मत्स्य पुराण एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय
त्रिपुरवासी दैत्यों का अत्याचार, देवता ओं का ब्रह्मा की शरण में जाना और ब्रह्मा सहित शिव जी के पास जाकर उनकी स्तुति करना
सूत उवाच
अशीलेषु प्रदुष्टेषु दानवेषु दुरात्मसु ।
लोकेषूत्साद्यमानेषु तपोधनवनेषु च ॥ १
सूतजी कहते हैं- ऋषियो! त्रिपुरनिवासी दानवोंका शील तो भ्रष्ट ही हो गया था, उनमें दुष्टता भी कूट- कूटकर भर गयी थी। उन दुरात्माओंने लोकों एवं तपोवनोंका विनाश करना आरम्भ किया। १
सिंहनादे व्योमगानां तेषु भीतेषु जन्तुषु।
त्रैलोक्ये भयसम्मूढे तमोऽन्धत्वमुपागते ॥ २
आदित्या वसवः साध्याः पितरो मरुतां गणाः ।
भीताः शरणमाजग्मुर्ब्रह्माणं प्रपितामहम् ॥ ३
ते तं स्वर्णोत्पलासीनं ब्रह्माणं समुपागताः ।
नेमुरूचुश्च सहिताः पञ्चास्यं चतुराननम् ॥ ४
वरगुप्तास्तवैवेह दानवास्त्रिपुरालयाः ।
बाधन्तेऽस्मान् यथा प्रेष्याननुशाधि ततोऽनघ ॥ ५
मेघागमे यथा हंसा मृगाः सिंहभयादिव।
दानवानां भयात् तद्वद् भ्रमामो हि पितामह ॥ ६
पुत्राणां नामधेयानि कलत्राणां तथैव च।
दानवैर्भाम्यमाणानां विस्मृतानि ततोऽनघ ॥ ७
देववेश्मप्रभङ्गाश्च आश्रमभ्रंशनानि च।
दानवैर्लोभमोहान्धैः क्रियन्ते च भ्रमन्ति च ॥ ८
यदि न त्रायसे लोकं दानवैर्विद्रुतं द्रुतम्।
धर्षेणानेन निर्देवं निर्मनुष्याश्रमं जगत् ॥ ९
वे आकाशमें जाकर सिंहनाद करते, जिसे सुनकर सारे जीव-जन्तु भयभीत हो जाते थे। इस प्रकार जब सारी त्रिलोकी भयके कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी और सर्वत्र अन्धकार- सा छा गया, तब भयसे डरे हुए आदित्य, वसु, साध्य, पितृ-गण और मरुद्रण ये सभी संगठित होकर प्रपितामह ब्रह्माकी शरणमें पहुँचे। वहाँ पञ्चमुख ब्रह्मा स्वर्णमय कमलासनपर आसीन थे। ये देवगण उनके निकट जाकर उन्हें नमस्कार कर (दानवोंके अत्याचारका) वर्णन करने लगे- 'निष्पाप पितामह। त्रिपुरनिवासी दानव आपके ही वरदानसे सुरक्षित होकर हमलोगोंको सेवकोंकी तरह कष्ट दे रहे हैं, अतः आप उन्हें मना कीजिये। पितामह! जैसे बादलोंके उमड़नेपर हंस और सिंहकी दहाड़से मृग भयभीत होकर भागने लगते हैं, उसी प्रकार दानवोंके भयसे हमलोग इधर-उधर लुक-छिप रहे हैं। पापरहित ब्रह्मन् ! यहाँतक कि दानवोंद्वारा खदेड़े जानेके कारण हमलोगोंको अपने पुत्रों तथा पनियोंके नामतक भूल गये हैं। लोभ एवं मोहसे अंधे हुए दानवगण देवताओंके निवासस्थानोंको तोड़ते- फोड़ते तथा ऋषियोंके आश्रमोंको विध्वस्त करते हुए घूम रहे हैं। यदि आप शीघ्र ही दानवोंद्वारा विध्वंस किये जाते हुए लोककी रक्षा नहीं करेंगे तो सारा जगत् देवता, मनुष्य और आश्रमसे रहित हो जायगा ॥२-९॥
इत्येवं त्रिदशैरुक्तः पद्मयोनिः पितामहः ।
प्रत्याह त्रिदशान् सेन्द्रानिन्दुतुल्याननः प्रभुः ॥ १०
मयस्य यो वरो दत्तो मया मतिमतां वराः।
तस्यान्त एष सम्प्राप्तो यः पुरोक्तो मया सुराः ॥ ११
तच्च तेषामधिष्ठानं त्रिपुरे त्रिदशर्षभाः।
एकेषुपातमोक्षेण हन्तव्यं नेषुवृष्टिभिः ॥ १२
