भगवान् विष्णु पर दानवों का सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णु का अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेनापति ग्रसनकी मृत्यु | bhagavaan vishnu par daanavon ka saamoohik aakraman, bhagavaan vishnu ka adbhut yuddh-kaushal aur unake dvaara daanav senaapati grasanakee mrtyu

मत्स्य पुराण एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय 

भगवान विष्णु पर दानवों का सामूहिक आक्रमण, भगवान् विष्णुका अद्भुत युद्ध-कौशल और उनके द्वारा दानव सेना पति ग्रसनकी मृत्यु 

सूत उवाच

तं दृष्ट्वा दानवाः कुद्धाश्चेरुः स्वैः स्वैर्बलैर्वृताः । 
सरघा इव माक्षीकहरणे सर्वतो दिशम् ॥ १

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। भगवान् विष्णुको देखकर क्रोधमें भरे हुए सभी दानवेन्द्र अपनी-अपनी सेनाके साथ उनके ऊपर इस प्रकार टूट पड़े जैसे मधु निकालते समय मधु निकालनेवालेको मधुमक्खियाँ चारों ओरसे घेर लेती हैं। १

कृष्णचामरजालावे सुधाविरचिताङ्करे ।
चित्रपञ्चपताकेषु प्रभिन्नकरटामुखे ॥ २

पर्वताभे गजे भीमे मदस्त्राविणि दुर्धरे।
आरुह्याजी निमिर्दैत्यो हरिं प्रत्युद्ययौ बली ।। ३

तस्यासन् दानवा रौद्रा गजस्य पदरक्षिणः। 
सप्तविंशतिसाहस्त्राः किरीटकवचोज्यलाः ॥ ४

अश्वारूढश्च मथनो जम्भकश्चोष्टुवाहनः ।
शुम्भोऽपि विपुलं मेषं समारुह्याव्रजद् रणम् ॥ ५

अपरे दानवेन्द्रास्तु यत्ता नानास्त्रपाणयः । 
आजघ्नुः समरे क्रुद्धा विष्णुमक्लिष्टकारिणम् ॥ ६

परिघेण निमिर्दैत्यो मथनो मुद्रेण तु। 
शुम्भः शूलेन तीक्ष्णेन प्रासेन ग्रसनस्तथा ॥ ७

चक्रेण महिषः क्रुद्धो जम्भः शक्त्या महारणे। 
जघ्नुर्नारायणं सर्वे शेषास्तीक्ष्णैश्च मार्गणैः ॥ ८

तान्यस्त्राणि प्रयुक्तानि शरीरं विविशुर्हरेः ।
गुरूक्तान्युपदिष्टानि सच्छिष्यस्य श्रुताविव ॥ ९

उस समय महाबली दैत्यराज निमिने जो काले चैवरोंसे सुशोभित था, जिसके मस्तकपर उज्वल पत्रभंगी की गयी थी, जिसके गण्डस्थलका मुख फूट जानेसे मद चू रहा था, जो पर्वतके समान विशालकाय था और जिसपर रंग-बिरंगी पाँच पताकाएँ फहरा रही थीं, ऐसे दुर्धर्ष एवं भयंकर गजराजपर चढ़कर युद्धस्थलमें श्रीहरिपर आक्रमण किया। उसके हाथीकी पदरक्षामें सत्ताईस हजार भयंकर दानव नियुक्त थे, जो उज्वल किरीट और कवचसे लैस थे। साथ ही घोड़ेपर चढ़ा हुआ मथन, ऊँटपर बैठा हुआ जम्भक और विशालकाय मेषपर सवार हुआ शुम्भ भी रणभूमिमें पहुँचे। क्रुद्ध हुए अन्यान्य दानवेन्द्र भी विभिन्न प्रकारके अस्त्र हाथमें लिये हुए सतर्क होकर समरभूमिमें अक्लिष्टकर्मा विष्णुपर प्रहार कर रहे थे। उस भयंकर युद्धमें दैत्यराज निमिने परिघसे, मथनने मुगरसे, शुम्भने त्रिशूलसे, ग्रसनने तीखे भालेसे, महिषने चक्रसे, क्रोधसे भरे हुए जम्भने शक्तिसे तथा शेष सभी दानवराज तीखे बाणोंसे नारायणपर चोट कर रहे थे। दैत्योंद्वारा चलाये गये वे अस्त्र श्रीहरिके शरीरमें उसी प्रकार प्रवेश कर रहे थे, जैसे गुरुद्वारा उपदिष्ट वाक्य उत्तम शिष्यके कानमें प्रविष्ट हो जाते हैं ॥२-९॥

