मत्स्य पुराण दो सौ बीसवाँ अध्याय
राज धर्म एवं सामान्य नीति का वर्णन
मत्स्य उवाच
राजन् पुत्रस्य रक्षा च कर्तव्या पृथिवीक्षिता।
आचार्यश्चात्र कर्तव्यो नित्ययुक्तश्च रक्षिभिः ॥ १
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् । राजाको अपने पुत्रकी रक्षा करनी चाहिये। उसकी शिक्षाके लिये पहरेदारोंकी देख-रेख में एक ऐसे आचार्यकी नियुक्ति करनी चाहिये। १
धर्मकामार्थशास्त्राणि धनुर्वेदं च शिक्षयेत् ।
रथे च कुञ्जरे चैनं व्यायामं कारयेत् सदा ॥ २
शिल्पानि शिक्षयेच्चैनं नाप्तैर्मिथ्याप्रियं वदेत् ।
शरीररक्षाव्याजेन रक्षिणोऽस्य नियोजयेत् ॥ ३
न चास्य सङ्गो दातव्यः कुद्धलुब्धावमानितैः ।
तथा च विनयेदेनं यथा यौवनगोचरे ॥ ४
इन्द्रियैर्नापकृष्येत सतां मार्गात् सुदुर्गमात्।
गुणाधानमशक्यं तु यस्य कर्तुं स्वभावतः ॥ ५
बन्धनं तस्य कर्तव्यं गुप्तदेशे सुखान्वितम् ।
अविनीतं कुमारं हि कुलमाशु विशीर्यते ॥ ६
अधिकारेषु सर्वेषु विनीतं विनियोजयेत्।
आदौ स्वल्पे ततः पश्चात् क्रमेणाथ महत्स्वपि ॥ ७
मृगयापानमक्षांश्च वर्जयेत् पृथिवीपतिः ।
एतांस्तु सेवमानास्तु विनष्टाः पृथिवीक्षितः ॥ ८
बहवो नृपशार्दूल तेषां संख्या न विद्यते।
वृथाटनं दिवास्वप्नं विशेषेण विवर्जयेत् ॥ ९
वाक्पारुष्यं न कर्तव्यं दण्डपारुष्यमेव च।
परोक्षनिन्दा च तथा वर्जनीया महीक्षिता ॥ १०
जो उसे धर्म, काम एवं अर्थशास्त्र, धनुर्वेद तथा रथ एवं हाथीकी सवारीकी शिक्षा दे और सदा व्यायाम कराये। साथ ही उसे शिल्पकलाएँ भी सिखलाये। उसपर ऐसा प्रभाव पड़े कि वह गुरुजनोंके सम्मुख असत्य एवं अप्रिय बात न बोले। उसके शरीरकी रक्षाके व्याजसे रक्षक नियुक्त कर दे। इसे क्रोधी, लोभी और तिरस्कृत व्यक्तियोंकी संगतिमें नहीं जाने देना चाहिये। उसे इस प्रकार जितेन्द्रिय बनाना चाहिये कि जिससे वह युवावस्था आनेपर इन्द्रियोंद्वारा अत्यन्त दुर्गम सत्पुरुषोंके मार्गसे अपकृष्ट न किया जा सके। जिस राजकुमारमें स्वभाववश गुणाधान करना अशक्य हो उसे गुप्तस्थानमें सुखपूर्वक अवरुद्ध कर देना चाहिये, क्योंकि उद्दण्ड राजकुमारसे युक्त कुल शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। राजाको सभी अधिकारोंपर सुशिक्षित व्यक्तिको नियुक्त करना चाहिये। प्रथमतः उसे छोटे पदपर नियुक्त करे, तत्पश्चात् क्रमशः अधिक शिक्षितकर ऊँचे पदोंपर भी पहुँचा दे। राजसिंह राजाको शिकार, मद्यपान तथा द्यूतक्रीड़ाका परित्याग कर देना चाहिये; क्योंकि पूर्वकालमें इनके सेवनसे बहुत-से राजा नष्ट हो चुके हैं, जिनकी गणना नहीं कही जा सकती। राजाके लिये व्यर्थ घूमना तथा विशेषकर दिनमें शयन करना वर्जित है। राजाको कटुवचन बोलना और कठोर दण्ड देना-ये दोनों कर्म नहीं करना चाहिये। राजाको परोक्षमें किसीकी निन्दा करना उचित नहीं है ॥१-१० ॥
