मत्स्य पुराण एक सौ सैंतालीसवाँ अध्याय
ब्रह्मा के वरदान से तारकासुर की उत्पत्ति और उसका राज्याभिषेक
वराङ्गनुवाच
त्रासितास्म्यपविद्धास्मि ताडिता पीडितापि च।
रौद्रेण देवराजेन नष्टनाथेव भूरिशः ॥ १
दुःखपारमपश्यन्ती प्राणांस्त्यक्तुं व्यवस्थिता ।
पुत्रं मे तारकं देहि दुःखशोकमहार्णवात् ॥ २
एवमुक्तः स दैत्येन्द्रः कोपव्याकुललोचनः ।
शक्तोऽपि देवराजस्य प्रतिकर्तुं महासुरः ॥ ३
तपः कर्तुं पुनर्दैत्यो व्यवस्यत महाबलः ।
ज्ञात्वा तु तस्य संकल्पं ब्रह्मा क्रूरतरं पुनः ॥ ४
आजगाम तदा तत्र यत्रासौ दितिनन्दनः ।
उवाच तस्मै भगवान् प्रभुर्मधुरया गिरा ॥ ५
वराङ्गी बोली-' पतिदेव । क्रूर स्वभाववाले देवराज इन्द्रने मुझे एक अनाथ विधवाकी तरह बहुत प्रकारसे डराया है, अपमानित किया है, ताडना दी है और कष्ट पहुँचाया है। इसलिये दुःखका अन्त न देखकर मैं अपने प्राणोंका परित्याग करनेके लिये उद्यत हूँ। अतः मुझे एक ऐसा पुत्र दीजिये, जो मेरा इस दुःख एवं शोकरूप महासागरसे उद्धार करनेमें समर्थ हो। पत्नीद्वारा ऐसा कहे जानेपर दैत्यराज वज्राङ्गका हृदय क्रोधसे व्याकुल हो गया। यद्यपि महासुर वज्राङ्ग देवराज इन्द्रसे बदला चुकानेमें समर्थ था, तथापि उस महाबली दैत्यने पुनः तप करनेका ही निश्चय किया। तब सामर्थ्यशाली भगवान् ब्रह्मा उसके उस क्रूरतर विचारको जानकर फिर जहाँ यह दिति-पुत्र वज्राङ्ग स्थित था वहाँ आ पहुँचे और उससे मधुर वाणीमें बोले- ॥१-५॥
ब्रह्मोवाच
किमर्थं पुत्र भूयस्त्वं नियमं क्रूरमिच्छसि।
आहाराभिमुखो दैत्य तन्नो ब्रूहि महाव्रत ॥ ६
यावदब्दसहस्त्रेण निराहारस्य यत्फलम्।
क्षणेनैकेन तल्लभ्यं त्यक्त्वाऽऽहारमुपस्थितम् ।। ७
त्यागो ह्यप्राप्तकामानां कामेभ्यो न तथा गुरुः ।
यथा प्राप्तं परित्यज्य कामं कमललोचन ॥ ८
श्रुत्वैतद् ब्रह्मणो वाक्यं दैत्यः प्राञ्जलिरब्रवीत् ।
चिन्तयंस्तपसा युक्तो हृदि ब्रह्ममुखेरितम् ॥ ९
ब्रह्माजीने कहा-बेटा! तुम तो तपसे निवृत्त हो भोजन करने जा रहे थे, फिर तुम पुनः कठोर नियममें किस कारणसे तत्पर होना चाहते हो? महाव्रतधारी दैत्यराज! वह कारण मुझे बतलाओ। कमललोचन ! एक हजार वर्षतक निराहार रहनेका जो फल होता है, वह सामने उपस्थित आहारका त्याग कर देनेसे क्षणमात्रमें ही प्राप्त हो जाता है; क्योंकि अप्रास मनोरथवालोंका त्याग उतना महत्त्वपूर्ण नहीं माना जाता, जितना प्राप्त कामनावालेका त्याग वरिष्ठ होता है। ब्रह्माकी ऐसी बात सुनकर तपस्वी दैत्यराज वज्राङ्ग उस ब्रह्मवाणीका हृदयमें विचार करते हुए हाथ जोड़कर बोला ॥ ६-९॥
वाङ्ग उवाच
उत्थितेन मया दृष्टा समाधानात् त्वदाज्ञया।
महिषी भीषिता दीना रुदती शाखिनस्तले ॥ १०
सा मयोक्ता तु तन्वङ्गी दूयमानेन चेतसा ।
किमेवं वर्त्तसे भीरु वद त्वं किं चिकीर्षसि ॥ ११
