राज कर्म चारियों के धर्म का वर्णन | raaj karm chaariyon ke dharm ka varnan

मत्स्य पुराण दो सौ सोलहवाँ अध्याय 

राज कर्म चारियों के धर्म का वर्णन

मत्स्य उवाच

यथा च वर्तितव्यं स्यान्मनो राज्ञोऽनुजीविभिः ।
तथा ते कथयिष्यामि निबोध गदतो मम ॥ १

मत्स्यभगवान्ने कहा- मनु महाराज ! अब मैं आपसे राजाके अनुचरोंको उनके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये, यह बतला रहा हूँ, 

ज्ञात्वा सर्वात्मना कार्य स्वशक्त्या रविनन्दन। 
राजा यत्तु वदेद् वाक्यं श्रोतव्यं तत् प्रयत्नतः । 
आक्षिप्य वचनं तस्य न वक्तव्यं तथा वचः ॥ २

अनुकूलं प्रियं तस्य वक्तव्यं जनसंसदि। 
रहोगतस्य वक्तव्यमप्रियं यद्धितं भवेत् ॥ ३ 

परार्थमस्य वक्तव्यं स्वस्थे चेतसि पार्थिव।
स्वार्थः सुहृद्भिर्वक्तव्यो न स्वयं तु कथञ्चन ॥ ४

कार्यातिपातः सर्वेषु रक्षितव्यः प्रयत्नतः । 
न च हिंस्यं धनं किञ्चिन्नियुक्तेन च कर्मणि ॥ ५

नोपेक्ष्यस्तस्य मानश्च तथा राज्ञः प्रियो भवेत् । 
राज्ञश्च न तथा कार्यं वेशभाषितचेष्टितम् ॥ ६

राजलीला न कर्तव्या तद्विद्विष्टं च वर्जयेत् । 
राज्ञः समोऽधिको वा न कार्यों वेशो विजानता ।। ७

द्यूतादिषु तथैवान्यत् कौशलं तु प्रदर्शयेत् । 
प्रदर्थ्य कौशलं चास्य राजानं तु विशेषयेत् ॥ ८

अन्तः पुरजनाध्यक्षैर्वैरिदूतैर्निराकृतैः ।
संसर्गं न व्रजेद् राजन् विना पार्थिवशासनात् ॥ ९

निःस्त्रेहतां चावमानं प्रयत्नेन तु गोपयेत्। 
यच्च गुह्यं भवेद् राज्ञो न तल्लोके प्रकाशयेत् ॥ १० 

आप इसे सुनिये। रविनन्दन ! राजाद्वारा राजकार्यमें नियुक्त व्यक्तिको चाहिये कि वह कार्यको सब तरहसे जानकर यथाशक्ति उसका पालन करे। राजा जो बात कह रहे हों, उसे वह प्रयत्नपूर्वक सुने, बीचमें उनकी बात काटकर अपनी बात न कहे। जनसमाजमें राजाके अनुकूल एवं प्रिय बातें कहनी चाहिये, किंतु एकान्तमें बैठे हुए राजासे अप्रिय बात भी कही जा सकती है, यदि वह हितकारी हो। राजन् ! जिस समय राजाका चित्त स्वस्थ हो, उस समय दूसरोंके हितकी बातें उससे कहनी चाहिये। 

अपने स्वार्थकी बात राजासे स्वयं कभी भी न कहे, अपने मित्रोंसे कहलाये। सभी कार्योंमें कार्यका दुष्प्रयोग न हो, इसकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये तथा नियुक्त होनेपर धनका थोड़ा भी अपव्यय न होने दे। राजाके सम्मानकी उपेक्षा न करे, सर्वदा राजाके प्रियकी चिन्ता करे, राजाकी वेश-भूषा, बात-चीत एवं आकार-प्रकारकी नकल न करे। राजाके लीला-कलापोंका भी अनुकरण न करे, वह राजाके अभीष्ट विषयोंको सर्वथा छोड़ दे। ज्ञानवान् पुरुषको राजाके समान अथवा उससे बढ़कर भी अपनी वेशभूषा नहीं बनानी चाहिये। द्यूतक्रीड़ा आदिमें तथा अन्यत्र भी राजाकी अपेक्षा अपने कौशलका प्रदर्शन करे और उसी प्रसङ्गमें अपनी कुशलता दिखाकर राजाकी विशेषता प्रकट करे। राजन् ! राजाकी आज्ञाके बिना अन्तःपुरके अध्यक्षों, शत्रुओंके दूतों तथा निकाले हुए अनुचरोंके निकट न जाय। अपने प्रति राजाकी स्नेहहीनता तथा अपमानको प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखे और राजाकी जो गोपनीय बात हो, उसे सर्वसाधारणके सम्मुख प्रकट न करे ॥ २-१०॥