अर्थस्य दूषणं राजा द्विप्रकारं विवर्जयेत्।
अर्थानां दूषणं चैकं तथार्थेषु च दूषणम् ॥ ११
प्राकाराणां समुच्छेदो दुर्गादीनामसत्क्रिया।
अर्थानां दूषणं प्रोक्तं विप्रकीर्णत्वमेव च ॥ १२
अदेशकाले यद्दानमपात्रे दानमेव च।
अर्थेषु दूषणं प्रोक्तमसत्कर्मप्रवर्तनम् ।। १३
कामः क्रोधो मदो मानो लोभो हर्षस्तथैव च।
एते वर्ज्याः प्रयत्नेन सादरं पृथिवीक्षिता ॥ १४
एतेषां विजयं कृत्वा कार्यों भृत्यजयस्ततः ।
कृत्वा भृत्यजयं राजा पौरान् जानपदान् जयेत् ॥ १५
कृत्वा च विजयं तेषां शत्रून् बाह्यांस्ततो जयेत् ।
बाह्याश्च विविधा ज्ञेयास्तुल्याभ्यन्तरकृत्रिमाः ॥ १६
गुरवस्ते यथापूर्व तेषु यत्नपरो भवेत्।
पितृपैतामहं मित्रममित्रं च तथा रिपोः ॥ १७
कृत्रिमं च महाभाग मित्रं त्रिविधमुच्यते।
तथापि च गुरुः पूर्वं भवेत् तत्रापि चादृतः ॥ १८
स्वाम्यमात्यौ जनपदो दुर्गं दण्डस्तथैव च।
कोशो मित्रं च धर्मज्ञ सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते ॥ १९
सप्ताङ्गस्यापि राज्यस्य मूलं स्वामी प्रकीर्तितः ।
तन्मूलत्वात् तथाङ्गानां स तु रक्ष्यः प्रयत्नतः ॥ २०
राजा को दो प्रकारके अर्थ दोषों से बचना चाहिये-एक अर्थका दोष और दूसरा अर्थ-सम्बन्धी दोष। अपने दुर्गके परकोटोंका तथा मूलदुर्ग आदिकी उपेक्षा और अस्तव्यस्तता-ये अर्थके दोष कहे गये हैं। उसी प्रकार कुदेश और कुसमयमें दिया गया दान, कुपात्रको दिया गया दान और असत्कर्मका प्रचार- ये अर्थ-सम्बन्धी दोष कहे गये हैं। राजाको आदरसहित काम, क्रोध, मद, मान, लोभ तथा हर्षका प्रयत्नपूर्वक त्याग करना चाहिये। राजाको इनपर विजय प्राप्त करनेके पश्चात् अनुचरोंको जीतना चाहिये। इस प्रकार अनुचरोंको जीतनेके बाद पुरवासियों और देशवासियोंको अपने अधिकारमें करे। उनको जीतनेके पश्चात् बाहरी शत्रुओंको परास्त करे। तुल्य, आभ्यन्तर और कृत्रिम भेदसे बाह्य शत्रुओंको अनेकों प्रकारका समझना चाहिये। उनमेंसे क्रमशः एक-एकको बढ़कर समझना चाहिये और उनको जीतनेमें यत्नशील रहे। महाभाग। मित्र तीन प्रकारके होते हैं-प्रथम वे हैं जो पिता-पितामह आदिके कालसे मित्रताका व्यवहार करते चले आ रहे हैं। दूसरे वे हैं, जो शत्रुके शत्रु हैं तथा तीसरे वे हैं, जो किन्हीं कारणोंसे पीछे मित्र बनते हैं। इन तीनों मित्रोंमें प्रथम मित्र उत्तम होता है, उसका आदर करना चाहिये। धर्मज्ञ। स्वामी, मन्त्री, राष्ट्र, दुर्ग, सेना, कोश तथा मित्र-ये राज्यके सात अङ्ग कहे गये हैं। इस सप्ताङ्गयुक्त राज्यका भी मूल स्वयं राजा कहा गया है। राज्यका तथा राज्याङ्गोंका मूल होनेके कारण वह प्रयत्नपूर्वक रक्षणीय है॥ ११-२०॥
