सत्यवान्का सावित्री को वन की शोभा दिखाना | satyavaanka saavitree ko van kee shobha dikhaana

मत्स्य पुराण दो सौ नवाँ अध्याय

सत्यवान्का  सावित्री को वन की शोभा दिखाना

सत्यवानुवाच

वनेऽस्मिञ्शाद्वलाकीर्णे सहकारं मनोहरम्।
नेत्रघ्राणसुखं पश्य वसन्ते रतिवर्धनम् ॥ १

सत्यवान्ने कहा- विशाल नेत्रोंवाली सावित्री! हरी-हरी घासोंसे भरे हुए इस वनमें वसन्तमें रतिकी वृद्धि करनेवाले एवं नेत्र तथा नासिकाको सुख प्रदान करनेवाले इस मनोहर आमके वृक्षको देखो। १

वनेऽप्यशोकं दृष्ट्वनं रागवन्तं सुपुष्पितम्। 
वसन्तो हसतीवार्य मामेवायतलोचने ॥ २

दक्षिणे दक्षिणेनैतां पश्य रम्यां वनस्थलीम्। 
पुष्पितैः किंशुकैर्युक्तां ज्वलितानलसप्रभैः ॥ ३

सुगन्धिकुसुमामोदो वनराजिविनिर्गतः ।
करोति वायुर्दाक्षिण्यमावयोः क्लमनाशनम् ॥ ४

पश्चिमेन विशालाक्षि कर्णिकारैः सुपुष्पितैः । 
काञ्चनेन विभात्येषा वनराजी मनोरमा ॥ ५

अतिमुक्तलताजालरुद्धमार्गा वनस्थली। 
रम्या सा चारुसर्वाङ्गि कुसुमोत्करभूषणा ॥ ६

मधुमत्तालिझंकारव्याजेन वरवर्णिनि ।
चापाकृष्टिं करोतीव कामः पान्थजिघांसया ॥ ७

फलास्वादलसद्वक्त्रपुंस्कोकिलविनादिता ।
विभाति चारुतिलका त्वमिवैषा वनस्थली ॥ ८

कोकिलश्चतशिखरे मञ्जरीरेणुपिञ्जरः । 
गदितैव्र्व्यक्तां याति कुलीन श्चेष्टितैरिव ॥ ९

पुष्परेणुविलिप्ताङ्गीं प्रियामनुसरन् वने। 
कुसुमं कुसुमं याति कूजन् कामी शिलीमुखः ॥ १०

इस वनमें फूलोंसे लदे हुए इस लाल अशोक-वृक्षको भी देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो यह वसन्त मेरा ही परिहास कर रहा है। दाहिनी ओर दक्षिण दिशामें जलते हुए अंगारकी-सी कान्तिवाले फूलोंसे लदे हुए किंशुक-वृक्षोंसे युक्त इस रमणीय वनस्थलीको देखो। सुगन्धित पुष्पोंकी सुगन्धसे युक्त वन-पंक्तियोंसे निकली हुई वायु उदारतापूर्वक हमलोगोंकी थकावटका नाश कर रही है। विशाललोचने। इधर पश्चिममें फूले हुए कनेरके पुष्पोंसे युक्त स्वर्णिम शोभावाली वनपङ्कि शोभायमान हो रही है। सुन्दरि । तिनिसके लतासमूहोंसे वनस्थलीका मार्ग अवरुद्ध हो गया है। पुष्पोंके समूहोंसे विभूषित हुई वह पृथ्वी कितनी मनोहर लग रही है। मधुसे उन्मत्त हुए भ्रमर-समूहोंकी गुञ्जरके व्याजसे मालूम पड़ता है कि कामदेव (हम-जैसे) पथिकोंको मारनेके लिये धनुषकी प्रत्यञ्चा खींच रहा है। नाना प्रकारके फलोंके आस्वादनसे उल्लसित मुखवाले कोकिलोंके स्वरसे निनादित एवं सुन्दर तिलक-वृक्षोंसे सुशोभित यह वनस्थली तुम्हारे ही समान शोभा दे रही है। आमकी ऊँची डालीपर बैठी हुई कोकिला मञ्जरीकी धूलसे पीत वर्ण होकर अपने सुरीले शब्दोंसे चेष्टाओंद्वारा कुलीन पुरुषकी भाँति अपना परिचय दे रही है। कामी मधुकर वनमें गुनगुनाता हुआ प्रत्येक पुष्पपर पुष्पोंकी धूलिसे धूसरित प्रियतमाका अनुसरण करता हुआ उड़ रहा है ॥ १-१० ॥

मञ्जरीं सहकारस्य कान्ताचञ्च्वाग्रखण्डिताम् ।
स्वदते बहुपुष्पेऽपि पुंस्कोकिलयुवा वने ॥ ११

काकः प्रसूतां वृक्षाग्रे स्वामेकाग्रेण चञ्झुना। 
काकीं सम्भावयत्येष पक्षाच्छादितपुत्रिकाम् ॥ १२

