तारकासुर को तपस्या ओर ब्रह्मा द्वारा उसे वरदानप्राि, देवा सुरसंग्राम की तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओं का वर्णन | taarakaasur ko tapasya or brahma dvaara use varadaanapraai, deva surasangraam kee taiyaaree tatha donon dalonkee senaon ka varnan

मत्स्य पुराण एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय

तारकासुर को तपस्या ओर ब्रह्मा द्वारा उसे वरदानप्राि, देवा सुरसंग्राम की तैयारी तथा दोनों दलोंकी सेनाओं का वर्णन

तारक उवाच

श्णुध्वमसुराः सवे वाक्यं मम महाबलाः। 
श्रेयसे क्रियतां बुद्धिः सर्वैः कृत्यस्य संविधौ ॥ ९

तारकने कहा- महाबली असुरो! आपलोग ध्यानपूर्वक मेरी बात सुनें। आप सभी लोगोँको इस कार्यको तैयारीमें सर्व प्रथम अपने कल्याणके लिये विचार कर लेना चाहिये । 

वंशक्षयकरा देवाः सर्वेषामेव दानवाः। 
अस्माकं जातिधर्मो वै विरूढं वेरमक्षयम्‌॥ २

वयमद्य गमिष्यामः सुराणां निग्रहाय तु। 
स्वबाहुबलमाश्रित्य सर्वं एवमसंशयः ॥ ३

किंतु नातपसा युक्तो मन्येऽहं सुरसंगमम्‌।
अहमादौ करिष्यामि तपो घोरं दितेः सुताः ॥ ४

ततः सुरान्‌ विजेष्यामो भोक्ष्यामोऽथ जगत्रयम्‌ ।
स्थिरोपायो हि पुरुषः स्थिरश्रीरपि जायते॥ ५

रश्चितुं नैव शक्नोति चपलश्चपलां श्रियम्‌ ।
तच्छत्वा दानवाः सवे वाक्यं तस्यासुरस्य तु ॥ ६

साधु साध्वित्यवोचंस्ते तत्र देत्याः सविस्मयाः। 
सोऽगच्छत्‌ पारियात्रस्य गिरेः कन्द्रमुत्तमम्‌॥ ७

सर्वर्तुकुसुमाकीर्ण नानौषधिविदीपितम्‌ ।
नानाधातुरसस्नावचि्रं नानागुहागृहम्‌॥ ८

गहनैः सर्वतो गूढं चित्रकल्पद्रुमाश्रयम्‌। 
अनेकाकारबहुलं पृथक्‌ पक्षिकुलाकुलम्‌॥ ९

नानाप्रस्रवणोपेतं नानाविधजलाशयम्‌। 
प्राप्य तत्कन्दरं दैत्यश्चचार विपुलं तपः॥ ९० 

दानववृन्द । देवतालोग हम सभीके कुलका (सदा) संहार करते रहते हैँ, इस कारण उनके साथ विरोध करना हमलोगोंका जातिगत धर्म है ओर उनके साथ हमारा (सदा) अक्षय वैर बेधा रहता है। हम सभी लोग अपने बाहुवलका आश्रय लेकर आज ही उन देवताओंका दमन करनेके लिये च्लँगे, इसमे कोई संशय नहीं है, किंतु दिति-नन्दनो! तपोबलसे सम्पन्न हुए विना मेँ देवताओंके साथ लोहा लेना उचित नहीं समङ्ता,अतः मेँ पहले घोर तपस्या कङ्गा तत्पश्चात्‌ हम लोग देवताओंको पराजित करेगे ओर त्रिलोकी के सुखका उपभोग करेगे; क्योकि सुदृढ उपाय करने वाला पुरुष ही अनपायिनी लक्ष्मीका पात्र होता हे । 

चञ्चल बुद्धिवाला पुरुष चञ्चला लक्ष्मीक रक्षा नहीं कर सकता। तारकासुरके उस कथनको सुनकर वर्हों उपस्थित सभी दानव ओर दैत्य आश्चर्यचकित हो उठे ओर वे सभी 'ठीक हे, ठीक हे' एसा कहने लगे। तत्पश्चात्‌ तारकासुर (तपस्या करनेके लिये) पारियात्र पर्वत (अरावली एवं विंध्यका पश्चिम भाग)-की उत्तम कन्दराके पास पहुंचा। वह पर्वत सभी ऋतुओमे विकसित होनेवाले पुष्पोंसे व्याप्त, अनेक प्रकारकौ ओषधियोंसे उदीप्त, विविध धातुओंके रसोंके चते रहनेसे चित्र-विचित्र, अनेकों गुहारूपी गृहोसे युक्त, सव ओरसे घने वृक्षोंसे धिरा, रग-बिरगे कल्पवक्षोसे आच्छादित ओर अनेकों प्रकारके आकारवाले बहुत-से पक्षि-समूहोसे सर्वत्र व्याप्त था। उस पर्वतसे अनेकों इरे इर रहे थे तथा वह अनेकविध जलाशर्योसे सुशोभित था। उसकी कन्दरामें जाकर तारक देत्य घोर तपस्यामे संलग्न हो गया ॥ २-१०॥

निराहारः पञ्चतपाः पत्रभुग्‌ वारिभोजनः।
शतं शतं समानां तु तपांस्येतानि सोऽकरोत्‌ ९९

ततः स्वदेहादुत्कृत्य कर्ष कर्षं दिने दिने।
मांसस्याग्नौ जुहावासौ ततो निर्मसितां गतः ॥ ९२

