मत्स्य पुराण एक सौ एकहत्तरवाँ अध्याय
ब्रह्मा के मानस पुत्रों की उत्पत्ति, दक्ष की बारह कन्याओं का वृत्तान्त, ब्रह्मा द्वारा सृष्टि का विकास तथा विविध देवयोनियों की उत्पत्ति
मत्स्य उवाच
स्थित्वा च तस्मिन् कमले ब्रह्मा ब्रह्मविदां वरः ।
ऊर्ध्वबाहुर्महातेजास्तपो घोरं समाश्रितः ॥ १
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् । ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महान् तेजस्वी ब्रह्मा उस कमलपर स्थित होकर हाथोंको ऊपर उठाये हुए घोर तपस्यामें संलग्न हो गये। १
प्रज्वलन्निव तेजोभिर्भाभिः स्वाभिस्तमोनुदः ।
बभासे सर्वधर्मस्थः सहस्त्रांशुरिवांशुभिः ॥ २अथान्यद् रूपमास्थाय शम्भुर्नारायणोऽव्ययः ।
आजगाम महातेजा योगाचार्यों महायशाः ॥ ३
सांख्याचार्यो हि मतिमान् कपिलो ब्राह्मणो वरः ।
उभावपि महात्मानौ स्तुवन्ती क्षेत्रतत्परौ ॥ ४
तौ प्राप्तावूचतुस्तत्र ब्रह्माणममितौजसम् ।
परावरविशेषज्ञौ पूजितौ च महर्षिभिः ॥ ५
ब्रह्मात्मदृढबन्धश्च विशालो जगदास्थितः ।
ग्रामणीः सर्वभूतानां ब्रह्मा त्रैलोक्यपूजितः ॥ ६
तयोस्तद्वचनं श्रुत्वा ब्रह्माभ्याहृतयोगवित्।
त्रीनिमान् कृतवॉल्लोकान् यथेयं ब्रह्मणः श्रुतिः ॥ ७
पुत्रं च शम्भवे चैकं समुत्पादितवान् ऋषिः ।
तस्याग्रे वाग्यतस्तस्थौ ब्रह्माणमजमव्ययम् ॥ ८
सोत्पन्नमात्रो ब्रह्माणमुक्तवान् मानसः सुतः ।
किं कुर्मस्तव साहाय्यं ब्रवीतु भगवान् ऋषिः ॥ ९
उस समय सम्पूर्ण धर्मोंके निवासस्थान ब्रह्मा अपने तेज और अपनी कान्तिसे प्रज्वलित होते हुए से अन्धकारका विनाश कर रहे थे और अपनी किरणोंसे प्रकाशित सूर्यकी तरह उद्भासित हो रहे थे। तदनन्तर जो जगत्का कल्याण करनेवाले अविनाशी महान् यशस्वी एवं योगके आचार्य हैं, वे महान् तेजस्वी नारायण दूसरा रूप धारण कर वहाँ आये। साथ ही ब्राह्मणोंमें श्रेष्ठ सांख्याचार्य बुद्धिमान् कपिलजी भी उपस्थित हुए। वे दोनों महात्मा परावरके विशेषज्ञ, महर्षियोंद्वारा पूजित और अपने-अपने मार्गमें तत्पर रहनेवाले थे। वे वहाँ पहुँचकर अमित तेजस्वी ब्रह्माकी प्रशंसा करते हुए बोले- 'सर्वश्रेष्ठ', जगत्के रचयिता, त्रिलोकीद्वारा पूजित, सभी प्राणियोंके नायक ब्रह्मा अपने सुदृढ़ आसनपर विराजमान हैं।' उन दोनोंकी वह बात सुनकर पूर्वकथित योगके ज्ञाता ब्रह्माने इन तीन लोकोंकी रचना को, ब्रह्माके विषयमें यह श्रुति प्रसिद्ध है। उस समय ऋषिश्रेष्ठ ब्रह्माने जगत्के कल्याणके लिये एक पुत्र उत्पन्न किया। ब्रह्माका वह मानस पुत्र उत्पन्न होते ही उनके समक्ष चुपचाप खड़ा हो गया और फिर उन अजन्मा अविनाशी ब्रह्मासे इस प्रकार बोला-'आप ऐश्वर्यशाली ऋषि बतलायें कि मैं आपकी कौन-सी सहायता करूँ?' ॥ २-९॥
