मत्स्य पुराण एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय
पार्वती द्वारा वीरकको शाप, ब्रह्माका पार्वती तथा एकानंशाको वरदान, एकानंशाका विन्ध्याचलके लिये प्रस्थान, पार्वतीका भवनद्वारपर पहुँचना और वीरकद्वारा रोका जाना
देव्युवाच
मातरं मां परित्यज्य यस्मात् त्वं स्नेहविक्लवात् ।
विहितावसरैः स्त्रीणां शंकरस्य रहोविधौ ॥ १
देवीने कहा-गणेश्वर वीरक। चूँकि तुमने मुझ माता का परित्याग कर स्नेह से विकल हो शंकरजी के एकान्त में अन्य स्त्रियों को प्रवेश करनेका अवसर दिया है १
तस्मात् ते परुषा रूक्षा जडा हृदयवर्जिता।
गणेश क्षारसदृशी शिला माता भविष्यति ॥ २
निमित्तमेतद् विख्यातं वीरकस्य शिलोदये।
सोऽभवत् प्रक्रमेणैव विचित्राख्यानसंश्रयः ॥ ३
एवमुत्सृष्टशापाया गिरिपुत्र्यास्त्वनन्तरम् ।
निर्जगाम मुखात् क्रोधः सिंहरूपी महाबलः ॥ ४
स तु सिंहः करालास्यो जटाजटिलकन्धरः ।
प्रोद्धतलम्बलाङ्गूलो दंष्ट्रोत्कटमुखातटः ॥ ५
व्यावृत्तास्यो ललज्जिह्वः क्षामकुक्षिश्चिखादिषुः ।
तस्याशु वर्तितुं देवी व्यवस्यत सती तदा ॥ ६
ज्ञात्वा मनोगतं तस्या भगवांश्चतुराननः ।
आजगामाश्रमपदं सम्पदामाश्रयं तदा।
आगम्योवाच देवेशो गिरिजां स्पष्टया गिरा ॥ ७
इसलिये अत्यन्त कठोर, स्नेहहीन, मूर्ख, हृदयरहित एवं राख-सदृशी रूखी शिला तुम्हारी माता होगी। वीरकका शिलासे उत्पन्न होनेमें यही कारण विख्यात है। आगे चलकर वही शाप क्रमशः विचित्र कथाओंका आश्रयस्थान बन गया। इस प्रकार पार्वतीके शाप दे देनेके पश्चात् क्रोध उनके मुखसे महाबली सिंहके रूपमें बाहर निकला। उस सिंहका मुख विकराल था, उसका कंधा जटाओंसे आच्छादित था, उसकी लम्बी पूँछ ऊपर उठी हुई थी, उसके मुखके दोनों किनारे भयंकर दाढ़ोंसे युक्त थे, वह मुख फैलाये हुए जीभ लपलपा रहा था, उसकी कुक्षि दुबली-पतली थी और वह किसीको खा जानेकी टोहमें था। यह देखकर पार्वतीदेवी शीघ्र ही उसपर आरूढ़ होनेकी चेष्टा करने लगीं। तब उनके मनोगत भावको जानकर भगवान् ब्रह्मा उस आश्रमस्थानपर आये जो सभी सम्पदाओंका आश्रयस्थान था। वहाँ आकर देवेश्वर ब्रह्मा गिरिजासे स्पष्ट वाणीमें बोले ॥२-७॥
ब्रह्मोवाच
किं पुत्रि प्राप्तुकामासि किमलभ्यं ददामि ते।
विरम्यतामतिक्लेशात्तपसोऽस्मान्मदाज्ञया ॥ ८
तच्छ्रुत्योवाच गिरिजा गुरुं गौरवगर्भितम् ।
वाक्यं वाचा चिरोद्गीर्णवर्णनिर्णीतवाञ्छितम् ॥ ९
ब्रह्माने कहा-पुत्रि। अब तुम मेरी आज्ञा मानकर इस अत्यन्त कष्टकर तपस्यासे विरत हो जाओ। बताओ, तुम क्या प्राप्त करना चाहती हो? मैं तुम्हें कौन-सी दुर्लभ वस्तु प्रदान करूँ? वह सुनकर गिरिजाने गौरवास्पद गुरुजन ब्रह्मासे अपने चिरकालसे निर्णीत मनोरथको स्पष्टाक्षरोंसे युक्त वाणीद्वारा व्यक्त करते हुए कहा ॥ ८-९॥
देव्युवाच
तपसा दुष्करेणाप्तः पतित्वे शङ्करो मया।
स मां श्यामलवर्णेति बहुशः प्रोक्तवान् भवः ॥ १०
स्यामहं काञ्चनाकारा वाल्लभ्येन च संयुता ।
भर्तुर्भूतपतेरङ्गमेकतो निविशेऽङ्गवत् ॥ ११
तस्यास्तद् भाषितं श्रुत्वा प्रोवाच कमलासनः ।
एवं भव त्वं भूयश्च भर्तुर्देहार्धधारिणी ॥ १२
ततस्तत्याज भृङ्गाङ्ग फुल्लनीलोत्पलत्वचम् ॥ १३
त्वचा सा चाभवद् दीप्ता घण्टाहस्ता त्रिलोचना।
नानाभरणपूर्णाङ्गी पीतकौशेयधारिणी ॥ १४
तामब्रवीत्ततो ब्रह्मा देवीं नीलाम्बुजत्विषम् ।
निशे भूधरजादेहसम्पर्कात्त्वं ममाज्ञया ॥ १५
सम्प्राप्ता कृतकृत्यत्वमेकानंशा पुरा ह्यसि।
य एष सिंहः प्रोद्धूतो देव्याः क्रोधाद् वरानने । १६
स तेऽस्तु वाहनं देवि केतौ चास्तु महाबलः ।
गच्छ विन्ध्याचलं तत्र सुरकार्य करिष्यसि ॥ १७
पञ्चालो नाम यक्षोऽयं यक्षलक्षपदानुगः ।
दत्तस्ते किङ्करो देवि मया मायाशतैर्युतः ॥ १८