असम्भ्रान्तो रणे विष्णुरथ जग्राह कार्मुकम् । 
शरांश्चाशीविषाकारांस्तैलधौतानजिह्मगान् ॥ १०

ततोऽभिसंध्य दैत्यांस्तानाकर्णाकृष्टकार्मुकः । 
अभ्यद्रवद् रणे कुद्धो दैत्यानीके तु पौरुषात् ॥ ११

निमिं विव्याध विंशत्या बाणानामग्निवर्चसाम्। 
मथनं दशभिर्बाणैः शुम्भं पञ्चभिरेव च ॥१२

एकेन महिषं क्रुद्धो विव्याधोरसि पत्त्रिणा। 
जम्भं द्वादशभिस्तीक्ष्णैः सर्वांश्चैकैकशोऽष्टभिः ॥ १३

तस्य तल्लाघवं दृष्ट्वा दानवाः क्रोधमूच्छिताः ।
नर्दमानाः प्रयत्नेन चकुरत्यद्भुतं रणम् ॥ १४

चिच्छेदाथ धनुर्विष्णोर्निमिर्भल्लेन दानवः ।
संध्यमानं शरं हस्ते चिच्छेद महिषासुरः ॥ १५ 

पीडयामास गरुडं जम्भस्तीक्ष्णैस्तु सायकैः ।
भुजं तस्याहनद् गाढं शुम्भो भूधरसंनिभः ॥ १६

छिन्ने धनुषि गोविन्दो गदां जग्राह भीषणाम्। 
तां प्राहिणोत् स वेगेन मथनाय महाहवे ।। १७

तामप्राप्तां निमिर्बाणैश्चिच्छेद तिलशो रणे। 
तां नाशमागतां दृष्ट्वा हीनाग्रे प्रार्थनामिव ॥ १८

जग्राह मुद्गरं घोरं दिव्यरत्नपरिष्कृतम्। 
तं मुमोचाथ वेगेन निमिमुद्दिश्य दानवम् ॥ १९

तदनन्तर भगवान् विष्णुने रणभूमिमें स्थिरचित्त हो अपने धनुष तथा तेलसे धुले हुए एवं सीधे लक्ष्यवेध करनेवाले सर्पाकार बाणोंको हाथमें लिया और उन दैत्योंको लक्ष्य बनाकर धनुषको कानतक खींचकर उसपर उन बाणोंका संधान किया। तत्पश्चात् वे क्रोधमें भरकर रणभूमिमें पुरुषार्थपूर्वक दैत्योंकी सेनापर चढ़ आये। उन्होंने अग्निके समान तेजस्वी बीस बाणोंसे निमिको, दस बाणोंसे मथनको और पाँच बाणोंसे शुम्भको बींध दिया। फिर क्रुद्ध हो एक बाणसे महिषकी छातीपर चोट पहुंचायी तथा बारह तीखे बाणोंसे जम्भको घायल कर शेष सभी दानवेश्वरोंमेंसे प्रत्येकको आठ-आठ बाणोंसे छेद डाला। भगवान् विष्णुके उस हस्तलाघवको देखकर दानवगण क्रोधसे तिलमिला उठे और सिंहनाद करते हुए प्रयत्नपूर्वक अत्यन्त अद्भुत युद्ध करने लगे। 

उस समय दानवराज निमिने भल्ल नामक बाण मारकर भगवान् विष्णुके धनुषको काट दिया। फिर महिषासुरने संधान किये जाते हुए बाणको उनके हाथमें ही काट गिराया। जम्भने तीखे बाणोंके प्रहारसे गरुडको पीड़ित कर दिया। पर्वताकार शुम्भने उनकी भुजापर गम्भीर आघात किया। धनुषके कट जानेपर भगवान् गोविन्दने भीषण गदा हाथमें ली और उस भयंकर युद्धके समय उसे वेगपूर्वक घुमाकर मथनके ऊपर छोड़ दिया। वह उसके निकटतक पहुँच भी न पायी थी कि निमिने रणभूमिमें अपने बाणोंके प्रहारसे उसके तिलके समान टुकड़े-टुकड़े कर दिये। दयाहीन पुरुषके समक्ष विफल हुई प्रार्थना की तरह उस गदाको नष्ट हुई देखकर भगवान्ने दिव्य रत्नोंसे सुसज्जित भयंकर मुगर उठाया और दानवराज निमिको लक्ष्य करके उसे वेगपूर्वक फेंक दिया ॥ १०-१९॥