ब्रह्मोवाच
य एष कपिलो ब्रह्म नारायणमयस्तथा ।
बदते भवतस्तत्त्वं तत्कुरुष्व महामते । १०
ब्रह्मणस्तु तदर्थं तु तदा भूयः समुत्थितः ।
शुश्रूषुरस्मि युवयोः किं करोमि कृताञ्जलिः ॥ ११
ब्रह्माने कहा-महामते। ये जो महर्षि कपिल और नारायणस्वरूप ब्रह्म सामने उपस्थित हैं, ये दोनों तुमसे जिस तत्त्वका वर्णन करें, तुम वैसा ही करो। ब्रह्माके उस अभिप्रायको जानकर वह पुनः उठ खड़ा हुआ और उनके समक्ष जाकर हाथ जोड़कर बोला-'मैं आपलोगोंका आदेश सुनना चाहता हूँ, कहिये क्या करूँ?' ॥१०-११॥
श्रीभगवानुवाच
यत्सत्यमक्षरं ब्रह्म ह्यष्टादशविधं तु तत्।
यत्सत्यं यदृतं तत्तु परं पदमनुस्मर ॥ १२
एतद्वचो निशम्यैव ययौ स दिशमुत्तराम्।
गत्वा च तत्र ब्रह्मत्वमगमञ्जानतेजसा ॥ १३
ततो ब्रह्मा भुवं नाम द्वितीयमसृजत् प्रभुः ।
संकल्पयित्वा मनसा तमेव च महामनाः ॥ १४
ततः सोऽथाब्रवीद् वाक्यं किं करोमि पितामह।
पितामहसमाज्ञातो ब्रह्माणं समुपस्थितः ॥ १५
ब्रह्माभ्यासं तु कृतवान् भुवश्च पृथिवीं गतः ।
प्राप्तं च परमं स्थानं स तयोः पार्श्वमागतः ॥ १६
तस्मिन्नपि गते पुत्रे तृतीयमसृजत् प्रभुः ।
सांख्यप्रवृत्तिकुशलं भूर्भुवं नामतो विभुम् ॥ १७
गोपतित्वं समासाद्य तयोरेवागमद् गतिम् ।
एवं पुत्रास्त्रयोऽप्येत उक्ताः शम्भोर्महात्मनः ॥ १८
तान् गृहीत्वा सुतांस्तस्य प्रयातः स्वार्जितां गतिम् ।
नारायणश्च भगवान् कपिलश्च यतीश्वरः ॥ १९
श्रीभगवान् बोले- ब्रह्मन् ! जो सत्य और अविनाशौ ब्रह्म है, वह अठारह प्रकारका है। जो सत्य है, जो ऋत है, वही परम पद है। तुम उसका अनुस्मरण करो। ऐसी बात सुनते ही वह उत्तर दिशाकी ओर चला गया और वहाँ जाकर उसने अपने ज्ञानके तेजसे ब्रह्मत्वको प्रास कर लिया। तत्पश्चात् महामना एवं सामर्थ्यशाली ब्रह्माने मानसिक संकल्पद्वारा 'ध्रुव' नामक दूसरे पुत्रकी सृष्टि की। तब उसने भी ब्रह्माके समक्ष खड़ा होकर इस प्रकार कहा- 'पितामह। मैं कौन-सा कार्य करूँ?' फिर ब्रह्माकी आज्ञासे वह ब्रह्मके निकट गया। तदुपरान्त 'भुव' ने भूतलपर आकर ब्रह्मका अभ्यास किया और ब्रह्म एवं महर्षि कपिलके पास आकर परम पदको प्राप्त कर लिया। उस पुत्रके भी चले जानेपर भगवान् ब्रह्माने 'भूर्भुव' नामक तीसरे पुत्रको प्रकट किया, जो सर्वव्यापी और सांख्यशास्त्रमें परम प्रवीण था। यह भी इन्द्रियजयी होकर उन दोनों भाइयोंकी गतिको प्राप्त हो गया। इस प्रकार कल्याणकारी महात्मा ब्रह्माके ये तीनों पुत्र कहे गये हैं। तदनन्तर भगवान् नारायण और यतीश्वर कपिल ब्रह्माके उन तीनों पुत्रोंको साथ लेकर अपने तपद्वारा उपार्जित गतिको प्राप्त हो गये ॥ १२-१९॥
