मत्स्य पुराण एक सौ छप्पनवाँ अध्याय
कुसुमामोदिनी और पार्वती की गुप्त मन्त्रणा, पार्वती का तपस्या में निरत होना, आडि दैत्यका पार्वती रूप में शंकर के पास जाना और मृत्यु को प्राप्त होना तथा पार्वतीद्वारा वीरकको शाप
सूत उवाच
देवीं सापश्यदायान्तीं सखीं मातुर्विभूषिताम्।
कुसुमामोदिनीं नाम तस्य शैलस्य देवताम् ॥ १
सापि दृष्ट्वा गिरिसुतां स्नेहविक्लवमानसा।
क्क पुत्रि गच्छसीत्युच्चैरालिङ्गयोवाच देवता ॥ २
सा चास्यै सर्वमाचख्यौ शंकरात्कोपकारणम्।
पुनश्चोवाच गिरिजा देवतां मातृसम्मताम् ॥ ३
सूतजी कहते हैं-' ऋषियो। आगे बढ़ने पर पार्वती ने शृङ्गारसे विभूषित कुसुमामोदिनी (देवी) को आते देखा, जो पार्वती की माता मेना की सखी और पर्वतराज की प्रधान देवता थीं। उधर पार्वती को देखकर कुसुमामोदिनी का भी मन स्नेह से व्याकुल हो उठा। तब उन देवताने पार्वती का आलिङ्गन कर उच्चस्वरसे पूछा 'बेटी! कहाँ जा रही हो ?" तत्पश्चात् गिरिजाने उन देवीसे शंकरजीके प्रति उत्पन्न हुए अपने क्रोधके सारे कारणोंका वर्णन किया और फिर मातृ-तुल्य हितैषिणी देवतासे इस प्रकार कहा ॥ १-३॥

उमोवाच
नित्यं शैलाधिराजस्य देवता त्वमनिन्दिते।
सर्वतः संनिधानं ते मम चातीव वत्सला ॥ ४
अतस्तु ते प्रवक्ष्यामि यद्विधेयं तदा धिया।
अन्यस्त्रीसम्प्रवेशस्तु त्वया रक्ष्यः प्रयत्नतः ॥ ५
रहस्यत्र प्रयत्नेन चेतसा सततं गिरी।
पिनाकिनः प्रविष्टायां वक्तव्यं मे त्वयानघे ॥ ६
ततोऽहं संविधास्यामि यत्कृत्यं तदनन्तरम् ।
इत्युक्ता सा तथेत्युक्त्वा जगाम स्वगिरिं शुभम् ॥ ७
उमापि पितुरुद्यानं जगामाद्रिसुता द्रुतम् ।
अन्तरिक्षं समाविश्य मेघमालामिव प्रभा ॥ ८
ततो विभूषणान्यस्य वृक्षवल्कलधारिणी।
ग्रीष्मे पञ्चाग्निसंतप्ता वर्षासु च जलोषिता ॥ ९
वन्याहारा निराहारा शुष्का स्थण्डिलशायिनी।
एवं साधयती तत्र तपसा संव्यवस्थिता ॥ १०
उमा बोलीं- 'अनिन्दिते। आप मेरे पिता पर्वतराज हिमाचलकी देवता है, अतः आपका यहाँ नित्य निवास है। साथ ही मुझपर भी आपका अत्यन्त स्नेह है, इसलिये इस समय जो कार्य करना है उसे मैं आपके ध्यानमें ला रही हूँ। आपको इस पर्वतपर सावधान चित्तसे निरन्तर प्रयत्नपूर्वक ऐसी देखभाल करनी चाहिये कि यहाँ शिवजीके पास एकान्तमें कोई अन्य स्त्री प्रवेश न करने पाये। अनघे! यदि कोई स्त्री शंकरजीके पास प्रवेश करती है तो आपको मुझे तुरंत उसकी सूचना देनी चाहिये। उसके बाद जो कुछ करना होगा, उसका विधान मैं कर लूँगी। ऐसा कहे जानेपर वे 'तथेति'-ऐसा ही करूँगी' यों कहकर अपने मङ्गलमय पर्वतकी ओर चली गयीं। इधर गिरिराजकुमारी उमा भी तुरंत ही मेधसमूहमें चमकती हुई बिजलीकी तरह आकाशमार्गसे अपने पिताके उद्यानमें जा पहुँची। वहाँ उन्होंने आभूषणोंका परित्याग कर वृक्षोंका वल्कल धारण कर लिया। वे ग्रीष्म ऋऋतुमें पञ्चाग्रि तपती थीं, वर्षा ऋतुमें जलमें निवास करती थीं और जाड़ेमें शुष्क बंजरभूमिपर शयन करती थीं। वनके फल-मूल ही उनके आहार थे तथा वे कभी-कभी निराहार ही रह जाती थीं। इस प्रकार साधना करती हुई वे वहाँ तपस्यामें संलग्न हो गयीं ॥४-१०॥