नृपेण श्रावितं यत् स्याद् वाच्यावाच्यं नृपोत्तम ।
न तत् संश्रावयेल्लोके तथा राज्ञोऽप्रियो भवेत् ॥ ११

आज्ञाप्यमाने वान्यस्मिन् समुत्थाय त्वरान्वितः । 
किमहं करवाणीति वाच्यो राजा विजानता ॥ १२

कार्यावस्थां च विज्ञाय कार्यमेव यथा भवेत्।
सततं क्रियमाणेऽस्मिल्लाघवं तु व्रजेद् ध्रुवम् ॥ १३

राज्ञः प्रियाणि वाक्यानि न चात्यर्थं पुनः पुनः । 
न हास्यशीलस्तु भवेन्न चापि भृकुटीमुखः ॥ १४ 

नातिवक्ता न निर्वक्ता न च मात्सरिकस्तथा। 
आत्मसम्भावितश्चैव न भवेत् तु कथञ्चन ॥ १५

दुष्कृतानि नरेन्द्रस्य न तु सङ्कीर्तयेत् क्वचित् । 
वस्त्रमस्त्रमलंकारं राज्ञा दत्तं तु धारयेत् ॥ १६ 

औदार्येण न तद् देयमन्यस्मै भूतिमिच्छता। 
न चैवात्यशनं कार्यं दिवा स्वप्रं न कारयेत् ॥ १७

नानिर्दिष्टे तथा द्वारे प्रविशेत् तु कथञ्चन । 
न च पश्येत् तु राजानमयोग्यासु च भूमिषु ॥ १८ 

राज्ञस्तु दक्षिणे पार्श्वे वामे चोपविशेत् तदा। 
पुरस्ताच्च तथा पश्चादासनं तु विगर्हितम् ॥ १९ 

जृम्भां निष्ठीवनं कासं कोपं पर्यस्तिकाश्रयम् । 
भृकुटिं वान्तमुद्गारं तत्समीपे विवर्जयेत् ॥ २० 

स्वयं तत्र न कुर्वीत स्वगुणाख्यापनं बुधः । 
स्वगुणाख्यापने युक्त्या परमेव प्रयोजयेत् ॥ २१ 

हृदयं निर्मलं कृत्वा परां भक्तिमुपाश्रितैः । 
अनुजीविगणैर्भाव्यं नित्यं राज्ञामतन्द्रितैः ॥ २२ 

शाठ्यं लौल्यं च पैशुन्यं नास्तिक्यं क्षुद्रता तथा। 
चापल्यं च परित्याज्यं नित्यं राज्ञोऽनुजीविभिः ॥ २३

श्रुतिविद्यासुशीलैश्च संयोज्यात्मानमात्मना । 
राजसेवां ततः कुर्याद् भूतये भूतिवर्धनीम् ॥ २४ 

नमस्कार्याः सदा चास्य पुत्रवल्लभमन्त्रिणः । 
सचिवैश्चास्य विश्वासो न तु कार्यः कथञ्चन ॥ २५ 

नृपोत्तम! राजपुरुष राजाद्वारा कही गयी गुप्त या प्रकट बातको सर्वसाधारणके समक्ष कभी न सुनाये। ऐसा करनेसे वह राजाका विरोधी हो जाता है। जिस समय राजा दूसरे व्यक्तिसे किसी कामके लिये कहें, उस समय बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि शीघ्रतापूर्वक स्वयं उठकर राजासे कहे कि 'मैं क्या करूँ ?' कार्यकी अवस्थाको देखकर जैसा करना उपयुक्त हो, वैसा ही करना चाहिये; क्योंकि सदा एक-सा करते रहनेपर निश्चित ही वह राजाकी दृष्टिमें हेय हो जाता है। राजाको प्रिय लगनेवाली बातोंको भी उनके सामने बार-बार न कहे, न ठठाकर हँसे और न भृकुटी ही ताने। न बहुत बोले, न एकदम चुप ही रहे, न असावधानी प्रकट करे और न कभी आत्मसम्मानी होने का भाव ही प्रदर्शित करें। राजाके दुष्कर्मकी चर्चा कभी नहीं करनी चाहिये। 