यं कालं तौ गतौ मुक्तौ ब्रह्मा तं कालमेव हि।
ततो घोरतमं भूयः संश्रितः परमं व्रतम् ॥ २०
न रेमेऽथ ततो ब्रह्मा प्रभुरेकस्तपश्चरन्।
शरीरात्तां ततो भार्यां समुत्पादितवाशुभाम् ॥ २१
तपसा तेजसा चैव वर्चसा नियमेन च।
सदृशीमात्मनो देवीं समर्धा लोकसर्जने ॥ २२
तया समाहितस्तत्र रेमे ब्रह्मा तपश्चरन् ।
ततो जगाद त्रिपदां गायत्रीं वेदपूजिताम् ॥ २३
सृजन् प्रजानां पतयः सागरांश्चासृजद् विभुः ।
अपरांश्चैव चतुरो वेदान् गायत्रिसम्भवान् ॥ २४
आत्मनः सदृशान् पुत्रानसृजद् वै पितामहः ।
विश्वे प्रजानां पतयो येभ्यो लोका विनिःसृताः ॥ २५
विश्वेशं प्रथमं तावन्महातापसमात्मजम् ।
सर्वमन्त्रहितं पुण्यं नाम्ना धर्म स सृष्टवान् ॥ २६
दक्षं मरीचिमत्रिं च पुलस्त्यं पुलहं क्रतुम् ।
वसिष्ठं गौतमं चैव भृगुमङ्गिरसं मनुम् ॥ २७
अथैवाद्भुतमित्येते ज्ञेयाः पैतामहर्षयः।
त्रयोदशगुणं धर्ममालभन्त महर्षयः ॥ २८
इधर जिस समय वे दोनों मुक्त पुरुष चले गये, उसी समयसे ब्रह्मा पुनः अत्यन्त कठोर परम व्रतके पालनमें संलग्न हो गये। जब सामर्थ्यशाली ब्रह्माको अकेले तपस्या करते हुए आनन्दका अनुभव नहीं हुआ, तब उन्होंने अपने शरीरसे एक ऐसी सुन्दरी भार्याको उत्पन्न किया, जो तपस्या, तेज, ओजस्विता और नियमपालनमें उन्होंके समान थी। वह देवी लोककी सृष्टि करनेमें भी समर्थ थी। उससे युक्त होकर वहाँ तपस्या करते हुए ब्रह्माको संतोषका अनुभव हुआ, तब उन्होंने वेदपूजित त्रिपदा गायत्रीका उच्चारण किया। तत्पश्चात् सर्वव्यापी ब्रह्माने प्रजापतियोंकी सृष्टि करते हुए सागरोंकी तथा गायत्रीसे उत्पन्न होनेवाले अन्य चारों वेदोंकी रचना की। फिर ब्रह्माने अपने ही सदृश पुत्रोंको उत्पन्न किया, जो विश्वमें प्रजापतिके नामसे विख्यात हुए और जिनसे सारी प्रजाएँ उत्पन्न हुईं। सर्वप्रथम उन्होंने अपने धर्म नामक पुत्रको प्रकट किया, जो विश्वके ईश्वर, महान् तपस्वी, सम्पूर्ण मन्त्रोंद्वारा अभिरक्षित और परम पावन थे। तदुपरान्त उन्होंने दक्ष, मरीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, वसिष्ठ, गौतम, भृगु, अङ्गिरा और मनुको उत्पन्न किया। ब्रह्माके पुत्रभूत इन महर्षियोंको अत्यन्त अद्भुत जानना चाहिये। इन्हीं महर्षियोंने तेरह प्रकारके गुणोंसे युक्त धर्मका प्रतिपादन एवं अनुसरण किया ॥ २०-२८॥
अदितिर्दितिर्दनुः काला अनायुः सिंहिका मुनिः ।
ताम्रा क्रोधाथ सुरसा विनता कद्रुरेव च ॥ २९
दक्षस्यापत्यमेता वै कन्या द्वादश पार्थिव।
