देवताओं और दानवों का घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्निकी उत्पत्ति और महर्षि ऊर्वद्वारा हिरण्यकशिपुको उसकी प्राप्ति | devataon aur daanavon ka ghamaasaan yuddh, mayakee taamasee maaya, aurvaagnikee utpatti aur maharshi oorvadvaara hiranyakashipuko usakee praapti

मत्स्य पुराण एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय

देवताओं और दानवों का घमासान युद्ध, मयकी तामसी माया, और्वाग्नि की उत्पत्ति और महर्षि ऊर्व द्वारा हिरण्य कशिपुको उसकी प्राप्ति

मत्स्य उवाच

ताभ्यां बलाभ्यां संजज्ञे तुमुलो विग्रहस्तदा। 
सुराणामसुराणां च परस्परजयैषिणाम् ॥ १

मत्स्यभगवान्ने कहा- रविनन्दन । तदनन्तर परस्पर विजय की अभिलाषावाले देवताओं और दानवों की उन दोनों सेनाओंमें घमासान युद्ध होने लगा। १

दानवा दैवतैः सार्धं नानाप्रहरणोद्यताः ।
सभीयुर्युध्यमाना वै पर्वता इव पर्वतैः ॥ २

तत्सुरासुरसंयुक्तं युद्धमत्यद्भुतं बभौ।
धर्माधर्मसमायुक्तं दर्पेण विनयेन च ॥ ३

ततो रथैर्विप्रयुक्तैर्वारणैश्च प्रचोदितैः।
उत्पत‌द्भिश्च गगनमसिहस्तैः समंततः ॥ ४

क्षिप्यमाणैश्च मुसलैः सम्पतद्भिश्च सायकैः । 
चापैर्विस्फार्यमाणैश्च पात्यमानैश्च मुद्गरैः ॥ ५

तद् युद्धमभवद् घोरं देवदानवसंकुलम् । 
जगत्संस्त्रासजननं युगसंवर्तकोपमम् ॥ ६

हस्तमुक्तैश्च परिधैर्विप्रयुक्तैश्च पर्वतैः । 
दानवाः समरे जघ्नुर्देवानिन्द्रपुरोगमान् ॥ ७

ते वध्यमाना बलिभिर्दानवैर्जयकाङ्क्षिभिः । 
विषण्णवदना देवा जग्मुरार्ति परां मृधे ॥ ८

तैस्त्रिशूलप्रमथिताः परिधैर्भिन्नमस्तकाः।
भिन्नोरस्का दितिसुतैर्वेमू रक्तं व्रणैर्बहु ॥ ९

वेष्टिताः शरजालैश्च निर्यत्राश्चासुरैः कृताः । 
प्रविष्टा दानवीं मायां न शेकुस्ते विचेष्टितुम् ॥ १० 

अस्तंगतमिवाभाति निष्प्राणसदृशाकृतिः । 
बलं सुराणामसुरैर्निष्प्रयत्नायुधं कृतम् ॥ ११ 

नाना प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे लैस हुए दानवगण देवताओंके साथ युद्ध करते हुए एक-दूसरेसे भिड़ गये। उस समय वे ऐसा प्रतीत हो रहे थे मानो पर्वत पर्वतोंके साथ भिड़ गये हों। देवताओं और असुरोंके बीच छिड़ा हुआ वह युद्ध धर्म, अधर्म, दर्प और विनयसे युक्त होनेके कारण अत्यन्त अद्भुत लग रहा था। उस समय रथोंको पृथक् पृथक् आगे बढ़ाया जा रहा था, हाथियोंको उत्तेजित किया जा रहा था, चारों ओर सैनिक हाथमें तलवार लिये हुए आकाशमें उछल रहे थे, मुसल फेंके जा रहे थे, बाणोंकी वर्षा हो रही थी, धनुषोंका टंकार हो रहा था, मुद्रर गिराये जा रहे थे, इस प्रकार देवों और दानवों से व्याप्त हुए उस युद्धने भयंकर रूप धारण कर लिया है। वह युगान्तकालिक संवर्तक अग्निकी तरह जगत्‌को भयभीत करने लगा। दानवगण समरभूमिमें पृथक् पृथक् हाथोंसे फेंके गये परिघों और पर्वतोंसे इन्द्र आदि देवताओंपर प्रहार करने लगे। इस प्रकार रणभूमिमें विजयाभिलाषी बलवान् दानवोंद्वारा मारे जाते हुए उन देवताओंका मुख सूख गया और वे बड़ी कष्टपूर्ण स्थितिमें पड़ गये। दानवोंने उन्हें शूलोंसे बौध डाला, परिषोंकी चोटसे उनके मस्तक विदीर्ण तथा वक्षःस्थल चूर-चूर हो गये और उनके घावोंसे अविरल रक्त प्रवाहित होने लगा। असुरोंने देवताओंको वाणसमूहोंसे परिवेष्टित करके प्रयत्नहीन कर दिया। वे दानवी मायामें प्रविष्ट होकर किसी प्रकारको भी चेष्टा करनेमें असमर्थ हो गये। देवताओंकी वह सेना प्राणरहितकी तरह विनष्ट हुई-सी दौख रही थी। असुरोंने उसे आयुध और प्रयत्नसे रहित कर दिया था ॥२-११॥

