मत्स्य पुराण दो सौ पैंतीसवाँ अध्याय
प्रसवजनित विकार का वर्णन और उसकी शान्ति
गर्ग उवाच
अकालप्रसवा नार्यः कालातीतप्रजास्तथा ।
विकृतप्रसवाश्चैव युग्मसम्प्रसवास्तथा ।। १
अमानुषा ह्यतुण्डाश्च संजातव्यसनास्तथा।
हीनाङ्गा अधिकाङ्गाश्च जायन्ते यदि वा स्त्रियः ॥ २
पशवः पक्षिणश्चैव तथैव च सरीसृपाः ।
विनाशं तस्य देशस्य कुलस्य च विनिर्दिशेत् ॥ ३
विवासयेत् तान् नृपतिः स्वराष्ट्रात् स्त्रियश्च पूज्याश्च ततो द्विजेन्द्राः ।
किमिच्छकैर्ब्रह्मणतर्पणैश्च लोके ततः शान्तिमुपैति पापम् ॥ ४
गर्गजीने कहा- ब्रह्मन् । जब स्त्रियाँ बिना समय पूरा हुए अथवा पूरे समयके बहुत बाद प्रसव करती हैं, विकृत एवं जुड़वीं संतान पैदा करती हैं तथा मानवसे भिन्न, मुखहीन, जन्मते ही मर जानेवाले, अङ्गहीन और अधिक अङ्गवाले बच्चोंको जन्म देती हैं उसी प्रकार वहाँके पशु, पक्षी और रेंगनेवाले जन्तु भी बच्चे देने लगते हैं, तब उस देश और कुलका विनाश कहना चाहिये। ऐसे उपद्रवोंके घटित होनेपर राजा अपने राष्ट्रसे उन पैदा होनेवाली संतानों और स्त्रियोंको निर्वासित कर दे। तदनन्तर ब्राह्मणोंकी विधिवत् पूजा करे। इस प्रकार इच्छानुसार ब्राह्मणोंको संतुष्ट करने से लोक में पाप शान्तिको प्राप्त होता है ॥१-४॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽद्भुतशान्ती प्रसववैकृत्यं नाम पञ्चत्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३५ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके अद्भुतशान्तिप्रसङ्गमें प्रसववैकृत्य नामक दो सी पैंतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २३५ ॥
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