भूभागं निम्नमासाद्य दयितासहितो युवा। 
नाहारमपि चादत्ते कामाक्रान्तः कपिंजलः ॥ १३

कलविंकस्तु रमयन् प्रियोत्सङ्गं समास्थितः । 
मुहुर्मुहुर्विशालाक्षि उत्कण्ठयति कामिनः ॥ १४

वृक्षशाखां समारूढः शुकोऽयं सह भार्यया। 
भरेण लम्बयञ् शाखां करोति सफलामिव ॥ १५

वनेऽत्र पिशितास्वादतृप्तो निद्रामुपागतः ।
शेते सिंहयुवा कान्ता चरणान्तरगामिनी ॥ १६

व्याघ्घ्रयोर्मिथुनं पश्य शैलकन्दरसंस्थितम् । 
ययोर्नेत्रप्रभालोके गुहा भिन्नेव लक्ष्यते ॥ १७

अयं द्वीपी प्रियां लेढि जिह्वाग्रेण पुनः पुनः। 
प्रीतिमायाति च तया लिह्यमानः स्वकान्तया ।। १८

उत्सङ्गकृतमूर्धानं निद्रापहृतचेतसम् ।
जन्तूद्धरणतः कान्तं सुखयत्येव वानरी ॥ १९

भूमौ निपतितां रामां मार्जारो दर्शितोदरीम्। 
नखैर्दन्तैर्दशत्येष न च पीडयते तथा ॥ २०

वनमें तरुण पुंस्कोकिल अनेक पुष्पोंके रहते हुए भी अपनी प्रियतमाकी चोंचके अग्रभागसे खण्डित हुई आम्र-मञ्जरीका स्वाद ले रहा है। कौआ वृक्षके अग्रभागपर बैठकर पंखोंसे बच्चेको छिपाकर बैठी हुई अपनी प्रसूता पत्नीको चोंचके अग्रभागसे आनन्दित कर रहा है। अपनी पत्नीके साथ कामदेवसे अभिभूत हुआ तरुण कपिंजल (तीतर) निचले भूभागपर बैठा हुआ आहार भी नहीं ग्रहण कर रहा है। विशालनेत्रे! चटक (गौरैया) अपनी प्रियाकी गोदमें स्थित हो बारम्बार रमण करता हुआ कामीजनोंको उत्कण्ठित कर रहा है। अपनी प्रियाके साथ वृक्षकी डालीपर बैठा हुआ यह शुक पंजेसे शाखाको खींचता हुआ उसे फलयुक्त-सा कर रहा है। इस वनमें मांसाहारसे तृप्त युवा सिंह निद्रामें लीन हो सो रहा है और उसकी प्रियतमा उसके पैरोंके मध्यभागमें शयन कर रही है। पर्वतकी कन्दरामें बैठे हुए व्याघ्र-दम्पत्तिको देखो, जिनके नेत्रोंकी कान्तिसे गुफा भिन्न-सी दिखायी दे रही है। यह गैंडा अपनी प्रियाको जीभके अग्रभागसे बारम्बार चाट रहा है और अपनी उस प्रियाद्वारा चाटे जानेपर आनन्दका अनुभव कर रहा है। वह वानरी अपनी गोदमें सिर रखकर गाढ़ निद्रामें सोते हुए पतिको जूक आदि जन्तुओंको निकालकर सुख दे रही है। वह बिडाल पृथ्वीपर लेटकर पेटको दिखाती हुई अपनी प्रियतमाको नखों और दाँतोंसे काट रहा है, परंतु वास्तवमें वह पीड़ा नहीं दे रहा है॥ ११-२०॥

शशकः शशकी चोभे संसुप्ते पीडिते इमे।
 संलीनगात्रचरणे कर्णैर्व्यक्तिमुपागते ॥ २१

स्त्रात्वा सरसि पद्माढ्ये नागस्तु मदनप्रियः । 
सम्भावयति तन्वङ्गि मृणालकवलैः प्रियाम् ॥ २२

कान्तप्रोथसमुत्थानैः कान्तमार्गानुगामिनी । 
करोति कवलं मुस्तैर्वराही पोतकानुगा ॥ २३

दृढाङ्गसंधिर्महिषः कर्दमाक्ततनुर्वने। 
अनुव्रजति धावन्तीं प्रियामुद्धतमुत्सुकः ॥ २४

पश्य चार्वङ्गि सारङ्गं त्वं कटाक्षविभावनैः । 
सभार्यं मां हि पश्यन्तं कौतूहलसमन्वितम् ॥ २५ 

पश्य पश्चिमपादेन रोही कण्डूयते मुखम् । 
स्नेहार्द्रभावात् कर्षन्ती भर्तारं शृङ्गकोटिना ॥ २६

द्रागिमां चमरीं पश्य सितवालानुगच्छतीम्।
अन्वास्ते चमरः कामी मां च पश्यति गर्वितः ॥ २७

आतपे गवयं पश्य प्रकृष्टं भार्यया सह ।
रोमन्थनं प्रकुर्वाणं काकं ककुदि वारयन् ॥ २८