मरीचेः कश्यपः पुत्रस्तपसा निर्मितः किल ॥ ३०
तस्मै कन्या द्वादशान्या दक्षस्ताः प्रददौ तदा।
नक्षत्राणि च सोमाय तदा वै दत्तवान् ऋषिः ॥ ३१
रोहिण्यादीनि सर्वाणि पुण्यानि रविनन्दन।
लक्ष्मीर्मरुत्वती साध्या विश्वेशा च मता शुभा ॥ ३२
देवी सरस्वती चैव ब्रह्मणा निर्मिताः पुरा।
एताः पञ्च वरिष्ठा वै सुरश्रेष्ठाय पार्थिव ॥ ३३
दत्ता भद्राय धर्माय ब्रह्मणा दृष्टकर्मणा।
या तु रूपवती पत्नी ब्रह्मणः कामरूपिणी ॥ ३४
सुरभिः सा हिता भूत्वा ब्रह्माणं समुपस्थिता ।
ततस्तामगमद् ब्रह्मा मैथुनं लोकपूजितः ॥ ३५
लोकसर्जनहेतुज्ञो गवामर्थाय सत्तमः।
जज्ञिरे च सुतास्तस्यां विपुला धूमसन्निभाः ।। ३६
नक्तसंध्याभ्रसङ्काशा प्रादहंस्तिग्मतेजसः ।
ते रुदन्तो द्रवन्तश्च गर्हयन्तः पितामहम् ॥ ३७
रोदनाद् द्रवणाच्चैव रुद्रा इति ततः स्मृत्ताः ।
निर्ऋतिश्चैव शम्भुर्वं तृतीयश्चापराजितः ॥ ३८
मृगव्याधः कपर्दी च दहनोऽथेश्वरश्च वै।
अहिर्बुध्न्यश्च भगवान् कपाली चापि पिङ्गलः ॥ ३९
राजन् ! अदिति, दिति, दनु, काला, अनायु, सिंहिका, मुनि, ताम्रा, क्रोधा, सुरसा, विनता और कडू-ये बारह कन्याएँ दक्ष प्रजापतिकी संतान हैं। कश्यप महर्षि मरीचिके पुत्र थे, जो पिताकी तपस्याके प्रभावसे उत्पन्न हुए थे। उस समय दक्षने कश्यपको अपनी उन बारह कन्याओंको पत्नीरूपमें प्रदान किया था। रविनन्दन ! उसी समय ऋषिवर ब्रह्माने नक्षत्रसंज्ञक रोहिणी आदि सभी पुण्यमयी कन्याओंको चन्द्रमाके हाथोंमें सौंप दिया। लक्ष्मी, मरुत्वती, साध्या, शुभा, विश्वेशा और सरस्वती देवी- ये पूर्वकालमें ब्रहगद्वारा निर्मित हुई थीं। राजन् । कर्मपर दृष्टि रखनेवाले ब्रह्माने इन पाँचों सर्वश्रेष्ठ कन्याओं-को मङ्गलकारक सुरश्रेष्ठ धर्मको समर्पित कर दिया। इसी बीच ब्रह्माकी स्वेच्छानुसार रूप धारण करनेवाली एवं हितकारिणी सुन्दरी पत्नी सुरभिका रूप धारण कर ब्रह्माके निकट उपस्थित हुई। तब लोक-सृष्टिके कारणोंके ज्ञाता लोकपूजित देवश्रेष्ठ ब्रह्माने गौओंकी उत्पत्तिके निमित्त उसके साथ मानसिक समागम किया। उससे धूमकी-सी कान्तिवाले विशालकाय पुत्र उत्पन्न हुए। उनका वर्ण रात्रि और संध्याके संयोगकालमें छाये हुए बादलोंके समान था। वे अपने प्रचण्ड तेजसे सबको जला रहे थे और ब्रह्माकी निन्दा करते हुए रोते-से वे इधर-उधर दौड़ रहे थे। इस प्रकार रोने और दौड़नेके कारण वे 'रुद्र' कहे जाते हैं। निऋति, शम्भु, तीसरे अपराजित, मृगव्याध, कपर्दी, दहन, ईश्वर, अहिर्बुध्न्य, भगवान् कपाली, पिंगल और महातेजस्वी सेनानी-ये ग्यारह रुद्र कहलाते हैं ॥ २९-३९॥
सेनानीश्च महातेजा रुद्रास्त्वेकादश स्मृताः ।
