कृष्ण मृगचर्म के दान की विधि और उसका माहात्य | krshn mrgacharm ke daan kee vidhi aur usaka maahaaty

मत्स्य पुराण दो सौ छठा अध्याय

कृष्ण मृगचर्म के दान की विधि और उसका माहात्य

मनुरुवाच

कृष्णाजिनप्रदानस्य विधिकालौ ममानघ।
ब्राह्मणं च तथाऽऽचक्ष्व तत्र मे संशयो महान् ॥ १

मनुजीने पूछा-निष्पाप परमात्मन् ! कृष्ण मृगचर्म प्रदान करनेकी विधि, उसका समय तथा कैसे ब्राह्मणको दान देना चाहिये इसका विधान मुझे बताइये। इस विषयमें मुझे महान् संदेह है॥ १॥

मत्स्य उवाच

वैशाखी पौर्णमासी च ग्रहणे शशिसूर्ययोः ।
पौर्णमासी तु या माघी ह्याषाढ़ी कार्तिकी तथा ।। २

उत्तरायणे च द्वादश्यां तस्यां दत्तं महाफलम्।
आहिताग्निर्द्विजो यस्तु तद् देयं तस्य पार्थिव ॥ ३

यथा येन विधानेन तन्मे निगदतः शृणु।
गोमयेनोपलिप्ते तु शुचौ देशे नराधिप ॥ ४

आदावेव समास्तीर्य शोभनं वस्त्रमाविकम्। 
ततः सशृङ्गं सखुरमास्तरेत् कृष्णमार्गकम् ॥ ५

कर्तव्यं रुक्मशृङ्गं तद् रौप्यदन्तं तथैव च।
लाङ्गलं मौक्तिकैर्युक्तं तिलच्छन्नं तथैव च ॥ ६

तिलैः सुपूरितं कृत्वा वाससाऽऽच्छादयेद् बुधः । 
सुवर्णनाभं तत् कुर्यादलंकुर्याद् विशेषतः ॥ ७

रत्नैर्गन्धैर्यथाशक्त्या तस्य दिक्षु च विन्यसेत्।
कांस्यपात्राणि चत्वारि तेषु दद्याद् यथाक्रमम् ॥ ८

मृण्मयेषु च पात्रेषु पूर्वादिषु यथाक्रमम्।
घृतं क्षीरं दधि क्षौद्रमेवं दद्याद् यथाविधि ॥ ९

चम्पकस्य तथा शाखामनणं कुम्भमेव च।
बाह्योपस्थानकं कृत्वा शुभचित्तो निवेशयेत् ॥ १०

मत्यभगवान् बोले- राजन् । वैशाखकी पूर्णिमाको, चन्द्रमा एवं सूर्यके ग्रहणके अवसरपर, माघ, आषाढ़ तथा कार्तिक की पूर्णिमा तिथिमें, सूर्यके उत्तरायण रहनेपर तथा द्वादशी तिथिमें (कृष्णमृगचर्मके) दानका महाफल कहा गया है। जो ब्राह्मण नित्य अग्न्याधान करनेवाला हो उसीको वह दान देना चाहिये। अब जिस प्रकार और जिस विधानसे वह दान देना चाहिये, उसे मैं बतला रहा हूँ, सुनिये। नरेश्वर। पवित्र स्थानपर गोबरसे लिपी हुई पृथ्वीपर सर्वप्रथम सुन्दर ऊनी वस्त्र बिछाकर फिर खुर और सींगोंसे युक्त उस कृष्णमृगचर्मको बिछा दे। उस मृगचर्मके सींगोंको सुवर्णसे, दाँतोंको चाँदीसे, पूँछको मोतियोंसे अलङ्कृत कर उसे तिलोंसे आवृत कर दे। बुद्धिमान् पुरुष उस मृगचर्मको तिलोंसे पूरित कर वस्त्रसे ढक दे। उसकी सुवर्णमय नाभि बनाकर उसे अपनी शक्तिके अनुकूल रत्नों तथा सुगन्धित पदार्थोंसे विशेषरूपसे अलङ्कृत कर दे। फिर क्रमानुसार काँसेके बने हुए चार पात्रोंको उसकी चारों दिशाओंमें रखे। फिर पूर्व आदि दिशाओंमें क्रमशः चार मिट्टीके पात्रोंमें घृत, दुग्ध, दही तथा मधु विधिवत् भर दे। तदुपरान्त चम्पककी एक डाल तथा छिद्ररहित एक कलश बाहर पूर्वकी ओर मङ्गलमय भावनासे स्थापित करे ॥२-१० ॥

सूक्ष्मवस्त्रं शुभं पीतं मार्जनार्थ प्रयोजयेत्। 
तथा धातुमयं पात्रं पादयोस्तस्य दापयेत् ॥ ११