षडङ्गरक्षा कर्तव्या तथा तेन प्रयत्नतः ।
अङ्गेभ्यो यस्तथैकस्य द्रोहमाचरतेऽल्पधीः ॥ २१
वधस्तस्य तु कर्तव्यः शीघ्रमेव महीक्षिता।
न राज्ञा मृदुना भाव्यं मृदुर्हि परिभूयते ॥ २२
न भाव्यं दारुणेनातितीक्ष्णादुद्विजते जनः ।
काले मृदुर्यो भवति काले भवति दारुणः ॥ २३
राजा लोकद्वयापेक्षी तस्य लोकद्वयं भवेत्।
भृत्यैः सह महीपालः परिहासं विवर्जयेत् ॥ २४
भृत्याः परिभवन्तीह नृपं हर्षवशं गतम्।
व्यसनानि च सर्वाणि भूपतिः परिवर्जयेत् ॥ २५
लोकसंग्रहणार्थाय कृतकव्यसनी भवेत्।
शौण्डीरस्य नरेन्द्रस्य नित्यमुद्रिक्तचेतसः ॥ २६
जना विरागमायान्ति सदा दुःसेव्यभावतः ।
स्मितपूर्वाभिभाषी स्यात् सर्वस्यैव महीपतिः ॥ २७
वध्येष्वपि महाभाग भ्रभुकुटिं न समाचरेत्।
भाव्यं धर्मभृतां श्रेष्ठ स्थूललक्ष्येण भूभुजा ॥ २८
स्थूललक्षस्य वशगा सर्वा भवति मेदिनी।
अदीर्घसूत्रश्च भवेत् सर्वकर्मसु पार्थिवः ॥ २९
दीर्घसूत्रस्य नृपतेः कर्महानिध्रुवं भवेत्।
रागे दर्पे च माने च द्रोहे पापे च कर्मणि ॥ ३०
फिर राजाके द्वारा राज्यके शेष छः अङ्गोंकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा की जानी चाहिये। जो मूर्ख इन छः अङ्गोंमेंसे किसी एकके साथ द्रोह करता है उसे राजाको शीघ्र ही मार डालना चाहिये। राजाको कोमल वृत्तिवाला नहीं होना चाहिये; क्योंकि कोमल वृत्तिवाला राजा पराजयका भागी होता है। साथ ही अधिक कठोर भी नहीं होना चाहिये; क्योंकि अधिक कठोर शासकसे लोग उद्विग्न हो जाते हैं। जो लोकद्वयापेक्षी राजा समयपर मृदु तथा समयपर कठोर हो जाता है, वह दोनों लोकोंपर विजयी हो जाता है। राजाको अपने अनुचरोंके साथ परिहास नहीं करना चाहिये; क्योंकि उस समय आनन्दमें निमग्न हुए राजाका अनुचरगण अपमान कर बैठते हैं। राजाको सभी प्रकारके व्यसनोंसे दूर रहना चाहिये, किंतु लोकसंग्रहके लिये उसे कुछ ऊपरसे अच्छी बातोंका व्यसन करना उचित है। गर्वीले एवं नित्य ही उद्धत स्वभाववाले राजासे लोग कठिनतासे अनुकूल होनेके कारण विरक्त हो जाते हैं, अतः राजाको सभीसे मुसकानपूर्वक बातें करनी चाहिये। महाभाग ! यहाँतक कि प्राणदण्डके अपराधीको भी वह भृकुटि न दिखलाये। धार्मिकश्रेष्ठ! राजाको महान् लक्ष्ययुक्त होना चाहिये; क्योंकि सारी पृथ्वी स्थूललक्ष्य रखनेवाले राजाके अधीन हो जाती है। राजाको सभी कार्योंके निर्वाहमें विलम्ब नहीं करना चाहिये; क्योंकि विलम्ब करनेवाले राजाके कार्य निश्चय ही नष्ट हो जाते हैं। केवल अनुराग, दर्प, आत्मसम्मान, द्रोह, पापकर्म तथा अप्रिय कार्योंमें दीर्घसूत्री प्रशंसित माना गया है ॥२१-३०॥