इत्युक्ता सा मया देव प्रोवाच स्खलिताक्षरम् ।
वाक्यं वाचस्पते भीता तन्वङ्गी हेतुसंहितम् ॥ १२
त्रासितास्म्यपविद्धास्मि कर्षिता पीडितास्मि च।
रौद्रेण देवराजेन नष्टनाथेव भूरिशः ॥ १३
दुःखस्यान्तमपश्यन्ती प्राणांस्त्यक्तुं व्यवस्थिता ।
पुत्रं मे तारकं देहि हह्यस्माद् दुःखमहार्णवात् ॥ १४
एवमुक्तस्तु संक्षुब्धस्तस्याः पुत्रार्थमुद्यतः ।
तपो घोरं करिष्यामि जयाय त्रिदिवौकसाम् ॥ १५
एतच्छ्रुत्वा वचो देवः पद्मगर्भोद्भवस्तदा।
उवाच दैत्यराजानं प्रसन्नश्चतुराननः ।। १६
वज्राङ्गने कहा- भगवन्! आपकी आज्ञासे समाधिसे विरत होनेपर मैंने देखा कि मेरी पटरानी वराङ्गी एक वृक्षके नीचे बैठी हुई दौनभावसे भयभीत होकर रो रही है। यह देखकर मेरा मन दुःखी हो गया। तब मैंने उस सुन्दरीसे पूछा-'भीरु। तुम क्यों ऐसी दशामें पड़ गयी हो? मुझे बतलाओ तो सही, तुम क्या करना चाहती हो?' वाणीके अधीश्वर देव! मेरे ऐसा पूछनेपर भयभीत हुई सुन्दरी वराङ्गीने लड़खड़ाते हुए शब्दोंमें कारण बतलाते हुए कहा है कि 'नाथ! देवराज इन्द्रने निर्दय होकर मुझे अनाथ नारीकी तरह अनेक प्रकारसे डराया, अपमानित किया, घसीटा है और कष्ट पहुँचाया है। दुःखका अन्त न देखकर मैं प्राण त्याग करनेको उद्यत हो गयी हूँ। इसलिये मुझे इस दुःखरूपी महासागरसे उद्धार करनेवाला पुत्र प्रदान कीजिये।' उसके ऐसा कहनेपर मेरा मन संक्षुब्ध हो उठा है। इसलिये मैं उसे पुत्र प्रदान करनेके लिये उद्यत हो देवताओंपर विजय पानेके लिये घोर तप करूँगा। उसकी यह बात सुनकर पदासम्भव चतुर्मुख ब्रह्मा प्रसन्न हो गये और उस दैत्यराजसे बोले ॥ १०-१२ ॥
ब्रह्मोवाच
अलं ते तपसा वत्स मा क्लेशे दुस्तरे विश।
पुत्रस्ते तारको नाम भविष्यति महाबलः ॥ १७
देवसीमन्तिनीनां तु धम्मिल्लस्य विमोक्षणः ।
इत्युक्तो दैत्यनाथस्तु प्रणिपत्य पितामहम् ॥ १८
आगत्यानन्दयामास महिषीं हर्षिताननः ।
तौ दम्पती कृतार्थी तु जग्मतुः स्वाश्रमं मुदा ॥ १९
वज्राङ्गेणाहितं गर्भ वराङ्गी वरवर्णिनी।
पूर्ण वर्षसहस्रं च दधारोदर एव हि ॥ २०
ततो वर्षसहस्त्रान्ते वराङ्गी सुषुवे सुतम्।
जायमाने तु दैत्येन्द्रे तस्मिल्लोकभयङ्करे ॥ २१
चचाल सकला पृथ्वी समुद्राश्च चकम्पिरे।
चेलुर्महीधराः सर्वे ववुर्वाताश्च भीषणाः ॥ २२
जेपुर्जप्यं मुनिवरा नेदुर्व्यालमृगा अपि।
चन्द्रसूर्यौ जहुः कान्तिं सनीहारा दिशोऽभवन् ॥ २३
जाते महासुरे तस्मिन् सर्वे चापि महासुराः।
आजग्मुर्हषितास्तत्र तथा चासुरयोषितः ।। २४
जगुर्हर्षसमाविष्टा ननृतुश्चासुराङ्गनाः ।
ततो महोत्सवो जातो दानवानां द्विजोत्तमाः ॥ २५
विषण्णमनसो देवाः समहेन्द्रास्तदाभवन् ।
वराङ्गी स्वसुतं दृष्ट्वा हर्षेणापूरिता तदा ॥ २६
बहु मेने न देवेन्द्रविजयं तु तदैव सा।
