाथस्य धूर्गतान्।
अहं सारथिरित्युक्त्वा जग्राहाश्वांस्ततोऽग्रजः ॥ ५२
ततो देवैः सगन्धर्वैः सिंहनादो महान् कृतः ।
प्रतोदहस्तं सम्प्रेक्ष्य ब्रह्माणं सूततां गतम् ॥ ५३
भगवानपि विश्वेशो रथस्थे वै पितामहे ।
सदृशः सूत इत्युक्त्वा चारुरोह रथं हरः ॥ ५४
आरोहति रथं देवे ह्यश्वा हरभरातुराः ।
जानुभिः पतिता भूमौ रजोग्रासश्च ग्रासितः ॥ ५५
देवो दृष्ट्वाथ वेदांस्तानभीरुग्रहयान् भयात्।
उज्जहार पितॄनार्तान् सुपुत्र इव दुःखितान् ॥ ५६
ततः सिंहरवो भूयो बभूव रथभैरवः ।
जयशब्दश्च देवानां सम्बभूवार्णवोपमः ॥ ५७
इस प्रकार देवगण दिव्य प्रभावसे उस दिव्य रथका निर्माण कर लोकाधिपति शङ्करके निकट जाकर इस प्रकार बोले- दानवरूप शत्रुओंके विजेता भगवन्! हमलोगोंने आपके लिये इस रथकी रचना की है। यह इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवताओंकी आपत्तिसे रक्षा करेगा। सुमेरुगिरिके शिखरके समान उस उत्तम त्रैलोक्यरथको देखकर भगवान् शङ्करने उसकी प्रशंसा करके देवताओंकी प्रशंसा की और पुनः उस रथका निरीक्षण करने लगे। वे बार-बार रथके प्रत्येक भागको देखते और बार-बार उसकी प्रशंसा करते थे। तत्पश्चात् देवताओंके अधीश्वर स्वयं भगवान् शङ्करने इन्द्रसहित देवताओंसे कहा- 'देवगण आपलोगोंने जिस प्रकार मेरे लिये रथको सारी सामग्रियोंसे युक्त इस रथका निर्माण किया है, इसीकी मर्यादाके अनुकूल शीघ्र ही किसी सारथिका भी विधान कीजिये।' देवाधिदेव शङ्करके ऐसा कहनेपर देवगण ऐसे व्याकुल हो गये, मानो वे बाणोंसे बींध दिये गये हों।
उन्हें बड़ी चिन्ता हुई। वे कहने लगे कि अब क्या किया जाय। भला, चक्रधारी भगवान् विष्णुके अतिरिक्त दूसरा कौन देवता महादेवजीके सदृश हो सकता है, किंतु वे तो उनके बाणपर स्थित हो चुके हैं। यह सोचकर जैसे गाड़ीमें जुते हुए बैल पर्वतोंसे टकरा जानेपर हाँफने लगते हैं, वैसे ही सभी देवता लम्बी साँस लेने लगे और कहने लगे कि यह कार्य कैसे सिद्ध होगा? इतनेमें ही उन देवताओंके बीच देवदेव अग्रज ब्रह्मा बोल उठे-'सारथि मैं होऊँगा' ऐसा कहकर उन्होंने लोकनाथ शङ्करके रथमें जुते हुए घोड़ोंकी बागडोर पकड़ ली। उस समय ब्रह्माको हाथमें चाबुक लिये हुए सारथिके स्थानपर स्थित देखकर गन्धवाँसहित देवताओंने महान् सिंहनाद किया। तदनन्तर पितामह ब्रह्माको रथपर स्थित देखकर विश्वेश्वर भगवान् शङ्कर' उपयुक्त सारथि मिला' ऐसा कहकर रथपर आरूढ़ हुए। भगवान् शंकरके रचपर चढ़ते ही घोड़े उनके भारसे व्याकुल हो गये। वे घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़े और उनके मुखमें धूल भर गयी। इस प्रकार जब शङ्करजीने देखा कि अश्वरूपधारी वेद भयवश भूमिपर गिर पड़े हैं, तब उन्होंने उन्हें उसी प्रकार उठाया, जैसे सुपुत्र आर्त एवं दुःखी पितरोंका उद्धार करता है। तत्पश्चात् रथकी भयंकर घरघराहटके साथ सिंहनाद होने लगा। देवगण समुद्र की गर्जनाके समान जय-जयकार करने लगे ॥ ४४-५७ ॥
तदोङ्कारमयं गृह्य प्रतोदं वरदः प्रभुः।
स्वयम्भूः प्रययौ वाहाननुमन्त्र्य यथाजवम् ॥ ५८
ग्रसमाना इवाकाशं मुष्णन्त इव मेदिनीम्
मुखेभ्यः ससृजुः श्वासानुच्छ्वसन्त इवोरगाः ।। ५९
स्वयम्भुवा चोद्यमानाश्चोदितेन कपर्दिना।
व्रजन्ति तेऽश्वा जवनाः क्षयकाल इवानिलाः ॥ ६०
ध्वजोच्छ्रयविनिर्माणे ध्वजयष्टिमनुत्तमाम् ।
आक्रम्य नन्दीवृषभस्तस्थौ तस्मिञ्छिवेच्छया ।। ६१
भार्गवाङ्गिरसौ देवौ दण्डहस्तौ रविप्रभौ।
रथचक्रे तु रक्षेते रुद्रस्य प्रियकाङ्क्षिणौ ॥ ६२
शेषश्च भगवान् नागोऽनन्तोऽनन्तकरोऽरिणाम् ।
शरहस्तो रथं पाति शयनं ब्रह्मणस्तदा ॥ ६३
यमस्तूर्ण समास्थाय महिषं चातिदारुणम्।
द्रविणाधिपतिव्र्व्यालं सुराणामधिपो द्विपम् ॥ ६४