दैत्यचापच्युतान् घोरांश्छित्त्वा वज्रेण ताशरान्। 
शक्रो दैत्यबलं घोरं विवेश बहुलोचनः ॥ १२

स दैत्यप्रमुखान् हत्वा तद्दानवबलं महत्।
तामसेनास्त्रजालेन तमोभूतमथाकरोत् ॥ १३

तेऽन्योऽन्यं नावबुध्यन्त देवानां वाहनानि च।
घोरेण तमसाविष्टाः पुरुहूतस्य तेजसा ॥ १४

मायापाशैर्विमुक्तास्तु यत्नवन्तः सुरोत्तमाः ।
वपूंषि दैत्यसिंहानां तमोभूतान्यपातयन् ॥ १५

अपध्वस्ता विसंज्ञाश्च तमसा नीलवर्चसा।
पेतुस्ते दानवगणाश्छिन्नपक्षा इवाद्रयः ॥ १६

तद् घनीभूतदैत्येन्द्रमन्धकार इवार्णवे। 
दानवं देवकदनं तमोभूतमिवाभवत् ॥ १७

तदा सृजन् महामायां मयस्तां तामसीं दहन्।
युगान्तोद्योतजननीं सृष्टामौर्वेण वह्निना ॥ १८

सा ददाह ततः सर्वान् मायाः मयविकल्पिताः ।
दैत्याश्चादित्यवपुषः सद्य उत्तस्थुराहवे ॥ १९

मायामौर्वी समासाद्य दह्यमाना दिवौकसः । 
भेजिरे चेन्द्रविषयं शीतांशुसलिलप्रदम् ॥ २०

ते दह्यमाना ह्यौर्वेण वह्निना नष्टचेतसः । 
शशंसुर्वज्रिणं देवाः संतप्ताः शरणैषिणः ॥ २१ 

तदनन्तर सहस्रनेत्रधारी इन्द्र वज्रद्वारा दैत्योंके धनुषोंसे छूटे हुए भयंकर बाणोंको छिन्न-भिन्न करके दैत्योंकी भीषण सेनामें प्रविष्ट हुए। उन्होंने प्रधान प्रधान दैत्योंका वध करके दानवोंकी उस विशाल सेनाको तामस अस्त्रसमूहके प्रयोगसे अन्धकारमय बना दिया। इस प्रकार इन्द्रके पराक्रमसे घोर अन्धकारसे घिरे हुए वे दानव परस्पर एक-दूसरेको तथा देवताओंके वाहनोंको भी नहीं पहचान पाते थे। इधर दानवी मायाके पाशसे मुक्त हुए श्रेष्ठ देवगण प्रयत्न करके दैत्येन्द्रोंके अन्धकारमय शरीरोंको काटकर गिराने लगे। उस नील कान्तिवाले अन्धकारसे घिरे हुए वे दानवगण मूच्छित होकर धराशायी होते हुए ऐसे लग रहे थे मानो कटे हुए पंखवाले पर्वत हों। दैत्येन्द्रोंकी वह सेना समुद्रमें अन्धकारकी तरह एकत्र हो गयी और देवताओं द्वारा मारे जाते हुए दानव अन्धकारमय से हो गये। यह देखकर मयदानवने इन्द्रकी उस तामसी मायाको नष्ट करते हुए अपनी महान् राक्षसी मायाका सृजन किया। वह और्व नामक अग्निसे उत्पन्न हुई और प्रलयकालीन (भयंकर) प्रकाशको प्रकट कर रही थी। मयद्वारा रची गयी उस मायाने सम्पूर्ण देवताओंको जलाना आरम्भ किया। इधर सूर्यके समान तेजस्वी शरीरवाले दैत्यगण युद्धस्थलमें तुरंत उठ खड़े हुए। इस प्रकार और्वी मायाके सम्पर्कसे जलते हुए देवगण शीतल किरणोंवाले एवं जलप्रदाता इन्द्रकी शरणमें गये। और्व अग्निसे जलनेके कारण देवताओंकी चेतना नष्ट हो रही थी। तब संतप्त हुए देवगणोंने शरणकी इच्छासे वज्रधारी इन्द्रके पास जाकर उन्हें सूचित किया ॥१२- २१ ॥

