मत्स्य पुराण एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय
देवताओं का युद्धार्थ अभियान
मत्स्य उवाच
श्रुतस्ते दैत्यसैन्यस्य विस्तारो रविनन्दन।
सुराणामपि सैन्यस्य विस्तारं वैष्णवं शृणु ॥ १
मत्स्यभगवान्ने कहा- रविनन्दन। तुम दैत्योंको सेनाका विस्तार तो सुन ही चुके, अब देवताओंकी -विशेषकर विष्णुकी सेनाका विस्तार श्रवण करो। १
आदित्या वसवो रुद्रा अश्विनौ च महाबली।
सबलाः सानुगाश्चैव सन्नान्त यथाक्रमम् ॥ २
पुरुहूतस्तु पुरतो लोकपालः सहस्त्रदृक्।
ग्रामणीः सर्वदेवानामारुरोह सुरद्विपम् ॥ ३
मध्ये चास्य रथः सर्वपक्षिप्रवररंहसः ।
सुचारुचक्रचरणो हेमवज्रपरिष्कृतः ॥ ४
देवगन्धर्वयक्षौधैरनुयातः सहस्रशः ।
दीप्तिमद्भिः सदस्यैश्च ब्रह्मर्षिभिरभिष्टुतः ॥ ५
वज्रविस्फूर्जितोद्धतैर्विद्युदिन्द्रायुधोदितैः ।
युक्तो बलाहकगणैः पर्वतैरिव कामगैः ॥ ६
यमारूढः स भगवान् पर्येति सकलं जगत् ।
हविर्धानेषु गायन्ति विप्रा मखमुखे स्थिताः ॥ ७
स्वर्गे शक्रानुयातेषु देवतूर्यनिनादिषु।
सुन्दर्यः परिनृत्यन्ति शतशोऽप्सरसां गणाः ॥ ८
केतुना नागराजेन राजमानो यथा रविः।
युक्तो हयसहस्त्रेण मनोमारुतरंहसा ॥ ९
स स्यन्दनवरो भाति गुप्तो मातलिना तदा।
कृत्स्नः परिवृतो मेरुर्भास्करस्येव तेजसा ॥ १०
उस समय आदित्यगण, वसुगण, रुद्रगण और दोनों महाबली अश्विनीकुमार-इन सभीने क्रमशः अपनी-अपनी सेना और अनुयायियोंसहित कवच धारण कर लिया। सहस्र नेत्रधारी लोकपाल इन्द्र जो समस्त देवताओंके नायक हैं, सर्वप्रथम सुरगजेन्द्र ऐरावतपर आरूढ़ हुए। सेनाके मध्यभागमें इन्द्रका वह रथ भी खड़ा किया गया, जो समस्त पक्षियोंमें श्रेष्ठ गरुडके समान वेगशाली था। उसमें सुन्दर पहिये लगे हुए थे तथा वह स्वर्ण और वज्रसे विभूषित था। सहस्रोंकी संख्यामें देवताओं, गन्धों और यक्षोंके समूह उसके पीछे-पीछे चल रहे थे। दीप्तिशाली सदस्य और महर्षि उसकी स्तुति कर रहे थे
तथा वह वज्रकी गड़गड़ाहटके सदृश शब्द करनेवाले, बिजली और इन्द्रधनुषसे सुशोभित तथा स्वेच्छाचारी पर्वतकी तरह दीखनेवाले मेघसमूहोंसे घिरा हुआ था। उसपर सवार होकर ऐश्वर्यशाली इन्द्र समस्त जगत्में भ्रमण करते हैं, यज्ञोंमें स्थित ब्राह्मणलोग यज्ञके प्रारम्भमें उसकी प्रशंसा करते हैं, स्वर्गलोकमें उसपर बैठकर इन्द्रके प्रस्थित होनेपर उनके पीछे देवताओंकी तुरहियाँ बजने लगती हैं और सैकड़ों सुन्दरी अप्सराएँ संगठित होकर नृत्य करती हैं। वह रथ शेषनागसे अङ्कित ध्वजसे युक्त होकर सूर्यकी भाँति शोभा पाता है तथा उसमें मन और वायुके समान वेगशाली एक हजार घोड़े जोते जाते हैं। उस समय मातलिद्वारा सुरक्षित वह श्रेष्ठ रथ उसी प्रकार सुशोभित हो रहा था, जैसे सूर्यके तेजसे पूर्णतया घिरा हुआ सुमेरुपर्वत हो ॥२-१०॥