तस्यामेव सुरभ्यां च गावो यज्ञेश्वराश्च वै ॥ ४०
प्रकृष्टाश्च तथा मायाः सुरभ्याः पशवोऽक्षराः ।
अजाश्चैव तु हंसाश्च तथैवामृतमुत्तमम् ॥ ४९
ओषध्यः प्रवरायाश्च सुरभ्यास्ताः समुत्थिताः ।
धर्माल्लक्ष्मीस्तथा कामं साध्या साध्यान् व्यजायत ।। ४२
भवं च प्रभवं चैव हीशं चासुरहं तथा।
अरुणं चारुणिं चैव विश्वावसुबलध्रुवान् ॥ ४३
हविष्यं च वितानं च विधानशमितावपि।
वत्सरं चैव भूतिं च सर्वासुरनिषूदनम् ॥ ४४
सुपर्वाणं बृहत्कान्तिः साध्या लोकनमस्कृता ।
तमेवानुगता देवी जनयामास वै सुरान् ॥ ४५
वरं वै प्रथमं दैवं द्वितीयं ध्रुवमव्ययम् ।
विश्वावसुं तृतीयं च चतुर्थं सोममीश्वरम् ।। ४६
ततोऽनुरूपमायं च यमस्तस्मादनन्तरम्।
सप्तमं च तथा वायुमष्टमं निऋतिं वसुम् ॥ ४७
धर्मस्यापत्यमेतद् वै सुदेव्यां समजायत।
विश्वे देवाश्च विश्वायां धर्माज्जाता इति श्रुतिः ।। ४८
दक्षश्चैव महाबाहुः पुष्करस्वन एव च।
चाक्षुषस्तु मनुश्चैव तथा मधुमहोरगी ॥ ४९
विश्रान्तकवपुर्बालो विष्कम्भश्च महायशाः।
गरुडश्चातिसत्त्वौजा भास्करप्रतिमद्युतिः ।। ५०
तदनन्तर उसी श्रेष्ठ सुरभिसे यज्ञकी साधनभूता गौएँ, प्रकृष्ट माया, अविनाशी पशुगण, बकरियाँ, हंस, उत्तम अमृत और ओषधियाँ उत्पन्न हुई। धर्मके संयोगसे लक्ष्मीने कामको और साध्याने साध्यगणोंको जन्म दिया। भव, प्रभव, ईश, असुरहन्ता, अरुण, आरुणि, विश्वावसु, बल, ध्रुव, हविष्य, वितान, विधान, शमित, वत्सर, सम्पूर्ण असुरोंके विनाशक भूति और सुपर्वा- इन देवताओंको लोकनमस्कृता परम सुन्दरी साध्यादेवीने धर्मके संयोगसे जन्म दिया। इसी प्रकार प्रथम वर, दूसरे अविनाशी ध्रुव, तीसरे विश्वावसु, चौथे ऐश्वर्यशाली सोम, पाँचवें अनुरूपमाय, तदनन्तर छठे यम, सातवें वायु और आठवें वसु निर्ऋति- ये सभी धर्मके पुत्र सुदेवीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। धर्मके संयोगसे विश्वाके गर्भसे विश्वेदेवोंकी उत्पत्ति हुई है-ऐसा सुना जाता है। महाबाहु दक्ष, पुष्करस्वन, चाक्षुष मनु, मधु, महोरग, विश्रान्तकवपु, बाल, महायशस्वी विष्कम्भ और सूर्यकी-सी कान्तिवाले अत्यन्त पराक्रमी एवं तेजस्वी गरुड-इन विश्वेदेवोंको | देवमाता विश्वेशाने पुत्ररूपमें जन्म दिया ॥४०-५०॥
विश्वान् देवान् देवमाता विश्वेशाजनयत् सुतान्।
मरुत्वती मरुत्वतो देवानजनयत् सुतान् ॥ ५१
अग्निं चक्षु रविर्ज्यातिः सावित्रं मित्रमेव च।
अमरं शरवृष्टिं च सुकर्षं च महाभुजम् ॥ ५२
विराजं चैव वार्च च विश्वावसुमतिं तथा।
अश्वमित्रं चित्ररश्मिं तथा निषधनं नृप ॥ ५३
हान्तं वाडवं चैव चारित्रं मन्दपन्नगम्।
