मत्स्य पुराण दो सौ तेईसवाँ अध्याय
नीति चतुष्टयी के अन्तर्गत भेद-नीति का वर्णन
मत्स्य उवाच
परस्परं तु ये दुष्टाः कुद्धा भीतावमानिताः ।
तेषां भेदं प्रयुञ्जीत भेदसाध्या हि ते मताः ॥ १
मत्स्यभगवान्ने कहा-राजन् ! जो परस्पर वैर रखनेवाले, क्रोधी, भयभीत तथा अपमानित हैं, उनके प्रति भेद-नीतिका प्रयोग करना चाहिये; क्योंकि वे भेदद्वारा साध्य माने गये हैं। १
ये तु येनैव दोषेण परस्मान्नापि बिभ्यति।
ते तु तद्दोषपातेन भेदनीया भृशं ततः ॥ २
आत्मीयां दर्शयेदाशां परस्माद् दर्शयेद् भयम् ।
एवं हि भेदयेद् भिन्नान् यथावद् वशमानयेत् ॥ ३
संहता हि विना भेदं शक्रेणापि सुदुःसहा।
भेदमेव प्रशंसन्ति तस्मान्नयविशारदाः ॥ ४
स्वमुखेनाश्रयेद् भेदं भेदं परमुखेन च।
परीक्ष्य साधु मन्येत भेदं परमुखाच्छ्रुतम् ॥ ५
सद्यः स्वकार्यमुद्दिश्य कुशलैर्ये हि भेदिताः ।
भेदितास्ते विनिर्दिष्टा नैव राज्ञाऽर्थवादिभिः ॥ ६
अन्तः कोपो बहिः कोपो यत्र स्यातां महीक्षिताम्।
अन्तःकोपो महांस्तत्र नाशकः पृथिवीक्षिताम् ॥ ७
जो लोग जिस दोषके कारण दूसरेसे भयभीत नहीं होते उन्हें उसी दोषके द्वारा भेदन करना चाहिये। उनके प्रति अपनी ओरसे आशा प्रकट करे और दूसरेसे भयकी आशङ्का दिखलाये। इस प्रकार उन्हें फोड़ ले तथा फूट जानेपर उन्हें अपने वशमें कर ले। संगठित लोग भेद-नीतिके बिना इन्द्रद्वारा भी दुःसाध्य होते हैं। इसीलिये नीतिज्ञलोग भेद-नीतिकी ही प्रशंसा करते हैं। इस नीतिको अपने मुखसे तथा दूसरेके मुखसे भेद्य व्यक्तिसे कहे या कहलाये, परंतु अपने विषयमें दूसरेके मुखसे सुनी हुई भेद-नीतिको परीक्षा करके ठीक मानना चाहिये। अपने कार्यके उद्देश्यसे सुनिपुण नीतिज्ञोंद्वारा जो तुरंत भेदित किये जाते हैं, वे ही सच्चे अर्थमें भेदित कहे जाते हैं, अर्थवादियों एवं राजाद्वारा किये गये नहीं। जहाँ राजाओंके सम्मुख आन्तरिक (दुर्गके अन्तर्गतका) कोप और बाहरी कोप-दोनों उपस्थित हों, वहाँ आन्तरिक कोप ही महान् है; क्योंकि वह राजाओंके लिये विनाशकारी होता है ॥२-७॥
सामन्तकोपो बाह्यस्तु कोपः प्रोक्तो महीभृतः ।
महिषीयुवराजाभ्यां तथा सेनापतेर्नृप ॥ ८
अमात्यमन्त्रिणां चैव राजपुत्रे तथैव च।
अन्तःकोपो विनिर्दिष्टो दारुणः पृथिवीक्षिताम् ॥ ९
बाह्यकोपे समुत्पन्ने सुमहत्यपि पार्थिवः ।
शुद्धान्तस्तु महाभाग शीघ्रमेव जयी भवेत् ॥ १०
अपि शक्रसमो राजा अन्तःकोपेन नश्यति।
सोऽन्तः कोपः प्रयत्नेन तस्माद् रक्ष्यो महीभृता ॥ ११
परतः कोपमुत्पाद्य भेदेन विजिगीषुणा।
ज्ञातीनां भेदनं कार्यं परेषां विजिगीषुणा ॥ १२
रक्ष्यश्चैव प्रयत्नेन ज्ञातिभेदस्तथात्मनः ।
ज्ञातयः परितप्यन्ते सततं परितापिताः ॥ १३
तथापि तेषां कर्तव्यं सुगम्भीरेण चेतसा ।
ग्रहणं दानमानाभ्यां भेदस्तेभ्यो भयंकरः ॥ १४
न ज्ञातिमनुगृह्णन्ति न ज्ञातिं विश्वसन्ति च।
ज्ञातिभिर्मेदनीयास्तु रिपवस्तेन पार्थिवैः ॥ १५
भिन्ना हि शक्या रिपवः प्रभूताः स्वल्पेन सैन्येन निहन्तुमाजौ।
सुसंहतानां हि तदस्तु भेदः कार्यों रिपूणां नयशास्त्रविद्भिः ॥ १६
छोटे राजाओंका क्रोध राजाके लिये बाह्य क्रोध कहा गया है तथा रानी, युवराज, सेनापति, अमात्य, मन्त्री और राजकुमारके द्वारा किया गया क्रोध आन्तरिक कोप कहा गया है। इन सबोंका कोप राजाओंके लिये भयानक बतलाया गया है। महाभाग! अत्यन्त भीषण बाह्य कोपके उत्पन्न होनेपर भी यदि राजाका अन्तःपुर (दुर्गस्थ महारानी, युवराज, मन्त्री आदि प्रकृति) शुद्ध एवं अनुकूल है तो वह शीघ्र ही विजय-लाभ करता है। यदि राजा इन्द्रके समान हो तो भी वह अन्तः (दुर्गस्थ रानी, युवराज, मन्त्री आदिके) कोपसे नष्ट हो जाता है। इसलिये राजाको प्रयत्नपूर्वक उस आन्तरिक कोपकी रक्षा करनी चाहिये। शत्रुओंको जीतनेकी इच्छावाले राजाको चाहिये कि दूसरेसे भेद-नीतिद्वारा क्रोध पैदा कराकर उसकी जातिमें भेद उत्पन्न कर दे और प्रयत्नपूर्वक अपने जाति-भेदकी रक्षा करे। यद्यपि संतप्त भाई-बन्धु राजाकी उन्नति देखकर जलते रहते हैं, तथापि राजाको दान और सम्मानद्वारा उनको मिलाये रखना चाहिये; क्योंकि जातिगत भेद बड़ा भयंकर होता है। जातिवालोंपर प्रायः लोग अनुग्रहका भाव नहीं रखते और न उनका विश्वास ही करते हैं, इसलिये राजाओंको चाहिये कि जातिमें फूट डालकर शत्रुको उनसे अलग कर दें। इस भेद-नीतिद्वारा भिन्न किये गये शत्रुओंके विशाल समूहको भी संग्रामभूमिमें थोड़ी-सी सुसंगठित सेनासे ही नष्ट किया जा सकता है, अतएव नीतिकुशल लोगोंको सुसंगठित शत्रुओंके प्रति भी भेदनीतिका ही प्रयोग करना चाहिये ॥८-१६ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे राजधर्मे भेदप्रशंसा नाम त्रयोविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२३ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके राजधर्म-प्रकरणमें भेद-प्रशंसा नामक दो सौ तेईसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥ २२३॥
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