यमस्तु दण्डमुद्यम्य कालयुक्तश्च मुद्गरम् ।
तस्थौ सुरगणानीके दैत्यान् नादेन भीषयन् ॥ ११
चतुर्भिः सागरैर्युक्तो लेलिहानैश्च पन्नगैः।
शङ्खमुक्ताङ्गदधरो बिभ्रत् तोयमयं वपुः ॥ १२
कालपाशान् समाविध्यन् हयैः शशिकरोपमैः।
वाय्वीरितैर्जलाकारैः कुर्वल्लीलाः सहस्त्रशः ॥ १३
पाण्डुरोद्भूतवसनः प्रवालरुचिराङ्गदः।
मणिश्यामोत्तमवपुर्हरिभारार्पितो वरः ॥ १४
वरुणः पाशधूमध्ये देवानीकस्य तस्थिवान्।
युद्धवेलामभिलषन् भिन्नवेल इवार्णवः ॥ १५
यक्षराक्षससैन्येन गुह्यकानां गणैरपि।
युक्तश्च शङ्खपद्याभ्यां निधीनामधिपः प्रभुः ॥ १६
राजराजेश्वरः श्रीमान् गदापाणिरदृश्यत।
विमानयोधी धनदो विमाने पुष्पके स्थितः ॥ १७
स राजराजः शुशुभे युद्धार्थी नरवाहनः।
उक्षाणमास्थितः संख्ये साक्षादिव शिवः स्वयम् ॥ १८
पूर्वपक्षः सहस्त्राक्षः पितृराजस्तु दक्षिणः।
वरुणः पश्चिमं पक्षमुत्तरं नरवाहनः ॥ १९
चतुर्षु युक्ताश्चत्वारो लोकपाला महाबलाः।
स्वासु दिक्षु स्वरक्षन्त तस्य देवबलस्य ते ॥ २०
इसी प्रकार कालसहित यमराज भी दण्ड और मुद्ररको हाथमें लेकर अपने सिंहनादसे दैत्योंको भयभीत करते हुए देवसेनामें खड़े हुए। पाशधारी वरुण जलमय शरीर धारणकर देवसेनाके मध्यभागमें स्थित हुए। उनके साथ चारों सागर तथा जीभ लपलपाते हुए नाग भी थे, वे शङ्खा और मुक्ताजटित केयूर धारण किये हुए थे, हाथमें कालपाश लिये हुए थे, वायुके समान वेगशाली, चन्द्र-किरणोंक-से उज्ज्वल तथा जलाकार घोड़ोंसे युक्त रथपर सवार थे। वे हजारों प्रकारकी लीलाएँ कर रहे थे, पीले वस्त्र और प्रवालजटित अङ्गारसे विभूषित थे, उनकी शरीरकान्ति नीलमणिकी-सी सुन्दर थी, उन श्रेष्ठ देवपर इन्द्रने अपना भार सौंप रखा था। वे तटको छिन्न-भिन्त्र कर देनेवाले सागरकी तरह युद्ध-वेलाकी बाट जोह रहे थे। तत्पश्चात् निधियोंके अधिपति एवं विमानद्वारा युद्ध करनेवाले सामर्थ्यशाली राजराजेश्वर श्रीमान् कुबेर यक्षों, राक्षसों और गुह्यकोंकी सेना तथा शङ्ख और पद्मके साथ हाथमें गदा धारण किये हुए पुष्पकविमानपर आरूढ़ हुए दिखायी पड़े। उस समय युद्धकी इच्छासे आये हुए राजराजेश्वर नरवाहन कुबेरकी ऐसी शोभा हो रही थी, मानो युद्धस्थलमें नन्दीश्वरपर बैठे हुए साक्षात् स्वयं शिवजी ही हों। सेनाके पूर्वभागमें इन्द्र, दक्षिणभागमें यमराज, पश्चिमभागमें वरुण और उत्तरभागमें कुबेर-इस प्रकार ये चारों महाबली लोकपाल चारों दिशाओंमें स्थित हुए। वे अपनी-अपनी दिशाओंमें बड़ी सतर्कताके साथ उस देवसेनाकी रक्षा कर रहे थे॥ ११-२०॥
सूर्यः सप्ताश्वयुक्तेन रथेनामितगामिना ।
श्रिया जाज्वल्यमानेन दीप्यमानैश्च रश्मिभिः ॥ २१
