गृह निर्माण (वास्तु कार्य) में ग्राह्य काष्ठ | grh nirmaan (vaastu kaary) mein graahy kaashth

मत्स्य पुराण दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय

गृह निर्माण (वास्तु कार्य) में ग्राह्य काष्ठ

सूत उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि दार्वाहरणमुत्तमम् ।
धनिष्ठापञ्चकं मुक्त्वा त्विष्ट्यादिकमतः परम् ॥ १

ततः सांवत्सरादिष्टे दिने यायाद् वनं बुधः । 
प्रथमं बलिपूजां च कुर्याद् वृक्षस्य सर्वदा ॥ २

सूतजी कहते हैं- ऋषियो! अब मैं उत्तम काष्ठ लाने की विधि बतलाता हूँ। धनिष्ठा आदि पाँच नक्षत्रों और इसके बाद भद्रा आदि को छोड़कर ज्योतिषी द्वारा बताये गये शुभ दिनमें बुद्धिमान पुरुष काष्ठ लाने के लिये वन को प्रस्थानकरे। सर्व प्रथम ग्रहण किये जाने वाले वृक्षकी बलि पूजा करनी चाहिये। 

पूर्वोत्तरेण पतितं गृहदारु प्रशस्यते।
अन्यथा न शुभं विन्द्याद् याम्योपरि निपातनम् ॥ ३

क्षीरवृक्षोद्भवं दारु न गृहे विनिवेशयेत् ।
कृताधिवासं विहगैरनिलानलपीडितम् ॥ ४

गजावरुग्णं च तथा विद्युन्निर्धातपीडितम्।
अर्थशुष्कं तथा दारु भग्नशुष्कं तथैव च ॥ ५

चैत्यदेवालयोत्पन्नं नदीसङ्गमजं तथा।
श्मशानकूपनिलयं तडागादिसमुद्भवम् ॥ ६

वर्जयेत् सर्वथा दारु यदीच्छेद् विपुलां श्रियम्।
तथा कण्टकिनो वृक्षान् नीपनिम्बविभीतकान् ॥ ७

श्लेष्मातकानाम्रतरून्वर्जयेद्गृहकर्मणि ।
आसनाशोकमधुकसर्जशालाः शुभावहाः ॥ ८

चन्दनं पनसं धन्यं सुरदारु हरिद्रवः।
द्वाभ्यामेकेन वा कुर्यात् त्रिभिर्वा भवनं शुभम् ॥ ९

बहुभिः कारितं यस्मादनेकभयदं भवेत्।
एकैकशिंशपा धन्या श्रीपर्णी तिन्दुकी तथा ॥ १०

एता नान्यसमायुक्ताः कदाचिच्छुभकारकाः ।
स्यन्दनः पनसस्तद्वत् सरलार्जुनपद्मकाः ॥ ११

एते नान्यसमायुक्ता वास्तुकार्यफलप्रदाः ।
तरुच्छेदे महापीते गोधा विन्द्याद्विचक्षणः ॥ १२

माञ्जिष्ठवर्णे भेकः स्यान्नीले सर्पादि निर्दिशेत् ।
अरुणे सरटं विद्यान्मुक्ताभे शुकमादिशेत् ॥ १३

पूर्व तथा उत्तर दिशाकी ओर गिरनेवाले वृक्षका काष्ठ गृहनिर्माणमें मङ्गलकारी होता है तथा दक्षिणकी ओर गिरा हुआ अशुभ होता है। दूधवाले वृक्षोंका काष्ठ घरमें नहीं लगाना चाहिये। जो वृक्ष पक्षियोंद्वारा अधिष्ठित तथा वायु और अग्निसे पीड़ित हो, हाथीसे तोड़ा हुआ हो, बिजली गिरने से जल गया हो, जिसका आधा भाग सूख गया हो या कुछ अंश टूट-फूट गया हो, अश्वत्थवृक्ष समाधि या देव मन्दिर से निकले वृक्ष, नदीके संगमपर स्थित वृक्षोंको अथवा जो श्मशानभूमि तालाब आदि जलाशयोंपर उगा हुआ हो, ऐसे वृक्षोंको विपुल लक्ष्मीकी इच्छा करनेवाले व्यक्तिको छोड़ देना चाहिये। इसी प्रकार काँटेदार वृक्ष, कदम्ब, निम्ब, बहेड़ा, ढेरा और आमके वृक्षोंको भी गृहकर्ममें नहीं लेना चाहिये। असना, अशोक, महुआ, सर्ज और साखूके काष्ठ मङ्गलप्रद हैं। चन्दन, कटहल, देवदारु तथा दारुव्दीके काष्ठ धनप्रद कहे गये हैं। एक, दो या तीन प्रकारके काष्ठों द्वारा बनाया गया भवन शुभ होता है; क्योंकि अनेक प्रकारके काष्ठोंसे बनाया हुआ भवन श्रीपर्णी तथा तिन्दुकी के काष्ठको अकेले ही लगाना अनेकों भय देनेवाला होता है। धनदायक शीशम, चाहिये; क्योंकि ये अन्य किसी काष्ठके साथ सम्मिलित कर देनेसे कभी मङ्गलकारी नहीं होते। इसी प्रकार धव, कटहल, चीड़, अर्जुन और पद्म वृक्ष भी अन्य काष्ठोंके साथ सम्मिलित होनेपर गृहकार्यके लिये शुभदायक नहीं होते ॥३-१३ ॥

