सामान्य राज नीति का निरूपण | saamaany raajaneeti ka niroopan |

मत्स्य पुराण दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय

सामान्य राजनीति का निरूपण 

मत्स्य उवाच

दण्डप्रणयनार्थाय राजा सृष्टः स्वयम्भुवा। 
देवभागानुपादाय सर्वभूतादिगुप्तये ।। १

तेजसा यदमुं कश्चिन्नैव शक्नोति वीक्षितुम् । 
ततो भवति लोकेषु राजा भास्करवत्प्रभुः ॥ २

यदास्य दर्शने लोकः प्रसादमुपगच्छति।
नयनानन्दकारित्वात् तदा भवति चन्द्रमाः ॥ ३

यथा यमः प्रियद्वेष्ये प्राप्ते काले प्रयच्छति । 
तथा राज्ञा विधातव्याः प्रजास्तद्धि यमव्रतम् ॥ ४

वरुणेन यथा पाशैर्बद्ध एव प्रदृश्यते। 
तथा पापान् निगृह्णीयाद् व्रतमेतद्धि वारुणम् ॥ ५

परिपूर्ण यथा चन्द्रं दृष्ट्वा हृष्यति मानवः । 
तथा प्रकृतयो यस्मिन् स चन्द्रप्रतिमो नृपः ।। ६

मत्स्य भगवान्ने कहा- राजन् ! ब्रह्माने समस्त प्राणियों की रक्षा के निमित्त दण्डका प्रयोग करने के लिये देवताओं के अंशोंको लेकर राजाकी सृष्टि की है। चूंकि तेजसे देदीप्यमान होनेके कारण कोई भी उसकी ओर देख नहीं सकता, इसीलिये राजा लोक में सूर्य के समान प्रभाव शाली होता है। जिस समय इसे देखने से लोग हर्षको प्रास होते हैं, उस समय वह नेत्रोंके लिये आनन्दकारी होनेके कारण चन्द्रमाके समान हो जाता है। जिस प्रकार यमराज समय आनेपर शत्रु-मिल-सबको दण्ड देते हैं, उसी तरह राजाको प्रजाके साथ व्यवहार करना चाहिये, यह यम-व्रत है। जिस तरह वरुणद्वारा पाशसे बँधे हुए लोग दिखायी पड़ते हैं; उसी प्रकार पापाचरण करनेवालोंको पाशबद्ध करना चाहिये, यह वरुण-व्रत है। जैसे मनुष्य पूर्ण चन्द्रको देखकर प्रसन्न होता है, उसी प्रकार जिसे देखकर प्रजा प्रसन्न होती है वह राजा चन्द्रमाके समान है ॥१-६॥

प्रतापयुक्तस्तेजस्वी नित्यं स्यात् पापकर्मसु। 
दुष्टसामन्तर्हिस्त्रेषु राजाग्नेयव्रते स्थितः ॥ ७

यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते स्वयम्। 
तथा सर्वाणि भूतानि बिभ्रतः पार्थिवं व्रतम् ॥ ८

इन्द्रस्यार्कस्य वातस्य यमस्य वरुणस्य च।
चन्द्रस्याग्नेः पृथिव्याश्च तेजोव्रतं नृपश्चरेत् ॥ ९

वार्षिकांश्चतुरो मासान् यथेन्द्रोऽप्यभिवर्षति । 
तथाभिवर्षेत् स्वं राज्यं काममिन्द्रव्रतं स्मृतम् ॥ १०

अष्टौ मासान् यथाऽऽदित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः । 
तथा हरेत् करं राष्ट्रान्नित्यमर्कव्रतं हि तत् ॥ ११

प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः । 
तथा चारैः प्रवेष्टव्यं व्रतमेतद्धि मारुतम् ॥ १२ 

अग्नि-व्रतमें स्थित राजाको पापियों, दुष्ट सामन्तों तथा हिंसकोंके प्रति नित्य प्रतापशाली एवं तेजस्वी होना चाहिये। जिस प्रकार स्वयं पृथ्वी समस्त जीवोंको धारण करती है, उसी प्रकार राजा भी सम्पूर्ण प्राणियोंका पालन-पोषण करता है। यह पार्थिव व्रत है। राजाको इन्द्र, सूर्य, वायु, यम, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि तथा पृथ्वीके तेजोव्रतका आचरण करना चाहिये। जिस प्रकार इन्द्र वर्षके चार महीनोंमें वृष्टि करते हैं, उसी प्रकार राजाको भी अपने राष्ट्रमें स्वेच्छा पूर्वक दानवृष्टि करनी चाहिये, यह इन्द्र-व्रत है। जिस प्रकार सूर्य आठ महीनेतक अपनी किरणोंसे जलका अपहरण करते हैं, उसी प्रकार राजाको भी नित्य राज्यसे कर ग्रहण करना चाहिये। यह सूर्य व्रत है। जिस प्रकार मारुत सभी प्राणियोंमें प्रवेश करके विचरण करता है, उसी प्रकार राजाको भी गुप्तचरोंद्वारा सभी प्राणियोंमें प्रविष्ट होनेका विधान है। यह मारुत-व्रत है॥ ७-१२॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे राजधर्मे राज्ञो लोकपालसाम्यनिर्देशो नाम षड्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २२६ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके राजधर्म-प्रकरणमें प्रजापालन नामक दो सौ छब्बीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २२६ ॥

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