देवी बोलीं-प्रभो! मैंने कठोर तपस्याके फल स्वरूप शंकर जी को पतिरूप में प्राप्त किया है, किंतु वे मुझे बहुधा 'श्यामवर्णा- काले रंगकी' कहकर अपमानित करते रहते हैं। अतः मैं चाहती हूँ कि मेरा वर्ण सुवर्ण-सा गौर हो जाय, मैं उनकी परम वल्लभा बन जाऊँ और अपने भूतनाथ पतिदेवके शरीरमें एक ओर उन्हींके अङ्गकी तरह प्रविष्ट हो जाऊँ। पार्वतीके उस कथनको सुनकर कमलासन ब्रह्माने कहा-'ठीक है, तुम ऐसी ही होकर पुनः अपने पतिदेवके शरीरके अर्धभागको धारण करनेवाली हो जाओ।' ऐसा वरदान पाकर पार्वतीने अपने भ्रमर-सरीखे काले एवं खिले हुए नीले कमलके से नीले चमड़ेको त्याग दिया। तब उनकी त्वचा उद्दीप्त हो उठी और वे तीन नेत्रोंसे भी युक्त हो गयीं। तदुपरान्त उन्होंने अपने शरीरको नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित कर पीले रंगकी रेशमी साड़ी धारण किया और हाथमें घण्टा ले लिया। तत्पश्चात् ब्रह्माने उस नीले कमलकी-सी कान्तिवाली देवीसे कहा-'निशे! तुम पहलेसे ही एकानंशा नामसे विख्यात हो और इस समय मेरी आज्ञासे पार्वतीके शरीरका सम्पर्क होनेके कारण तुम कृतकृत्य हो गयी हो। वरानने। पार्वतीदेवीके क्रोधसे जो यह सिंह प्रादुर्भूत हुआ है, वह तुम्हारा वाहन होगा और तुम्हारी ध्वजापर भी इस महाबलीका आकार विद्यमान रहेगा। अब तुम विन्ध्याचलको जाओ। वहाँ देवताओंका कार्य सिद्ध करो। देवि। जिसके पीछे एक लाख यक्ष चलते हैं, उस इस पञ्चाल नामक यक्षको मैं तुम्हें किंकरके रूपमें प्रदान कर रहा हूँ, यह सैकड़ों प्रकारकी मायाओंका ज्ञाता है।' ब्रह्माद्वारा ऐसा आदेश पाकर कौशिकी देवी विन्ध्यपर्वतकी ओर चली गयीं ॥ १०-१८॥
इत्युक्ता कौशिकी देवी विन्ध्यशैलं जगाम ह।
उमापि प्राप्तसंकल्पा जगाम गिरिशान्तिकम् ॥ १९
प्रविशन्तीं तु तां द्वारादपकृष्य समाहितः ।
रुरोध वीरको देवीं हेमवेत्रलताधरः ॥ २०
तामुवाच च कोपेन रूपात्तु व्यभिचारिणीम्।
प्रयोजनं न तेऽस्तीह गच्छ यावन्न भेत्स्यसि ॥ २१
देव्या रूपधरो दैत्यो देवं वञ्चयितुं त्विह ।
प्रविष्टो न च दृष्टोऽसौ स वै देवेन घातितः ॥ २२
घातिते चाहमाज्ञप्तो नीलकण्ठेन कोपिना।
द्वारेषु नावधानं ते यस्मात् पश्यामि वै ततः ॥ २३
भविष्यसि न मद्धाःस्थो वर्षपूगान्यनेकशः ।
अतस्तेऽत्र न दास्यामि प्रवेशं गम्यतां द्रुतम् ॥ २४
इधर उमा भी अपना मनोवाञ्छित वरदान प्राप्त कर शंकरजीके पास चलीं। वहाँ द्वारपर हाथमें सोनेका डंडा धारण किये हुए वीरक सावधानीपूर्वक पहरा दे रहा था। उसने प्रवेश करती हुई पार्वतीको दरवाजेसे खींचकर रोक दिया और गौर रूपसे दूसरी स्वी-सी प्रतीत होनेवाली उनसे क्रोधपूर्वक कहा- 'तुम्हारा यहाँ कोई प्रयोजन नहीं है, अतः जबतक मैं तुम्हें पीट नहीं दे रहा हूँ, उससे पहले ही भाग जाओ। यहीं महादेवजीको छलनेके लिये एक दैत्य माता पार्वतीदेवीका रूप धारण कर प्रविष्ट हो गया था, जिसे मैं देख नहीं पाया था, किंतु महादेवजीने उसे यमलोकका पथिक बना दिया, उसे मारनेके बाद नीलकण्ठ शिवजीने कुद्ध होकर मुझे आज्ञा दी है कि अबसे तुम द्वारपर असावधानी मत करना। तभीसे मैं अच्छी तरह सजग होकर पहरा दे रहा हूँ। द्वारपर मेरे स्थित रहते हुए तुम अनेकों वर्षसमूहोंतक प्रविष्ट न हो सकेगी, इसलिये मैं तुम्हें भवनमें प्रवेश नहीं करने दूँगा। तुम शीघ्र ही यहाँसे चली जाओ' ॥१९-२४॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे कुमारसम्भवे वीरकशापो नाम सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५७ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके कुमारसम्भव प्रसङ्गमें वीरक-शाप नामक एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १५७ ॥
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