ज्ञात्वा तु तां गिरिसुतां दैत्यस्तत्रान्तरे बली।
अन्धकस्य सुतो दृप्तः पितुर्वधमनुस्मरन् ॥ ११
देवान् सर्वान् विजित्याजौ बकभ्राता रणोत्कटः ।
आडिर्नामान्तरप्रेक्षी सततं चन्द्रमौलिनः ॥ १२
आजगामामररिपुः पुरं त्रिपुरघातिनः ।
स तत्रागत्य ददृशे वीरकं द्वार्यवस्थितम् ॥ १३
विचिन्त्यासीद्वरं दत्तं स पुरा पद्मजन्मना।
हते तदान्धके दैत्ये गिरिशेनामरद्विषि ॥ १४
आडिश्चकार विपुलं तपः परमदारुणम्।
तमागत्याब्रवीद् ब्रह्मा तपसा परितोषितः ॥ १५
किमाडे दानवश्रेष्ठ तपसा प्राप्तुमिच्छसि।
ब्रह्माणमाह दैत्यस्तु निर्मृत्युत्वमहं वृणे ॥ १६
इसी बीच अन्धकासुरका पुत्र एवं बकासुरका भ्राता आडि नामक दैत्य जो बलवान्, घमंडी, रणमें दुःसह, देवताओंका शत्रु और निरन्तर शंकरजीके छिद्रान्वेषणमें निरत रहनेवाला था, पार्वती को तपस्यामें संलग्न जानकर अपने पिताके वधका अनुस्मरण करते हुए युद्ध स्थल में सभी देवताओंको पराजित कर त्रिपुरहन्ता शंकरजीके नगरमें आ धमका। वहाँ आकर उसने वीरकको द्वारपर स्थित देखा। तब वह पूर्वकालमें ब्रह्माद्वारा दिये गये अपने वरदानके विषयमें सोच-विचार करने लगा। शंकरजीद्वारा देवद्रोही अन्धक दैत्यके मारे जानेपर आडिने बहुत दिनोंतक परम कठोर तप किया था। तब उसकी तपस्यासे संतुष्ट हो ब्रह्माने उसके निकट आकर कहा था-'दानवश्रेष्ठ आडि । तुम तपस्याद्वारा क्या प्राप्त करना चाहते हो?' तब उस दैत्यने ब्रह्मासे कहा था-'प्रभो! मैं अमरताका वरदान चाहता हूँ'॥ ११-१६॥
ब्रह्मोवाच
न कश्चिच्च विना मृत्युं नरो दानव विद्यते ।
यतस्ततोऽपि दैत्येन्द्र मृत्युः प्राप्यः शरीरिणा ॥ १७
इत्युक्तो दैत्यसिंहस्तु प्रोवाचाम्बुजसम्भवम् ।
रूपस्य परिवर्तों मे यदा स्यात्पद्यसम्भव ॥ १८
तदा मृत्युर्मम भवेदन्यथा त्वमरो हाहम् ।
इत्युक्तस्तु तदोवाच तुष्टः कमलसम्भवः ॥ १९
यदा द्वितीयो रूपस्य विवर्तस्ते भविष्यति ।
तदा ते भविता मृत्युरन्यथा न भविष्यति ॥ २०
इत्युक्तोऽमरतां मेने दैत्यसूनुर्महाबलः ।
तस्मिन् काले तु संस्मृत्य तद्वधोपायमात्मनः ॥ २९
परिहर्तुं दृष्टिपथं वीरकस्याभवत्तदा।
भुजङ्गरूपी रन्थेण प्रविवेश दृशः पञ्चम् ॥ २२
परिहृत्य गणेशस्य दानवोऽसौ सुदुर्जयः।
अलक्षितो गणेशेन प्रविष्टोऽथ पुरान्तकम् ॥ २३
भुजङ्गरूपं संत्यज्य बभूवाथ महासुरः ।
उमारूपी च्छलयितुं गिरिशं मूढचेतनः ॥ २४
कृत्वा मायां ततो रूपमप्रतर्व्यमनोहरम्।
सर्वावयवसम्पूर्ण सर्वाभिज्ञानसंवृतम् ॥ २५
कृत्वा मुखान्तरे दन्तान् दैत्यो वज्रोपमान् दृढान् ।
तीक्ष्णाग्रान् बुद्धिमोहेन गिरिशं हन्तुमुद्यतः ॥ २६