जातमात्रस्तु दैत्येन्द्रस्तारक श्चण्डविक्रमः ।। २७
अभिषिक्तोऽसुरैः सर्वैः कुजम्भमहिषादिभिः ।
सर्वासुरमहाराज्ये पृथिवीतुलनक्षमैः ॥ २८
स तु प्राप्य महाराज्यं तारको मुनिसत्तमाः ।
उवाच दानवश्रेष्ठान् युक्तियुक्तमिदं वचः ॥ २९
ब्रह्माने कहा- वत्स ! तुम्हारी तपस्या पूरी हो चुकी है। अब तुम उस दुस्तर क्लेशपूर्ण कार्यमें मत प्रविष्ट होओ। तुम्हें तारक नामका ऐसा महाबली पुत्र प्राप्त होगा, जो देवाङ्गनाओंके केशकलापको खोल देनेवाला होगा (अर्थात् उन्हें विधवाकी परिस्थितिमें ला देगा)। ब्रह्माद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर दैत्यराज वज्राङ्गका मुख हर्षसे खिल उठा। तब वह ब्रह्माजीके चरणोंमें प्रणिपात करके अपनी पटरानी वराङ्गीके पास आया और उसने (पुत्र-प्राप्तिके वरदानकी बात बतलाकर) उसे आनन्दित किया। तत्पश्चात् दोनों पति-पत्नी कृतार्थ होकर प्रसन्नतापूर्वक अपने आश्रमको लौट गये। समयानुसार वज्राङ्गद्वारा स्थापित किये गये गर्भको सुन्दरी वराङ्गी पूरे एक हजार वर्षोंतक अपने उदरमें ही धारण किये रही। एक हजार वर्ष पूरा होनेपर वराङ्गीने पुत्र उत्पन्न किया। उस लोकभयंकर दैत्येन्द्रके जन्म लेते ही सारी पृथ्वी डगमगा उठी अर्थात् भूकम्प आ गया, समुद्रों में ज्वार-भाटा उठने लगा, सभी पर्वत विचलित हो उठे, भयावना झंझावात बहने लगा।
श्रेष्ठ मुनिगण शान्त्यर्थ जप करने लगे, सर्प तथा वन्य पशु आदि भी उच्च स्वरसे शब्द करने लगे, चन्द्रमा और सूर्यकी कान्ति फीकी पड़ गयी तथा दिशाओंमें कुहासा छा गया। द्विजवरो! उस महासुरके जन्म लेनेपर सभी प्रधान असुर हर्षसे भरे हुए वहाँ आ पहुँचे। उनके साथ राक्षसियाँ भी थीं। हर्षसे फूली हुई उन असुराङ्गनाओंमें कुछ तो नाचने लगीं और कुछ गाने लगीं। इस प्रकार वहाँ दानवोंका महोत्सव प्रारम्भ हो गया। यह देखकर इन्द्रसहित सभी देवताओंका मन खिन्न हो गया। उधर वराङ्गी अपने पुत्रका मुख देखकर हर्षसे भर गयी। उसी समय वह देवराज इन्द्रकी विजयको तुच्छ मानने लगी। प्रचण्ड पराक्रमी दैत्यराज तारक जन्म लेते ही पृथ्वीको भी उठा लेनेमें समर्थ कुजम्भ और महिष आदि सभी प्रधान असुरोंद्वारा सम्पूर्ण असुरोंके सम्म्राट्पदपर अभिषिक्त कर दिया गया। मुनिवरो ! तब उस महान् राज्यका अधिकार पाकर तारक उन दानवश्रेष्ठोंसे ऐसा युक्तिसंगत वचन बोला- ॥ १७-२९ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे तारकासुरोपाख्याने तारकोत्पत्तिर्नाम सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४७ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके तारकासुरोपाख्यानमें तारकोत्पत्ति नामक एक सौ सैतालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १४७ ॥
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