संतप्ते मायया सैन्ये हन्यमाने च दानवैः । 
चोदितो देवराजेन वरुणो वाक्यमब्रवीत् ॥ २२

ऊर्वो ब्रह्मर्षिजः शक्र तपस्तेपे सुदारुणम्।
ऊर्वः स पूर्वतेजस्वी सदृशो ब्रह्मणो गुणैः ॥ २३

तं तपन्तमिवादित्यं तपसा जगदव्ययम्। 
उपतस्थुर्मुनिगणा दिव्या देवर्षिभिः सह ।। २४

हिरण्यकशिपुश्चैव दानवो दानवेश्वरः । 
ऋषिं विज्ञापयामासुः पुरा परमतेजसम् ॥ २५

ऊचुर्ब्रह्मर्षयस्तं तु वचनं धर्मसंहितम्। 
ऋषिवंशेषु भगवंश्छिन्नमूलमिदं पदम् ॥ २६

एकस्त्वमनपत्यश्च गोत्रायान्यो न वर्तते । 
कौमारं व्रतमास्थाय क्लेशमेवानुवर्तसे ॥ २७

बहूनि विप्रगोत्राणि मुनीनां भावितात्मनाम् । 
एकदेहानि तिष्ठन्ति विविक्तानि विना प्रजाः ॥ २८

एवमुच्छिन्नमूलैश्च पुत्रैों नास्ति कारणम्। 
भवांस्तु तपसा श्रेष्ठो प्रजापतिसमद्युतिः ॥ २९

तत्र वर्तस्व वंशाय वर्धयात्मानमात्मना । 
त्वया धर्मोर्जितस्तेन द्वितीयां कुरु वै तनुम् ॥ ३०

इस प्रकार अपनी सेनाको मायाद्वारा संतप्त होती तथा दानवोंद्वारा मारी जाती देखकर देवराज इन्द्रके पूछनेपर वरुणने इस प्रकार कहा- 'इन्द्र ! ऊर्व एक ब्रह्मर्षिके पुत्र हैं। वे पहलेसे ही तेजस्वी और गुणोंमें ब्रह्माके समान थे। उन्होंने अत्यन्त कठोर तप किया था। जब उनकी तपस्यासे सारा जगत् सूर्यकी भाँति संतप्त हो उठा, तब उनके निकट देवर्षियोंसहित दिव्य महर्षिगण उपस्थित हुए। उसी समय वहाँ दानवेश्वर हिरण्यकशिपु दानव भी पहुँचा। तब ब्रह्मर्षियोंने सर्वप्रथम उन परम तेजस्वी ऊर्व ऋषिको सूचना दी और फिर इस प्रकार धर्मयुक्त कहा-'ऐश्वर्यशाली ऊर्व। ऋषियोंके वंशोंमें इस संतान परम्पराको जड़ कट चुकी है। एकमात्र आप शेष है, सो भी संतानहीन हैं। दूसरा कोई गोत्रकी वृद्धि करनेवाला विद्यमान है नहीं और आप ब्रह्मचर्य व्रतको धारणकर क्लेश सहन करते हुए तपमें ही लगे हुए हैं। भावितात्मा मुनियों तथा ब्राह्मणोंके बहुत-से गोत्र संततिके बिना केवल एक व्यक्तितक ही सीमित रह गये हैं। इस प्रकार मूलके नष्ट हो जानेपर हमलोगोंको पुनः पुत्रोत्पत्तिका कोई कारण नहीं दौख रहा है। आप तो तपस्याके प्रभावसे श्रेष्ठ और प्रजापतिके समान तेजस्वी हो गये हैं, अतः वंश-प्राप्तिके लिये प्रयत्न कीजिये और अपने द्वारा अपनी वृद्धि कीजिये। आपने धर्मोपार्जन तो कर ही लिया है, इसलिये अब दूसरे शरीरकी रचना कीजिये अर्थात् संतानोत्पत्तिके लिये प्रयत्नशील होइये' ॥२२-३०॥