उदयास्तगचक्रेण मेरुपर्वतगामिना ।
त्रिदिवद्वारचक्रेण तपता लोकमव्ययम् ॥ २२
सहस्त्ररश्मियुक्तेन भ्राजमानेन तेजसा।
चचार मध्ये लोकानां द्वादशात्मा दिनेश्वरः ॥ २३
सोमः श्वेतहये भाति स्यन्दने शीतरश्मिवान्।
हिमवत्तोयपूर्णाभिर्भाभिराह्लादयञ्जगत् ॥ २४
तमृक्षपूगानुगतं शिशिरांशुं द्विजेश्वरम्।
शशच्छायाङ्किततनुं नैशस्य तमसः क्षयम् ॥ २५
ज्योतिषामीश्वरं व्योम्नि रसानां रसदं प्रभुम् ।
ओषधीनां सहस्त्राणां निधानममृतस्य च ॥ २६
जगतः प्रथमं भागं सौम्यं सत्यमयं रथम् ।
ददृशुर्दानवाः सोमं हिमप्रहरणं स्थितम् ॥ २७
तदुपरान्त सहल किरणोंके सम्मिलित तेजसे उद्भासित द्वादशात्मा दिनेश्वर सूर्य अपने अमित वेगशाली रथपर, जिसमें सात घोड़े जुते हुए थे, जो शोभासे प्रकाशित, सूर्यको किरणोंसे देदीप्यमान, उदयाचल, अस्ताचल और मेरुपर्वतपर भ्रमण करनेवाला तथा स्वर्गद्वाररूप एक चक्रसे सुशोभित था, सवार हो अविनाशी लोकोंको संतप्त करते हुए लोगों के बीच विचरण करने लगे। शीतरश्मि चन्द्रमा श्वेत घोड़े जुते हुए रथपर सवार हो अपनी जलपूर्ण हिमकी-सी कान्ति से जगत्को आह्लादित करते हुए सुशोभित हुए। उस समय शीतल किरणोंवाले द्विजेश्वर चन्द्रमाके पीछे नक्षत्रगण चल रहे थे। उनके शरीरमें खरगोशका चिह्न झलक रहा था, वे रात्रिके अन्धकारके विनाशक, सामर्थ्य शाली, आकाश मण्डल में स्थित ज्योतिर्गणोंके अधीश्वर, रसीले पदार्थोंको रस प्रदान करनेवाले, सहस्त्रों प्रकारकी ओषधियों तथा अमृतके निधान, जगत्के प्रथम भागस्वरूप और सौम्य स्वभाववाले हैं, उनका रथ सत्यमय है। इस प्रकार हिमसे प्रहार करनेवाले चन्द्रमाको दानवोंने वहाँ उपस्थित देखा ॥२१-२७॥
यः प्राणः सर्वभूतानां पञ्चधा भिद्यते नृषु।
सप्तधातुगतो लोकांस्त्रीन् दधार चचार च ॥ २८
यमाहुरग्निकर्तारं सर्वप्रभवमीश्वरम् ।
सप्तस्वरगतो यश्च नित्यं गीर्भिरुदीर्यते ।। २९
यं वदन्त्युत्तमं भूतं यं वदन्त्यशरीरिणम्।
यमाहुराकाशगमं शीघ्रगं शब्दयोगिनम् ॥ ३०
स वायुः सर्वभूतायुरुद्भूतः स्वेन तेजसा।
ववौ प्रव्यथयन् दैत्यान्प्रतिलोमं सतोयदः ॥ ३१
मरुतो दिव्यगन्धर्वैर्विद्याधरगणैः सह।
चिक्रीडुरसिभिः शुभैर्निर्मुक्तैरिव पन्नगैः ॥ ३२
जो समस्त प्राणियोंका प्राणस्वरूप है, मनुष्योंके शरीरोंमें पाँच प्रकारसे विभक्त होता है, जिसकी सातों धातुओंमें गति है, जो तीनों लोकोंको धारण करता तथा उनमें विचरण करता है, जिसे अग्निका कर्ता, सबका उत्पत्तिस्थान और ईश्वर कहते हैं, जो नित्य सातों स्वरोंमें विचरण करता हुआ वाणीद्वारा उच्चरित होता है। जिसे पाँचों भूतोंमें उत्तम भूत, शरीररहित, आकाशचारी, शीघ्रगामी और शब्दयोगी अर्थात् शब्दको उत्पन्न करनेवाला कहा जाता है, सम्पूर्ण प्राणियोंका आयुस्वरूप वह वायु वहाँ अपने तेजसे प्रकट हुआ। वह बादलोंको साथ लेकर दैत्योंको प्रव्यथित करता हुआ उनकी प्रतिकूल दिशामें बहने लगा। मरुद्रण दिव्य गन्धों और विद्याधरोंके साथ केंचुलसे छूटे हुए सर्पको भाँति निर्मल तलवारोंसे क्रीडा करने लगे ॥ २८-३२॥
