मत्स्य पुराण दो सौ चौबीसवाँ अध्याय
दान-नीति की प्रशंसा
मत्स्य उवाच
सर्वेषामप्युपायानां दानं श्रेष्ठतमं मतम् ।
सुदत्तेनेह भवति दानेनोभयलोकजित् ॥ १
मत्स्यभगवान्ने कहा-दान सभी उपायोंमें सर्वश्रेष्ठ है। प्रचुर दान देनेसे मनुष्य दोनों लोकोंको जीत लेता है। राजन् । ऐसा कोई नहीं है। १
न सोऽस्ति राजन् दानेन वशगो यो न जायते।
दानेन वशगा देवा भवन्तीह सदा नृणाम् ॥ २
दानमेवोपजीवन्ति प्रजाः सर्वा नृपोत्तम।
प्रियो हि दानवाँल्लोके सर्वस्यैवोपजायते ॥ ३
दानवानचिरेणैव तथा राजा परान् जयेत्।
दानवानेव शक्नोति संहतान् भेदितुं परान् ॥ ४
यद्यप्यलुब्धगम्भीराः पुरुषाः सागरोपमाः ।
न गृह्णन्ति तथाप्येते जायन्ते पक्षपातिनः ॥ ५
अन्यत्रापि कृतं दानं करोत्यन्यान् यथा वशे।
उपायेभ्यः प्रशंसन्ति दानं श्रेष्ठतमं जनाः ॥ ६
दानं श्रेयस्करं पुंसां दानं श्रेष्ठतमं परम्।
दानवानेव लोकेषु पुत्रत्वे नियते सदा ॥ ७
न केवलं दानपरा जयन्ति भूर्लोकमेकं पुरुषप्रवीराः ।
जयन्ति ते राजसुरेन्द्रलोकं सुदुर्जयं यो विबुधाधिवासः ॥ ८
जो दानद्वारा वशमें न किया जा सके। दानसे देवतालोग भी सदाके लिये मनुष्योंके वशमें हो जाते हैं। नृपोत्तम! सारी प्रजाएँ दानके बलसे ही पालित होती हैं। दानी मनुष्य संसारमें सभीका प्रिय हो जाता है। दानशील राजा शीघ्र ही शत्रुओंको जीत लेता है। दानशील ही संगठित शत्रुओंका भेदन करनेमें समर्थ हो सकता है। यद्यपि निर्लोभ तथा समुद्रके समान गम्भीर स्वभाववाले मनुष्य स्वयं दानको अङ्गीकार नहीं करते, तथापि वे (भी दानी व्यक्तिके) पक्षपाती हो जाते हैं। अन्यत्र किया गया दान भी अन्य लोगोंको अपने वशमें कर लेता है, इसलिये लोग सभी उपायोंमें श्रेष्ठतम दानकी प्रशंसा करते हैं। दान पुरुषों का कल्याण करनेवाला तथा परम श्रेष्ठ है। लोकमें दानशील व्यक्तिकी सर्वदा पुत्रकी भाँति प्रतिष्ठा होती है। दानपरायण पुरुषश्रेष्ठ केवल एक भूलोकको ही अपने वशमें नहीं करते, प्रत्युत वे अत्यन्त दुर्जय देवराज इन्द्रके लोकको भी, जो देवताओंका निवासस्थान है, जीत लेते हैं ॥२-८ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे राजधर्मदानप्रशंसा नाम चतुर्विशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२४ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराण के राजधर्म-प्रकरणमें दान-प्रशंसा नामक दो सौ चौबीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २२४॥
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