तस्मिन्‌ निमसितां याते तपोराशित्वमागते।
जज्वलुः सर्वभूतानि तेजसा तस्य सर्वतः ॥ १३

उद्ग्नाश्च सुराः सर्वे तपसा तस्य भीषिताः।
एतस्मिन्नन्तरे ब्रह्मा परमं तोषमागतः॥ ९४

तारकस्य वरं दातुं जगाम त्रिदशालयात्‌।
प्राप्य तं शेलराजानं स गिरेः कन्दरस्थितम्‌। 
उवाच तारकं देवो गिरा मधुरया युतः॥ १५

पहले वह सौ-सौ वर्षोके क्रमसे निराहार रहकर, फिर पञ्चाग्नि तापकर, पुनः पत्ते खाकर तत्पश्चात्‌ केवल जल पीकर तपस्या करता रहा। इसके बाद उसने प्रतिदिन अपने शरीरसे सोलह माशा मांस काट-काटकर्‌ अग्निमें हवन करना प्रारम्भ किया, जिससे उसका शरीर मांसरहित हो गया। इस प्रकार उसके मांसरहित हो जानेपर वह तपःपुञ्ज-सा दीख पड़ने लगा । उसके तेजसे चारों ओर सभी प्राणी संतप्त हो उटे। समस्त देवगण उसको तपस्यासे भयभीत हो उद्धिग्र हो गये। इसी अवसरपर ब्रह्मा उसको भीषण तपस्यासे परम प्रसन्न हो गये । तब वे तारकासुरको वर प्रदान करनेके लिये स्वर्गलोकसे चल पडे ओर उस पर्वतराज पारियात्रपर जा पहुंचे । वहं वे देवाधिदेव उस पर्वतकौ कन्दरामें स्थित तारकके निकट जाकर उससे मधुर वाणीमें बोले ॥११-१५॥

ब्रह्मोवाच

पुत्रालं तपसा तेऽस्तु नास्त्यसाध्यं तवाधुना ।
वरं वृणीष्व रुचिरं यत्‌ ते मनसि वर्तते ॥ ९६

इत्युक्तस्तारको दैत्यः प्रणम्यात्मभुवं विभुम् ।
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा प्रणतः पृथुविक्रमः ॥ १७

ब्रह्माजीने कहा- पुत्र! तुम्हं अब तप कसेकी आवश्यकता नही, वह पूरी हो चुकी । अन तुम्हारे लिये कुछ भी असाध्य नहीं है। अब तुम्हरे मनमें जो रुचे, वह उत्तम वर माँग लो। ब्रह्माद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर परम पराक्रमी दैत्यराज तारकने स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माको प्रणाम किया और विनम्रभावसे हाथ जोड़कर कहा ॥ १६-१७॥

तारक उवाच

देव भूतमनोवास वेत्सि जन्तुविचेष्टितम् । 
कृतप्रतिकृताकाङ्गी जिगीषुः प्रायशो जनः ॥ १८

वयं च जातिधर्मेण कृतवैराः सहामरैः ।
तैश्च निःशेषिता दैत्याः क्रूरैः संत्यज्य धर्मिताम्।
तेषामहं समुद्धर्त्ता भवेयमिति मे मतिः ॥ १९

अवध्यः सर्वभूतानामस्त्राणां च महौजसाम्।
स्यामहं परमो होष वरो मम हृदि स्थितः ॥ २०

एतन्मे देहि देवेश नान्यो में रोचते वरः ।
तमुवाच ततो दैत्यं विरिञ्चिः सुरनायकः ॥ २१

न युज्यन्ते विना मृत्युं देहिनो दैत्यसत्तम। 
यतस्ततोऽपि वरय मृत्युं यस्मान्न शङ्कसे ॥ २२

ततः सञ्चिन्त्य दैत्येन्द्रः शिशोर्वै सप्तवासरात् ।
वव्रे महासुरो मृत्युमवलेपनमोहितः ॥ २३

ब्रह्या चास्मै वरं दत्त्वा यत्किञ्चिन्मनसेप्सितम्। 
जगाम त्रिदिवं देवो दैत्योऽपि स्वकमालयम् ॥ २४

उत्तीर्णं तपसस्तं तु दैत्यं दैत्येश्वरास्तथा। 
परिबवुः सहस्त्राक्षं दिवि देवगणा यथा ॥ २५

तारक बोला- सभी प्राणियकि मनमें निवास करनेवाले देव! आप सभी जीवोंकी चेष्टाको जानते हैं। प्रायः प्रत्येक मनुष्य अपने शत्रु से बदला लेनेकी भावनासे उसे जीतनेका इच्छुक रहता है। हमलोगोंका जातिधर्मानुसार देवताओं के साथ वैर है। उन क्रूरकर्मी देवताओंने धर्मको तिलाञ्जलि देकर प्रायः दैत्योंको निःशेष कर दिया है। मैं उनका उन्मूलन करनेवाला हो जाऊँ ऐसा मेरा विचार है। साथ ही मैं समस्त प्राणियों तथा परम तेजस्वी अस्त्रोंद्वारा अवध्य हो जाऊँ यहाँ उत्तम वर मेरे हृदयमें स्थित है। देवेश। मुझे यही वर दीजिये। मुझे किसी अन्य वरकी अभिलाषा नहीं है। यह सुनकर सुरनायक ब्रह्मा उस दैत्यराजसे बोले- 'दैत्यश्रेष्ठ। कोई भी देहधारी जीव मृत्युसे नहीं बच सकता, अर्थात् जो जन्म धारण करता है, उसकी मृत्यु अवश्य होती है, इसलिये जिससे तुम्हें मृत्युकी आशङ्का न हो, उसीसे अपनी मृत्युका वर माँग लो।' तब गर्वसे मूढ़ हुए महासुर दैत्यराज तारकने भलीभाँति सोच-विचारकर सात दिनके बालकके हाथसे अपनी मृत्युका वर माँगा। तदनन्तर देवाधिदेव ब्रह्मा उसके मनके अभिलाषानुसार उसे वर देकर स्वर्ग लोक को चले गये। इधर दैत्यराज तारक भी अपने निवासस्थानको लौट आया। तब सभी दैत्याधिपति तपस्याको पूर्ण करके लौटे हुए उस दैत्यराज तारकको घेरकर इस प्रकार बातें करने लगे, जैसे स्वर्गलोकमें देवगण इन्द्रको घेरकर बातें करते हैं॥ १८-२५॥

