नर्मदा महात्म्य के प्रसंग में पुनः त्रिपुराख्यान | narmada mahaatmy ke prasang mein punah tripuraakhyaan

मत्स्य पुराण एक सौ सतासीवाँ अध्याय 

नर्मदा महात्म्य के प्रसंग में पुनः त्रिपुराख्यान

नर्मदा तु नदी श्रेष्ठा पुण्यात् पुण्वतमा हिता। 
मुनिभिस्तु महाभागैर्विभक्ता मोक्षकाङ्खिभिः ॥ १

यज्ञोपवीतमात्राणि प्रविभक्तानि पाण्डव। 
तेषु स्नात्वा तु राजेन्द्र सर्वपापैः प्रमुच्यते ।। २

जलेश्वरं परे तीर्थ त्रिषु लोकेषु विश्रुतम्। 
तस्योत्पत्तिं कथयतः शृणु त्वं पाण्डुनन्दन ॥ ३

पुरा सुरगणाः सर्वे सेन्द्राचैव मरुद्रणाः। 
रसुबन्ति ते महात्मानं देवदेवं महेश्वरम्। 
स्तुवनरास्ते तु सम्प्राप्ता यत्र देवो महेश्वरः ॥ ४

विज्ञापयन्ति देवेशं सेन्द्राचैव मरुद्रणाः। 
भयोद्विग्गा विरूपाक्षं परित्रायस्य नः प्रभो॥ ५ 

मार्कण्डेयजीने कहा-पाण्डुनन्दन। नर्मदा नदियोंमें श्रेष्ठ है, वह अतिशय पुष्पदागिनी, हितकारिणी तथा मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले महाभाग्यशाली मुनियोंद्वारा सेवित है। वह यज्ञोपवीतकी दूरीपर (तीर्थ) विभक्त हैं। नृपश्रेष्ठ। मनुष्य उनमें स्नानकर सभी पापोंने मुक हो जाता है। पाण्डुपुत्र! जलेश्वर नामक वे तीर्थ तीनों लोकोंमें विख्यात है, मैं उसकी उत्पत्तिका वर्णन कर रहा हूँ आप सुनिये। पूर्वकालमें इन्द्रसहित सभी देवता और मरुद्रज देवाधिदेव महात्मा महेश्वरको स्तुति कर रहे थे। स्तुति करते हुए वे इन्द्रसहित महद्रण गहेसरदेवके पास पहुँचे और भयसे व्याकुल होकर विरूपक्ष भगवान् शंकरसे कहने लगे- 'प्रभी हमलोगों को रक्षा कीजिये'॥ १-५॥

स्वागतं तु सुरश्रेष्ठाः किमर्थमिह चागताः। 
किं तुःहां को नु संतापः कृतो वा भयमागतम् ।। ६

कवचध्वं महाभागा एवमिच्छामि वेदितुम् । 
एवमुक्तास्तु रुद्रेण कथयन् संशितव्रताः ॥ ७

श्रीभगवान्ने कहा- मुरबेष्ठगण। आपलोगोंका स्वागत है। आपलोग यहाँ किसलिये आये हैं। आप लोगोंको कौन-सा दुःख है? कैसरी पीड़ा है? और कहाँरी भय उपस्थित हो गया है? महाभाग देवगण। आपलोग कहिये, मैं उसे जानना चाहता है। इस प्रकार रुदद्वारा कहे जानेपर भलीभांति खतोंका सम्पादन करनेवाले देवताओंने कहा ॥ ६-७॥

अतिवीयर्थी महाघोरी दानवो बलदर्पितः। 
वाणो नामेति विख्यातो यस्य वै त्रिपुरं पुरम् ॥ ८

गगने राततं दिव्यं भ्रमते तस्य तेजसा। 
तत्तो भीता विरूपाक्ष ल्यामेव शरणं गताः ॥ ९

जायस्व महतो दुःखात् त्वं हि नः परमा गतिः । 
एवं प्रशातं देवेश सर्वेषां कर्तुमर्हसि ।। १०

येन देवाः सगन्धर्वाः सुखमेधन्ति शंकर।
पां निवृतिमायान्ति तत् प्रभो कर्तुमर्हसि ॥ ११

