मत्स्य पुराण दो सौ अठारहवाँ अध्याय
दुर्ग में संग्राह्य ओषधियों का वर्णन
मनुरुवाच
रक्षोघ्नानि विषघ्नानि यानि धार्याणि भूभुजा।
अगदानि समाचक्ष्व तानि धर्मभृतां वर ॥ १
मनुने पूछा- धार्मिकश्रेष्ठ! राजाको राक्षस, विष और रोगको दूरकर स्वस्थ करनेवाली जिन ओषधियों का दुर्ग में संग्रह करना चाहिये, उनका वर्णन कीजिये ॥ १॥
मत्स्य उवाच
बिल्वाटकी यवक्षारं पाटला बाह्निकोषणा।
श्रीपर्णी शल्लकीयुक्तो निक्वाथः प्रोक्षणं परम् ॥ २
सविषं प्रोक्षितं तेन सद्यो भवति निर्विषम्।
यवसैन्धवपानीयवस्त्रशय्यासनोदकम् ॥३
कवचाभरणं क्षेत्रं वालव्यजनवेश्मनाम् ।
शेलुः पाटलातिविषा शिग्रु मूर्वा पुनर्नवा ॥ ४
समङ्गा वृषमूलं च कपित्थवृषशोषितम् ।
महादन्तशठं तद्वत् प्रोक्षणं विषनाशनम् ॥ ५
लाक्षाप्रियङ्गुमञ्जिष्ठा सममेला हरेणुका।
यष्ट्याह्वा मधुरा चैव बभ्रुपित्तेन कल्पिताः ॥ ६
निखनेद् गोविषाणस्थं सप्तरात्रं महीतले।
ततः कृत्वा मणिं हेम्ना बद्धं हस्तेन धारयेत् ॥ ७
संसृष्टं सविषं तेन सद्यो भवति निर्विषम् ।
मनोह्वया शमीपत्रं तुम्बिका श्वेतसर्षपाः ॥ ८
कपित्थकुष्ठमञ्जिष्ठाः पित्तेन श्लक्ष्णकल्पिताः ।
शुनो गोः कपिलायाश्च सौम्याक्षिप्तोऽपरो गदः ॥ ९
विषजित्परमं कार्यं मणिरत्नं च पूर्ववत् ।
मूषिका जतुका चापि हस्ते बध्वा विषापहा ॥ १०
मत्स्यभगवान्ने कहा-बिल्वाटकी, जवाखार, पाटला, बाह्निक, ऊषणा, श्रीपर्णी और शल्लकी-इन ओषधियोंका काढ़ा उत्तम प्रोक्षण है। विषग्रस्त प्राणीद्वारा उसका सेवन करनेसे वह तुरंत ही विषरहित हो जाता है। उसी प्रकार इनके द्वारा सेवन करनेसे यव, सैन्धव, पानीय, वस्त्र, शय्या, आसन, जल, कवच, आभरण, छत्र, चामर और गृह आदि विषरहित हो जाते हैं। शेलु, पाटली, अतिविषा, शिशु, मूर्वा, पुनर्नवा, समंगा, वृषमूल, कपित्थ, वृषशोषित तथा महादन्तशठ- इन ओषधियोंके काढ़ेका सेवन भी उसी प्रकार विषनाशक होता है। लाह, प्रियंगु, मंजीठ, समान भागमें इलायची, हरें, जेठीमधु और मधुरा-इन्हें नकुल-पित्तसे संयुक्त करके गायके सींगमें रखकर सात राततक पृथ्वीमें गाड़ दे। इसके बाद उसे सुवर्णजटित मणिकी अंगूठीमें रखकर हाथमें धारण करले। उसका स्पर्श करनेसे विषयुक्त प्राणी तुरंत ही निर्विष हो जाता है। जटामांसी, शमीके पत्ते, तुम्बी, श्वेत सरसों, कपित्थ, कुष्ठ और मंजीठ इन ओषधियोंको कुत्ते अथवा कपिला गौके पित्तके साथ भावना दे। यह सौम्याक्षिप्त नामक दूसरी विषनाशक औषधि है। इसे भी पूर्ववत् मणि एवं रत्ननिर्मित अंगूठीमें रखकर धारण करना चाहिये। इसी प्रकार मूषिका और लाहको भी हाथमें बाँधनेसे विषका शमन होता है ॥१-१०॥
हरेणुमांसी मञ्जिष्ठा रजनी मधुका मधु।
अक्षत्वक् सुरसं लाक्षा श्वपितं पूर्ववद् भुवि ॥ ११
वादित्राणि पताकाश्च पिष्टैरेतैः प्रलेपिताः ।
श्रुत्वा दृष्ट्वा समाघ्नाय सद्यो भवति निर्विषः ॥ १२
त्र्यूषणं पञ्चलवणं मञ्जिष्ठा रजनीद्वयम् ।
सूक्ष्मैला त्रिवृतापत्रं विडङ्गानीन्द्रवारुणी ॥ १३
मधूकं वेतसं क्षौद्रं विषाणे च निधापयेत्।
तस्मादुष्णाम्बुना मात्रं प्रामुक्तं योजयेत् ततः ॥ १४
विषभुक्तं ज्वरं याति निर्विषं पित्तदोषकृत् ।
शुक्लं सर्जरसोपेतं सर्षपा एलवालुकैः ॥ १५