सृजन्तः सर्पपतयस्तीव्रतोयमयं विषम्।
शरभूता दिवीन्द्राणां चेरुव्र्व्यात्तानना दिवि ॥ ३३
पर्वतैश्च शिलाशृङ्गैः शतशश्चैव पादपैः।
उपतस्थुः सुरगणाः प्रहर्तुं दानवं बलम् ॥ ३४
यः स देवो हृषीकेशः पद्मनाभस्त्रिविक्रमः ।
युगान्ते कृष्णवर्णाभो विश्वस्य जगतः प्रभुः ॥ ३५
सर्वयोनिः स मधुहा हव्यभुक् क्रतुसंस्थितः ।
भूम्यापोव्योमभूतात्मा श्यामः शान्तिकरोऽरिहा ॥ ३६
अरिघ्नममरादीनां चक्रं गृह्य गदाधरः।
अर्क नगादिवोद्यन्तमुद्यम्योत्तमतेजसा ।। ३७
सव्येनालम्ब्य महतीं सर्वासुरविनाशिनीम् ।
करेण कालीं वपुषा शत्रुकालप्रदां गदाम् ॥ ३८
अन्यैर्भुजैः प्रदीप्ताभैर्भुजगारिध्वजः प्रभुः ।
दधारायुधजातानि शार्द्धादीनि महाबलः ॥ ३९
इसी प्रकार नागाधीश्वरगण आकाशमें मुख फैलाये हुए तीव्र जलमय विषको उगलते हुए आकाशचारियोंके बाणरूप होकर विचरण करने लगे। अन्यान्य देवगण सैकड़ों पर्वतों, शिलाओं, शिखरों और वृक्षोंसे दानवसेनापर प्रहार करनेके लिये उपस्थित हुए। तत्पश्चात् जो इन्द्रियोंके अधीश्वर, पद्मनाभ, तीन पगसे त्रिलोकीको नाप लेनेवाले, प्रलयकालमें कृष्ण वर्णकी आभासे युक्त, सम्पूर्ण जगत्के स्वामी, सबके उत्पत्तिस्थान, मधु नामक दैत्यके वधकर्ता, यज्ञमें स्थित होकर हव्यके भोक्ता, पृथ्वीजलआकाशस्वरूप, श्याम वर्णवाले, शान्तिकर्ता और शत्रुओंका हनन करनेवाले हैं, उन भगवान् गदाधरने देवताओंके शत्रुओंका विनाश करनेवाले अपने सुदर्शन चक्रको, जो अपने उत्तम तेजसे उदयाचलसे उदय होते हुए सूर्यके समान चमक रहा था, हाथमें ऊपर उठा लिया। फिर उन्होंने बायें हाथसे अपनी विशाल गदाका आलम्बन लिया, जो समस्त असुरोंकी विनाशिनी, काले रंगवाली और शत्रुओंको कालके गालमें डालनेवाली थी। महाबली गरुडध्वज भगवान्ने अपनी अन्य देदीप्यमान भुजाओंसे शार्ङ्गधनुष आदि अन्यान्य आयुधोंको धारण किया ॥ ३३-३९॥
स कश्यपस्यात्मभुवं द्विजं भुजगभोजनम्।
पवनाधिकसम्पातं गगनक्षोभणं खगम् ॥ ४०
भुजगेन्द्रेण वदने निविष्टेन विराजितम्।
अमृतारम्भनिर्मुक्तं मन्दराद्रिमिवोच्छ्रितम् ॥ ४१
देवासुरविमर्देषु बहुशो दृढविक्रमम् ।
महेन्द्रेणामृतस्यार्थे वज्रेण कृतलक्षणम् ॥ ४२
शिखिनं बलिनं चैव तप्तकुण्डलभूषणम् ।
विचित्रपत्रवसनं धातुमन्तमिवाचलम् ॥ ४३
स्फीतक्रोडावलम्बेन शीतांशुसमतेजसा ।
भोगिभोगावसिक्तेन मणिरत्नेन भास्वता ॥ ४४