तस्मिन् महति राज्यस्थे तारके दैत्यनन्दने। 
ऋतवो मूर्तिमन्तश्च स्वकालगुणबृंहिताः ।। २६

अभवन् किंकरास्तस्य लोकपालाश्च सर्वशः । 
कान्तिद्युतिधृतिर्मेधा श्रीरवेक्ष्य च दानवम् ॥ २७

परिववुर्गुणाकीर्णा निश्छिद्राः सर्व एव हि। 
कालागुरुविलिप्ताङ्ग महामुकुटभूषणम् ॥ २८

रुचिराङ्गदनद्धाङ्ग महासिंहासने स्थितम्। 
वीजयन्त्यप्सरः श्रेष्ठा भृशं मुञ्चन्ति नैव ताः ॥ २९

चन्द्रार्की दीपमार्गेषु व्यजनेषु च मारुतः।
कृतान्तोऽग्रेसरस्तस्य बभूवुर्मुनिसत्तमाः ॥ ३०

एवं प्रयाति काले तु वितते तारकासुरः । 
बभाषे सचिवान् दैत्यः प्रभूतवरदर्पितः ॥ ३९

दैत्योंके उस महान् साम्राज्यपर दैत्यनन्दन तारकके अवस्थित होनेपर छहों ऋतुएँ शरीर धारण कर अपने-अपने कालके अनुसार सभी गुणोंसे युक्त हो उपस्थित हुई। सभी लोकपाल उसका किंकर बनकर रहने लगे। कान्ति, द्युति, धृति, मेधा और श्री- ये सभी देवियाँ गुणयुक्त होकर निष्कपट भावसे उस दानवराजकी ओर देखती हुई उसे घेरकर खड़ी रहती थीं। जब वह दैत्यराज शरीरमें काला अगुरुका लेप कर बहुमूल्य मुकुटसे विभूषित हो और मनोहर बाजूबंद बाँधकर विशाल सिंहासनपर बैठता तब श्रेष्ठ अप्सराएँ उसपर निरन्तर पंखा झलती रहती थीं और क्षणमात्रके लिये भी उससे पृथक् नहीं होती थीं। मुनिवरी। उसके महलमें चन्द्रमा और सूर्य दीपके स्थानपर, वायुदेव पंखोंके स्थानपर तथा कृतान्त उसके अग्रेसरके स्थानपर नियुक्त हुए। इस प्रकार (सुखपूर्वक) बहुत-सा समय व्यतीत हो जानेपर एक दिन उत्कृष्ट वरप्राप्तिसे गर्वित हुआ दैत्यराज तारकासुर अपने मन्त्रियोंसे बोला ॥ २६-३१॥

तारक उवाच

राज्येन कारणं किं मे त्वनाक्रम्य त्रिविष्टपम्। 
अनिर्याप्य सुरैर्वैरं का शान्तिहृदये मम ॥ ३२

भुञ्जतेऽद्यापि यज्ञांशानमरा नाक एव हि।
विष्णुः श्रियं न जहति तिष्ठते च गतभ्रमः ॥ ३३

स्वस्थाभिः स्वर्गनारीभिः पीड्यन्तेऽमरवल्लभाः ।
सोत्पला मदिरामोदा दिवि क्रीडायनेषु च ॥ ३४

लब्वा जन्म न यः कश्चिद् घटयेत् पौरुषं नरः।
जन्म तस्य वृथाभूतमजन्मा तु विशिष्यते ॥ ३५

मातापितृभ्यां न करोति कामान् बन्धूनशोकान् न करोति यो वा।
कीर्ति हि वा चार्जयते हिमाभां पुमान् स जातोऽपि मृतो मतं मे ॥ ३६

तस्माज्जयायामरपुङ्गवानां त्रैलोक्यलक्ष्मीहरणाय शीघ्रम्।
संयोज्यतां मे रथमष्टचक्रं बलं च मे दुर्जयदैत्यचक्रम् ।
ध्वजे च मे काञ्चनपडूनद्धं छत्रं च मे मौक्तिकजालबद्धम् ।। ३७

