मत्स्य पुराण एक सौ बावनवाँ अध्याय
भगवान विष्णु का मथन आदि दैत्यों के साथ भीषण संग्राम और अन्त में घायल होकर युद्ध से पलायन
सूत उवाच
तस्मिन् विनिहते दैत्ये ग्रसने बलनायके।
निर्मर्यादमयुध्यन्त हरिणा सह दानवाः ॥ १
सूतजी कहते हैं- ऋषियो ! उस सेनानायक दैत्यराज ग्रसनके मारे जानेपर दानवगण श्रीहरिके साथ युद्ध-मर्यादा का परि त्याग कर (भयंकर) युद्ध करने लगे। १
पट्टिशैर्मुसलैः पाशैर्गदाभिः कुणपैरपि।
तीक्ष्णाननैश्च नाराचैश्चकुः शक्तिभिरेव च ॥ २
तानस्त्रान् दानवैर्मुक्तांश्चित्रयोधी जनार्दनः।
एकैकं शतशश्चक्रे बाणैरग्निशिखोपमैः ॥ ३
ततः क्षीणायुधप्राया दानवा भ्रान्तचेतसः ।
अस्त्राण्यादातुमभवन्न समर्था यदा रणे ॥ ४
तदा मृतैर्गजैरश्चैर्जनार्दनमयोधयन् ।
समन्तात्कोटिशो दैत्याः सर्वतः प्रत्ययोधयन् ॥ ५
बहु कृत्वा वपुर्विष्णुः किंचिच्छान्तभुजोऽभवत्।
उवाच च गरूत्मन्तं तस्मिन् सुतुमुले रणे ॥ ६
गरुत्मन्कच्चिदश्रान्तस्त्वमस्मिन्नपि साम्प्रतम् ।
यद्यश्रान्तोऽसि तद्याहि मथनस्य रथं प्रति ॥ ७
श्रान्तोऽस्यथ मुहूर्त त्वं रणादपसृतो भव।
इत्युक्तो गरुडस्तेन विष्णुना प्रभविष्णुना ॥ ८
आसपाद रणे दैत्यं मथनं घोरदर्शनम्।
दैत्यस्त्वभिमुखं दृष्ट्वा शङ्खचक्रगदाधरम् ॥ ९
उस समय वे पट्टिश, मुसल, पाश, गदा, कुणप, तीखे मुखवाले बाण, चक्र और शक्तियोंसे प्रहार कर रहे थे। तब विचित्र ढंगसे युद्ध करनेवाले भगवान् जनार्दनने अपने अग्निकी लपटोंके समान उद्दीप्त बाणोंसे दैत्योंद्वारा छोड़े गये उन अस्त्रोंमें प्रत्येकके सौ-सौ टुकड़े कर दिये। तब दानवोंके अस्त्र प्रायः नष्ट हो गये और उनका चित्त व्याकुल हो गया। इस प्रकार जब वे रणभूमिमें अस्त्र ग्रहण करनेमें असमर्थ हो गये, तब मरे हुए हाथियों और घोड़ोंकी लाशोंसे जनार्दनके साथ युद्ध करने लगे। इस तरह करोड़ों दैत्य चारों ओरसे घेरकर उनके साथ युद्ध कर रहे थे। उस समय उस भयंकर संग्राममें भगवान् विष्णु को, जो अनेकों विग्रह (शरीर) धारण कर उनके साथ युद्ध कर रहे थे. भुजाएँ कुछ शिथिल पड़ गयीं। तब वे गरुडसे बोले- 'गरुड! तुम इस युद्धमें थक तो नहीं गये हो ? यदि थके न हो तो तुम मुझे मथनके रथके निकट ले चलो और यदि तुम थक गये हो तो दी घड़ीके लिये रणभूमिसे दूर हट चलो।' शक्तिशाली भगवान् विष्णुके द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर गरुड रणभूमिमें भयंकर आकृतिवाले दैत्यराज मथनके निकट जा पहुँचे। दैत्यराज मथनने शङ्ख, चक्र एवं गदा धारण किये हुए विष्णुको सम्मुख उपस्थित देखकर उनके वक्षःस्थलपर भिन्दिपाल ढेलवाँस) एवं तीखे बाणसे प्रहार किया ॥२-९॥
जघान भिन्दिपालेन शितबाणेन वक्षसि ।
तत्प्रहारमचिन्त्यैव विष्णुस्तस्मिन् महाहवे ॥ १०
जघान पञ्चभिर्बाणैर्मार्जितैश्च शिलाशितैः ।
पुनर्दशभिराकृष्टैस्तं तताड स्तनान्तरे ॥ ११