यानि कानि च पापानि मया लोभात् कृतानि वै। 
लौहपात्रादिदानेन प्रणश्यन्तु ममाशु वै ॥ १२

तिलपूर्ण ततः कृत्वा वामपादे निवेशयेत्।
यानि कानि च पापानि कर्मोत्थानि कृतानि च ॥ १३

कांस्यपात्रप्रदानेन तानि नश्यन्तु मे सदा। 
मधुपूर्ण तु तत् कृत्वा पादे वै दक्षिणे न्यसेत् ॥ १४

परापवादपैशुन्याद् वृथा मांसस्य भक्षणात्। 
तत्रोत्थितं च मे पापं ताम्रपात्रात् प्रणश्यतु ॥ १५ 

कन्यानृताद् गवां चैव परदाराभिमर्षणात्। 
रौप्यपात्रप्रदानाद्धि क्षिप्रं नाशं प्रयातु मे ॥ १६

ऊर्ध्वपादे त्विमे कार्यं ताम्रस्य रजतस्य च। 
जन्मान्तरसहस्त्रेषु कृतं पापं कुबुद्धिना ॥ १७

सुवर्णपात्रदानात् तु नाशयाशु जनार्दन। 
हेममुक्ता विद्रुमं च दाडिमं बीजपूरकम् ॥ १८

प्रशस्तपात्रे श्रवणे खुरे शृङ्गाटकानि च।
 एवं कृत्वा यथोक्तेन सर्वशाकफलानि च ॥ १९

तत्प्रतिग्रहविद् विद्वानाहिताग्रिर्द्विजोत्तमः । 
स्नातो वस्त्रयुगच्छन्त्रः स्वशक्त्या चाप्यलङ्कृतः ॥ २०

प्रतिग्रहश्च तस्योक्तः पुच्छदेशे महीपते। 
तत एवं समीपे तु मन्त्रमेनमुदीरयेत् ॥ २१

कृष्णाजिनेति कृष्णान् हिरण्यं मधुसर्पिषी। 
ददाति यस्तु विप्राय सर्वं तरति दुष्कृतम् ॥ २२

मार्जनके लिये एक सुन्दर महीन पीले वस्त्रका प्रयोग करे तथा धातु-निर्मित पात्र उसके दोनों पैरोंके पास रख दे। तत्पश्चात् ऐसा कहे कि 'मैंने लोभमें पड़कर जिन-जिन पापोंको किया है, वे लौहमय पात्रादिका दान करनेसे शीघ्र ही नष्ट हो जायें।' फिर काँसेके पात्रको तिलोंसे भरकर बायें पैरके पास रखे और कहे कि 'मैंने प्रसङ्गवश जिन-जिन पापों का आचरण किया है, मेरे वे सभी पाप इस कांस्य-पात्रके दानसे सदाके लिये नष्ट हो जायें।' फिर ताम्र-पात्रमें मधु भरकर दाहिने पैरके पास रखे और कहे कि 'दूसरेकी निन्दा या चुगुली करने अथवा किसी अवैध मांसका भक्षण करनेसे उत्पन्न हुआ मेरा पाप इस ताम्र पात्रका दान करनेसे नष्ट हो जाय। "कन्या और गौके लिये मिथ्या कहनेसे तथा परकीय खीका स्पर्श करनेसे जो पाप उत्पन्न हुआ हो, मेरा वह पाप चाँदीके पात्रदानसे शीघ्र ही नष्ट हो जाय।' चाँदी तथा ताँबके बने हुए पात्रोंको पैरके ऊपरी भागमें रखना चाहिये। 

'जनार्दन। मैंने अपनी दुष्ट बुद्धिके द्वारा हजारों जन्मोंमें जो पाप किया है उसे आप सुवर्णपात्रके दानसे शीघ्र ही नष्ट कर दें।' यह मन्त्र सुवर्णपात्र दान करते समय कहे। उस समय सुवर्ण, मोती, मूँगा, अनार और बिजौरा नींबूको अच्छे पात्रमें रखकर उस मृगचर्मके कान, खुर और सींगपर स्थापित कर दे। यथोक्त विधिके अनुसार ऐसा करके सभी प्रकारके शाक फलोंको भी रख दे। महीपते । तत्पश्चात् जो ब्राह्मणश्रेष्ठ प्रतिग्रहकी विधिका ज्ञाता, विद्वान् और अग्न्याधान करने-वाला हो तथा स्नानके पश्चात् दो सुन्दर वस्त्रको धारणकर अपनी शक्तिके अनुसार अलंकृत भी हो, ऐसे ब्राह्मणको उस मृगचर्मके पुच्छदेशमें दान देनेका विधान है। उस समय उसके समीप इस मन्त्रका उच्चारण करना चाहिये। जो 'कृष्णाजिनेति०' इस मन्त्रका उच्चारण कर कृष्णमृगचर्म, सुवर्ण, मधु और घृत ब्राह्मणको दान करता है, वह सभी दुष्कर्मोंसे छूट जाता है॥ ११-२२॥