बृहन्तं वै बृहद्रूपं तथा वै पूतनानुगम् ॥ ५४
मरुत्वती पुरा जज्ञे एतान् वै मरुतां गणान्।
अदितिः कश्यपाज्जज्ञ आदित्यान् द्वादशैव हि ॥ ५५
इन्द्रो विष्णुर्भगस्त्वष्टा वरुणो ह्यर्यमा रविः ।
पूषा मित्रश्च धनदो धाता पर्जन्य एव च ॥ ५६
इत्येते द्वादशादित्या वरिष्ठास्त्रिदिवौकसः ।
आदित्यस्य सरस्वत्यां जज्ञाते द्वौ सुतौ वरौ ॥ ५७
तपः श्रेष्ठौ गुणिश्रेष्ठौ त्रिदिवस्यापि सम्मतौ ।
दनुस्तु दानवाञ्जज्ञे दितिर्दैत्यान् व्यजायत ॥ ५८
काला तु वै कालकेयानसुरान् राक्षसांस्तु वै।
अनायुषायास्तनया व्याधयः सुमहाबलाः ॥ ५९
सिंहिका ग्रहमाता वै गन्धर्वजननी मुनिः।
ताम्रा त्वप्सरसां माता पुण्यानां भारतोद्भव ॥ ६०
क्रोधायाः सर्वभूतानि पिशाचाश्चैव पार्थिव।
जज्ञे यक्षगणांश्चैव राक्षसांश्च विशाम्पते ॥ ६१
इसी प्रकार मरुत्वतीने मरुत् देवताओंको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया। अग्नि, चक्षु, रवि, ज्योति, सावित्र, मित्र, अमर, शरवृष्टि, महाभुज सुकर्ष, विराज, वाच, विश्वावसु, मति, अश्वमित्र, चित्ररश्मि, निषधन, हान्त, वाडव, चारित्र, मन्दपत्रग, बृहन्त, बृहद्रूप तथा पूतनानुग- इन मरुद्रणोंको पूर्वकालमें मरुत्वतीने जन्म दिया था। अदितिने कश्यपके संयोगसे बारह आदित्योंको उत्पन्न किया। उनके नाम हैं-इन्द्र, विष्णु, भग, त्वष्टा, वरुण, अर्थमा, रवि, पूषा, मित्र, धनद, धाता और पर्जन्य। ये बारह आदित्य देवताओंमें सर्वश्रेष्ठ माने जाते हैं। आदित्यके सरस्वतीके गर्भसे दो श्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न हुए, जो तपस्वियोंमें श्रेष्ठ, गुणवानोंमें प्रधान और देवताओंके लिये भी पूजनीय कहे जाते हैं। दनुने दानवोंको और दितिने दैत्योंको उत्पन्न किया। कालाने कालकेय नामक असुरों और राक्षसोंको जन्म दिया। अत्यन्त बलवती व्याधियाँ अनायुषाकी संतान हैं। सिंहिका राहुग्रहकी माता है और मुनि गन्धवोंको जननी कही जाती है। भरतकुलोत्पन्न राजन् ! ताम्रा पवित्रात्मा अप्सराओंकी माता है। क्रोधासे सभी भूत और पिशाच पैदा हुए। विशाम्पते। क्रोधाने यक्षगणों और राक्षसोंको भी जन्म दिया था॥ ५१-६१॥
चतुष्पदानि सत्त्वानि तथा गावस्तु सौरभाः ।
सुपर्णान् पक्षिणश्चैव विनता चाप्यजायत ॥ ६२
महीधरान् सर्वनागान् देवी कद्रूर्व्यजायत।
एवं वृद्धिं समगमन् विश्वे लोकाः परंतप ॥ ६३
तदा वै पौष्करो राजन् प्रादुर्भावो महात्मनः ।
प्रादुर्भावो पौष्करस्ते मया द्वैपायनेरितः ॥ ६४
पुराणः पुरुषश्चैव मया विष्णुर्हरिः प्रभुः ।
कथितस्तेऽऽनुपूर्येण संस्तुतः परमर्षिभिः ॥ ६५
यश्चेदमध्यं शृणुयात् पुराणं सदा नरः पर्वसु गौरवेण।