देवगण बोले- विरूपाक्ष। अतिशय भीषण, महान पराक्रमी और बलाभिमानी बाण नामसे विख्का एक दानव है, जिसका त्रिपुर नामक नगर है। वाह दिव्य मगर उसके प्रभावसे सदा आकाशमें घूमता रहता है। उससे भयभीत होकर हमलोग आपकी शरणमें आये हैं। आप इस महान् कष्टसे हमलोगोंकी रक्षा कीजिये, क्योंकि आप ही इगलोगोंकी परमगति हैं। देवेश। इस प्रकार व्यप इम सभी लोगोंपर कृपा कीजिये। सामर्थ्यशाली शंकर। जिस कार्यरी गन्धर्वोसहित देवगण सुखी हो सकें तथा परम संतोष प्राप्त कर लें, आप वही कीजिये॥ ८-११॥

एतत् सर्व करिष्यामि मा विषादं गमिष्यथ। 
अचिरेणैव कालेन कुर्यां युष्मत् सुखावहम् ॥ १२

चिन्तयामास देवेशस्तद्वर्थ प्रति मानद ॥ १३

अथ केन प्रकारेण हन्तव्यं त्रिपुरं मया। 
एवं संचिन्त्य भगवान् नारदं चास्मरत् तदा। 
स्मरणादेव सम्प्राप्तो नारदः समुपस्थितः ॥ १४

श्रीभगवान्ने कहा- देवगण! आपलोग विषाद मत करें। मैं यह सब करूँगा। मैं बौड़े हो समयमें आप लोगोंके लिये सुखप्रद कार्यका सम्पादन करूँगा। मानद। इस प्रकार उन लोगोंको आधासन देकर देवेश नर्मदाके तटपर आये और उसके वधके विषयमें सोचने लगे कि मुझे त्रिपुरका विनाश किस प्रकार करना चाहिये। ऐसा सोच-विचारकर भगवानू‌ने उस समय नारदका स्मरण किया। स्मरण करते ही नारदजी वहाँ उपस्थित हो गये ॥१२- १४॥

नपद उवाच

आज्ञापय महादेव किमर्थं च स्मृतो ह्यहम्। 
किं कार्य तु मया देव कर्तव्यं कथयस्व मे ॥ १५

नारदजीने कहा-महादेव। मुझे आज्ञा दीजिये, किस लिये मेरा स्मरण किया गया है? देव! मुझे क्या करना है? मेरे लिये उस कर्तव्यका निर्देश कीजिये ॥ १५॥ 

गच्छ नारद तत्रैव यत्र तत् त्रिपुरं महत्। 
बाणस्थ दानवेन्द्रस्य शीघ्रं गत्वा च तत् कुरु ॥ १६

ता भर्तृदेवतास्तत्र स्त्रियश्चाप्सरसां समाः। 
तासां वै तेजसा विप्न भ्रमते त्रिपुरं दिवि ॥ १७

तन्त्र गत्वा तु विप्रेन्द्र मतिमन्यां प्रचोदय। 
देवस्य वचनं श्रुत्वा मुनिस्त्वरितविक्रमः ॥ १८

स्त्रीणां हृदयनाशाय प्रविष्टस्तत्पुरं प्रति। 
शोभते यत्पुरं दिव्यं नानारत्नोपशोभितम् ॥ १९

शतयोजनविस्तीर्णं ततो द्विगुणमायतम्। 
ततोऽपश्यद्धि तत्रैव बाणं तु बलदर्पितम् ॥ २०

मणिकुण्डलकेयूरमुकुटेन विराजितम्।
हेमहारशतै रत्नैश्चन्द्रकान्तविभूषितम् ॥ २१

रशना तस्य रत्नाळ्या बाहू कनकमण्डितौ।
चन्द्रकान्तमहावद्रमणिविद्रुमभूषिते ॥ २२

द्वादशार्कद्युतिनिधे निविष्टं परमासने। 
उत्थिती नारदं दृष्टा दानवेन्द्रो महाबलः ॥ २३

श्रीभगवान्‌ने कहा-नारद। दानवरान बाणका यह महान् त्रिपुर जहाँ स्थित है, आप वहीं जाइये और वहाँ जाकर शीघ्र ही ऐसा कीजिये। विप्र । वहाँकी स्त्रियों अप्सराओंके समान सुन्दरी हैं और वे सभी पतिव्रता है। उन्होंके तेजसे त्रिपुर आकाशमें घूमता है। विप्रेन्द्र । यहाँ जाकर आप उनकी बुद्धिको परिवर्तित कर दीजिये। महादेवजीकी बात सुनकर शीघ्र पराक्रमी नारदजी उन स्वियोंके हृदयको विकृत करनेके लिये उस त्रिपुरमें प्रविष्ट हुए। वह दिव्य पुर अनेक प्रकारके रामोंसे अलंकृत, सौ योजन विस्तृत और दो सी योजन चौड़ा था। वहाँ उन्होंने बलाभिमानी बाणको देखा। वह मणिमय कुण्डल, भुजबंद और मुकुटसे अलंकृत तथा सैकड़ों स्वर्णमय एवं सनकि हारों और चन्द्रकान्तमणिसे विभूषित था। उसकी करधनी रलोंकी बनी थी तथा भुजाएँ स्वर्णमय आभूषणोंसे मण्डित थीं। वह चन्द्रकान्त, हीरक, मणि और गूँगींसे जटित एवं बारह आदित्योंकी द्युतिके समान देदीप्यमान श्रेष्ठ सिंहासनपर बैठा था। नारदजीको देखकर बह महाबली दानवराज उठकर खड़ा हो गया॥ १६-२३॥