तारकने कहा-अमात्यो! स्वर्गलोकपर आक्रमण किये बिना मुझे इस राज्यसे क्या लाभ ? देवताओंसे वैरका बदला चुकाये बिना मेरे हृदयमें शान्ति कहाँ? अभी भी देवगण स्वर्गलोकमें यज्ञांशोंका उपभोग कर रहे हैं। विष्णु लक्ष्मीको नहीं छोड़ रहा है और निर्भय होकर स्थित है। स्वर्गलोकमें क्रीडागारोंमें मदिराको गन्धसे युक्त दुबले-पतले शरीरवाले श्रेष्ठ देवगण सुन्दरी देवाङ्गनाओंद्वारा आलिङ्गित्त किये जा रहे हैं। कोई भी व्यक्ति यदि जन्म लेकर अपना पुरुषार्थ नहीं प्रकट करता तो उसका जन्म लेना व्यर्थ है, उससे तो जन्म न लेनेवाला ही विशिष्ट है। जो पुरुष माता-पिताकी कामनाओंको पूर्ण नहीं करता, अपने बन्धुओंका शोक नष्ट नहीं करता और हिमके समान उज्वल कीर्तिका अर्जन नहीं करता, वह जन्म लेकर भी मरे हुएके समान है-ऐसा मेरा विचार है। इसलिये श्रेष्ठ देवताओंको जीतने तथा त्रिलोकीकी लक्ष्मीका अपहरण करनेके लिये शीघ्र ही मेरा आठ पहियेवाला रथ, अजेय दैत्य-सैन्यसमूह, स्वर्णपत्र-जटित ध्वज और मुक्ताकी लड़ियोंसे सुशोभित छत्र तैयार किया जाय ॥ ३२-३७॥ 

तारकस्य वचः श्रुत्वा ग्रसनो नाम दानवः।
सेनानीर्दैत्यराजस्य तथा चक्रे बलान्वितः ॥ ३८

आहत्य भेरी गम्भीरां दैत्यानाहूय सत्वरः । 
तुरगाणां सहस्त्रेण चक्राष्टकविभूषितम् ॥ ३९

शुक्लाम्बरपरिष्कारं चतुर्योजनविस्तृतम् ।
नानाक्रीडागृहयुतं गीतवाद्यमनोहरम् ॥ ४०

विमानमिव देवस्य सुरभर्तुः शतक्रतोः ।
शकोटीश्वरा दैत्या दैत्यास्ते चण्डविक्रमाः ॥ ४१

तेषामग्रेसरो जम्भः कुजम्भोऽनन्तरस्ततः ।
महिषः कुञ्जरो मेघः कालनेमिर्निमिस्तथा ।। ४२

मथनो जम्भकः शुम्भो दैत्येन्द्रा दश नायकाः ।
अन्येऽपि शतशस्तस्य पृथिवीदलनक्षमाः ॥ ४३

दैत्येन्द्रा गिरिवर्माणः सन्ति चण्डपराक्रमाः ।
नानायुधप्रहरणा नानाशस्त्रास्त्रपारगाः ।। ४४

तारकस्याभवत् केतू रौद्रः कनकभूषणः । 
केतुना मकरेणापि सेनानीर्यसनोऽरिहा ।। ४५

पैशाचं यस्य वदनं जम्भस्यासीदयोमयम्। 
खरं विधूतलाङ्गुलं कुजम्भस्याभवद्द्वजे ।। ४६

महिषस्य तु गोमायुं केतोहमं तदाभवत् । 
ध्वाङ्गं ध्वजे तु शुम्भस्य कृष्णायोमयमुच्छ्रितम् ॥ ४७

दैत्यराज तारककी बात सुनकर उसके सेनानायक महाबली ग्रसन नामक दानवने उसके आज्ञानुसार कार्य करना आरम्भ किया। उसने तुरंत ही गम्भीर शब्द करनेवाली भेरी बजाकर दैत्योंको बुलाया। फिर आठ पहियोंसे विभूषित रथमें एक हजार घोड़े जोत दिये गये। (वह उसपर सवार हुआ। वह रथ चार योजन विस्तारवाला और अनेकों क्रीडागृहोंसे युक्त था। उसपर श्वेत वस्त्रका आच्छादन पड़ा हुआ था तथा वह गीतों और वाद्योंकी मधुर ध्वनिसे मनोहर लग रहा था। उस समय वह ऐसा दीख रहा था, मानो देवराज इन्द्रदेवका विमान हो। उस समय दस करोड़ दैत्याधिपति उपस्थित थे, वे सभी दैत्य प्रचण्ड पराक्रमी थे। 

उनका अगुआ जम्भ था। इसके बाद कुजम्भ, महिष, कुंजर, मेघ, कालनेमि, निमि, मथन, जम्भक और शुम्भ नामक दस दैत्येन्द्र सेनानायक थे। इनके अतिरिक्त अन्य भी सैकड़ों दैत्य थे जो पृथ्वीका मर्दन करनेमें समर्थ थे। ये सभी दैत्येन्द्र पर्वतके समान विशाल शरीरवाले, प्रचण्ड पराक्रमी, नाना प्रकारके आयुधोंका प्रयोग करनेमें निपुण और अनेकविध शस्त्रास्त्रोंकी प्रयोगविधिमें पारंगत थे। तारकासुरका स्वर्णभूषित ध्वज अत्यन्त भयंकर था। शत्रुका विनाश करनेवाले सेनापति ग्रसनका ध्वज मकरके आकारसे युक्त था। जम्भका ध्वज लौहनिर्मित था और उसपर पिशाचके मुखका चिह्न बना हुआ था। कुजम्भके ध्वजपर हिलती हुई पूँछवाला गधा अङ्कित था। महिषके ध्वजपर स्वर्णनिर्मित शृगालका चित्र था। शुम्भका ध्वज काले लोहेका बना हुआ अत्यन्त ऊँचा था और उसपर फौलादका बना काकका आकार चित्रित था॥ ३८-४७॥