अप्रिये चैव कर्तव्ये दीर्घसूत्रः प्रशस्यते।
राज्ञा संवृतमन्त्रेण सदा भाव्यं नृपोत्तम ॥ ३१
तस्यासंवृतमन्त्रस्य राज्ञः सर्वापदो ध्रुवम्।
कृतान्येव तु कार्याणि ज्ञायन्ते यस्य भूपतेः ॥ ३२
नारब्धानि महाभाग तस्य स्याद् वसुधा वशे।
मन्त्रमूलं सदा राज्यं तस्मान्मन्त्रः सुरक्षितः ॥ ३३
कर्तव्यः पृथिवीपालैर्मन्त्रभेदभयात् सदा।
मन्त्रवित्साधितो मन्त्रः सम्पत्तीनां सुखावहः ॥ ३४
मन्त्रच्छलेन बहवो विनष्टाः पृथिवीक्षितः ।
आकारैरिङ्गितैर्गत्या चेष्टया भाषितेन च ॥ ३५
नेत्रवक्त्रविकारैश्च गृह्यतेऽन्तर्गतं मनः।
न यस्य कुशलैस्तस्य वशे सर्वा वसुंधरा ॥ ३६
नृपोत्तम ! राजाको सदा अपनी मन्त्रणा गुप्त रखनी चाहिये; क्योंकि प्रकट मन्त्रणावाले राजाको निश्चय ही सभी आपत्तियाँ प्राप्त होती हैं। महाभाग। जिस राजाके कार्योंको आरम्भके समय नहीं, अपितु पूरा होनेपर ही लोग जान पाते हैं उसके वशमें वसुंधरा हो जाती है। मन्त्र ही सर्वदा राज्यका मूल है, अतः मन्त्रभेदके भयसे राजाओंको उसे सदा सुरक्षित रखना चाहिये। मन्त्रज्ञ मन्त्रीद्वारा दिया गया मन्त्र सभी सम्पत्तियों तथा सुखोंको देनेवाला होता है। मन्त्रके छलसे बहुत-से राजा विनष्ट हो चुके हैं। आकृति, संकेत, गति, चेष्टा, वचन, नेत्र तथा मुखके विकारोंसे अन्तःस्थित मनोभावोंका पता लगता है। राजपुत्र! जिस राजाके मनका इन उपर्युक्त उपायोंद्वारा कुशल लोग भी पता न लगा सकें, वसुंधरा उसके वशमें सदा बनी रहती है॥ ३१-३६॥
भवतीह महीभर्तुः सदा पार्थिवनन्दन।
नैकस्तु मन्त्रयेन्मन्त्रं राजा न बहुभिः सह ॥ ३७
नारोहेद् विषमां नावमपरीक्षितनाविकाम् ।
ये चास्य भूमिजयिनो भवेयुः परिपन्थिनः ॥ ३८
तानानयेद् वशे सर्वान् सामादिभिरुपक्रमैः ।
यथा न स्यात् कृशीभावः प्रजानामनवेक्षया ।। ३९
तथा राज्ञा प्रकर्तव्यं स्वराष्ट्र परिरक्षता ।।
मोहाद् राजा स्वराष्ट्र यः कर्शयत्यनवेक्षया ।। ४०
सोऽचिराद् भ्रश्यते राज्याज्जीविताच्च सबान्धवः ।
भृतो वत्सो जातबलः कर्मयोग्यो यथा भवेत् ॥ ४१
तथा राष्ट्र महाभाग भृतं कर्मसहं भवेत् ।
यो राष्ट्रमनुगृह्णाति राज्यं स परिरक्षति ॥ ४२
संजातमुपजीवेत् तु विन्दते स महत्फलम्।
राष्ट्राद्धिरण्यं धान्यं च महीं राजा सुरक्षिताम् ॥ ४३
महता तु प्रयत्नेन स्वराष्ट्रस्य च रक्षिता।