राजा द्वारा दिये गये वस्त्र, अख और अलंकारको धारण करे। ऐश्वर्यकी कामना करनेवाले भृत्यको उन वस्त्रादि सामग्रियोंको उदारतावश दूसरेको नहीं देना चाहिये। (राजाके सम्मुख यदि कभी भोजन करनेका अवसर आये तो) न अधिक भोजन करे और न दिनमें शयन करे। जिससे प्रवेश करनेका निर्देश नहीं है, उस द्वारसे कभी प्रवेश न करे और अयोग्य स्थानपर स्थित राजाकी ओर न देखे। राजाके दाहिने या बायें पार्श्वमें बैठना चाहिये। सम्मुख या पीछेकी ओर बैठना निन्दित है। राजाके समीप जमुआई लेना, थूकना, खखारना, खाँसना, क्रोधित होना, आसनपर तकिया लगाकर बैठना, भृकुटी चढ़ाना, वमन करना या उद्गार निकालना- ये सभी कार्य नहीं करने चाहिये। बुद्धिमान् भृत्य राजाके सम्मुख अपने गुणोंकी श्लाघा न करे। अपने गुणको सूचित करनेके लिये युक्तिपूर्वक दूसरेको ही प्रयुक्त करना चाहिये। अनुचरोंको हृदय निर्मल करके परम भक्तिके साथ राजाओंके प्रति नित्य सावधान रहना चाहिये। राजाके अनुचरोंको शठता, लोभ, छल, नास्तिकता, क्षुद्रता, चञ्चलता आदिका नित्य परित्याग कर देना चाहिये। शास्त्रज्ञ एवं विद्याभ्यासियोंसे स्वयं अपना सम्पर्क स्थापित करके ऐश्वर्य बढ़ानेवाली राजसेवाको अपनी समृद्धिके लिये करनी चाहिये। राजाके पुत्र, प्रिय परिजन और मन्त्रियोंको नमस्कार करना चाहिये, किंतु उनके मन्त्रियोंका कभी विश्वास न करे ॥ ११-२५ ॥

अपृष्टश्चास्य न ब्रूयात् कामं ब्रूयात्तथा यदि।
हितं तथ्यं च वचनं हितैः सह सुनिश्चितम् ॥ २६

चित्तं चैवास्य विज्ञेयं नित्यमेवानुजीविभिः ।
भर्तुराराधनं कुर्याच्चित्तज्ञो मानवः सुखम् ॥ २७

रागापरागौ चैवास्य विज्ञेयौ भूतिमिच्छता।
त्यजेद् विरक्तं नृपतिं रक्ताद् वृत्तिं तु कारयेत् ॥ २८

विरक्तः कारयेन्नाशं विपक्षाभ्युदयं तथा।
आशावर्धनकं कृत्वा फलनाशं करोति च ॥ २९

अकोपोऽपि सकोपाभः प्रसन्नोऽपि च निष्फलः । 
वाक्यं च समदं वक्ति वृत्तिच्छेदं करोति वै ॥ ३०

प्रदेशवाक्यमुदितो न सम्भावयतेऽन्यथा ।
आराधनासु सर्वासु सुप्तवच्च विचेष्टते ॥ ३१

कथासु दोषं क्षिपति वाक्यभङ्गं करोति च। 
लक्ष्यते विमुखश्चैव गुणसंकीर्तनेऽपि च ॥ ३२

दृष्टि क्षिपति चान्यत्र क्रियमाणे च कर्मणि। 
विरक्तलक्षणं चैतच्छृणु रक्तस्य लक्षणम् ॥ ३३