पश्याजं भार्यया सार्धं न्यस्ताग्रचरणद्वयम् ।
विपुले बदरीस्कन्धे बदराशनकाम्यया ॥ २९ 

हंसं सभार्यं सरसि विचरन्तं सुनिर्मलम्।
सुमुक्तस्येन्दुबिम्बस्य पश्य वै श्रियमुद्वहन् ॥ ३० 

सभार्यश्चक्रवाकोऽयं कमलाकरमध्यगः । 
करोति पद्मिनीं कान्तां सुपुष्यामिव सुन्दरि ॥ ३१

मया फलोच्चयः सुभ्रु त्वया पुष्पोच्चयः कृतः । 
इन्धनं न कृतं सुभ्रु तत्करिष्यामि साम्प्रतम् ॥ ३२

त्वमस्य सरसस्तीरे द्रुमच्छायां समाश्रिता ।
क्षणमात्रं प्रतीक्षस्व विश्रमस्व च भामिनि ॥ ३३ 

ये खरगोश दम्पति पीड़ित होकर अपने पैरोंको शरीरमें छिपाकर सो रहे हैं। ये कानोंद्वारा ही जाने जा सकते हैं। सूक्ष्माङ्गि! कामार्त हाथी कमलयुक्त सरोवरमें स्नान कर कमल-डंठलोंके ग्रासोंसे प्रियाको संतुष्ट कर रहा है। पीछे-पीछे चलनेवाले अपने बच्चोंसे घिरी हुई शूकरी प्रियतमके मार्गपर चलती हुई प्रियतमके द्वारा उखाड़े गये मोथोंको खाती जा रही है। इस वनमें दृढ़ अङ्गावाला एवं शरीरमें कीचड़ पोते हुए कामार्त महिष भागती हुई प्रियाके पीछे दौड़ रहा है। सुन्दरि ! अपनी प्रियाके सहित इस मृगको देखो, जो कुतूहलवश मुझे मनोहर कटाक्षोंसे देख रहा है। देखो, वह मृगी स्नेहयुक्त हो अपने सींगकि अग्रभागसे प्रियतमको ढकेलती हुई पिछले पैरसे मुखको खुजला रही है। अरे, उस श्वेत चमरी गायको देखो, जो चमरके पीछे चली जा रही है। इधर कामार्त्त चमर खड़ा है 

और गर्वके साथ मेरी ओर देख रहा है। धूपमें बैठे हुए उस नीलगायको देखो, जो अपनी प्रियाके साथ आनन्दपूर्वक जुगाली कर रहा है और ककुद्मर बैठे हुए कौवेका निवारण कर रहा है। प्रियाके साथ उस बकरेको देखो, जो वेर वृक्षकी मोटी शाखापर फल खानेकी इच्छासे अगले दोनों पैरोंको रखे हुए है। सरोवरमें विचरण करते हुए हंसिनीसहित उस अत्यन्त निर्मल हंसको देखो, जो सुप्रकाशित चन्द्रबिम्बकी शोभा धारण कर रहा है। सुन्दरि ! चक्रवाक अपनी प्रियाके साथ कमलों से सुशोभित सरोवरमें अपनी प्रियाको फूली हुई पद्मिनीके समान कर रहा है। (ऐसा कहकर सत्यवा सत्यवान्ने फिर कहा-) सुन्दर भौंहोंवाली! मैं फलोंको एकत्र कर चुका तथा तुम पुष्पोंको एकत्र कर चुकी, किंतु अभी ईंधनका कोई प्रबन्ध नहीं किया गया, अतः अब मैं उसे एकत्र करूँगा। भामिनि ! तबतक तुम इस सरोवरके तटपर वृक्षकी छायामें बैठकर क्षणभर प्रतीक्षा करते हुए विश्राम करो ॥ २१-३३॥

सावित्र्युवाच

एवमेतत् करिष्यामि मम दृष्टिपथस्त्वया।
दूरं कान्त न कर्तव्यो बिभेमि गहने वने ॥ ३४

सावित्री बोली-कान्त! जैसा आप कहेंगे, मैं वैसा ही करूँगी, परंतु आप मेरे नेत्रोंके सामनेसे दूर न जायै; क्योंकि मैं इस घने वनमें डर रही हूँ ॥ ३४॥

मत्स्य उवाच

ततः स काष्ठानि चकार तस्मिन् वने तदा राजसुतासमक्षम् ।
तस्या हादूरे सरसस्तदानीं मेने च सा तं मृतमेव राजन् ॥ ३५

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! सावित्रीके ऐसा कहनेपर सत्यवान् उस वनमें राजपुत्रीके सम्मुख ही उस सरोवरसे थोड़ी ही दूर पर काष्ठ एकत्र करने लगे, परंतु राजपुत्री उतनी दूर जानेपर भी उन्हें मरा हुआ-सा मानने लगी ॥ ३५ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सावित्र्युपाख्याने वनदर्शनं नाम नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०९ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सावित्री-उपाख्यानमें वनदर्शन नामक दो सौ नवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २०९॥

टिप्पणियाँ