तब ब्रह्माने कहा था- 'दानव! इस सृष्टिमें कोई भी मनुष्य मृत्युसे रहित नहीं है। दैत्येन्द्र । शरीरधारीको किसी-न-किसी प्रकारसे मृत्यु प्राप्त होती ही है। ऐसा कहे जानेपर दैत्यसिंह आडिने पद्मयोनि ब्रह्मासे कहा था-'पद्मसम्भव! जब मेरे रूपका परिवर्तन हो जाय तभी मेरी मृत्यु हो, अन्यथा मैं अमर बना रहूँ।' उसके द्वारा ऐसा कहे जानेपर उस समय कमलयोनि ब्रह्माने प्रसन्न होकर उससे कहा था कि 'ठीक है, जब तुम्हारे रूपका दूसरा परिवर्तन होगा, तभी तुम्हारी मृत्यु होगी, अन्यथा नहीं होगी।' ब्रह्माद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वह महाबली दैत्यपुत्र आडि अपनेको अमर मानने लगा। उस समय उसने अपनी मृत्युके उस उपायका स्मरणकर वीरकके दृष्टिमार्गको बचानेके लिये सर्पका रूप धारण कर लिया और एक बिलमें प्रविष्ट हो गया। फिर वह परम दुर्जय दानव गणेश्वर वीरकके दृष्टिपथको बचाकर उनसे अलक्षितरूपसे भगवान् शंकरके पास पहुँच गया। तदनन्तर उस मोहित चित्तवाले महासुर आडिने शंकरजी को छलनेके लिये सर्पका रूप त्यागकर उमाका रूप धारण कर लिया। उसने मायाका आश्रय लेकर पार्वतीके ऐसे अकल्पनीय एवं मनोहर रूपका निर्माण किया था, जो सभी अवयवोंसे परिपूर्ण तथा सभी लक्षणोंसे युक्त था। फिर वह दैत्य मुखके भीतर वज्रके समान सुदृढ़ और तीखे अग्रभागवाले दाँतोंका निर्माण कर मूर्खतावश शंकरजीका वध करनेके लिये उद्यत हुआ॥ १७-२६॥
कृत्वोमारूपसंस्थानं गतो दैत्यो हरान्तिकम् ।
पायो रम्याकृतिश्चित्रभूषणाम्बरभूषितः ॥ २७
तं दृष्ट्वा गिरिशस्तुष्टस्तदाऽऽलिङ्गय महासुरम्।
मन्यमानो गिरिसुतां सर्वैरवयवान्तरैः ॥ २८
अपृच्छत् साधु ते भावो गिरिपुत्रि न कृत्रिमः ।
या त्वं मदाशयं ज्ञात्वा प्राप्तेह वरवर्णिनि ॥ २९
त्वया विरहितं शून्यं मन्यमानो जगत्त्रयम्।
प्राप्ता प्रसन्नवदना युक्तमेवंविधं त्वयि ॥ ३०
इत्युक्तो दानवेन्द्रस्तु तदाभाषत् स्मयञ्शनैः ।
न चाबुध्यदभिज्ञानं प्रायस्त्रिपुरघातिनः ॥ ३१
तदनन्तर वह पापी दैत्य सुन्दर रूप एवं चित्र-विचित्र आभूषणों और वस्त्रोंसे विभूषित हो उमाका रूप धारण कर शंकरजीके निकट गया। उसे देखकर भगवान् शंकर प्रसन्न हो गये। तब उन्होंने उस महासुरको सभी अङ्ग प्रत्यङ्गोंसे पार्वती मानते हुए उसका आलिङ्गन करके पूछा- 'गिरिजे। अब तो मेरे प्रति तुम्हारा भाव उत्तम है न? बनावटी तो नहीं है? सुन्दरि। (ऐसा प्रतीत होता है कि) तुम मेरे अभिप्रायको जानकर ही यहाँ आयी हो; क्योंकि तुम्हारे बिना मैं त्रिलोकीको सूना-सा मान रहा था। अब जो तुम प्रसन्नतापूर्वक यहाँ आ गयी हो, तुम्हारे लिये ऐसा करना उचित ही है। इस प्रकार कहे जानेपर दानवेन्द्र आडि मुसकराते हुए धीरे-धीरे बोला। वह त्रिपुरहन्ता शंकरजीद्वारा पार्वतीके शरीरमें लक्षित किये गये चिह्नको प्रायः नहीं जानता था ॥ २७-३१॥
