अद्भुत शान्ति का वर्णन | adbhut shaanti ka varnan

मत्स्य पुराण दो सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय

अद्भुत शान्ति का वर्णन

मनुरुवाच

दिव्यान्तरिक्षभौमेषु या शान्तिरभिधीयते।
तामहं श्रोतुमिच्छामि महोत्पातेषु केशव ॥ १

मनुने पूछा- केशव । दिव्य, अन्तरिक्ष और पृथ्वीसम्बन्धी बड़े-बड़े अद्भुत उपद्रवोंके होनेपर जिस शान्तिका विधान किया जाता है, उसे मैं श्रवण करना चाहता हूँ ॥ १॥

मत्स्य उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि त्रिविधामद्भुतादिषु ।
विशेषेण तु भौमेषु शान्तिः कार्या तथा भवेत् ॥ २

अभया चान्तरिक्षेषु सौम्या दिव्येषु पार्थिव।
विजिगीषुः परं राजन् भूतिकामस्तु यो भवेत् ॥ ३

विजिगीषुः परानेवमभियुक्तस्तथा परैः।
तथाभिचारशङ्कायां शत्रूणामभिनाशने ॥ ४

भये महति सम्प्राप्ते अभया शान्तिरिष्यते ।
राजयक्ष्माभिभूतस्य क्षतक्षीणस्य चाप्यथ ॥ ५

सौम्या प्रशस्यते शान्तिर्यज्ञकामस्य चाप्यथ ।
भूकम्पे च समुत्पन्ने प्राप्ते चान्नक्षये तथा ॥ ६

अतिवृष्ट्यामनावृष्ट्यां शलभानां भयेषु च।
प्रमत्तेषु च चौरेषु वैष्णवी शान्तिरिष्यते ॥ ७

पशूनां मारणे प्राप्ते नराणामपि दारुणे।
भूतेषु दृश्यमानेषु रौद्री शान्तिस्तथेष्यते ॥ ८

वेदनाशे समुत्पन्ने जने जाते च नास्तिके।
अपूज्यपूजने जाते ब्राह्मी शान्तिस्तथेष्यते ॥ ९

भविष्यत्यभिषेके च परचक्रभयेऽपि च।
स्वराष्ट्रभेदेऽरिवधे रौद्री शान्तिः प्रशस्यते ॥ १०

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! अब मैं उत्पातोंके समय की जानेवाली तीनों प्रकारकी शान्तियाँ बतला रहा हूँ। उनमें विशेषरूपसे पृथ्वी सम्बन्धी महोत्पातेंकि अवसरपर शान्ति करनी चाहिये। राजन् ! अन्तरिक्ष-सम्बन्धी उत्पातोंके लिये अभया तथा दिव्य उत्पातोंके लिये सौम्या शान्ति करनी चाहिये। राजन्। जो विजयाभिलाषी तथा ऐश्वर्यकामी हो, उस शत्रुओंपर विजय पानेके इच्छुक, शत्रुओंद्वारा आक्रान्त, आभिचारिक कर्मोंकी शङ्कासे युक्त, शत्रुओंको विनष्ट करनेके लिये उद्यत राजाके लिये महान् भय उपस्थित होनेपर अभया शान्ति कही गयी है। राजयक्ष्मा रोगसे ग्रस्त, घावसे दुर्बल तथा यज्ञकी कामनावालेके लिये सौम्या शान्तिकी प्रशंसा की गयी है। भूकम्प आनेपर, अकाल पड़नेपर, अतिवृष्टि, अनावृष्टि एवं टिड्डियोंसे भय होनेपर, पागल और चोरसे भय उपस्थित होनेपर राजाको वैष्णवी शान्ति करानी चाहिये। पशुओं और मनुष्योंका भीषण संहार उपस्थित होनेपर तथा भूत-पिशाचादिके दिखायी देनेपर रौद्री शान्ति करानी चाहिये। वेदोंका विनाश उपस्थित होनेपर, लोगोंक नास्तिक हो जानेपर तथा अपूज्य लोगोंकी पूजा होनेपर, ब्राह्मी शान्ति करानी चाहिये। भावी अभिषेक, शत्रुसेनासे उत्पन्न भय, अपने राष्ट्रमें भेद तथा शत्रु-वधका अवसर प्राप्त होने पर रौद्री शान्तिकी प्रशंसा की गयी है॥ २-१०॥