मयूरं शतचन्द्रं च कूजन्तं किन्नरं यथा।
गुह आस्थाय वरदो जुगोप तं रथं पितुः ॥ ६५
नन्दीश्वरश्च भगवाशूलमादाय दीप्तिमान् ।
पृष्ठतश्चापि पार्श्वभ्यां लोकस्य क्षयकूद् यथा ।। ६६
प्रमथाश्चाग्निवर्णाभाः साग्निज्वाला इवाचलाः ।
अनुजग्मू रथं शार्वं नक्रा इव महार्णवम् ॥ ६७
भृगुर्भरद्वाजवसिष्ठगौतमाःक्रतुः पुलस्त्यः पुलहस्तपोधनाः ।
मरीचिरत्रिर्भगवानथाङ्गिराः पराशरागस्त्यमुखा महर्षयः ।। ६८
हरमजितमजं प्रतुष्टुवुर्वचन- विशेषैर्विचित्रभूषणैः ।
रथस्त्रिपुरे सकाञ्चनाचलो व्रजति सपक्ष इवाद्रिरम्बरे ॥६९
करिगिरिरविमेघसंनिभाः सजलपयोदनिनादनादिनः ।
प्रमथगणाः परिवार्य देवगुप्तं रथमभितः प्रययुः स्वदर्पयुक्ताः ॥ ७०
मकरतिमितिर्मिगिलावृतः प्रलय इवातिसमुद्धतोऽर्णवः ।
व्रजति रथवरोऽतिभास्वरो ह्यशनिनिपातपयोदनिःस्वनः ॥ ७१
तदनन्तर सामर्थ्यशाली वरदायक ब्रह्मा ओंकारमय चाबुकको हाथमें लेकर घोड़ोंको पुचकारते हुए पूर्ण वेगसे आगे बढ़े। फिर तो वे घोड़े पृथ्वीको अपने साथ समेटते तथा आकाशको ग्रसते हुएकी तरह बड़े वेगसे दौड़ने लगे। उनके मुखोंसे ऐसे दीर्घ निःश्वास निकल रहे थे, मानो फुफकारते हुए सर्प हों। शङ्करजीकी प्रेरणासे ब्रह्माद्वारा हाँके जाते हुए वे घोड़े प्रलयकालिक वायुकी तरह अत्यन्त वेगसे दौड़ रहे थे। शिवजीकी इच्छासे उस रथमें ध्वजको ऊँचा उठानेमें निपुण नन्दी वृषभ उस अनुपम ध्वजयष्टिके ऊपर स्थित हुए। सूर्यके समान प्रभावशाली शुक्र और बृहस्पति- ये दोनों देवता हाथमें दण्ड धारण करके रुद्रका प्रिय करनेकी इच्छासे रथके पहियोंकी रक्षा कर रहे थे। उस समय शत्रुओंका समूल विनाश करनेवाले अनन्त भगवान् शेषनाग हाथमें बाण धारण कर रथकी तथा ब्रह्माके आसनकी रक्षामें जुटे हुए थे। यमराज तुरंत अपने अत्यन्त भयंकर भैंसेपर, कुबेर सौंपपर और देवराज इन्द्र ऐरावत हाथीपर चढ़कर आगे बढ़े। वरदायक गुह कार्तिकेय सैकड़ों चन्द्रवाले तथा किंनरकी भाँति कूजते हुए अपने मयूरपर सवार होकर पिताके उस रथकी रक्षा कर रहे थे।
तेजस्वी भगवान् नन्दीश्वर शूल लेकर रथके पीछेसे दोनों पार्श्वभागोंकी रक्षा करते थे। उस समय वे ऐसा प्रतीत होते थे, मानो लोकका विनाश कर देना चाहते हों। अग्निके समान कान्तिमान् प्रमथगण, जो अग्निकी लपटोंसे युक्त पर्वत-सदृश दीख रहे थे, शङ्करजीके रथके पीछे चलते हुए ऐसे लगते थे जैसे महासागरमें नाकगण तैर रहे हों। भृगु, भरद्वाज, वसिष्ठ, गौतम, क्रतु, पुलस्त्य, पुलह, मरीचि, अत्रि, अङ्गिरा, पराशर, अगस्त्य ये सभी तपस्वी एवं ऐश्वर्यशाली महर्षि विचित्र छन्दालंकारोंसे विभूषित उत्कृष्ट वचनोंद्वारा अजन्मा एवं अजेय शङ्करकी स्तुति कर रहे थे। सुमेरुगिरिके पंखधारी पर्वतकी तरह त्रिपुरकी ओर बढ़ रहा था। हाथी, पर्वत, सूर्य और मेघके समान कान्तिवाले प्रमथगण जलधर बादलकी भाँति गर्जना करते हुए बड़े गर्वक साथ देवताओंद्वारा सब ओरसे सुरक्षित उस रथके पीछे-पीछे चल रहे थे। वह अत्यन्त उद्दीत श्रेष्ठ रथ प्रलयकालमें मकर, तिमि (एक प्रकारके महामत्स्य) और तिमिंगिलों (उसे निगलनेवाले महामत्स्य) से व्याप्त भयंकर रूपसे उमड़े हुए समुद्रकी तरह आगे बढ़ रहा था। उससे वज्रपातकी तरह गड़गड़ाहट और बादलकी गर्जनाके सदृश शब्द हो रहा था ॥ ५८-७१ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे त्रिपुरदाहे रथप्रयाणं नाम त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३३ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके त्रिपुरदाह-प्रसङ्गमें रथप्रयाण नामक एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १३३ ॥
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