तमायान्तं वियत्येव त्रयो दैत्या न्यवारयन् ।
गदया जम्भदैत्यस्तु ग्रसनः पट्टिशेन तु ॥ २०

शक्त्या च महिषो दैत्यः स्वपक्षजयकाङ्क्षया । 
निराकृतं तमालोक्य दुर्जने प्रणवं यथा ॥ २१

जग्राह शक्तिमुग्राग्रामष्टघण्टोत्कटस्वनाम् । 
जम्भाय तां समुद्दिश्य प्राहिणोद् रणभीषणः ॥ २२

तामम्बरस्थां जग्राह गजो दानवनन्दनः । 
गृहीतां तां समालोक्य शिक्षामिव विवेकिभिः ॥ २३

दृढं भारसहं सारमन्यदादाय कार्मुकम्। 
रौद्रास्त्रमभिसंधाय तस्मिन् बाणं मुमोच ह । २४

ततोऽस्त्रतेजसा सर्वं व्याप्तं लोकं चराचरम् । 
ततो बाणमयं सर्वमाकाशं समदृश्यत ॥ २५ 

भूर्दिशो विदिशश्चैव बाणजालमया बभुः। 
दृष्ट्वा तदस्त्रमाहात्म्यं सेनानीग्रसनोऽसुरः ॥ २६ 

ब्राह्ममस्त्रं चकारासौ सर्वास्त्रविनिवारणम्। 
तेन तत् प्रशमं यातं रौद्रास्त्रं लोकघस्मरम् ॥ २७

अस्त्रे प्रतिहते तस्मिन् विष्णुर्दानवसूदनः । 
कालदण्डास्त्रमकरोत् सर्वलोकभयंकरम् ॥ २८

संधीयमाने तस्मिस्तु मारुतः परुषो ववौ। 
चकम्पे च मही देवी दैत्या भिन्नधियोऽभवन् ॥ २९ 

तदस्त्रमुग्रं दृष्ट्वा तु दानवा युद्धदुर्मदाः। 
चक्रुरस्त्राणि दिव्यानि नानारूपाणि संयुगे ॥ ३०

उस मुद्ररको आते हुए देखकर तीन दैत्योंने-जम्भ दैत्यने गदासे, ग्रसनने पट्टिशसे और महिष दैत्यने शक्तिसे प्रहार करके आकाशमार्गमें ही उसका निवारण कर दिया; क्योंकि उनके मन अपने पक्षकी विजयकी अभिलाषासे पूर्ण थे। तब दुर्जनके प्रति किये गये प्रेमालापकी भाँति उस मुद्ररको विफल हुआ देखकर रणभूमिमें भयानक कर्म करनेवाले भगवान्ने आठ घंटियोंके उत्कट शब्दसे युक्त एवं कठोर अग्रभागवाली शक्ति हाथमें ली और उसे जम्भको लक्ष्य करके छोड़ दिया। दानवनन्दन गजने उस शक्तिको आकाशमार्गमें ही पकड़ लिया। विवेकियोंद्वारा धारण की गयी शिक्षाकी भाँति उस शक्तिको पकड़ी गयी देखकर भगवान्ने एक दूसरा धनुष उठाया, जो सुदृढ़, सारयुक्त और भार सहन करनेमें सक्षम था। उसपर रौद्रास्त्रका अभिसंधान करके उन्होंने उस बाणको छोड़ दिया। उस अस्त्रके तेजसे सारा चराचर जगत् व्याप्त हो गया और सारा आकाशमण्डल बाणमय दिखायी पड़ने लगा। सारी पृथ्वी, दिशाएँ और विदिशाएँ बाणसमूहसे आच्छादित हो गयीं। उस अस्त्रके प्रभावको देखकर सेनापति असुरराज ग्रसनने ब्रह्मास्त्रको प्रकट किया, जो सम्पूर्ण अस्त्रोंको निवारण करनेमें समर्थ था। उसके प्रभावसे वह लोकभक्षक रौद्रास्त्र शान्त हो गया। उस अस्त्रके विफल हो जानेपर दानवोंक संहारक विष्णुने कालदण्डास्त्रको प्रकट किया, जो सम्पूर्ण लोकोंको भयभीत करनेवाला था। उस अस्त्रके संधान करते ही प्रचण्ड वायु बहने लगी, पृथ्वीदेवी काँप उठीं और दैत्योंकी बुद्धि विकृत हो गयी। युद्धस्थलमें उस भयंकर अस्त्रको देखकर युद्धदुर्मद दानव नाना प्रकारके दिव्यास्त्रोंका प्रयोग करने लगे ॥ २०-३० ॥