स एवमुक्तो मुनिभिर्हार्वी मर्मसु ताडितः । 
जगहें तानृषिगणान् वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ३१

यथायं विहितो धर्मों मुनीनां शाश्वतस्तु सः । 
आर्षं वै सेवतः कर्म वन्यमूलफलाशिनः ॥ ३२

ब्रह्मयोनौ प्रसूतस्य ब्राह्मणस्यात्मदर्शिनः । 
ब्रह्मचर्यं सुचरितं ब्रह्माणमपि चालयेत् ॥ ३३

जनानां वृत्तयस्तिस्त्रो ये गृहाश्रमवासिनः।
अस्माकं तु वरं वृत्तिर्वनाश्रमनिवासिनाम् ॥ ३४

अब्भक्षा वायुभक्षाश्च दन्तोलूखलिनस्तथा। 
अश्मकुट्टा दशतपाः पञ्चातपसहाश्च ये ।। ३५

एते तपसि तिष्ठन्ति व्रतैरपि सुदुष्करैः। 
ब्रह्मचर्यं पुरस्कृत्य प्रार्थयन्ति परां गतिम् ॥ ३६

ब्रह्मचर्याद् ब्राह्मणस्य ब्राह्मणत्वं विधीयते। 
एवमाहुः परे लोके ब्रह्मचर्यविदो जनाः ॥ ३७

ब्रह्मचर्ये स्थितं धैर्यं ब्रह्मचर्ये स्थितं तपः । 
ये स्थिता ब्रह्मचर्ये तु ब्राह्मणास्ते दिवि स्थिताः ॥ ३८

नास्ति योगं विना सिद्धिनं वा सिद्धिं विना यशः ।
नास्ति लोके यशोमूलं ब्रह्मचर्यात् परं तपः ॥ ३९

यो निगृह्येन्द्रियग्रामं भूतग्रामं च पञ्चकम् । 
ब्रह्मचर्येण वर्तेन किमतः परमं तपः ॥ ४०

मुनियों द्वारा इस प्रकार कहे जानेपर ऊर्व ऋषिके मर्मस्थानों पर विशेष आघात पहुँचा, तब उन्होंने उन ऋषियों की निन्दा करते हुए इस प्रकार कहा-'ब्राह्मणकुलोत्पन्न जंगली फल-मूलका आहार करते हुए आर्ष कर्मके सेवनमें निरत आत्मदर्शी ब्राह्मणका भलीभाँति आचरण किया गया ब्रह्मचर्य ब्रह्मको भी विचलित कर सकता है। जो गृहस्थाश्रममें निवास करनेवाले हैं, उन लोगोंके लिये अन्य तीन वृत्तियाँ बतलायी गयी हैं, परंतु वनमें आश्रम बनाकर निवास करनेवाले हमलोगोंक लिये यही वृत्ति उत्तम है। जो लोग केवल जल पीकर, वायुका आहार कर, दाँवोंसे ही ओखलीका काम लेकर, पत्थरपर कुटे हुए पदार्थको खाकर, दस या पाँच स्थानोंपर अग्नि जलाकर उनके मध्यमें बैठकर तपस्या करनेवाले हैं तथा सुदुष्कर ब्रोंका पालन करते हुए तपस्यामें निरत हैं, वे लोग भी ब्रह्मचर्षको जो लोग केवल जल पीकर, वायुका आहार कर, दाँवोंसे प्रधान मानकर परम गतिको प्राप्त होते हैं। परलोकमें ब्रह्मचर्यक महत्त्वको जाननेवाले लोग ऐसा कहते हैं कि ब्रह्मचर्यके पालनसे ब्राह्मणको ब्राहाणत्वकी प्राप्ति होती है। ब्रह्मचर्यमें धैर्य स्थित है, ब्रह्मचर्यमें तप स्थित है तथा जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्यमें स्थित रहते हैं, वे मानो स्वर्गमें स्थित हैं। लोकमें योगके बिना सिद्धि और सिद्धिके बिना यशकी प्राप्ति नहीं हो सकती तथा यशः प्राप्तिका मूल कारण परम तप ब्रह्मचर्यके बिना नहीं हो सकता। जो इन्द्रियसमूह और पञ्चमहाभूतोंको वशमें करके ब्रह्मचर्यका पालन करता है, उसके लिये इससे बढ़कर और कौन-सा तप हो सकता है? अर्थात् कोई नहीं ॥ ३१-४०॥