विद्धो मर्मसु दैत्येन्द्रो हरिबाणैरकम्पत ।
स मुहूर्त समाश्वास्य जग्राह परिघं तदा ॥ १२
जघ्ने जनार्दनं चापि परिघेणाग्निवर्चसा ।
विष्णुस्तेन प्रहारेण किंचिदाघूर्णितोऽभवत् ॥ १३
ततः क्रोधविवृत्ताक्षो गदां जग्राह माधवः ।
मथनं सरथं रोषान्निष्यिपेषाथ रोषतः ॥ १४
स पपाताथ दैत्येन्द्रः क्षयकालेऽचलो यथा।
तस्मिन् निपतिते भूमौ दानवे वीर्यशालिनि ॥ १५
अवसादं ययुर्दैत्याः कर्दमे करिणो यथा।
ततस्तेषु विपन्नेषु दानवेष्वतिमानिषु ॥ १६
प्रकोपाद् रक्तनयनो महिषो दानवेश्वरः ।
प्रत्युद्ययौ हरिं रौद्रः स्वबाहुबलमास्थितः ।। १७
तीक्ष्णधारेण शूलेन महिषो हरिमर्दयत्।
शक्त्या च गरुडं वीरो महिषोऽभ्यहनद्धदि ॥ १८
ततो व्यावृत्य वदनं महाचलगुहानिभम्।
ग्रस्तुमैच्छद् रणे दैत्यः सगरुत्मन्तमच्युतम् ॥ १९
उस महायुद्धमें दैत्यद्वारा किये गये उस प्रहारकी कुछ भी परवा न कर विष्णुने उसे ऐसे पाँच बाणोंसे घायल किया, जो पत्थरपर रगड़कर तेज किये गये थे। पुनः कानतक खींचकर छोड़े गये दस बाणोंसे उसके स्तनोंके मध्यभागमें चोट पहुंचायी। श्रीहरिके बाणोंसे मर्मस्थानोंके घायल हो जानेपर दैत्येन्द्र मथन काँपने लगा। फिर दो घड़ीके बाद आश्वस्त होकर उसने परिध उठाया और उस अग्निके समान तेजस्वी परिघसे जनार्दनपर भी आघात किया। भगवान् विष्णु उस प्रहारसे कुछ चक्कर-सा काटने लगे। तत्पश्चात् माधवकी आँखें क्रोधसे चढ़ गयीं, तब उन्होंने गदा हाथमें ली और क्रोधपूर्वक उसके आघातसे रथसहित मथनको पीस डाला। दैत्येन्द्र मथन इस प्रकार धराशायी हो गया, जैसे प्रलयकालमें पर्वत ढह जाते हैं। उस पराक्रमशाली दानवके धराशायी हो जानेपर दैत्योंमें उसी प्रकार विषाद छा गया, मानो हाथियोंका समूह दलदलमें फँस गया हो। उन अत्यन्त अभिमानी दानवोंके इस प्रकार विपत्तिग्रस्त हो जानेपर दानवेश्वर महिषने, जिसके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये थे और जो अत्यन्त उग्र स्वभाववाला था, अपने बाहुबलका आश्रय लेकर श्रीहरिपर आक्रमण किया। उस समय महिषने श्रीहरिपर तीखी धारवाले शूलसे आघात किया। फिर वीरवर महिषने गरुडके हृदयपर शक्तिसे प्रहार किया। तत्पश्चात् उस दैत्यने रणभूमिमें विशाल पर्वतकी गुफाके समान अपने मुखको फैलाकर गरुडसहित अच्युतको निगल जानेकी चेष्टा करने लगा ॥१०-१९॥
अथाच्युतोऽपि विज्ञाय दानवस्य चिकीर्षितम् ।
वदनं पूरयामास दिव्यैरस्त्रैर्महाबलः ।। २०
महिषस्याथ ससृजे बाणौघं गरुडध्वजः ।
पिधाय वदनं दिव्यैर्दिव्यास्त्रपरिमन्त्रितैः ।। २१
स तैर्बाणैरभिहतो महिषोऽचलसंनिभः ।
परिवर्तितकायोऽधः पपात न ममार च ॥ २२
महिषं पतितं दृष्ट्वा भूमौ प्रोवाच केशवः ।
महिषासुर मत्तस्त्वं वधं नास्त्रैरिहार्हसि ॥ २३
योषिद्वध्यः पुरोक्तोऽसि साक्षात्कमलयोनिना ।
उत्तिष्ठ जीवितं रक्ष गच्छास्मात्सङ्गराद् द्रुतम् ॥ २४
तस्मिन् पराङ्मुखे दैत्ये महिषे शुम्भदानवः ।