कपिले मूषकान् विद्यात्खाङ्गभे जलमादिशेत्।
एवंविधं सगर्भ तु वर्जयेद् वास्तुकर्मणि ॥ १४

पूर्वच्छिन्नं तु गृह्णीयान्निमित्तशकुनैः शुभैः ।
व्यासेन गुणिते दैर्घ्य अष्टाभिर्वै हुते तथा ॥ १५

यच्छेषमायतं विन्द्यादष्टभेदं वदामि वः।
ध्वजो धूमश्च सिंहश्च खरः श्वावृष एव च ॥ १६

हस्ती ध्वाङ्गश्च पूर्वाद्याः करशेषा भवन्त्यमी।
ध्वजः सर्वमुखो धन्यः प्रत्यग्द्वारो विशेषतः ॥ १७

उदङ्गुखो भवेत् सिंहः प्राङ्गुखो वृषभो भवेत् ।
दक्षिणाभिमुखो हस्ती सप्तभिः समुदाहृतः ॥ १८

एकेन ध्वज उद्दिष्टस्त्रिभिः सिंहः प्रकीर्त्तितः ।
पञ्चभिर्वृषभः प्रोक्तो विकोणस्थांश्च वर्जयेत् ॥ १९

तमेवाष्टगुणं कृत्वा करराशिं विचक्षणः ।
सप्तविंशाहते भागे ऋक्षं विद्याद् विचक्षणः ॥ २०

अष्टभिर्भाजिते ऋक्षे यः शेषः स व्ययो मतः ।
व्ययाधिकं न कुर्वीत यतो दोषकरं भवेत्।
आयाधिके भवेच्छान्तिरित्याह भगवान् हरिः ॥ २१

कृत्वाग्रतो द्विजवरानथ पूर्णकुम्भं दध्यक्षताम्रदलपुष्यफलोपशोभम् ।
दत्त्वा हिरण्यवसनानि तदा द्विजेभ्यो माङ्गल्यशान्तिनिलयाय गृहं विशेत्तु ॥ २२

गृह्योक्तहोमविधिना बलिकर्म कुर्यात् प्रासादवास्तुशमने च विधिर्य उक्तः ।
संतर्पयेद् विजवरानथ भक्ष्यभोज्यैः शुक्लाम्बरःस्वभवनं प्रविशेत् सधूपम् ॥ २३

वृक्ष काटते समय विचक्षण पुरुषको यदि पीले वर्णका चिह्न मिले तो भावी गृहमें गोहका, मंजीठ रंगका मिलनेपर मेढकका, नीला रंग मिलनेपर सर्पका, अरुण रंगसे गिरगिटका, मोतीके समान श्वेत चिह्नसे शुकका, कपिल वर्णसे चूहेका और तलवारकी भाँति चिह्न मिलनेपर जलका भय जानना चाहिये। इस प्रकारके गर्भवाले वृक्षको वास्तुकर्ममें त्याग देना चाहिये। पहलेसे कटे हुए वृक्षको शुभदायी निमित्त शकुनोंके साथ ग्रहण किया जा सकता है। घरके व्याससे लम्बाईके मानमें गुणाकर आठका भाग दे, जो शेष बचे उसे आयत जानना चाहिये। अब मैं आपलोगोंको आठका भेद बतला रहा हूँ। उन करशेषोंकी क्रमशः ध्वज, धूम, सिंह, खर, श्वान, वृषभ, हस्ती और काक संज्ञा होती है। चारों ओर मुखवाला तथा विशेषतया पश्चिम द्वारवाला ध्वज शुभकारी होता है। सिंहका उत्तर, वृषभका पूर्व, हाथीका दक्षिण मुख दुःखदायी होता है। सात विभागों द्वारा इसे कहा जा चुका है। 

एक हाथ से ध्वज को, तीन हाथ से सिंह को और पाँच हाथ से वृषभको तो कहा गया। इनके अति रिक्त जो त्रिकोणस्थ हों उन्हें व्यवहारमें नहीं लाना चाहिये। विचक्षण पुरुष उक्त करराशिके अंकको आठसे गुणाकर सत्ताईसका भाग देनेपर शेषको नक्षत्र माने। पुनः उस नक्षत्रमें आठका भाग देनेसे जो शेष बचता है, वह व्यय माना गया है। जिसमें व्यय अधिक निकले, उसे नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह दोषकारक होता है। आय अधिक होनेपर शान्ति होती है, ऐसा भगवान हरिने कहा है। गृह पूर्ण हो जानेपर उसमें माङ्गलिक शान्तिकी स्थितिके लिये श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको आगे कर दही, अक्षत, आमके पल्लव, पुष्प तथा फलादिसे सुशोभित जलपूर्ण कलशको देकर तथा अन्य ब्राह्मणोंको सुवर्ण और वस्त्र देकर उस भवनमें गृहपतिको प्रवेश करना चाहिये। उस समय गृह्यसूत्रोंमें प्रासाद एवं वास्तुकी शान्तिके लिये जो विधि कही गयी है, उसके अनुसार हवन एवं बलि-कर्म करे। फिर भक्ष्य एवं भोज्य पदार्थोंद्वारा ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करे। तत्पश्चात् श्वेत वस्त्र धारणकर धूपादि द्रव्योंके साथ भवनमें प्रवेश करना चाहिये ॥ १२-२३॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे वास्तुविद्यानुकीर्तनं नाम सप्तपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५७ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें वास्तुविद्यानुकीर्तन नामक दो सौ सत्तावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २५७॥

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