यस्तु कृष्णाजिनं दद्यात् सखुरं शृङ्गसंयुतम्।
तिलैः प्रच्छाद्य वासोभिः सर्ववस्त्रैरलंकृतम् ॥ २३

वैशाख्यां पौर्णमास्यां तु विशाखायां विशेषतः ।
ससमुद्रगुहा तेन सशैलवनकानना ।। २४

सप्तद्वीपान्विता दत्ता पृथिवी नात्र संशयः ।
कृष्णकृष्णाङ्गलो देवः कृष्णाजिन नमोऽस्तु ते ॥ २५

सुवर्णदानात् त्व‌द्दानाद् धूतपापस्य प्रीयताम्।
त्रयस्त्रिंशत्सुराणां त्वमाधारत्वे व्यवस्थितः ॥ २६

कृष्णोऽसि मूर्तिमान् साक्षात् कृष्णाजिन नमोऽस्तु ते। 
सुवर्णनाभिकं दद्यात् प्रीयतां वृषभध्वजः ॥ २७

कृष्णः कृष्णगलो देवः कृष्णाजिनधरस्तथा।
तद्दानाद्धतपापस्य प्रीयतां वृषभध्वजः ॥ २८

अनेन विधिना दत्त्वा यथावत् कृष्णमार्गकम् ।
न स्पृश्योऽसौ द्विजो राजश्चितियूपसमो हि सः ॥ २९

तं दाने श्राद्धकाले च दूरतः परिवर्जयेत्। 
स्वगृहात् प्रेष्य तं विप्रं मङ्गलस्नानमाचरेत् ॥ ३०

जो मनुष्य खुर तथा सींगसहित कृष्णमृगचर्मको तिलोंसे ढककर एवं सभी प्रकारके वस्त्रोंसे अलङ्कृत कर विशेषतया विशाखा नक्षत्रसे युक्त वैशाखमासकी पूर्णिमा तिथिको दान करता है, उसने निःसंदेह समुद्रों, गुफाओं, पर्वतों एवं जंगलोंसमेत सातों द्वीपोंसे युक्त पृथ्वीका दान कर दिया। कृष्णाजिन! तुम कृष्णस्वरूपधारी देवता हो, तुम्हें नमस्कार है। सुवर्णदान तथा तुम्हारे दानसे जिसके समस्त पाप नष्ट हो गये हैं, ऐसे मुझपर तुम प्रसन्न हो जाओ। कृष्णाजिन । तुम तैंतीस देवताओंके आधार-स्वरूप निश्चित किये गये हो और साक्षात् मूर्तिमान् श्रीकृष्ण हो, तुम्हें प्रणाम है। पुनः वृषभध्वज शंकर मुझपर प्रसन्न हो जायें- इस भावनासे सुवर्णयुक्त नाभिवाले मृगचर्मका दान करना चाहिये। जो श्यामवर्ण, कृष्णकण्ठ तथा कृष्णचर्म धारण करनेवाले देवता हैं, आपके दानसे पापशून्य हुए मुझपर वे शंकर प्रसन्न हों। राजन् ! उपर्युक्त विधिसे कृष्णमृगचर्मका दान देनेके पश्चात् उस प्रतिगृहीता ब्राह्मणका स्पर्श नहीं करना चाहिये; क्योंकि वह (श्मशानस्था अस्पृश्या) चिताके खूँटेके समान हो जाता है। उसका श्राद्ध और दानके समय दूरसे ही परित्याग कर देना चाहिये। उस ब्राह्मणको अपने घरसे विदाकर फिर मङ्गलस्नान करनेका विधान है॥ २३-३०॥

पूर्णकुम्भेन राजेन्द्र शाखया चम्पकस्य तु।
कृत्वाऽऽचार्यश्च कलशं मन्त्रेणानेन मूर्धनि ॥ ३१

आप्यायस्व समुद्रज्येष्ठा ऋचा संस्नाप्य षोडश। 
अहते वाससी वीत आचान्तः शुचितामियात् ॥ ३२

तद्वासः कुम्भसहितं नीत्वा क्षेप्यं चतुष्पथे। 
ततो मण्डलमाविशेत् कृत्वा देवान् प्रदक्षिणम् ॥ ३३

पीते वृत्ते सपत्नीकं मार्जयेद् याज्यकं द्विजः । 
मार्जयेन्मुक्तिकामं तु ब्राह्मणेन घटेन वै॥ ३४

