सावित्री को यमराज से द्वितीय वर दान की प्राप्ति | saavitree ko yamaraaj se dviteey var daan kee praapti

मत्स्य पुराण दो सौ ग्यारहवाँ अध्याय

सावित्री को यमराज से द्वितीय वर दान की प्राप्ति

सावित्र्युवाच

कुतः क्लमः कुतो दुःखं सद्भिः सह समागमे। 
सतां तस्मान्न मे ग्लानिस्त्वत्समीपे सुरोत्तम ॥ १

सावित्रीने कहा- देवश्रेष्ठ ! सत्पुरुषोंके साथ समागम होने पर कैसा परिश्रम ? और कैसा दुःख ? आप-जैसे महानुभावों के समीपमें मुझे किसी प्रकारकी भी ग्लानि नहीं है। १

साधूनां वाप्यसाधूनां संत एव सदा गतिः। 
नैवासतां नैव सतामसन्तो नैवमात्मनः ॥ २

विषाग्निसर्पशस्त्रेभ्यो न तथा जायते भयम् । 
अकारणजगद्वैरिखलेभ्यो जायते तथा ॥ ३

संतः प्राणानपि त्यक्त्वा परार्थं कुर्वते यथा। 
तथासंतोऽपि संत्यज्य परपीडासु तत्पराः ॥ ४

त्यजत्यसूनयं लोकस्तृणवद् यस्य कारणात् । 
परोपघातशक्तास्तं परलोकं तथासतः ॥ ५ 

निकायेषु निकायेषु तथा ब्रह्मा जगदुरुः । 
असतामुपघाताय राजानं ज्ञातवान् स्वयम् ॥ ६ 

नरान् परीक्षयेद् राजा साधून् सम्मानयेत् सदा।
निग्रहं चासतां कुर्यात् स लोके लोकजित्तमः ॥ ७

निग्रहेणासतां राजा सतां च परिपालनात् । 
एतावदेव कर्तव्यं राज्ञा स्वर्गमभीप्सुना ॥ ८

राजकृत्यं हि लोकेषु नास्त्यन्यज्जगतीपते।
असतां निग्रहादेव सतां च परिपालनात् ॥ ९

राजभिश्चाप्यशास्तानामसतां शासिता भवान् ।
तेन त्वमधिको देवो देवेभ्यः प्रतिभासि मे ॥ १० 

जगत्तु धार्यते सद्भिः सतामग्रधस्तथा भवान् ।
तेन त्वामनुयान्त्या मे क्लमो देव न विद्यते ॥ ११

चाहे साधु प्रकृतिके हों या असाधु प्रकृतिके, सभीके निर्वाहक सदा सत्पुरुष ही होते हैं, किंतु असत्पुरुष न तो सज्जनोंके काम आ सकते हैं, न असत्पुरुषोंके ही और न स्वयं अपना ही कल्याण कर सकते हैं। विष, अग्नि, सर्प तथा शस्त्रसे लोगोंको उतना भय नहीं होता, जितना अकारण जगत्से वैर करनेवाले दुष्टोंसे होता है। जैसे सत्पुरुष अपने प्राणोंका विसर्जन करके भी परोपकार करते हैं, उसी प्रकार दुर्जन भी अपने प्राणोंका परित्याग कर दूसरेको कष्ट देनेमें तत्पर रहते हैं। जिस परलोककी प्राप्तिके लिये सत्पुरुष अपने प्राणोंको भी तृणके समान त्याग देते हैं, 