नित्यं स्वेभ्यः परेभ्यश्च यथा माता यथा पिता ॥ ४४
गोपितानि सदा कुर्यात् संयतानीन्द्रियाणि च।
अजस्त्रमुपयोक्तव्यं फलं तेभ्यस्तथैव च ॥ ४५
सर्व कर्मेदमायत्तं विधाने दैवमानुषे।
तयोर्दैवमचिन्त्यं च पौरुषे विद्यते क्रिया ॥ ४६
एवं महीं पालयतोऽस्य भर्तु-र्लोकानुरागः परमो भवेत्तु ।
लोकानुरागप्रभवा च लक्ष्मी-र्लक्ष्मीवतश्चापि परा च कीर्तिः ॥ ४७
राजाको कभी केवल एक व्यक्ति के या एक ही साथ अनेक लोगों के साथ मन्त्रणा नहीं करनी चाहिये। राजा जिसकी परीक्षा न की गयी हो ऐसी विषम नौकापर सवार न हो। राजा के जो भूमिविजेता शत्रु हों, उन सबको सामादि उपायों द्वारा वशमें लाना चाहिये। अपने राष्ट्रकी रक्षामें तत्पर राजाका यह कर्तव्य है कि वह उपेक्षा के कारण प्रजाओं को दुर्बल न होने दे। जो अज्ञान वश असावधानी से अपने राष्ट्रको दुर्बल कर देता है, वह शीघ्र ही भाई-बन्धुओं सहित राज्य एवं जीवन से च्युत हो जाता है। महाभाग। जिस प्रकार पालतू बछड़ा बलवान् होनेपर कार्य करनेमें समर्थ होता है उसी तरह पालन-पोषणकर समृद्ध किया हुआ राष्ट्र भी भविष्य में कार्यक्षम हो जाता है। जो अपने राष्ट्रके ऊपर अनुग्रहकी दृष्टि रखता है, वस्तुतः वही राज्यकी रक्षा कर सकता है।
जो उत्पन्न हुई प्रजाओं की रक्षा करता है, वह महान् फलका भागी होता है। राजा राष्ट्रसे सुवर्ण, अन्न और सुरक्षित पृथ्वी प्राप्त करता है। माता और पिता के समान अपने राष्ट्रकी रक्षा में तत्पर रहनेवाला नृपति विशेष प्रयत्न से नित्य प्रति स्वकीय एवं परकीय दोनों ओरसे होने वाली बाधाओं से अपने राष्ट्रकी रक्षा करे। अपनी इन्द्रियोंको संयत तथा गुप्त रखे और सर्वदा उनका प्रयोग गोपनीय रूपसे करे, तभी उनसे उत्तम फल प्राप्त होता है। जीवनके सभी कार्य दैव और पौरुष इन दोनोंके अधिकारमें रहते हैं। उन दोनोंमें दैव तो अचिन्त्य है, किंतु पौरुषमें क्रिया विद्यमान रहती है। इस प्रकार पृथ्वीका पालन करनेवाले राजाके प्रति प्रजाका परम अनुराग हो जाता है। प्रजाके अनुरागसे राजाको लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है तथा लक्ष्मीवान राजा को ही परम यशकी प्राप्ति होती है ॥ ३७-४७॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे राजधर्मानुकीर्तने विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२० ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें राजधर्मकीर्तन नामक दो सौ बीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २२० ॥
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