देवर्षे त्वं स्वयं प्राप्तो हाघ्यं पाद्यं निवेदये। 
सोऽभिवाद्य यथान्यायं क्रियतां किं द्विजोत्तम ॥ २४

चिरात् त्वमागतो विप्र स्वीयतामिदमासनम्। 
एवं सम्भाषयित्वा तु नारदमुषिसत्तमम् । 
तस्य भार्या महादेवी हानीपम्या तु नामतः ॥ २५

बाणासुर बोला-देवर्षे। आप स्वयं मेरे नगरमें पधारे हैं, में आपको अध्ये एवं पाद्य निवेदित कर रहा हैं। फिर उसने विधिपूर्वक अभिवादन कर कड़ा 'द्विजश्रेष्ठ। मैं आपका कौन-सा कार्य करूँ? ब्राह्मणदेव। आप बहुत दिनोंके बाद पधारे हैं। इस आसनपर बैठिये।' इस प्रकार ऋषिश्रेष्ठ नारदजीसे वार्तालाप करनेके पश्चात् उसकी पानी महादेवी अनौगम्याने प्रश्न किया। २०-२५॥

अनौपम्योवाच

भगवन् मानुषे लोके केन तुष्यति केशवः । 
व्रतेन नियमेनाथ दानेन तपसापि वा ॥ २६

अनौपम्याने पूछा- भगवन् । मनुष्यलोकमें केशव व्रत, नियम, दान अथवा तपस्या इनमें किससे प्रसत्र होते हैं? ॥ २६ ॥ 

नारद उवाच

तिलधेनुं च यो दद्याद् ब्राह्मणे वेद‌पारगे। 
ससागरवनद्वीपा दत्ता भवति मेदिनी ।। २७

सूर्यकोटिप्रतीकाशैर्विमानैः सार्वकामिकैः। 
मोदते चाक्षयं कालं यावच्चन्द्रार्कतारकम् ॥ २८

आग्नामलकपित्थानि बदराणि तथैव च। 
कदम्बचम्पकाशोकपुन्नागविविधद्रुमान् ॥ २९

अश्वत्थपिप्पलांश्चैव कदलीवटदाडिमान् । 
पिचुमन्दं मधूकं च उपोष्य स्त्री ददाति या ।। ३०

स्तनौ कपित्थसदृशावूरू च कदलीसमी। 
अश्वत्थे वन्दनीया च पिचुमन्दे सुगन्धिनी ॥ ३१

चम्पके चम्पकाभा स्यादशोके शोकवर्जिता । 
मधूके मधुरं बक्ति वटे च मृदुगात्रिका ॥। ३२

बदरी सर्वदा स्त्रीणां महासौभाग्यदायिनी।
कुक्कुटी कर्कटी चैव द्रव्यषष्ठी न शस्यते ।। ३३

कदम्बमिश्रकनकमञ्जरीपूजनं तथा।
अनग्निपक्क्रमन्त्रं च पक्वान्नानामभक्षणम् ॥ ३४ 

फलानां च परित्यागः संध्यामौनं तथैव च। 
प्रथमं क्षेत्रपालस्य पूजा कार्या प्रयत्नतः ॥ ३५

तस्या भवति वै भर्ता मुखप्रेक्षी सदानघे।
अष्टमी च चतुर्थी च पञ्चमी द्वादशी तथा ॥ ३६ 

संक्रान्तिर्विषुवच्चैव दिनच्छिद्रमुखं तथा। 
एतांस्तु दिवसान् दिव्यानुपवसन्ति याः स्वियः । 
तासां तु धर्मयुक्तानां स्वर्गवासो न संशयः ॥ ३७

कलिकालुष्यनिर्मुक्ताः सर्वपापविवर्जिताः । 
उपवासरतां नारीं नोपसर्पति तां यमः ॥ ३८