बिना पूछे राजासे कुछ न कहे, यदि कहे भी तो जो राजाके हितके रूपमें सुनिश्चित हितकर और यथार्थ बात हो वह कहे। अनुचरोंको नित्य राजाकी मनोदशाका पता लगाते रहना चाहिये। मनोभावोंको समझनेवाला अनुचर ही अपने स्वामीकी सुखपूर्वक सेवा कर सकता है। अपने कल्याणकी कामना करनेवाले अनुचरको राजाके अनुराग और विरागका पता लगाते रहना चाहिये। विरक्त राजाको छोड़ दे और अनुरक्तकी सेवामें सदा तत्पर रहना चाहिये; क्योंकि विरक्त राजा उसका नाश कर विपक्षियोंको उन्नत बनाता है, आशाको बढ़ाकर उसके फलका नाश कर देता है, क्रोधका अवसर न रहनेपर भी वह कुद्ध ही दिखायी पड़ता है तथा प्रसन्न होकर भी कुछ फल नहीं देता, हर्षयुक्त बातें करता है और जीविका का उच्छेद कर देता है। प्रसंगकी बातोंसे प्रसन्न होकर भी वह पूर्ववत् सम्मान नहीं करता, सभी सेवाओंमें उपेक्षा व्यक्त करता है। कोई बात छिड़नेपर बीचमें दोष प्रकट करता है और वहीं वाक्यको काट देता है। गुणोंका कीर्तन करनेपर भी विमुख ही लक्षित होता है। काम करते समय दृष्टि दूसरी ओर घुमा लेता है- ये सभी विरक्त राजाके लक्षण हैं। अब अनुरक्त राजाके लक्षण सुनिये ॥ २६-३३ ॥

दृष्ट्वा प्रसन्नो भवति वाक्यं गृह्णाति चादरात् ।
कुशलादिपरिप्रश्नं सम्प्रयच्छति चासनम् ॥ ३४

विविक्तदर्शने चास्य रहस्येनं न शङ्कते ।
जायते हृष्टवदनः श्रुत्वा तस्य तु तत्कथाम् ॥ ३५

अप्रियाण्यपि वाक्यानि तदुक्तान्यभिनन्दते । 
उपायनं च गृह्णाति स्तोकमप्यादरात्तथा ॥ ३६

कथान्तरेषु स्मरति प्रष्टवदनस्तथा । 
इति रक्तस्य कर्तव्या सेवा रविकुलोद्वह। 
आपत्सु न त्यजेत् पूर्व विरक्तमपि सेवितम् ॥ ३७

मित्रं न चापत्सु तथा च भृत्यं त्यजन्ति ये निर्गुणमप्रमेयम् ।
विभुं विशेषेण च ते व्रजन्ति सुरेन्द्रधामामरवृन्दजुष्टम् ॥ ३८ 

अनुरक्त राजा भृत्योंको देखकर प्रसन्न होता है, उसकी बातको आदरपूर्वक ग्रहण करता है और कुशलमङ्गल पूछ कर आसन देता है। एकान्तमें अथवा अन्तः पुरमें भी उसे देखकर कभी संशय नहीं करता और उसकी कही हुई बातें सुनकर प्रसन्न होता है। उसके द्वारा कही हुई अप्रिय बातोंका भी अभिनन्दन करता है और उसकी थोड़ी-सी भी भेंट आदरपूर्वक स्वीकार करता है। दूसरी कथाके प्रसङ्गपर उसका स्मरण करता है और सर्वदा उसे देखकर प्रसन्न रहता है। सूर्यकुलोत्पन्न! ऐसे अनुरक्त राजाकी सेवा करनी चाहिये। किंतु पूर्वकालमें सेवा किये गये विरक्त राजाका भी आपत्तिकालमें त्याग नहीं करना चाहिये। जो मनुष्य अपने निर्गुण एवं अनुपम मित्र, भृत्य तथा विशेषरूपसे स्वामी को आपत्तिके अवसपर नहीं छोड़ते, वे देवता-वृन्दोंके द्वारा सेवित देवराज इन्द्रके धामको जाते हैं ॥ ३४-३८ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे राजधर्मेऽनुजीविवृत्तं नाम षोडशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१६ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके राजधर्म-प्रसंगमें भृत्य-व्यवहार नामक दो सौ सोलहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २१६ ॥ 

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