उसी पर लोक की परायी हानिमें निरत रहनेवाले दुर्जन कुछ भी चिन्ता नहीं करते। स्वयं जगदुरु ब्रह्माने सभी प्राणि-समूहोंमें असत्प्राणियोंके निग्रहके लिये राजाको नियुक्त किया है। राजा सर्वदा पुरुषोंकी परीक्षा करे। जो सज्जन हों उनका आदर करे और दुष्टोंको दण्ड दे। जो ऐसा करता है, वह सभी लोकविजेता राजाओंमें श्रेष्ठ है। सत्पुरुषोंको सम्मान देने तथा दुष्टोंका निग्रह करनेके कारण ही वह राजा है।. स्वर्ग-प्राप्तिकी इच्छा करनेवाले राजाको इन दोनों कार्योंका पालन करना चाहिये। जगतीपते! राजाओंके लिये सत्पुरुषोंके परिपालन तथा दुष्टोंके नियमनके अतिरिक्त दूसरा कोई राजधर्म संसारमें नहीं है। उन राजाओंद्वारा भी जो दुष्ट शासित नहीं किये जा सकते, ऐसे दुर्जनोंके शासक आप हैं, इसी कारण आप मुझे सभी देवताओंसे अधिक महत्त्वशाली देवता प्रतीत हो रहे हैं। यह जगत् सत्पुरुषोंद्वारा धारण किया जाता है तथा आप उन सत्पुरुषोंके अग्रणी हैं, इसलिये देव! आपके पीछे चलते हुए मुझे कुछ भी क्लेश नहीं है॥२-११॥

यम उवाच

तुष्टोऽस्मि ते विशालाक्षि वचनैर्धर्मसङ्गतैः ।
विना सत्यवतः प्राणाद् वरं वरय मा चिरम् ॥ १२

यमराज बोले- विशालाक्षि! तुम्हारे इन धर्मयुक्त वचनोंसे मैं प्रसन्न हूँ, अतः सत्यवान के प्राणों के अतिरिक्त दूसरा वर माँग लो, देर न करो ॥१२॥

सावित्र्युवाच

सहोदराणां भ्रातॄणां कामयामि शतं विभो। 
अनपत्यः पिता प्रीतिं पुत्रलाभात् प्रयातु मे ॥ १३

तामुवाच यमो गच्छ यथागतमनिन्दिते । 
और्ध्वदेहिककार्येषु यत्नं भर्तुः समाचर ॥ १४

नानुगन्तुमयं शक्यस्त्वया लोकान्तरं गतः । 
पतिव्रतासि तेन त्वं मुहूर्त मम यास्यसि ॥ १५

गुरुशुश्रूषणाद् भद्रे तथा सत्यवता महत्।
 पुण्यं समर्जितं येन नयाम्येनमहं स्वयम् ॥ १६ 

एतावदेव कर्तव्यं पुरुषेण विजानता।
मातुः पितुश्च शुश्रूषा गुरोश्च वरवर्णिनि ॥ १७

तोषितं त्रयमेतच्च सदा सत्यवता वने। 
पूजितं विजितः स्वर्गस्त्वयानेन चिरं शुभे ॥ १८

तपसा ब्रह्मचर्येण अग्निशुश्रूषया शुभे। 
पुरुषाः स्वर्गमायान्ति गुरुशुश्रूषया तथा ॥ १९

आचार्यश्च पिता चैव माता भ्राता च पूर्वजः । 
नाचैतेऽप्यवमन्तव्या ब्राह्मणेन तु विशेषतः ॥ २०

आचार्यो ब्रह्मणो मूर्तिः पिता मूर्तिः प्रजापतेः । 
माता पृथिव्या मूर्तिस्तु भ्राता वै मूर्तिरात्मनः ॥ २१

जन्मना पितरौ क्लेशं सहेते सम्भवे नृणाम्। 
न तस्य निष्कृतिः शक्या कर्तुं वर्षशतैरपि ॥ २२

तयोर्नित्यं प्रियं कुर्यादाचार्यस्य तु सर्वदा। 
तेष्वेव त्रिषु तुष्टेषु तपः सर्व समाप्यते ॥ २३

तेषां त्रयाणां शुश्रूषा परमं तप उच्यते। 
न च तैरननुज्ञातो धर्ममन्यं समाचरेत् ॥ २४

त एव हि त्रयो लोकास्त एव त्रय आश्रमाः । 
त एव च त्रयो वेदास्तथैवोक्तास्त्रयोऽग्नयः ॥ २५ 

पिता वै गार्हपत्योऽग्निर्माता दक्षिणतः स्मृतः । 
गुरुराहवनीयश्च साग्नित्रेता गरीयसी ॥ २६