नारदजीने कहा- जो मनुष्य वेदमें पारङ्गत ब्राह्मणको तिलधेनुका दान करता है, उसके द्वारा समुद्र, बन और द्वीपोंसहित पृथ्वीका दान सम्पन्न हुआ समझना चाहिये। वह दाता करोड़ों सूर्योके समान देदीप्यमान एवं सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले विमानोंद्वारा सूर्य, चन्द्र और तारोंकी स्थितिपर्यन्त अक्षय कालतक आनन्द मनाता है। जो स्त्री उपवास करके आम, आँवला, कैथ, बेर, कदम्ब, चम्पक, अशोक, पुंनाग, जायफल, पीपल, केला, वट, अनार, नीम, महुआ आदि अनेक प्रकारके वृक्षोंका दान करती है, उसके दोनों स्तन कैथके समान और दोनों जंघाएँ केलेके सदृश सुन्दर होती हैं। वह अश्वत्थके दानसे वन्दनीय और नीमके दानसे सुगन्धयुक होती है। वह चम्पाके दानसे चम्पाकी-सी कान्तिवाली और अशोकके दानसे शोकरहित होती है। महुआके दानसे वह मधुरभाषिणी होती है और वटके दानसे उसका शरीर कोमल होता है। बेर खियोंके लिये सदा महान् सौभाग्यदायी होता है। ककड़ी, जटाधारी और द्रव्यषष्ठीका दान, कदम्बसे मिश्रित धतूरेकी मंजरीसे पूजन, बिना अग्निसे पकाया हुआ आम एवं पके हुए अन्नोंका अभक्षण, फलोंका परित्याग तथा संध्याकालमें मौनधारण ये स्त्रियोंके लिये प्रशस्त नहीं है। सर्वप्रथम प्रयत्नपूर्वक क्षेत्रपालकी पूजा करनी चाहिये। पापशून्ये। उस स्त्रीका पति सदा उसका मुख ही देखा करता है। जो स्त्रियाँ अष्टमी, चतुर्थी, पञ्चमी और द्वादशी तिथि, संक्रान्ति, विषुवयोग और दिनच्छिद्रमुख (दोपहरमें चन्द्रमाका नये मासकी तिथिमें प्रवेश करना)- इन दिव्य दिनोंमें उपवास करती हैं, उस धर्मयुक्त खियोंका स्वर्गमें निवास होता है-इसमें संदेह नहीं है। वे कलियुगके पापोंसे रहित और सभी पापोंसे शून्य हो जाती हैं। इस प्रकार जो स्त्री उपवासमें तत्पर रहती है, उसके समीप यम भी नहीं आते ॥२७-३८॥

अनौपम्योवाच

अस्मिन् कृतेन पुण्येन पुराजन्मकृतेन वा। 
भवदागमनं भूतं किंचित् पृच्छाम्यहं व्रतम् ॥ ३९

अस्ति विन्ध्यावलिर्नाम बलिपत्नी यशस्विनी। 
श्वश्रूर्ममापि विप्रेन्द्र न तुष्यति कदाचन ॥ ४०

श्वशुरोऽपि सर्वकालं दृष्ट्वा चापि न पश्यति। 
अस्ति कुम्भीनसी नाम ननान्दा पापकारिणी ॥ ४१

दृष्ट्वा चैवाङ्गुलीभङ्गं सदा कालं करोति माम्। 
दिव्येन तु पथा याति मम सौख्यं कथं वद ॥ ४२

ऊषरे न प्ररोहन्ति बीजाङ्कराः कथञ्चन। 
येन व्रतेन चीर्णेन भवन्ति वशगा मम। 
तव्रतं ब्रूहि विपेन्द्र दासभावं व्रजामि ते ॥ ४३

अनौपम्या बोली-नारदजी। पता नहीं, इस जन्ममें या पूर्व जन्ममें किये हुए पुण्यसे ही आपका यहाँ आगमन हुआ है। अब मैं आपसे कतिपय व्रतोंके विषयमें पूछती हूँ। विप्रवर! जो बलिकी पत्नी यशस्विनी विन्ध्यावलि हैं, वे मेरी भी सास हैं। वे मुझसे कभी भी प्रसन नहीं रहती। मेरे श्रशुर भी मुझे सभी समय देखते हुए भी अनदेखी करते हैं। पापाचरणमें रत रहनेवाली कुम्भीनसी नामकी मेरी ननद है। वह सभी समय मुझे देखकर अङ्गुली तोड़ती रहती है। वह दिव्य मार्गसे कैसे चले और मुझे सुखकी प्राप्ति कैसे हो-यह बतानेकी कृपा करें। (यह सत्य है कि) ऊपर भूमिमें डाले हुए बीजसे किसी प्रकार भी अङ्कुर नहीं उत्पन्न होते, फिर भी जिस व्रतका अनुष्ठान करनेसे ये मेरे वशमें आ जायें, वह व्रत मुझे बतलाइये। विप्रेन्द्र। मैं आपकी दासी हूँ॥ ३९-४३॥