अयोगे केशधरणमसंकल्पे व्रतक्रिया। 
अब्रह्मचर्या चर्या च त्रयं स्याद् दम्भसंज्ञकम् ॥ ४१

क्व दाराः क्व च संयोगः क्व च भावविपर्ययः । 
नन्वियं ब्रह्मणा सृष्टा मनसा मानसी प्रजा ॥ ४२

यद्यस्ति तपसो वीर्य युष्माकं विदितात्मनाम् । 
सृजध्वं मानसान् पुत्रान् प्राजापत्येन कर्मणा ॥ ४३

मनसा निर्मिता योनिराधातव्या तपस्विभिः ।
न दारयोगो बीजं वा व्रतमुक्तं तपस्विनाम् ॥ ४४

यदिदं लुप्तधर्मार्थ युष्माभिरिह निर्भयैः।
व्याहृतं सद्भिरत्यर्थमसद्भिरिव मे मतम् ॥ ४५

वपुर्दीप्तान्तरात्मानमेतत् कृत्वा मनोमयम्। 
दारयोगं विना स्त्रक्ष्ये पुत्रमात्मतनूरुहम् ॥ ४६

एवमात्मानमात्मा मे द्वितीयं जनयिष्यति। 
वन्येनानेन विधिना दिधिक्षन्तमिव प्रजाः ॥ ४७

ऊर्वस्तु तपसाविष्टो निवेश्योरुं हुताशने। 
ममन्चैकेन दर्भेण सुतस्य प्रभवारणिम् ॥ ४८

तस्योरुं सहसा भित्त्वा ज्वालामाली हानिन्धनः । 
जगतो दहनाकाङ्गी पुत्रोऽग्निः समपद्यत ॥ ४९

ऊर्वस्योरुं विनिर्भिद्य और्वो नामान्तकोऽनलः । 
दिधक्षन्निव लोकांस्त्रीञ्जज्ञे परमकोपनः ॥ ५० 

उत्पन्नमात्रश्लोवाच पितरं क्षीणया गिरा। 
क्षुधा मे बाधते तात जगद् भक्ष्ये त्वजस्व माम् ॥ ५१

त्रिदिवारोहिभिर्जालैर्जुम्भमाणो दिशो दश। 
निर्दहन् सर्वभूतानि ववृधे सोऽन्तकोऽनलः ॥ ५२

एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मा मुनिमूर्वं समाजयन् । 
उवाच वार्यतां पुत्रो जगतश्च दां कुरु ॥ ५३

अस्यापत्यस्य ते विप्र करिष्ये स्थानमुत्तमम् । 
तथ्यमेतद्वचः पुत्र शृणु त्वं वदतां वर ॥ ५४ 