अनेकाकारविन्यासाश्चान्येषां तु ध्वजास्तथा। 
शतेन शीघ्रवेगाणां व्याघ्घ्राणां हेममालिनाम् ॥ ४८

ग्रसनस्य रथो युक्तो किङ्किणीजालमालिनाम् ।
शतेनापि च सिंहानां रथो जम्भस्य दुर्जयः ॥ ४९

कुजम्भस्य रथो युक्तः पिशाचवदनैः खरैः ।
रथस्तु महिषस्योष्टैर्गजस्य तु तुरङ्गमैः ॥ ५०

मेघस्य द्वीपिभिर्भीमैः कुञ्जरैः कालनेमिनः । 
पर्वताभैः समारूढो निमिर्मत्तैर्महागजैः ॥ ५१

चतुर्दन्तैर्गन्धवद्भिः शिक्षितैर्मेघभैरवैः ।
शतहस्तायतैः कृष्णैः तुरङ्गेहेंमभूषणैः ॥ ५२

सितचामरजालेन शोभिते दक्षिणां दिशम् । 
सितचन्दनचार्वङ्गो नानापुष्पस्त्रजोज्वलः ।। ५३

मथनो नाम दैत्येन्द्रः पाशहस्तो व्यराजत ।
जम्भकः किङ्किणीजालमालमुष्टुं समास्थितः ।। ५४

कालशुक्लमहामेषमारूढः शुम्भदानवः ।
अन्येऽपि दानवा वीरा नानावाहनगामिनः ॥ ५५

इसी प्रकार अन्य दैत्योंके ध्वजोंपर भी अनेकों प्रकारके आकारका विन्यास किया गया था। ग्रसनके रथमें सौ शीघ्रगामी व्याघ्र जुते हुए थे, जिनके गलेमें सोनेकी मालाएँ पड़ी थीं और जो क्षुद्रघंटिकाओंसे सुशोभित थे। जम्भका दुर्जय रथ भी सौ सिंहोंद्वारा खींचा जा रहा था। कुजम्भका रथ पिशाच सदृश मुखवाले गधोंसे युक्त था। महिषका रथ कैटों, कुंजरका घोड़ों, मेघका चौतों और कालनेमिका भयंकर हाथियोंसे संयुक्त था। दैत्यनायक निमि एक ऐसे रथपर सवार था जिसमें मतवाले गजराज जुते हुए थे, जो पर्वतके समान विशालकाय और चार दाँतोंसे युक्त थे, जिनके गण्डस्थलॉसे मदकी धारा बह रही थी, जो मेघ सदृश भयंकर गर्जना करनेवाले और युद्धकलामें शिक्षित थे। जिसके शरीरमें श्वेत चन्दनका अनुलेप लगा था और जो अनेकों प्रकारके उज्ज्वल पुष्पोंकी मालाओंसे सुशोभित था, वह मथन नामक दैत्येन्द्र हाथमें पाश लिये हुए उस सैन्यसमूहकी दक्षिण दिशामें स्थित श्वेत चामरोंसे विभूषित रथपर शोभा पा रहा था। उसके रथमें सौ हाथ लम्बे शरीरवाले स्वर्णाभरणोंसे विभूषित काले रंगके घोड़े जुते हुए थे। जम्भक क्षुद्र घंटिकाओंसे सुशोभित ऊँटपर सवार था। शुम्भ नामक दानव कालके समान भयंकर एवं श्वेत वर्णवाले एक विशालकाय मेषपर आरूढ़ था। दूसरे भी दानववीर नाना प्रकारके वाहनोंपर चढ़कर चल रहे थे॥ ४८-५५ ॥

प्रचण्डचित्रकर्माणः कुण्डलोष्णीषभूषणाः । 
नानाविधोत्तरासङ्गा नानामाल्यविभूषणाः ॥ ५६

नानासुगन्धिगन्धाढ्या नानाबन्दिजनस्तुताः ।
नानावाद्यपरिस्पन्दाश्चाग्रेसरमहारथाः ॥५७

नानाशौर्य कथासक्तास्तस्मिन् सैन्ये महासुराः ।
तबलं दैत्यसिंहस्य भीमरूपं व्यजायत ॥ ५८

प्रमत्तचण्डमातङ्गतुरङ्ग रथसङ्कुलम् ।
प्रतस्थेऽमरयुद्धाय बहुपत्तिपताकिनम् ॥ ५९ 

एतस्मिन्नन्तरे वायुर्देवदूतोऽम्बरालये।
दृष्ट्वा स दानवबलं जगामेन्द्रस्य शंसितुम् ॥ ६०

स गत्वा तु सभां दिव्यां महेन्द्रस्य महात्मनः ।
शशंस मध्ये देवानां तत्कार्यं समुपस्थितम् ॥ ६१

तच्छ्रुत्वा देवराजस्तु निमीलितविलोचनः ।
बृहस्पतिमुवाचेदं वाक्यं काले महाभुजः ॥ ६२ 