भवतां च न पश्यामि कमप्यत्र सुरर्षभाः।
यस्तु चैकप्रहारेण पुरं हन्यात् सदानवम् ॥ १३
त्रिपुरं नाल्पवीर्येण शक्यं हन्तुं शरेण तु।
एकं मुक्त्वा महादेवं महेशानं प्रजापतिम् ॥ १४
ते यूयं यदि अन्ये च क्रतुविध्वंसकं हरम्।
याचामः सहिता देवं त्रिपुरं स हनिष्यति ॥ १५
कृतः पुराणां विष्कम्भो योजनानां शतं शतम् ।
यथा चैकप्रहारेण हन्यते वै भवेन तु।
पुष्ययोगेन युक्तानि तानि चैकक्षणेन तु ॥ १६
ततो देवैश्च सम्प्रोक्तो यास्याम इति दुःखितैः ।
पितामहश्च तैः सार्धं भवसंसदमागतः ॥ १७
तं भवं भूतभव्येशं गिरिशं शूलपाणिनम्।
पश्यन्ति चोमया सार्थ नन्दिना च महात्मना ।। १८
अग्निवर्णमजं देवमग्निकुण्डनिभेक्षणम्।
अग्न्यादित्यसहस्त्राभमग्निवर्णविभूषितम् ॥ १९
चन्द्रावयवलक्ष्माणं चन्द्रसौम्यतराननम् ।
आगम्य तमजं देवमथ तं नीललोहितम् ॥ २०
स्तुवन्तो वरदं शम्भु गोपर्ति पार्वतीपतिम् ॥ २१
जब देवताओंने पद्मयोनि ब्रह्मासे इस प्रकार निवेदन किया, तब चन्द्रमाके समान गौरवर्ण मुखवाले सामर्थ्यशाली ब्रह्माने इन्द्रादि देवताओंसे कहा- 'बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ देवगण । मैंने मयको जो वर दिया था, उसका यह अन्त समय आ पहुँचा है, जिसे मैंने पहले ही उन लोगोंसे कह दिया था। श्रेष्ठ देवताओ। उनका निवासस्थान वह त्रिपुर तो एक ही बाणके प्रहारसे नष्ट हो जानेवाला है। उसपर बाण-वृष्टिकी आवश्यकता नहीं है, किंतु श्रेष्ठ देवगण ! मैं यहाँ तुमलोगोंमेंसे किसीको भी ऐसा नहीं देख रहा हूँ, जो एक ही बाणके आधातसे दानवोंसहित त्रिपुरको नष्ट कर सके। देवाधिदेव प्रजापति शङ्करके अतिरिक्त अन्य कोई अल्प पराक्रमी वीर एक ही बाणसे त्रिपुरका विनाश नहीं कर सकता। इसलिये यदि तुमलोग तथा अन्यान्य देवगण भी एक साथ होकर दक्ष-यज्ञके विध्वंसक भगवान् शङ्करके पास चलकर उनसे याचना करें तो वे त्रिपुरका विनाश कर देंगे।
इन पुराँका विष्कम्भ सौ-सौ योजनोंका बना हुआ है, अतः पुष्य नक्षत्रके योगमें जब ये तीनों एक साथ सम्मिलित होंगे, उसी क्षण भगवान् शङ्कर एक ही बाणके आधातसे इसका विध्वंस कर सकते हैं।' यह सुनकर दुःखित देवताओंने कहा कि 'हमलोग चलेंगे।' तब ब्रह्मा उन्हें साथ लेकर शङ्करजीकी सभामें आये। वहाँ उन्होंने देखा कि भूत एवं भविष्यके स्वामी तथा गिरिपर शयन करनेवाले त्रिशूलपाणि शङ्कर पार्वतीदेवी तथा महात्मा नन्दीके साथ विराजमान हैं। उन अजन्मा महादेवके शरीरका वर्ण अग्निके समान उद्दीत था। उनके नेत्र अग्निकुण्डके सदृश लाल थे। उनके शरीरसे सहस्रों अग्नियों और सूर्योके समान प्रभा छिटक रही थी। वे अग्रिके से रंगवाली विभूतिसे विभूषित थे। उनके ललाटपर बालचन्द्र शोभा पा रहा था और मुख (पूर्णिमाके) चन्द्रमासे भी अधिक सुन्दर दीख रहा था। तब देवगण उन अजन्मा नीललोहित महादेवके निकट गये और पशुपति, पार्वती-प्राणवल्लभ, वरदायक शम्भुकी इस प्रकार स्तुति करने लगे - ॥१०-२१॥
देवा ऊचुः
नमो भवाय शर्वाय रुद्राय वरदाय च।
पशूनां पतये नित्यमुग्राय च कपर्दिने ॥ २२