अवाप्य लोकान् स हि वीतरागः परत्र च स्वर्गफलानि भुङ्क्ते ॥ ६६
चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्विधम्।
प्रसादयति यः कृष्णं तं कृष्णोऽनुप्रसीदति ॥ ६७
राजा च लभते राज्यमधनश्चोत्तमं धनम् ।
क्षीणायुर्लभते चायुः पुत्रकामः सुतं तथा ॥ ६८
यज्ञा वेदास्तथा कामास्तपांसि विविधानि च।
प्राप्नोति विविधं पुण्यं विष्णुभक्तो धनानि च ।। ६९
यद्यत्कामयते किञ्चित् तत्तल्लोकेश्वराद् भवेत् ।
सर्व विहाय य इमं पठेत् पौष्करकं हरेः ॥ ७०
प्रादुर्भावं नृपश्रेष्ठ न तस्य हृाशुभं भवेत्।
एष पौष्करको नाम प्रादुर्भावो महात्मनः ।
कीर्तितस्ते महाभाग व्यासश्रुतिनिदर्शनात् ॥ ७१
राजन् ! सभी चौपाये जीव तथा गौएँ सुरभीकी संतान हैं। विनताने सुन्दर पंखधारी पक्षियोंको पैदा किया। कडूदेवीने पृथ्वीको धारण करनेवाले सभी प्रकारके नागोंको उत्पन्न किया। परंतप। इसी प्राकर विश्वमें लोकसृष्टि वृद्धिको प्राप्त हुई है। राजन् । यही महात्मा विष्णुका पुष्करसम्बन्धी प्रादुर्भाव है। व्यासद्वारा कहे गये इस पौष्कर प्रादुर्भावका तथा जो पुराणपुरुष, सर्वव्यापी और महर्षियोंद्वारा संस्तुत हैं, उन भगवान् श्रीहरिका वर्णन मैंने तुम्हें आनुपूर्वी सुना दिया। जो मनुष्य सदा पवंकि समय गौरवपूर्वक इस श्रेष्ठ पुराणको श्रवण करता है, वह वीतराग होकर लौकिक सुखोंका उपभोग करके परलोकमें स्वर्गफलोंका भोग करता है। जो मनुष्य श्रीकृष्णको नेत्र, मन, वचन और कर्म-इन चारों प्रकारोंसे प्रसन्न करता है तो श्रीकृष्ण भी उसे उसी प्रकार आनन्दित करते हैं। राजाको राज्यकी, निर्धनको उत्तम धनकी, क्षीणायुको दीर्घायुको तथा पुत्रार्थीको पुत्रकी प्राप्ति होती है। विष्णुभक्त मनुष्य यज्ञ, वेद, कामनापूर्ति, अनेकविध तप, विविध पुण्य और धनको प्राप्त करता है। नृपश्रेष्ठ। जो मनुष्य सबका परित्याग करके श्रीहरिके इस पौष्कर-प्रादुर्भावका पाठ करता है, वह जो-जो कामनाएँ करता है, वह सब कुछ उस लोकेश्वरभगवान्से प्राप्त हो जाता है और उसका कभी अमङ्गल नहीं होता। महाभाग ! इस प्रकार मैंने तुमसे महात्मा विष्णुके पुष्कर या कमलके प्रादुर्भावका वर्णन कर चुका। यह व्यासके वचनों तथा श्रुतियोंका निदर्शन है ॥ ६२-७१ ॥
इति श्रीमाल्ये महापुराणे पद्मोद्भवप्रादुर्भावो नामैकसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७१ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके पद्मोद्भवप्रादुर्भाव-प्रसङ्गमें एक सी एकहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥१७१॥
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