वे सभी दैत्य अद्भुत पराक्रमपूर्ण कर्म करनेवाले, कुण्डल और पगड़ीसे विभूषित, अनेक प्रकारके दुपट्टोंसे सुशोभित, नाना प्रकारकी मालाओंसे सुसज्जित और अनेकविध सुगन्धित पदार्थोंसे सुवासित थे। उनके आगे-आगे चंदीगण स्तुति गान कर रहे थे। उनके साथ अनेकों प्रकारके युद्धके बाजे बज रहे थे। और वे सभी अग्रेसर महारथी अनेकविध शृङ्गारसे सुसज्जित थे। उस सेनामें प्रधान-प्रधान असुर पराक्रमपूर्ण कथाओंके कहने-सुननेमें आसक्त थे। दैत्यसिंह तारकासुरकी वह सेना मतवाले एवं पराक्रमी हाथियों, घोड़ों और रथोंसे व्याप्त होनेके कारण अत्यन्त भयंकर दीख रही थी। उसमें ध्वजाएँ फहरा रही थी और बहुत-से पैदल सैनिक भी थे। इस प्रकार वह सेना देवताओंसे टक्कर लेनेके लिये प्रस्थित हुई। इसी अवसरपर देवदूत वायु दानवोंकी उस सेनाको प्रस्थित होते हुए देखकर इन्द्रको सूचित करनेके लिये स्वर्गलोकमें जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने महात्मा महेन्द्रकी दिव्य सभामें जाकर देवताओंके बीच उस उपस्थित हुए कार्यको सूचना दी। उसे सुनकर उस समय महाबाहु देवराज इन्द्रने पहले तो अपनी आँखें बंद कर लीं, फिर वे बृहस्पतिसे इस प्रकार वोले ॥ ५६-६२ ॥ 

इन्द्र उवाच

सम्प्राप्नोति विमर्दोऽयं देवानां दानवैः सह।
कार्य किमत्र तद् ब्रूहि नीत्युपायसमन्वितम् ॥ ६३

एतच्छ्रुत्वा तु वचनं महेन्द्रस्य गिरांपतिः। 
इत्युवाच महाभागो बृहस्पतिरुदारधीः ।। ६४

सामपूर्वा स्मृता नीतिश्चतुरङ्गां पताकिनीम् । 
जिगीषतां सुरश्रेष्ठ स्थितिरेषा सनातनी ॥ ६५

साम भेदस्तथा दानं दण्डश्चाङ्गचतुष्टयम्। 
नीतौ क्रमाद्देशकालरिपुयोग्यक्रमादिदम् ॥ ६६

साम दैत्येषु नैवास्ति यतस्ते लब्धसंश्रयाः । 
जातिधर्मेण वाभेद्या दानं प्राप्तश्रिये च किम् ॥ ६७

एकोऽभ्युपायो दण्डोऽत्र भवतां यदि रोचते।
दुर्जनेषु कृतं साम महद्याति च बन्ध्यताम् ॥ ६८ 

भयादिति व्यवस्यन्ति क्रूराः साम महात्मनाम् ।
ऋजुतामार्यबुद्धित्वं दयानीतिव्यतिक्रमम् ॥ ६९

मन्यन्ते दुर्जना नित्यं साम चापि भयोदयात्।
तस्माद् दुर्जनमाक्रान्तुं श्रेयान् पौरुषसंश्रयः ॥७० 

आक्रान्ते तु क्रिया युक्ता सतामेतन्महाव्रतम् ।
दुर्जनः सुजनत्वाय कल्पते न कदाचन ॥ ७१

सुजनोऽपि स्वभावस्य त्यागं वा चेत्कदाचन। 
एवं मे बुध्यते बुद्धिर्भवन्तोऽत्राध्यवस्यताम् ॥ ७२

एवमुक्तः सहस्त्राक्ष एवमेवेत्युवाच तम् ।
कर्तव्यतां स संचिन्त्य प्रोवाचामरसंसदि ॥ ७३

इन्द्रने कहा- गुरुदेव ! देवताओंका दानवोंके साथ यह अत्यन्त भयंकर संघर्ष आ पहुँचा है। अब इस विषयमें क्या करना चाहिये, उपायसहित वह नीति बतलाइये। इन्द्रके इस वचनको सुनकर वाणीके अधीश्वर उदार बुद्धिवाले महान् भाग्यशाली बृहस्पति इस प्रकार बोले- सुरश्रेष्ठ! (इस प्रकारकी) चतुरंगिणी सेनापर विजय पानेकी इच्छा रखनेवालोंके लिये सामपूर्वक नीति बतलायी गयी है- यही सनातनी स्थिति है। नीलिके साम, भेद, दान और दण्ड- ये चार अङ्ग हैं। राजनीतिके प्रयोगमें क्रमशः देश, काल और शत्रुकी योग्यता आदिका क्रम देखना चाहिये। इनमें दैत्योंपर सामनीतिका प्रयोग तो हो नहीं सकता; क्योंकि उन्हें आश्रय प्राप्त हो चुका है (वे मदमत्त हैं), जातिधर्मके अनुसार भेदनीतिका प्रयोग करके उनमें फूट भी नहीं डाला जा सकता तथा जिन्हें लक्ष्मी प्राप्त है, उन्हें दान देनेसे भी क्या लाभहोगा? अतः इनपर एकमात्र दण्डका ही उपाय उपयुक्त प्रतीत हो रहा है। 