संदष्टौष्ठपुटः कोपाद् भुकुटीकुटिलाननः ।। २५
निर्मथ्य पाणिना पाणिं धनुरादाय भैरवम्।
सज्यं चकार स धनुः शरांश्चाशीविषोपमान् ॥ २६
तदनन्तर जब महाबली विष्णुको उस दानवकी चेष्टा ज्ञात हुई, तब उन्होंने दिव्यास्त्रोंसे उसके मुखको भर दिया। इस प्रकार भगवान् गरुडध्वजने दिव्यास्त्रोंसे अभिमन्त्रित दिव्य बाणोंद्वारा महिषासुरके मुखको ढककर उसपर बाणसमूहोंकी वृष्टि करने लगे। उन बाणोंसे आहत हुए पर्वत-सदृश विशालकाय महिषासुरका शरीर विकृत हो गया और वह रथसे नीचे गिर पड़ा, परंतु मृत्युको नहीं प्राप्त हुआ। महिषको भूमिपर पड़ा हुआ देखकर केशवने कहा- 'महिषासुर ! इस युद्धमें तुम मेरे अस्त्रोंद्वारा मृत्युको नहीं प्राप्त हो सकते; क्योंकि कमलयोनि साक्षात् ब्रह्माने तुमसे पहले कह ही दिया है कि तुम्हारी मृत्यु किसी स्त्रीके हाथसे होगी। अतः उठो, अपने जीवनकी रक्षा करो और शीघ्र ही इस युद्धस्थलसे दूर हट जाओ।' इस प्रकार उस दैत्यराज महिषके युद्धविमुख हो जानेपर शुम्भ नामक दानव कुपित हो उठा। उसकी भौंहें तन गयीं और मुख विकराल हो गया। वह दाँतोंसे होंठको चबाता हुआ हाथ-से-हाथ मलने लगा। तत्पश्चात् उसने अपने भयंकर धनुषको हाथमें लेकर उसपर प्रत्यञ्डा चढ़ा दी तथा सर्पके समान जहरीले बाणोंको हाथमें लिया ॥ २०-२६ ॥
स चित्रयोधी दृढमुष्टिपात-स्ततस्तु विष्णुं गरुडं च दैत्यः ।
बाणैर्ध्वलद्वह्निशिखानिकाशैः क्षिप्तैरसंख्यैः परिघातहीनैः ॥ २७
विष्णुश्च दैत्येन्द्रशराहतोऽपि भुशुण्डिमादाय कृतान्ततुल्याम् ।
तया भुशुण्ड्या च पिपेष मेषं शुम्भस्य पत्रं धरणीधराभम् ॥ २८
तस्मादवप्लुत्य हताच्च मेषाद् भूमौ पदातिः स तु दैत्यनाथः ।
ततो महीस्थस्य हरिः शरौघान् मुमोच कालानलतुल्यभासः ॥ २९
शंरैस्त्रिभिस्तस्य भुजं बिभेद षद्भिश्च शीर्ष दशभिश्च केतुम्।
विष्णुर्विकृष्टैः श्रवणावसानं दैत्यस्य विव्याध विवृत्तनेत्रः ॥ ३०
स तेन विद्धो व्यथितो बभूव दैत्येश्वरो विस्रुतशोणितौघः ।
ततोऽस्य किंचिच्चलितस्य धैर्या-दुवाच शङ्खाम्बुजशार्ङ्गपाणिः ॥ ३१
कुमारिवध्योऽसि रणं विमुञ्च शुम्भासुर स्वल्पतरैरहोभिः ।
वधं न मत्तोऽर्हसि चेह मूढ वृथेव किं युद्धसमुत्सुकोऽसि ॥ ३२
फिर तो सुदृढ़ मुष्टिसे युक्त एवं विचित्र ढंगसे युद्ध करनेवाले उस दैत्यने धधकती हुई अग्निकी लपटोंके समान विकराल एवं अचूक लक्ष्यवाले असंख्य बाणोंके प्रहारसे विष्णु और गरुडको घायल कर दिया। तब दैत्येन्द्र शुम्भके बाणोंसे आहत हुए विष्णुने भी कृतान्तके समान भुशुण्डि हाथमें ली और उस भुशुण्डिसे शुम्भके वाहन पर्वतके समान विशालकाय मेषको पीसकर चूर्ण कर दिया। तब वह दैत्यराज मरे हुए मेषसे कूदकर पृथ्वीपर आ गया और पैदल ही युद्ध करने लगा। इस प्रकार पृथ्वीपर खड़े हुए उस दानवपर श्रीहरि प्रलयकालीन अग्निके तुल्य चमकीले बाणसमूहोंकी वर्षा करने लगे। उस समय (उस दैत्यकी ओर) आँख