नारायणास्त्रं ग्रसनो गृहीत्वा चक्रं निमिः स्वास्त्रवरं मुमोच ।
ऐषीकमस्त्रं च चकारजम्भ-स्तत्कालदण्डास्त्रनिवारणाय ॥ ३१

यावन्न संधानदशां प्रयान्ति दैत्येश्वराश्चास्त्रनिवारणाय ।
तावत्क्षणेनैव जघान कोटी दैत्येश्वराणां सगजान् सहाश्वान् ।। ३२

अनन्तरं शान्तमभूत् तदस्त्रं दैत्यास्त्रयोगेन तु कालदण्डम् ।
शान्तं तदालोक्य हरिः स्वशस्त्रं स्वविक्रमे मन्युपरीतमूर्तिः ॥ ३३

जग्राह चक्रं तपनायुताभ- मुग्रारमात्मानमिव द्वितीयम् । 
चिक्षेप सेनापतयेऽभिसंध्य कण्ठस्थलं वज्रकठोरमुग्रम् ॥ ३४

चक्रं तदाकाशगतं विलोक्य सर्वात्मना दैत्यवराः स्ववीर्यैः ।
नाशक्नुवन् वारयितुं प्रचण्डं दैवं यथा कर्म मुधा प्रपन्नम् ॥ ३५

तमप्रतय जनयन्नजय्यं चक्रं पपात ग्रसनस्य कण्ठे।
द्विधा तु कृत्वा ग्रसनस्य कण्ठं तद्रक्तधारारुणघोरनाभि ।
जगाम जनार्दनस्य भूयोऽपि पाणिं प्रवृद्धानलतुल्यदीप्ति ।। ३६

उस कालदण्डास्त्रका निवारण करने के लिये ग्रसनने नारायणास्त्रको और निमिने अपने श्रेष्ठ अस्त्र चक्रको लेकर उसपर फेंका तथा जम्भने ऐषीकास्त्रका प्रयोग किया। उस अस्त्रके निवारणार्थ जबतक दैत्येश्वरगण अपने बाणोंका संधान भी नहीं कर पाये थे, उतनी ही देरमें कालदण्डास्त्रने दैत्येश्वरोक घोड़े हाथीसहित करोड़ों सैनिकोंका सफाया कर दिया। तदनन्तर दैत्योंद्वारा प्रयुक्त किये गये अस्त्रोंके संयोग से वह कालदण्डास्त्र शान्त हो गया। अपने उस अत्रको शान्त हुआ देखकर श्रीहरि अपने पराक्रममें ठेस लगी समझकर क्रोधसे उबल पड़े। फिर तो उन्होंने उस चक्रको हाथमें लिया, जो दस हजार सूर्योके समान तेजोमय, कठोर अरोंसे युक्त और प्रभावमें अपनी द्वितीय मूर्तिके समान था। उन्होंने उस वज्रकी भाँति कठोर एवं भयंकर चक्र को सेनापति ग्रसनके कण्ठस्थलको लक्ष्य करके छोड़ दिया। उस चक्रको आकाशमें पहुँचा हुआ देखकर दैत्येश्वरगण अपने पराक्रमसे पूरा बल लगानेपर भी उसी प्रकार निवारण करनेमें समर्थ न हो सके, जैसे अनिष्ट कर्मसे निष्पन्न हुए प्रचण्ड दुर्भाग्यको हटाया नहीं जा सकता। परिणामस्वरूप वह अतर्क्स महिमाशाली एवं अजेय चक्र ग्रसनके कण्ठपर जा गिरा और उसके गलेको दो भागोंमें विभक्त कर दिया। उससे बहते हुए रक्तकी धारासे उस चक्रकी कठोर नाभि लाल हो गयी थी। तत्पश्चात् धधकती हुई अग्निके समान वह उद्दीप्त चक्र पुनः भगवान जनार्दनके हाथ में लौट गया ॥ ३१-३६ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे देवासुरसंग्रामे ग्रसनवधो नामैकपञ्चाशद‌धिकशततमोऽध्यायः ॥ १५१ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके देवासुरसंग्राममें ग्रसन-वध नामक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १५१ ॥

टिप्पणियाँ