देश्युवाच
यातास्म्यहं तपश्चर्तुं वाल्लभ्याय तवातुलम् ।
रतिश्च तत्र मे नाभूत्ततः प्राप्ता त्वदन्तिकम् ॥ ३२
इत्युक्तः शङ्करः शङ्कां कांचित्प्राप्यावधारयत् ।
हृदयेन समाधाय देवः प्रहसिताननः ॥ ३३
कुपिता मयि तन्वङ्गि प्रकृत्या च दृढव्रता।
अप्राप्तकामा सम्प्राप्ता किमेतत्संशयो मम ॥ ३४
इति चिन्त्य हरस्तस्या अभिज्ञानं विधारयन्।
नापश्यद्वामपार्श्वे तु तदङ्गे पालक्षणम् ॥ ३५
लोमावर्त तु रचितं ततो देवः पिनाकधृक् ।
अबुध्यद्दानवीं मायामाकारं गूहर्यस्ततः ॥ ३६
मेढ़े वज्रास्त्रमादाय दानवं तमसूदयत्।
अबुध्यद्वीरको नैव दानवेन्द्रं निघूदितम् ॥ ३७
हरेण सूदितं दृष्ट्वा स्त्रीरूपं दानवेश्वरम् ।
अपरिच्छिन्नतत्त्वार्था शैलपुत्र्यै न्यवेदयत् ॥ ३८
दूतेन मारुतेनाशुगामिना नगदेवता।
श्रुत्वा वायुमुखादेवी क्रोधरक्तविलोचना।
अशपद्वीरकं पुत्रं हृदयेन विदूयता ॥ ३९
देवी (रूपधारी आडि) ने कहा- 'पतिदेव। आपके अतुलनीय पति-प्रेमकी प्राप्तिके अभिप्रायसे मैं तपस्या करने गयी थी, किंतु उसमें मेरा मन नहीं लगा, अतः पुनः आपके निकट लौट आयी हूँ। उसके ऐसा कहनेपर शंकरजीके मनमें कुछ शङ्का उत्पन्न हो गयी, परंतु उसे उन्होंने हृदयमें ही समाधान करके छिपा लिया। फिर वे मुसकराते हुए बोले- 'सूक्ष्माङ्गि। तुम तो मुझपर कुपित होकर तपस्या करने गयी थी न ? साथ ही तुम स्वभावसे हो सुदृढ़ प्रतिज्ञावाली हो, फिर बिना मनोरथ सिद्ध किये लौट आयी हो, यह क्या बात है? इससे तो मुझे संदेह हो रहा है।' ऐसा विचारकर शंकरजी पार्वतीके उस लक्षणका स्मरण करने लगे, जिसे उन्होंने पार्वतीके शरीरके बायें भागमें बालोंको घुमाकर पद्मके रूपमें बनाया था, परंतु वह उन्हें दिखायी न पड़ा। तब पिनाकधारी महादेवने समझ लिया कि यह दानवी माया है। फिर तो उन्होंने अपने आकारको छिपाते हुए जननेन्द्रियमें वज्रास्त्रको अभिमन्त्रित करके उस दैत्यको मार डाला। इस प्रकार मारे गये दानवेन्द्र आडिकी बात वीरकको नहीं ज्ञात हुई। उधर इसके यथार्थ तत्त्वको न जाननेवाली हिमाचलकी देवता कुसुमामोदिनीने शंकरजीद्वारा स्त्रीरूपधारी दानवेश्वरको मारा गया देखकर अपने शीघ्रगामी दूत वायुद्वारा पार्वतीको इसकी सूचना भेज दी। वायुके मुखसे वह संदेश सुनकर पार्वती देवीके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। तब वे दुःखी हृदयसे अपने पुत्र वीरकको शाप देते हुए बोलीं ॥ ३२-३९॥
इति श्रीमास्ये महापुराणे कुमारसम्भवे आडिवधो नाम षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५६ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके कुमारसम्भव प्रसङ्गमें आडिवध नामक एक सौ छप्पनयाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १५६ ॥
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