यदि आपको मेरी बात रुचती हो तो इसीका अवलम्बन कीजिये; क्योंकि दुर्जनोंके साथ की गयी सामनीति एकदम निरर्थक होती है। क्रूर लोग महात्माओंद्वारा प्रयुक्त की गयी सामनीतिको भयवश की हुई मानते हैं, अतः उनके साथ की गयी सरलता, उदारबुद्धिका प्रयोग और दयानीतिका विपरीत परिणाम होता है। दुर्जनलोग सामनीतिको भी सदा भयभीत होनेके कारण प्रयुक्त की हुई मानते हैं। इसलिये दुर्जनोंपर आक्रमण करनेके लिये पुरुषार्थका ही आश्रय लेना श्रेयस्कर है। दुर्जनकि आक्रान्त हो जानेपर ही उनपर प्रयुक्त की हुई क्रिया फलवती होती है। यह सत्पुरुयोंका महान् व्रत है। सुजन कभी (कुसङ्गवश) अपने उत्तम स्वभावका त्याग करनेकी इच्छा कर सकता है, परंतु दुर्जन कभी भी सुजन नहीं हो सकता। मेरी बुद्धिमें तो ऐसा ही आ रहा है, अब आपलोग इस विषयमें जैसा विचार करें। इस प्रकार कहे जानेपर इन्द्रने बृहस्पतिसे कहा- 'ऐसा ही होगा। फिर वे अपने कर्तव्यके विषयमें भलीभाँति सोच-विचार कर उस देवसभामें बोले ॥ ६३-७३॥

इन्द्र उवाच

सावधानेन मे वाचं शृणुध्वं नाकवासिनः । 
भवन्तो यज्ञभोक्तारस्तुष्टात्मानोऽतिसात्विकाः ॥ ७४

स्वे महिम्नि स्थिता नित्यं जगतः परिपालकाः । 
भवतश्चानिमित्तेन बाधन्ते दानवेश्वराः ।। ७५

तेषां सामादि नैवास्ति दण्ड एव विधीयताम् । 
क्रियतां समरोद्योगः सैन्यं संयुज्यतां मम ॥ ७६

आधीयन्तां च शस्त्राणि पूज्यन्तामस्वदेवताः । 
वाहनानि च यानानि योजयन्तु सहामराः ।। ७७

यर्म सेनापतिं कृत्वा शीघ्रमेवं दिवौकसः । 
इत्युक्ताः समनहान्त देवानां ये प्रधानतः ॥ ७८

वाजिनामयुतेनाजौ हेमघण्टापरिष्कृतम्। 
नानाश्चर्यगुणोपेतं सम्प्राप्तं सर्वदैवतैः ॥ ७९

रथं मातलिना क्लृप्तं देवराजस्य दुर्जयम्। 
यमो महिषमास्थाय सेनाग्रे समवर्तत ॥ ८०

चण्डकिङ्करवृन्देन सर्वतः परिवारितः ।
कल्पकालोद्धतज्वालापूरिताम्बरलोचनः ॥८९

हुताशनश्छागरूढः शक्तिहस्तो व्यवस्थितः । 
पवनोऽङ्कुशपाणिस्तु विस्तारितमहाजवः ॥ ८२

भुजगेन्द्र समारूढो जलेशो भगवान् स्वयम्। 
नरयुक्तरथे देवो राक्षसेशो वियच्चरः ॥ ८३

तीक्ष्णखड्गयुतो भीमः समरे समवस्थितः । 
महासिंहरवो देवो धनाध्यक्षो गदायुधः ॥ ८४

इन्द्रने कहा- स्वर्गवासियो ! आपलोग सावधानीपूर्वक मेरी बात सुनें। आपलोग यज्ञके भोक्ता, संतुष्ट आत्मावाले, अत्यन्त सात्त्विक, अपनी महिमामें स्थित और नित्य जगत्‌का पालन करनेवाले हैं, तथापि दानवेश्वरगण अकारण ही आपलोगोंको पीड़ा पहुँचाते रहते हैं। उनपर साम आदि तीन नीतियोंके प्रयोगसे कोई लाभ है नहीं, अतः दण्डनीति का ही विधान करना चाहिये। इसलिये अब आपलोग युद्धकी तैयारी कीजिये और मेरी सेना सुसज्जित की जाय। देवगण। आपलोग संगठित होकर शस्त्रोंको धारण कीजिये, अस्त्र देवताओंकी पूजा कीजिये और सवारियोंको सुसज्जित करके रथोंको जोत दीजिये। इन्द्रद्वारा इस प्रकार कहे जाने पर देवताओंमें जो प्रधान देव थे, वे लोग शीघ्र ही यमराजको सेनापतिके पदपर नियुक्त कर सेनाको संगठित करनेमें जुट गये। 

उस युद्धमें समस्त देवताओंके साथ दस हजार घोड़े सजायै गये, जो नाना प्रकारके आश्चर्ययुक्त गुणोंसे युक्त थे तथा जिनके गलेमें सोनेके घण्टे शोभा पा रहे थे। मातलिने देवराजके दुर्जय रथको सजाकर तैयार किया। यमराज अपने महिषपर सवार होकर सेनाके अग्रभागमें स्थित हुए। उस समय उनके नेत्र महाप्रलयके समय प्रचण्ड ज्वालासे धधकते हुए आकाशकी तरह धधक रहे थे और वे चारों ओरसे प्रचण्ड पराक्रमी किंकरोंसे भिरे हुए थे। अग्निदेव हाथमें शक्ति लिये हुए छागपर आरूढ हो उपस्थित हुए। अपने महान् वेगका विस्तार करनेवाले पवनदेवके हाथमें अङ्कुश शोभा पा रहा था। स्वयं भगवान् वरुण भुजगेन्द्रपर सवार थे। जो राक्षसोंके अधीश्वर, आकाशचारी और भयंकर रूपवाले हैं, जिनके हाथमें तेज तलवार शोभा पा रही थी, गदा जिनका आयुध है, जो सिंहके समान भयंकर रूपसे दहाड़नेवाले हैं, वे धनाध्यक्ष देवाधिदेव कुबेर पालकीपर बैठकर समरमें उपस्थित हुए ॥७४-८४॥