त्रिषु प्रमाद्यते नैषु त्रींल्लोकान् जयते गृही।
दीप्यमानः स्ववपुषा देववद् दिवि मोदते ॥ २७

कृतेन कामेन निवर्त भद्रे भविष्यतीदं सकलं त्वयोक्तम्।
ममोपरोधस्तव च क्लमः स्या-त्तथाधुना तेन तव ब्रवीमि ॥ २८

सावित्रीने कहा-विभो! मैं सौ सहोदर भाइयोंकी अभिलाषिणी हूँ। मेरे पिता पुत्रहीन हैं, अतः वे पुत्रलाभसे प्रसन्न हों। तब यमराजने सावित्रीसे कहा-' अनिन्दिते । तुम जैसे आयी हो, वैसे ही लौट जाओ तथा अपने पतिके और्ध्वदैहिक क्रियाओंके लिये यत्न करो। अब यह दूसरे लोकमें चला गया है, अतः तुम इसके पीछे नहीं चल सकती। चूँकि तुम पतिव्रता हो, अतः दो घड़ीतक और मेरे साथ चल सकती हो। भद्रे! सत्यवान्ने गुरुजनोंकी शुश्रूषा कर महान् पुण्य अर्जित किया है, अतः मैं स्वयं इसे ले जा रहा हूँ। सुन्दरि ! विद्वान् पुरुषको माता, पिता तथा गुरुकी सेवामें सदा तत्पर रहना चाहिये। सत्यवान्ने वनमें इन तीनोंको अपनी शुश्रूषासे प्रसन्न किया है। शुभे। इसके साथ तुमने भी स्वर्गको जीत लिया है। शुभे! मनुष्य तपस्या, ब्रह्मचर्य तथा अग्नि और गुरुकी शुश्रूषासे स्वर्गको प्राप्त करते हैं, अतः विशेषरूपसे ब्राह्मणको आचार्य, पिता, माता तथा बड़े भाईका कभी अपमान नहीं करना चाहिये; क्योंकि आचार्य ब्रह्माका, पिता प्रजापतिका, माता पृथ्वीका और भाई अपना ही स्वरूप है। 

मनुष्यके जन्मके समय माता और पिता जो कष्ट सहन करते हैं, उसका बदला सैकड़ों वर्षोंमें भी नहीं चुकाया जा सकता। अतः मनुष्यको माता, पिता तथा आचार्यका सर्वदा प्रिय कार्य करना चाहिये; क्योंकि इन तीनोंके संतुष्ट होने पर सभी तपस्याएँ सम्पन्न हो जाती हैं। इन तीनोंकी शुश्रूषा परम तपस्या कही गयी है, अतः उनकी आज्ञाके बिना किसी अन्य धर्मका आचरण नहीं करना चाहिये। वे ही तीनों लोक हैं, वे ही तीनों आश्रम हैं, वे ही तीनों वेद हैं तथा तीनों अग्नियाँ भी वे ही कहलाते हैं। पिता गार्हपत्याग्नि, माता दक्षिणाग्नि तथा गुरु आहवनीयाग्नि है। ये तीनों अग्नियाँ सर्वश्रेष्ठ हैं। जो गृहस्थ इन तीनों गुरुजनोंकी सेवामें कभी असावधानी नहीं करता, वह तीनों लोकोंको जीत लेता है और अपने शरीरसे देवताओंके समान देदीप्यमान होते हुए स्वर्गमें आनन्दका अनुभव करता है। भद्रे! तुम्हारा काम पूरा हो गया, अब तुम लौट जाओ। तुम्हारे द्वारा कही हुई वे सारी बातें पूर्ण होंगी। इस प्रकार हमारे पीछे आनेसे मेरे कार्यमें विघ्न पड़ता है और तुम्हें भी कष्ट हो रहा है, इसीलिये मैं इस समय तुमसे ऐसा कह रहा हूँ ॥१३-२८ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सावित्र्युपाख्याने द्वितीयवरलाभो नामैकादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २११ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सावित्री-उपाख्यानमें द्वितीय वरका लाभ नामक दो सी ग्यारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २११ ॥

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