फाड़कर देखते हुए विष्णुने प्रत्यञ्चाको कानतक खींचकर छोड़े गये तीन बाणोंसे उस दैत्यकी भुजाको, छः बाणोंसे मस्तकको और दस बाणोंसे ध्वजको विदीर्ण कर दिया। इस प्रकार विष्णुद्वारा बींधा गया दैत्येश्वर शुम्भ व्यथित हो उठा। उसके शरीरसे रक्तकी धाराएँ बहने लगीं। तत्पश्चात् जब वह कुछ धैर्य धारणकर उठ खड़ा हुआ, तब हाथमें शङ्ख, कमल और शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले विष्णुने उससे कहा-' शुम्भासुर ! तुम थोड़े ही दिनोंमें किसी कुमारी कन्याके हाथों मारे जाओगे, अतः रणभूमिको छोड़कर हट जाओ। मूर्ख। इस युद्धमें तुम्हारा मेरे हाथों वध नहीं हो सकता, फिर व्यर्थ ही मेरे साथ युद्ध करनेके लिये क्यों समुत्सुक हो रहे हो?' ॥ २७-३२॥
जम्भो वचो विष्णुमुखान्निशम्य निमिश्च निष्पेष्टुमियेष विष्णुम् ।
गदामथोद्यम्य निमिः प्रचण्डां जघान गाढां गरुडं शिरस्तः ॥ ३३
शुम्भोऽपि विष्णुं परिघेण मूधि प्रमृष्टरत्नौघविचित्रभासा।
तौ दानवाभ्यां विषमैः प्रहारै-निपेतुरुर्व्या घनपावकाभौ ।। ३४
तत्कर्म दृष्ट्वा दितिजास्तु सर्वे जगर्जुरुच्चैः कृतसिंहनादाः ।
धनूंषि चास्फोट्य खुराभिघातै-व्र्व्यदारयन्भूमिमपि प्रचण्डाः ।
वासांसि चैवादुधुवुः परे तु दध्युश्च शङ्खानकगोमुखौघान् ॥ ३५
अथ संज्ञामवाप्याशु गरुडोऽपि सकेशवः ।
पराङ्मुखो रणात्तस्मात्पलायत महाजवः ॥ ३६
तदनन्तर भगवान् विष्णुके मुखसे निकले हुए उस बचनको सुनकर जम्भ और निमि दोनों दैत्य विष्णुको पीस डालनेके लिये आ पहुँचे। तब निमिने अपनी पीस डालनेके लिये आ पहुँचे। तब निमिने अपनी प्रचण्ड गुर्वीली गदाको उठाकर गरुड़के मस्तकपर प्रहार किया। उधर शुम्भने भी चमकीले रत्नसमूहोंकी विचित्र कान्तिसे सुशोभित परिघद्वारा विष्णुके मस्तकपर आघात किया। इस प्रकार उन दोनों दानवोंके भीषण प्रहारसे क्रमशः मेघ एवं अग्निकी-सी कान्तिवाले दोनों विष्णु और गरुड पृथ्वीपर गिर पड़े। उन दोनों दैत्योंके उस कर्मको देखकर सभी दैत्य सिंहनाद करते हुए उच्च स्वरसे गर्जना करने लगे। कुछ प्रचण्ड पराक्रमी दैत्य अपने धनुषोंको हिलाते हुए पैरोंके आघातसे पृथ्वीको भी विदीर्ण करने लगे। कुछ दैत्य हर्षमें भरकर अपने वस्त्रोंको हिलाने लगे तथा कुछ शङ्ख, नगाड़ा और गोमुख आदि बाजे बजाने लगे। तदनन्तर थोड़ी देर बाद केशवसहित गरुडकी भी चेतना लौट आयी। तब वे उस युद्धसे विमुख हो बड़े वेगसे भाग खड़े हुए ॥ ३३-३६॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे देवासुरसंग्रामे मथनादिसंग्रामो नाम द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५२ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके देवासुरसंग्राममें मथनादि संग्राम नामक एक सौ बावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १५२ ॥
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