महादेवाय भीमाय त्र्यम्बकाय च शान्तये।
ईशानाय भयघ्नाय नमस्त्वन्धकघातिने ॥ २३
नीलग्रीवाय भीमाय वेधसे वेधसा स्तुते।
कुमारशत्रुनिघ्नाय कुमारजनकाय च ॥ २४
विलोहिताय धूम्राय वराय क्रथनाय च।
नित्यं नीलशिखण्डाय शूलिने दिव्यशायिने ।। २५
उरगाय त्रिनेत्राय हिरण्यवसुरेतसे ।
अचिन्त्यायाम्बिकाभत्रै सर्वदेवस्तुताय च ॥ २६
वृषध्वजाय मुण्डाय जटिने ब्रह्मचारिणे।
तप्यमानाय सलिले ब्रह्मण्यायाजिताय च ॥ २७
विश्वात्मने विश्वसृजे विश्वमावृत्य तिष्ठते।
नमोऽस्तु दिव्यरूपाय प्रभवे दिव्यशम्भवे ॥ २८
अभिगम्याय काम्याय स्तुत्यायार्थ्यांय सर्वदा।
भक्तानुकम्पिने नित्यं दिशते यन्मनोगतम् ॥ २९
देवताओंने कहा- भगवन्! आप भव-सृष्टिके उत्पादक और पालक, शर्व- प्रलयकालमें सबके संहारक, रुद्र- समस्त प्राणियोंके प्राणस्वरूप, बरद- वरप्रदाता, पशुपति समस्त जीवोंके स्वामी, उग्र-बहुत ऊँचे,एकादश रुद्रोंमेंसे एक और कपर्दी- जटाजूटधारी हैं, आपको नमस्कार है। आप महादेव देवताओंके भी पूज्य भीम- भयंकर, त्र्यम्बक- त्रिनेत्रधारी, एकादश रुद्रोंमें अन्यतम, शान्त- शान्तस्वरूप, ईशान- नियन्ता, भयघ्न- भयके विनाशक और अन्धकघाती- अन्धकासुरके वधकर्ताको प्रणाम है। नीलग्रीव- ग्रीवामें नील चिह्न धारण करनेवाले, भीम- भयदायक, वैधाः ब्रह्मस्वरूप, वेधसा स्तुतः - ब्रह्माजीके द्वारा स्तुत, कुमारशत्रुनिघ्न-कुमार कार्तिकेयके शत्रुओंको मारनेवाले, कुमारजनक- स्वामी कार्तिकके पिता, विलोहित- लाल रंगवाले, धूम्र- धूम्रवर्ण, वर-जगत्को ढकनेवाले, क्रथन- प्रलयकारी, नीलशिखण्ड- नीली जटावाले, शूली- त्रिशूलधारी, दिव्यशायी-दिव्य समाधिमें लीन रहनेवाले, उरग- सर्पधारी, त्रिनेत्र- तीन नेत्रोंवाले, हिरण्यवसुरेता-सुवर्ण आदि धनके उद्म-स्थान, अचिन्त्य-अतर्क्स, अम्बिकाभर्ता-पार्वतीपति, सर्वदेवस्तुत-सम्पूर्ण देवोंद्वारा स्तुत, वृषध्वज बैल चिह्नसे युक्त ध्वजावाले, मुण्ड-मुण्डधारी, जटी जटाधारी, ब्रह्मचारी- ब्रह्मचर्यसम्पन्न, सलिले तप्यमान- जलमें तपस्या करनेवाले, ब्रह्मण्य ब्राह्मण-भक्त, अजित अजेय, विश्वात्मा-विश्वके आत्मस्वरूप, विश्वसृक्- विश्वके स्रष्टा, विश्वमावृत्य तिष्ठते- संसारमें व्याप्त रहनेवाले, दिव्यरूप-दिव्यरूपवाले, प्रभु-सामर्थ्यशाली दिव्यशम्भु अत्यन्त मङ्गलमय, अभिगम्य-शरण लेने योग्य, काम्य- अत्यन्त सुन्दर, स्तुत्य- स्तवन करनेयोग्य, सर्वदा अर्घ्य-सदा पूजनीय, भक्तानुकम्पी-भक्तोंपर दया करनेवाले और यन्मनोगतं नित्यं दिशते- मनकी अभिलाषा पूर्ण करनेवालेको अभिवादन है ॥ २२-२९ ॥
इति श्रीमाल्ये महापुराणे त्रिपुरदाहे ब्रह्मादिसर्वदेवकृतमहेश्वरस्तवो नाम द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३२ ॥ इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके त्रिपुरदाह-प्रसङ्गमें ब्रह्मादि-सर्वदेवकृत महेश्वरस्तव नामक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १३२ ॥
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