त्र्यहातिरिक्ते पवने भक्ष्ये सर्वविगर्हिते। 
वैकृते वातजे व्याधी वायवी शान्तिरिष्यते ॥ ११

अनावृष्टिभये जाते प्राप्ते विकृतिवर्षणे। 
जलाशयविकारेषु वारुणी शान्तिरिष्यते ॥ १२

अभिशापभये प्राप्ते भार्गवी च तथैव च। 
जाते प्रसववैकृत्ये प्राजापत्या महाभुज ॥ १३

उपस्कराणां वैकृत्ये त्वाष्ट्री पार्थिवनन्दन। 
बालानां शान्तिकामस्य कौमारी च तथा नृप ।। १४ 

कुर्याच्छान्तिमथाग्नेयीं सम्प्राप्ते वह्निवैकृते। 
आज्ञाभङ्गे तु संजाते तथा भृत्यादिसंक्षये ॥ १५ 

अश्वानां शान्तिकामस्य तद्विकारे समुत्थिते । 
अश्वानां कामयानस्य गान्धर्वी शान्तिरिष्यते ॥ १६

गजानां शान्तिकामस्य तद्विकारे समुत्थिते। 
गजानां कामयानस्य शान्तिराङ्गिरसी भवेत् ॥ १७

पिशाचादिभये जाते शान्तिर्वै नैर्ऋती स्मृता । 
अपमृत्युभये जाते दुःस्वप्ने च तथा स्थिते ॥ १८

याम्यां तु कारयेच्छान्तिं प्राप्ते तु नरके तथा।
धननाशे समुत्पन्ने कौबेरी शान्तिरिष्यते ॥ १९ 

वृक्षाणां च तथार्थानां वैकृते समुपस्थिते।
भूतिकामस्तथा शान्तिं पार्थिवीं प्रतियोजयेत् ॥ २० 

तीन दिनोंसे अधिक प्रबल वायुके चलनेपर, सभी भक्ष्य पदार्थोक विकृत हो जानेपर तथा वातज व्याधिके बिगड़ जानेपर वायवी शान्ति करानी चाहिये। सूखा पड़ जानेका भय हो, वृष्टिसे अधिक हानि हो तथा जलाशयोंमें कोई विकार उत्पन्न हो गया हो तो ऐसे अवसरपर वारुणी शान्ति करानी चाहिये। महाबाहो! अभिशापका भय उपस्थित होनेपर, भार्गवी तथा स्त्रीके प्रसवमें विकार उत्पन्न होनेपर प्राजापत्या नामकी शान्ति करानी चाहिये। पार्थिवनन्दन ! गृह-सामग्रियोंमें विकार उत्पन्न होनेपर त्वाष्ट्री (विश्वकर्मासम्बन्धी) शान्ति करानी चाहिये। राजन् । बालकोंकी बाधा दूर करनेके लिये कौमारी शान्ति होनी चाहिये। अग्नि-विकार उपस्थित होनेपर, आज्ञा-भङ्ग होनेपर तथा सेवकादिके विनाश होनेपर आग्नेयी शान्ति करानी चाहिये। अश्वोंकी शान्ति-कामनासे उनमें रोग उत्पन्न होनेपर तथा अधिक संख्याकी अभिलाषासे गान्धर्वी शान्ति करानी चाहिये। हाथियोंकी शान्ति-कामनासे, उनमें रोग उपस्थित होनेपर तथा उनकी रक्षाकी भावनासे आङ्गिरसी शान्ति करानी चाहिये। पिशाचादिका तथा अकालमृत्युका भय उपस्थित होने पर और दुःस्वप्न देखने पर नैर्ऋती शान्ति कही गयी है। मृत्युका भय होनेपर याम्या शान्ति कराये तथा धनका नाश उत्पन्न होनेपर कौबेरी शान्ति करानी चाहिये। ऐश्वर्यकामी मनुष्यको वृक्षों तथा सम्पत्तियोंका विनाश उपस्थित होनेपर पार्थिवी शान्तिका प्रयोग करना चाहिये ॥ ११-२० ॥