'योगाभ्यास के बिना जटा धारण करना, संकल्पके बिना व्रताचरण और ब्रह्मचर्य हीन दशामें नियमोंका पालन ये तीनों दम्भ कहे जाते हैं। कहाँ स्त्री, कहाँ स्त्री-संयोग और कहाँ स्त्री-पुरुषका भाव परिवर्तन? परंतु इन सबके अभावमें ही ब्रह्माने इस सृष्टिको मनसे उत्पन्न की है और सारी प्रजाएँ भी मनसे ही प्रादुर्भूत हुई हैं। इसलिये आत्मज्ञानी आपलोगों में यदि तपस्याका बल है तो प्रजापतिके कर्मानुसार आपलोग भी मानसिक पुत्रोंकी सृष्टि कीजिये। तपस्वियोंको मानसिक संकल्पद्वारा योनिका निर्माण कर उसमें आधान करना चाहिये। उनके लिये स्त्री-संयोग, बीज और व्रत आदिका विधान नहीं है आपलो गोंने मेरे सामने निर्भय होकर जो यह धर्म और अर्थसे हीन वचन कहा है, यह सत्पुरुषों द्वारा अत्यन्त गर्हित है। मेरे विचारसे तो यह अज्ञानियोंकी उक्ति-जैसा है। मैं अपने इस उद्दीप्त अन्तरात्मा वाले शरीरको मनोमय करके स्त्री-संयोगके बिना ही अपने शरीरसे पुत्रकी सृष्टि करूँगा। 

इस प्रकार मेरा आत्मा इस वन्य (वानप्रस्थ) विधिके अनुसार प्रजाओंको जला देनेवाले दूसरे आत्मा (पुत्र) को उत्पन करेगा।' तत्पश्चात् ऊर्वने तपस्यामें संलग्न होकर अपनी जाँघको अग्निमें डालकर पुत्रकी उत्पत्तिके लिये एक कुशसे अरणि-मन्थन किया। तब सहसा उनकी जौंधका भेदन कर इन्धनरहित होनेपर भी ज्वालाओंसे युक्त अग्नि जगत्‌को जला देनेकी इच्छासे पुत्ररूपमें प्रकट हुआ । इस प्रकार ऊर्वकी जाँघका भेदन कर वह और्व नामक विनाशकारी अग्नि उत्पन्न हुआ, जो परम क्रोधी और तीनों लोकोंको जला डालना चाहता था। उत्पन्न होते ही उसने मन्द स्वरमें पितासे कहा- 'तात। मुझे भूख कष्ट दे रही है, अतः मुझे छोड़िये। मैं जगत्‌को खा जाऊँगा।' ऐसा कहकर वह विनाशकारी और्व अग्नि स्वर्गतक पहुँचनेवाली ज्वालाओंसे युक्त हो दसों दिशाओंमें फैलकर समस्त प्राणियोंको भस्म करते हुए बढ़ने लगा। इसी बीच ब्रह्मा ऊर्व मुनिके निकट आये और उन्हें आदर देते हुए बोले- 'विप्रवर। तुम मेरी बात तो सुनो। अपने पुत्रको मना कर दो, जगत्पर दया तो करो। मैं तुम्हारे इस पुत्रको उत्तम स्थान प्रदान करूँगा। वक्ताओंमें श्रेष्ठ पुत्र। मेरी यह बात एकदम सच है'॥ ४१-५४॥

ऊर्व उवाच

धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यन्मेऽद्य भगवाञ्शिशोः । 
मतिमेतां ददातीह परमानुग्रहाय वै ॥ ५५

प्रभातकाले सम्प्राप्ते काङ्क्तिव्ये समागमे। 
भगवंस्तर्पितः पुत्रः कैर्हव्यैः प्राप्स्यते सुखम् ॥ ५६

कुत्र चास्य निवासः स्याद् भोजनं वा किमात्मकम्। 
विधास्यतीह भगवान् वीर्यतुल्यं महौजसः ॥ ५७

ऊर्व बोले- भगवन्! आज मैं धन्य हो गया। आपने मुझपर महान् अनुग्रह किया, जो मेरे पुत्रके लिये इस प्रकारकी बुद्धि दे रहे हैं। यह आपका मुझपर परम अनुग्रह है। किंतु प्रातः काल होनेपर जब वह पुत्र मेरे पास आयेगा तब मैं उसे किन पदार्थोंसे तृप्त करूँगा जिससे उसे सुख प्राप्त हो सकेगा ? इसका निवासस्थान कहाँ होगा? और इसका भोजन किस प्रकारका होगा ? (मुझे आशा है कि) आप इस महान् तेजस्वीके पराक्रमके अनुरूप ही सब विधान करेंगे ॥ ५५-५७॥

