मत्स्य पुराण दो सौ एकतीसवाँ अध्याय
अग्नि सम्बन्धी उत्पात के लक्षण तथा उनकी शान्ति के उपाय
गर्ग उवाच
अनग्निर्दीप्यते यत्र राष्ट्र यस्य निरिन्धनः ।
न दीप्यते चेन्धनवांस्तद्राष्ट्र पीड्यते नृपैः ॥ १
प्रज्वलेदप्सु मांसं वा तदर्धं वापि किञ्चन।
प्राकारं तोरणं द्वारं नृपवेश्म सुरालयम् ॥ २
एतानि यत्र दीप्यन्ते तत्र राज्ञो भयं भवेत्।
विद्युता वा प्रदान्ते तदापि नृपतेर्भयम् ॥ ३
अनैशानि तमांसि स्युर्विना पांसुरजांसि च।
धूमश्चानग्निजो यत्र तत्र विन्द्यान्महाभयम् ॥ ४
तडित् त्वनभ्रे गगने भयं स्यादृक्षवर्जिते।
दिवा सतारे गगने तथैव भयमादिशेत् ॥ ५
गर्गजीने कहा- जिस देशमें ईंधनके बिना ही अग्नि जल उठती है और ईंधन लगानेपर भी अग्नि प्रज्वलित नहीं होती, वह देश राजाओंसे पीड़ित होता है। जहाँ जलमें मांस जलने लगता है या उसका कोई भाग जल जाता है, किलेकी चहारदीवारी, प्रवेशद्वार, तोरण, राजभवन और देवालय- ये अकस्मात् जल उठते हैं वहाँ राजाको भय प्राप्त होता है। यदि ये उपर्युक्त वस्तुएँ बिजली गिरनेसे जल जाती हैं तब भी राजाको भय प्राप्त होता है। जहाँ रात्रि तथा धूलि एवं रजः कणोंके बिना ही अन्धकार छा जाय और अग्निके बिना धुआँ दिखायी पड़े, वहाँ महाभयकी प्राप्ति जाननी चाहिये। बादल और नक्षत्रोंसे रहित आकाशमें बिजली कौंधने लगे तो भय प्राप्त होता है। इसी प्रकार दिनमें गगनमण्डल तारायुक्त हो जाय तो भी उसी प्रकारका भय कहना चाहिये ॥१-५ ॥
ग्रहनक्षत्रवैकृत्ये ताराविषमदर्शने।
पुरवाहनयानेषु चतुष्पान्मृगपक्षिषु ॥ ६
आयुधेषु च दीप्तेषु धूमायत्सु तथैव च।
निगमत्सु च कोशाच्च संग्रामस्तुमुलो भवेत् ॥ ७
विनाग्निं विष्फुलिङ्गाश्च दृश्यन्ते यत्र कुत्रचित्।
स्वभावाच्चापि पूर्यन्ते धनूंषि विकृतानि च ॥ ८
विकारश्चायुधानां स्यात् तत्र संग्राममादिशेत् ।
त्रिरात्रोपोषितश्चात्र पुरोधाः सुसमाहितः ॥ ९
समिद्भिः क्षीरवृक्षाणां सर्षपैश्च घृतेन च।
होमं कुर्यादग्निमन्त्रैर्बाह्मणांश्चैव भोजयेत् ॥ १०
दद्यात् सुवर्णं च तथा द्विजेभ्यो गाश्चैव वस्त्राणि तथा भुर्व च।
एवं कृते पापमुपैति नाशं यदग्निवैकृत्यभवं द्विजेन्द्र ॥ ११
ग्रहों और नक्षत्रोंमें विकारका हो जाना, ताराओंमें विषमताका दिखायी पड़ना, ग्राम, वाहन, रथ, चौपाये, मृग, पक्षी तथा शस्त्रास्त्रोंका अपने-आप प्रज्वलित हो उठना अथवा धूमिल हो जाना और कोशसे अस्त्रादिका निकलना तुमुल संग्रामका सूचक है। जहाँ-कहीं भी अग्निके बिना चिनगारियाँ दिखायी पड़ने लगें, स्वाभाविक ढंगसे ही धनुषकी डोरियाँ चढ़ जायें या विकृत हो जायँ तथा शस्त्रास्त्रोंमें विकार उत्पन्न हो जाय तो वहाँ संग्राम बतलाना चाहिये। ऐसी दशामें वहाँका पुरोहित तीन रात्रितक उपवासकर अत्यन्त समाहित-चित्तसे दूधवाले वृक्षोंकी लकड़ियों, सरसों तथा घीसे अग्नि-मन्त्रोंद्वारा हवन करे। तदनन्तर ब्राह्मणोंको भोजन कराये तथा उन्हें सुवर्ण, गौएँ, वस्त्र और पृथ्वीका दान दे। द्विजेन्द्र! ऐसा करनेसे अग्नि-विकार-सम्बन्धी पाप नष्ट हो जाता है॥ ६-११॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽद्भुतशान्तावग्निवैकृत्यं नामैकत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३१ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके अद्भुत शान्तिके प्रसंगमें अग्निविकार नामक दो सौ एकतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २३१ ॥
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