प्रथमे दिनयामे च रात्रौ वा मनुजोत्तम। 
हस्ते स्वातौ च चित्रायामादित्ये चाश्विने तथा ॥ २१

अर्यम्णि सौम्यजातेषु वायव्यां त्वद्भुतेषु च।
द्वितीये दिनयामे तु रात्रौ च रविनन्दन ॥ २२

पुष्याग्नेयविशाखासु पित्र्यासु भरणीषु च।
उत्पातेषु तथा भाग आग्नेयीं तेषु कारयेत् ॥ २३

तृतीये दिनयामे च रात्रौ च रविनन्दन। 
रोहिण्यां वैष्णवे ब्राह्मे वासवे वैश्वदेवते ॥ २४

ज्येष्ठायां च तथा मैत्रे ये भवन्त्यद्भुताः क्वचित्। 
ऐन्द्री तेषु प्रयोक्तव्या शान्ती रविकुलोद्वह । २५

चतुर्थे दिनयामे च रात्रौ वा रविनन्दन। 
सार्पे पौष्णे तथार्द्रायामहिर्बुध्न्ये च दारुणे ॥ २६

मूले वरुणदैवत्ये ये भवन्त्यद्भुतास्तथा। 
वारुणी तेषु कर्तव्या महाशान्तिर्महीक्षिता ॥ २७

मित्रमण्डलवेलासु ये भवन्त्यद्भुताः क्वचित्। 
तत्र शान्तिद्वयं कार्यं निमित्तेषु च नान्यथा। 
निर्निमित्तकृता शान्तिर्निमित्तेनोपयुज्यते ॥ २८

बाणप्रहारा न भवन्ति यद्वद् राजन् नृणां सन्नहनैर्युतानाम् । 
दैवोपघाता न भवन्ति तद्वद् धर्मात्मनां शान्तिपरायणानाम् ॥ २९

मानवश्रेष्ठ । दिनके या रात्रिके पहले पहरमें सूर्यके हस्त, स्वाती, चित्रा, पुनर्वसु या अश्विनी नक्षत्रमें जाने पर वायव्य कोण में यदि अद्भुत उपद्रव दिखायी पड़े तो आग्नेयी शान्ति करानी चाहिये। रविनन्दन ! दिनके अथवा रात्रिके दूसरे पहरमें सूर्यके पुष्य, भरणी, कृत्तिका, मघा और विशाखा नक्षत्रमें जानेपर आग्नेयकोण या दक्षिण दिशामें यदि कोई उत्पात दिखायी दे तो आग्नेयी शान्ति करानी चाहिये। रविनन्दन! दिनके या रात्रिके तीसरे पहरमें रोहिणी, श्रवण, धनिष्ठा, उत्तराषाढ़, अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्रमें सूर्यके जानेपर यदि ईशान, पूर्व या अग्निकोणमें कोई उत्पात दिखायी दे तो ऐन्द्री शान्ति करानी चाहिये। रविनन्दन! दिन या रात्रिके चौथे पहरमें आश्लेषा, रेवती, आर्द्रा, उत्तराभाद्र, शतभिषा या मूल नक्षत्रमें सूर्यके जानेपर पश्चिम दिशामें उत्पात दिखायी देनेपर राजाको वारुणी शान्ति करानी चाहिये। यदि मध्याह्नके समय कहींपर अद्भुत उत्पात होते हैं तो उस समय दोनों प्रकारकी शान्ति करानी चाहिये। इन उपर्युक्त कारणोंके उपस्थित होनेपर ही शान्ति करानी चाहिये, अन्यथा नहीं। बिना किसी कारणके की गयी शान्ति निष्फल हो जाती है। राजन्। जिस प्रकार कवचसे सुरक्षित शरीरवाले मनुष्योंको बाणोंका प्रहार किसी प्रकारकी हानि नहीं पहुँचाता, उसी प्रकार धर्मात्मा एवं शान्तिपरायण मनुष्योंको दैव-प्रहार किसी प्रकारकी हानि नहीं पहुँचा सकते ॥ २१-२९॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽद्भुतशान्तिर्नामाष्टाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२८ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें अद्भुतशान्ति नामक दो सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २२८ ॥

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