सुवेगा तस्करसुरौ कुसुमैरर्जुनस्य तु।
धूपो वासगृहे हन्ति विषं स्थावरजङ्गमम् ॥ १६
न तत्र कीटा न विषं दर्दुरा न सरीसृपाः ।
न कृत्या कर्मणां चापि धूपोऽयं यत्र दह्यते ॥ १७
कल्पितैश्चन्दनक्षीरपलाशद्रुमवल्कलैः।
मूर्वेलावालुसरसानाकुलीतण्डुलीयकैः ॥ १८
क्वाथः सर्वोदकार्येषु काकमाचीयुतो हितः ।
रोचनापत्रनेपालीकुङ्कुमैस्तिलकान् वहन् ॥ १९
हरें, जटामांसी, मंजिष्ठा, हरिद्रा, महुआ, मधु, अक्षत्वक्, सुरसा और लाह-इन्हें भी पूर्ववत् कुत्तेके पित्तसे संयुक्त करके पृथ्वीमें गाड़ दे। फिर इनके लेपसे वाजों तथा पताकाओंपर लेप कर दे तो (विषाक्त प्राणी) उन्हें सुनकर, देखकर और सूंघकर तुरंत विषरहित हो जाता है। तीनों कटु (आँवला, हरें, बहेरा), पाँचों नमक, मंजीठ, दोनों रजनी, छोटी इलायची, त्रिवृताका पत्ता, बिडंग, इन्द्रवारुणि, मधूक, वेतस तथा मधु-इन सबको सींगमें स्थापित कर दे, फिर वहाँसे निकालकर गर्म जलमें मिला दे। इसके द्वारा विष-भक्षणसे उद्भूत पित्तदोष उत्पन्न करनेवाला ज्वर शान्त हो जाता है। श्वेत धूप, सरसों, एलबालुक, सुवेगा, तस्कर, सुर और अर्जुनके पुष्प-इन ओषधियोंका धूपवास करनेवाले घरमें स्थित स्थावर-जङ्गम सभी विषको नष्ट कर देता है। जहाँ वह धूप जलाया जाता है, वहाँ कीट, विष, मेढ़क, रेंगनेवाले सर्पादि जीव तथा कर्मोंकी कृत्या ये कोई भी नहीं रह सकते। चन्दन, दुग्ध, पलाश-वृक्षकी छाल, मूर्वा, एलावालुक, सरसों, नाकुली, तण्डुलीयक एवं काकमाचीका काढ़ा सभी प्रकारके विषयुक्त जलमें कल्याणकारी होता है। रोचनापत्र, नेपाली, केसरतिलक-इन ओषधियोंको धारण करनेसे मनुष्यको विषका कष्ट नहीं होता, विषदोष नष्ट हो जाता है और वह इसके प्रभावसे स्त्री, पुरुष और राजाका प्रिय हो जाता है॥ ११-१९ ॥
विषैर्न बाध्यतेऽस्माच्च नरनारीनृपप्रियः ।
चूर्णैर्हरिद्रामञ्जिष्ठाकिणिहीकणनिम्बजैः ॥ २०
दिग्धं निर्विषतामेति गात्रं सर्वविषार्दितम्।
शिरीषस्य फलं पत्रं पुष्पं त्वमूलमेव च ॥ २१
गोमूत्रघृष्टो ह्यगदः सर्वकर्मकरः स्मृतः ।
एकवीर महौषध्यः शृणु चातः परं नृप ॥ २२
वन्ध्या कर्कोटकी राजन् विष्णुक्रान्ता तथोत्कटा।
शतमूली सितानन्दा बला मोचा पटोलिका ॥ २३
सोमा पिण्डा निशा चैव तथा दग्धरुहा चया।
स्थले कमलिनी या च विशाली शङ्खमूलिका ॥ २४
चाण्डाली हस्तिमगधा गोऽजापर्णी करम्भिका ।
रक्ता चैव महारक्ता तथा बर्हिशिखा च या ॥ २५
कौशातकी नक्तमालं प्रियालं च सुलोचनी।
वारुणी वसुगन्धा च तथा वै गन्धनाकुली ॥ २६
ईश्वरी शिवगन्धा च श्यामला वंशनालिका।
जतुकाली महाश्वेता श्वेता च मधुयष्टिका ॥ २७
वज्रकः पारिभद्रश्च तथा वै सिन्धवारकाः ।
जीवानन्दा वसुच्छिद्रा नतनागरकण्टका ॥ २८
नालं जाली च जाती च तथा च वटपत्रिका।
कार्तस्वरं महानीला कुन्दुरुर्हसपादिका ॥ २९
मण्डूकपर्णी वाराही द्वे तथा तण्डुलीयके।
सर्पाक्षी लवली ब्राह्मी विश्वरूपा सुखाकरा ॥ ३०
रुजापहा वृद्धितरी तथा चैव तु शल्यदा।
पत्रिका रोहिणी चैव रक्तमाला महौषधी ॥ ३१
तथामलकवृन्दाकं श्यामचित्रफला च या।
काकोली क्षीरकाकोली पीलुपर्णी तथैव च ॥ ३२
केशिनी वृश्चिकाली च महानागा शतावरी।
गरुडी च तथा वेगा जले कुमुदिनी तथा ॥ ३३