ब्रह्मोवाच

वडवामुखेऽस्य वसतिः समुद्रे वै भविष्यति। 
मम योनिर्जलं विप्र तस्य पीतवतः सुखम् ॥ ५८

यत्राहमास नियतं पिबन् वारिमयं हविः । 
तद्धविस्तव पुत्रस्य विसृजाम्यालयं च तत् ॥ ५९

ततो युगान्ते भूतानामेष चाहं च पुत्रक। 
सहितौ विचरिष्यावो निष्पुत्राणामृणापहः ॥ ६०

एषोऽग्निरन्तकाले तु सलिलाशी मया कृतः । 
दहनः सर्वभूतानां सदेवासुररक्षसाम् ॥ ६१

एवमस्त्विति तं सोऽग्निः संवृतज्वालमण्डलः । 
प्रविवेशार्णवमुखं प्रक्षिप्य पितरि प्रभाम् ॥ ६२

प्रतियातस्ततो ब्रह्मा ये च सर्वे महर्षयः। 
और्वस्याग्नेः प्रभां ज्ञात्वा स्वां स्वां गतिमुपाश्रिताः ॥ ६३

ब्रह्माने कहा-विप्रवर! समुद्रमें स्थित बडवाके मुखमें इसका निवास होगा और मेरे उत्पत्तिस्थानभूत जलको यह सुखपूर्वक पान करेगा। जहाँ में जलमय हविका पान करता हुआ नियत रूपसे निवास करता हूँ, वही हवि और वही स्थान मैं तुम्हारे पुत्रके लिये भी दे रहा हूँ। पुत्र ! तत्पश्चात् युगान्तके समय यह और मैं-दोनों एक साथ होकर पुत्रहीन प्राणियोंको पितृ ऋणसे मुक्त करते हुए विचरण करेंगे। इस प्रकार मैंने इस अग्निको जलभक्षी तथा अन्तकालमें देवता, असुर और राक्षसोंसहित समस्त प्राणियोंको दग्ध कर देनेवाला बना दिया। यह सुनकर ऊर्वने 'एवमस्तु ऐसा ही हो' कहकर ब्रह्म-वाणीका अनुमोदन किया। तदुपरान्त ज्वालामण्डलसे घिरा हुआ वह अग्नि अपनी कान्तिको पिता ऊर्वमें निहित कर समुद्रके मुखमें प्रविष्ट हो गया। इसके बाद ब्रह्मा ब्रह्मलोकको चले गये और वहाँ उपस्थित सभी महर्षि और्व अग्निकी प्रभाका महत्त्व जानकर अपने-अपने स्थानको चले गये ॥ ५८-६३ ॥

हिरण्यकशिपुर्दृष्ट्वा तदा तन्महदद्भुतम्। 
उच्चैः प्रणतसर्वाङ्गो वाक्यमेतदुवाच ह। ६४

भगवन्नद्भुतमिदं संवृत्तं लोकसाक्षिकम्। 
तपसा ते मुनिश्रेष्ठ परितुष्टः पितामहः ॥ ६५

अहं तु तव पुत्रस्य तव चैव महाव्रत। 
भृत्य इत्यवगन्तव्यः साध्यो यदिह कर्मणा ॥ ६६

तन्मां पश्य समापन्नं तवैवाराधने रतम्।
यदि सीदेन्मुनिश्रेष्ठ तवैव स्यात्पराजयः ॥ ६७

तदनन्तर उस महान् अद्भुत प्रसङ्गको देखकर हिरण्यकशिपु ऊर्व मुनिको साष्टाङ्ग प्रणामकर उच्चस्वसे इस प्रकार बोला' भगवन्! यह तो अत्यन्त अद्भुत घटना घटित हुई। सारा जगत् इसका साक्षी है। मुनिश्रेड ! आपकी तपस्यासे पितामह ब्रह्मा संतुष्ट हो गये हैं। महाव्रत ! आप ऐसा समझिये कि मैं आपका तथा आपके पुत्रका भृत्य हूँ, अतः यहाँ जो कुछ कार्य हो, उसके लिये मुझे आज्ञा दीजिये। मुझे अपना शरणागत समझिये। मैं आपकी ही आराधनामें निरत हूँ। मुनिश्रेष्ठ। इसपर भी यदि मैं कष्ट पाता हूँ तो यह आपकी ही पराजय होगी ॥ ६४-६७॥