नारद उवाच

यदेतत् ते मया पूर्व व्रतमुक्तं शुभानने। 
अनेन पार्वती देवी चीर्णेन वरवर्णिनि ॥ ४४

शंकरस्य शरीरस्था विष्णोर्लक्ष्मीस्तथैव च। 
सावित्री ब्रह्मणश्चैव वसिष्ठस्याप्यरुन्धती ॥ ४५

एतेनोपोषितेनेह भर्ता स्थास्यति ते वशे। 
श्वश्रूश्वशुरयोश्चैव मुखबन्धो भविष्यति ॥ ४६

एवं श्रुत्वा तु शुश्रोणि यथेष्टं कर्तुमर्हसि। 
नारदस्य वचः श्रुत्वा राज्ञी वचनमब्रवीत् ॥ ४७

प्रसादं कुरु विपेन्द्र दानं ग्राह्यं यथेप्सितम्। 
सुवर्णमणिरत्रानि वस्त्राण्याभरणानि च ॥ ४८

तव दास्याम्यहं विप्र यच्चान्यदपि दुर्लभम्। 
प्रगृहाण द्विजश्रेष्ठ प्रीयेतां हरिशंकरौ ॥ ४९

नारदजीने कहा-सुन्दर मुखवाली। जो व्रत मैंने पूर्वमें तुमसे कहा है, उस व्रतका अनुष्ठान करनेसे पार्वतीदेवी शंकरके, लक्ष्मी विष्णुके, सावित्री ब्रह्माके, अरुन्धती वसिष्ठके शरीरमें विराजमान रहती हैं। इस उपवास-व्रतसे तुम्हारा पति भी तुम्हारे अधीन रहेगा तथा सास और अशुरका भी मुख बंद हो जायगा अर्थात् वे तुमसे प्रेम करने लगेंगे। सुश्रोणि। ऐसा सुनकर तुम जैसा चाहो वैसा कर सकती हो। नारदजीके वचनको सुनकर रानीने इस प्रकार कहा- 'विप्रवर! मुझपर कृपा कीजिये और यथाभिलषित दान स्वीकार कीजिये। विप्र ! सुवर्ण, मणि, रत्न, वस्त्र, आभूषण एवं अन्य जो भी दुर्लभ पदार्थ हैं, वह सब मैं आपको दूँगी। द्विजश्रेष्ठ! आप उसे ग्रहण करें, जिससे विष्णु और शंकर मुझपर प्रसन्न हो जायें ॥ ४४-४९॥

नारद उवाच

अन्यस्मै दीयतां भद्रे क्षीणवृत्तिस्तु यो द्विजः ।
अहं तु सर्वसम्पन्नो मद्भक्तिः क्रियतामिति ॥ ५० 

एवं तासां मनो हत्वा सर्वांसां तु पतिव्रतात्।
जगाम भरतश्रेष्ठ स्वकीयं स्थानकं पुनः ॥ ५१ 

ततो ह्यहष्टहृदया अन्यतोगतमानसाः ।
पतिव्रतात्वमुत्सृज्य तासां तेजो गतं ततः ।
पुरे छिद्रं समुत्पन्नं बाणस्य तु महात्मनः ॥ ५२ 

नारदजी बोले-कल्याणि । जो ब्राह्मण जीविकारहित हो, उसे ही यह दान दी। मैं तो सर्वसम्पन्न हूँ। तुम मेरे प्रति भक्ति-भाव रखो। भरतश्रेष्ठ। इस प्रकार उन सभी त्रियोंके मनको पातिव्रतसे विचलित कर नारदजी पुनः अपने स्थानपर चले गये। तभीसे उन स्त्रियोंका हृदय उदास रहने लगा और उनका मन दूसरी और लग गया। इस प्रकार पातिव्रत्यके त्याग से उनका तेज नह हो गया तथा महान् आत्मबलसे सम्पन्न बाणके नगरमें छिद्र (दोष) उत्पन्न हो गया ॥ ५०-५२॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे नर्मदामाहात्म्ये सप्ताशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८७॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें नर्मदामाहात्म्य वर्णन नामक एक सौ सतासीर्वां अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥१८७॥

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