स्थले चोत्पलिनी या च महाभूमिलता च या।
उन्मादिनी सोमराजी सर्वरत्नानि पार्थिव ॥ ३४
विशेषान्मरकतादीनि कीटपक्षं विशेषतः ।
जीवजाताश्च मणयः सर्वे धार्याः प्रयत्नतः ॥ ३५
रक्षोघ्नाश्च विषघ्नाश्च कृत्या वेतालनाशनाः ।
विशेषान्नरनागाश्च गोखरोष्ट्रसमुद्भवाः ।। ३६
सर्पतित्तिरगोमायुबध्रुमण्डुकजाश्च ये।
सिंहव्याघ्रर्क्षमार्जारद्वीपिवानरसम्भवाः ।
कपिञ्जला गजा वाजिमहिषैणभवाश्च ये ॥ ३७
इत्येवमेतैः सकलैरुपेतै-र्द्रव्यैः पराघ्यैः परिरक्षितः स्यात् ।
राजा वसेत् तत्र गृहं सुशुभ्रं गुणान्वितं लक्षणसम्प्रयुक्तम् ॥ ३८
हल्दी, मंजीठ, किणिही, पिप्पली और नीमके चूर्णका लेप करनेसे सभी प्रकारके विषसे पीड़ित शरीर विषरहित हो जाता है। शिरीष-वृक्षका फल, पत्ता, पुष्प, छाल और जड़-इन सबको गो-मूत्रमें घिसकर तैयार की गयी ओषधि सभी प्रकारके विषकर्ममें हितकारी कही गयी है। सर्वोत्कृष्ट शूरवीर राजन् ! इसके उपरान्त सर्वश्रेष्ठ ओषधियोंका वर्णन कर रहा हूँ, सुनिये। राजन् ! वन्ध्या, कर्कोटकी, विष्णुक्रान्ता, उत्कटा, शतमूली, सिता, आनन्दा बला, मोचा, पटोलिका, सोमा, पिण्डा, निशा, दग्धरुहा, स्थलपद्म, विशाली, शंखमूलिका, चाण्डाली, हस्तिमगधा, गोपर्णी, अजापर्णी, करम्भिका, रक्ता, महारक्ता, बर्हिशिखा, कौशातकी, नक्तमाल, प्रियाल, सुलोचनी, वारुणी, वसुगन्धा, गन्धनाकुली, ईश्वरी, शिवगन्धा, श्यामला, वंशनालिका, जतुकाली, महाश्वेता, श्वेता, मधुयष्टिका, वज्रक, पारिभद्र, सिन्दुवारक, जीवानन्दा, वसुच्छिद्रा, नतनागर, कण्टकारि, नाल, जाली, जाती, वटपत्रि का, सुवर्ण, महानीला, कुन्दुरु, हंसपादिका, मण्डूकपर्णी, दोनों प्रकार की वाराही, तण्डुलीयक, सर्पाक्षी (नकुलकंद), लवली, ब्राह्मी, विश्वरूपा, सुखाकरा, रुजापहा, वृद्धिकरी, शल्यदा, पत्रि का, रोहिणी, रक्तमाला, आमलक, वृन्दाक, श्यामा, चित्रफला, काकोली, क्षीरकाकोली, पीलुपर्णी, केशिनी, वृश्चिकाली, महानागा, शतावरी, गरुड़ी, वेगा, जलकुमुदिनी, स्थलोत्पल, महाभूमिलता, उन्मादिनी, सोमराजी, सभी प्रकारके रत्न-विशेषकर मरकत आदि बहुमूल्य रत्न, अनेक प्रकारकी कीटज मणियाँ, जीवोंसे उत्पन्न होनेवाली मणियाँ इन सभीको प्रयत्नपूर्वक दुर्गमें संचित करे। इसी प्रकार राक्षस, विष, कृत्या, वैताल आदिकी नाशक- विशेषकर मनुष्य, सर्प, गौ, गर्दभ, ऊँट, साँप, तीतर, शृगाल, नेवला, मेढक, सिंह, बाघ, रीछ, बिलाव, गैड़ा, वानर, कपिंजल, हस्ती, अश्व, महिष और हरिण आदि जीवोंसे सम्बन्ध रखनेवाली उपयोगी वस्तुओंका भी राजा संचय करे। इस प्रकार इन सभी बहुमूल्य पदार्थोंसे युक्त रहनेपर वह सुरक्षित रहता है। तब राजा उनमें बने हुए अत्यन्त निर्मल, उपर्युक्त लक्षणोंसे सम्पन्न तथा गुणयुक्त भवनमें निवास करे ॥ २०-३८ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽगदाध्यायो नामाष्टादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१८ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें अगदाध्याय नामक दो सौ अठारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २१८ ॥
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