ऊर्व उवाच

धन्योऽस्म्यनुगृहीतोऽस्मि यस्य तेऽहं गुरुः स्थितः । 
नास्ति मे तपसानेन भयमद्येह सुव्रत ।। ६८

तामेव मायां गृह्णीष्व मम पुत्रेण निर्मिताम्। 
निरिन्धनामग्निमयीं दुर्धर्षां पावकैरपि ॥ ६९ 

एषा ते स्वस्य वंशस्य वशगारिविनिग्रहे। 
संरक्षत्यात्मपक्षं च विपक्षं च प्रधर्षति ॥ ७० 

एवमस्त्विति तां गृह्य प्रणम्य मुनिपुङ्गवम् ।
जगाम त्रिदिवं हृष्टः कृतार्थों दानवेश्वरः ॥ ७१ 

एषा दुर्विषहा माया देवैरपि दुरासदा। 
और्वेण निर्मिता पूर्वे पावकेनोर्वसूनुना ॥ ७२ 

तस्मिस्तु व्युत्थिते दैत्ये निर्वीर्येषा न संशयः । 
शायो ह्यस्याः पुरा दत्तः सृष्टा येनैव तेजसा ।। ७३ 

यद्दद्येषा प्रतिहन्तव्या कर्तव्यो भगवान् सुखी। 
दीयतां मे सखा शक्र तोययोनिर्निशाकरः ॥ ७४

तेनाहं सह संगम्य यादोभिश्च समावृतः ।
मायामेतां हनिष्यामि त्वत्प्रसादान्न संशयः ॥ ७५

ऊर्वने कहा-सुव्रत । यदि मैं तुम्हारे गुरुके रूपमें स्थित हूँ तो मैं धन्य हो गया। तुमने मुझपर महान् अनुग्रह किया। अब तुम्हें मेरी इस तपस्याके बलसे जगत्में किसी प्रकारका भय नहीं है। इसके लिये तुम मेरे पुत्रद्वारा निर्मित उसी मायाको ग्रहण करो, जो इन्धनरहित होनेपर भी अग्निमयी और अग्नियोंद्वारा भी दुर्धर्ष है। शत्रुओंका निग्रह करते समय यह माया तुम्हारे निजी वंशके वशमें रहेगी। यह आत्मपक्षका संरक्षण और विपक्षका विनाश करेगी। यह सुनकर दानवेश्वर हिरण्यकशिपुने 'एवमस्तु-ऐसा ही हो' यों कहकर उस मायाको ग्रहणकर मुनिश्रेष्ठ ऊर्वको प्रणाम किया और वह कृतार्थ होकर प्रसन्नतापूर्वक स्वर्गको चला गया। (वरुण कहते हैं) यह वही माया है, जो असह्य और देवताओंके लिये भी दुर्गम्य है। इसे पूर्वकालमें ऊर्वके पुत्र और्व अग्निने निर्मित किया था। उस हिरण्यकशिपु दैत्यके मर जानेपर निःसंदेह यह माया शक्तिहीन हो जायगी; क्योंकि यह जिसके तेजसे उत्पन्न हुई थी, उन ऊर्व ऋषिने इसे पहले ही ऐसा शाप दे रखा है। अतः शक्र। यदि आप इसका विनाश करके सबको सुखी करना चाहते हैं तो जलके उत्पत्तिस्थान चन्द्रमाको मुझे सखारूपमें प्रदान कीजिये। जल-जन्तुओंसे घिरा हुआ मैं उनके साथ रहकर आपकी कृपा से इस मायाको नष्ट कर डालूँगा- इसमें संशय नहीं है ॥ ६८-७५ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे तारकामयसंग्रामे पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७५ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके तारकामयसंग्राममें एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १७५ ॥

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