श्रीकामं वैष्णवेनेह कलशेन तु पार्थिव। 
राज्यकामं तथा मूर्धि ऐन्द्रेण कलशेन तु ॥ ३५ 

द्रव्यप्रतापकामं तु आग्नेयघटवारिणा। 
मृत्युञ्जयविधानाय याम्येन कलशेन तु ॥ ३६

ततस्तु तिलकं कार्य ब्राह्मणेभ्यस्तु दक्षिणाम्। 
दत्त्वा तत्कर्मसिद्धार्थं ग्राह्याऽऽशीस्तु विशेषतः ॥ ३७

राजेन्द्र । तत्पश्चात् आचार्य चम्पककी शाखासे युक्त जलपूर्ण कलशके जलसे दाताके मस्तकपर 'आप्यायस्व समुद्रज्येष्ठा०' आदि सोलह ऋचाओंसे अभिषेचन करे, तब वह दो बिना फटे वस्त्रोंको पहनकर आचमन करके पवित्र होता है। पुनः उस वखको कलशमें डालकर उसे चौराहेपर फेंक दे। इसके बाद देवताओंकी प्रदक्षिणा कर मण्डपमें प्रवेश करे। तदनन्तर ब्राह्मण उस पीत वस्त्रधारी सपत्नीक यजमानका मार्जन करे। यदि यजमान मुक्तिकी इच्छा रखता हो तो ब्राह्मणसम्बन्धी घटसे उसका मार्जन करे। राजन् । यदि यजमान लक्ष्मीका अभिलाषी हो तो विष्णुसम्बन्धी कलशके जलसे उसका मार्जन करे। यदि राज्यकी कामना हो तो इन्द्रसम्बन्धी कलशके जलसे यजमानके मस्तकपर अभिषेक करे। द्रव्य और प्रतापकी कामना करनेवाले यजमानका अग्निसम्बन्धी कलशके जलसे सिंचन करे। मृत्युपर विजय पानेके विधानके लिये यमसम्बन्धी कलशके जलसे अभिषेक करे। तत्पश्चात् यजमानको तिलक लगाये। दाता ब्राह्मणोंको दक्षिणा देकर कृष्णमृगचर्म-दानकी सिद्धिके लिये उनसे विशेष रूपसे आशीर्वाद ग्रहण करे॥ ३१-३७॥
कृतेनानेन या तुष्टिर्न सा शक्या सुरैरपि। 
वक्तुं हि नृपतिश्रेष्ठ तथाप्युद्देशतः शृणु ॥ ३८ 

समग्रभूमिदानस्य फलं प्राप्नोत्यसंशयम्। 
सर्वांल्लोकांश्च जयति कामचारी विहङ्गवत् ॥३९

आभूतसम्प्लवं तावत् स्वर्गमाप्नोत्यसंशयम्। 
न पिता पुत्रमरणं वियोगं भार्यया सह ॥४०

धनदेशपरित्यागं न चैवेहाप्नुयात् क्वचित्।
कृष्णेप्सितं कृष्णमृगस्य चर्म दत्त्वा द्विजेन्द्राय समाहितात्मा।
यथोक्तमेतन्मरणं न शोचेत् प्राप्नोत्यभीष्टं मनसः फलं तत् ॥ ४१

नृपतिश्रेष्ठ ! इसके करनेसे जो तुष्टि प्राप्त होती है, उसका वर्णन करनेकी शक्ति यद्यपि देवताओंमें भी नहीं है तथापि मैं संक्षेपमें बतला रहा हूँ, सुनिये। वह दाता निश्चय ही समग्र पृथ्वीके दानका फल प्राप्त करता है, सभी लोकोंको जीत लेता है, पक्षीके समान सर्वत्र स्वेच्छानुसार विचरण करता है, महाप्रलयकालपर्यन्त निःसंदेह स्वर्गलोकमें स्थित रहता है, पिता पुत्रकी मृत्यु और पत्नीके वियोगको नहीं देखता। उसे मर्त्यलोकमें कहीं भी धन और देशके परित्यागका अवसर नहीं प्राप्त होता। जो मनुष्य समाहितचित्त हो कुलीन ब्राह्मणको श्रीकृष्णकी प्रिय वस्तु कृष्ण-मृगचर्मका दान करता है वह कभी मृत्युकी चिन्तासे शोकग्रस्त नहीं होता और अपने मनके अनुकूल सभी फलोंको प्राप्त कर लेता है॥ ३८-४१ ॥

इति श्रीमाल्ये महापुराणे कृष्णाजिनप्रदानं नाम षडधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०६ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें कृष्णमृगचर्मप्रदान नामक दो सौ छठा अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २०६ ॥

टिप्पणियाँ