पक्षाभ्यां चारुपत्राभ्यामावृत्य दिवि लीलया।
युगान्ते सेन्द्रचापाभ्यां तोयदाभ्यामिवाम्बरम् ॥ ४५
नीललोहितपीताभिः पताकाभिरलङ्कृतम् ।
केतुवेषप्रतिच्छन्नं महाकायनिकेतनम् ।। ४६
अरुणावरजं श्रीमानारुह्य समरे विभुः ।
सुवर्णस्वर्णवपुषा सुपर्ण खेचरोत्तमम् ॥ ४७
तमन्वयुर्देवगणा मुनयश्च समाहिताः ।
गीर्भिः परममन्त्राभिस्तुष्टुवुश्च जनार्दनम् ॥ ४८
तद्वैश्रवणसंश्लिष्टं वैवस्वतपुरःसरम् ।
द्विजराजपरिक्षिप्तं देवराजविराजितम् ॥ ४९
चन्द्रप्रभाभिर्विपुलं युद्धाय समवर्तत।
स्वस्त्यस्तु देवेभ्य इति बृहस्पतिरभाषत।
स्वस्त्यस्तु दानवानीके उशना वाक्यमाददे ॥ ५०
तदनन्तर जो कश्यपके पुत्र, सर्पभक्षी, वायुसे भी अधिक वेगशाली, आकाशको क्षुब्ध कर देनेवाले, तदनन्तर जो कश्यपके पुत्र, सर्पभक्षी, वायुसे भी आकाशचारी, मुखमें दबाये हुए सर्पसे सुशोभित, अमृत-मन्धनसे मुक्त हुए मन्दराचलके समान ऊँचे, अनेकों बार घटित हुए देवासुर संग्राममें सुदृढ़ पराक्रम दिखानेवाले, अमृतके लिये इन्द्रके द्वारा वज्रके प्रहारसे किये गये चिह्नसे युक्त, शिखाधारी, महाबली, तपाये हुए स्वर्णनिर्मित कुण्डलोंसे विभूषित, विचित्र पंखरूपी वस्त्रवाले और धातुयुक्त पर्वतके समान शोभायमान थे, उनका वक्षःस्थल लम्बा और चौड़ा था, जो चन्द्रमाके समान उद्भासित हो रहा था, उसपर नागोंके फणोंमें लगी हुई मणियाँ चमक रही थीं वे अपने दोनों सुन्दर पंखोंसे आकाशको उसी प्रकार लीलापूर्वक आच्छादित किये हुए थे,
जैसे युगान्तके समय दो इन्द्रधनुषोंसे युक्त बादल आकाशको ढक लेते हैं। वे नीली, लाल और पीली पताकाओंसे सुशोभित थे, जो केतु (पताका) के वेषमें छिपे हुए, विशालकाय और अरुणके छोटे भाई थे, उन सुन्दर वर्णवाले, सुनहले शरीरसे सुशोभित पक्षिश्रेष्ठ गरुडपर आरूढ़ होकर श्रीमान् भगवान् विष्णु समरभूमिमें उपस्थित हुए। फिर तो देवगणों तथा मुनियोंने सावधान-चित्तसे उनका अनुगमन किया और परमोत्कृष्ट मन्त्रोंसे युक्त वाणियोंद्वारा उन जनार्दनका स्तवन किया। इस प्रकार देवताओंकी वह विशाल सेना जब कुबेरसे युक्त, यमराजसे समन्वित, चन्द्रमासे सुरक्षित, इन्द्रसे सुशोभित और चन्द्रमाकी प्रभासे समलंकृत हो युद्धके लिये आगे बढ़ी, तब बृहस्पतिने कहा- 'देवताओंका मङ्गल हो।' इसी प्रकार दानव-सेनामें भी शुक्राचार्यने 'दानवोंका कल्याण हो' ऐसा वचन उच्चारण किया ॥ ४०-५० ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे तारकामयसंग्रामे चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७४॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके तारकामयसंग्राममें एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १७४ ॥
टिप्पणियाँ