चन्द्रादित्यावश्विनी च चतुरङ्गबलान्विती। 
राजभिः सहितास्तस्थुर्गन्धर्वा हेमभूषणाः ॥ ८५

हेमपीठोत्तरासङ्गाश्चित्रवर्मरथायुधाः।
नाकपृष्ठशिखण्डास्तु वैदूर्यमकरध्वजाः ॥ ८६

जवारक्तोत्तरासङ्गा राक्षसा रक्तमूर्धजाः। 
गृध्रध्वजा महावीर्या निर्मलायोविभूषणाः ।। ८७

मुसलासिगदाहस्ता रथे चोष्णीषदंशिताः ।
महामेघरवा नागा भीमोल्काशनिहेतयः ॥ ८८

यक्षाः कृष्णाम्बरभृतो भीमबाणधनुर्धराः ।
ताम्रोलूकध्वजा रौद्रा हेमरत्नविभूषणाः ॥ ८९

द्वीपिचर्मोत्तरासङ्गं निशाचरबलं बभौ।
गार्धपत्रध्वजप्रायमस्थिभूषणभूषितम् ॥९०

मुसलायुधदुष्प्रेक्ष्यं नानाप्राणिमहारवम्।
किन्नराः श्वेतवसनाः सितपत्रिपताकिनः ॥ ९१

चतुरङ्गिणी सेनाके साथ चन्द्रमा, सूर्य और दोनों अश्विनीकुमार भी सम्मिलित हुए। स्वर्णनिर्मित आभूषणोंसे विभूषित गन्धर्वगण अपने अधिपतियोंके साथ उपस्थित हुए। उनके आसन स्वर्णनिर्मित थे, उनके उपरनोंमें सोने की पच्ची कारी की गयी थी, वे चित्र-विचित्र कवच, रथ और आयुधसे युक्त थे, उनके सिरोंपर स्वर्गीय मयूरपिच्छ शोभा पा रहा था और उनके ध्वजोंपर वैदूर्यमणिकी मकराकृति बनी हुई थी। इधर महान् पराक्रमी राक्षसोंके उपरने जपा-कुसुमके समान लाल रंगके थे। उनके बाल भी लाल थे। उनकी ध्वजाओंपर गीधके आकार बने हुए थे। वे निर्मल लोहेके बने हुए आभूषणोंसे विभूषित थे। उनके हाथमें मूसल, गदा और तलवार शोभा पा रहे थे। वे पगड़ी बाँधे हुए रथपर सवार थे। वे हाथीके समान विशालकाय थे और मेघके समान भयंकर गर्जना कर रहे थे, जो ऐसा लग रहा था मानो भयंकर उल्कापात अथवा वज्रपात हो रहा हो। 

यक्षलोग काला वस्त्र पहने हुए थे और उनके हाथोंमें भयंकर धनुष-बाण शोभा पा रहे थे। वे बड़े भयंकर और स्वर्ण एवं रत्ननिर्मित आभूषणोंसे विभूषित थे। उनकी ध्वजाओंपर ताँबेके उलूक बने हुए थे। निशाचरोंकी सेना गैंडेके चमड़ेका उपरना धारण किये हुए बड़ी शोभा पा रही थी। उनकी ध्वजाओंमें गीधोंक पंख लगे हुए थे। वे हड्‌डीके आभूषणोंसे विभूषित थे। वे आयुधरूपमें मृसल धारण किये हुए थे, जिससे देखनेमें बड़े भयंकर लग रहे थे। उनकी सेनामें बहुत-से प्राणियोंके भयंकर शब्द हो रहे थे। किंनरगण खेत वस्त्र धारण किये हुए थे। उनकी घेत पताकाओंपर बाणके चिह्न बने हुए थे। वे प्रायः मतवाले गजराजोंपर सवार थे और तेज तोमर उनके अरव थे ॥ ८५-९१॥

मत्तेभवाहनप्रायास्तीक्ष्णतोमरहेतयः।
मुक्ताजालपरिष्कारो हंसो रजतनिर्मितः ॥ ९२

केतुर्जलाधिनाथस्य भीमधूमध्वजानलः ।
पद्मरागमहारत्नविटपं धनदस्य तु ॥ ९३

ध्वजं समुच्छ्रितं भाति गन्तुकाममिवाम्बरम्।
वृकेण काष्ठलोहेन यमस्यासीन्महाध्वजः ।। ९४

राक्षसेशस्य केतोर्वै प्रेतस्य मुखमाबभौ।
हिमसिंहध्वजौ देवौ चन्द्रार्कावमितद्युती ।। ९५

कुम्भेन रत्नचित्रेण केतुरश्विनयोरभूत्।
हेममातङ्गरचितं चित्ररत्नपरिष्कृतम् ।। ९६

ध्वजं शतक्रतोरासीत् सितचामरमण्डितम्।
सनागयक्षगन्धर्वमहोरगनिशाचराः ॥ ९७

सेना सा देवराजस्य दुर्जया भुवनत्रये। 
कोटयस्तास्त्रयत्रिशदैवे देवनिकायिनाम् ॥ ९८

हिमाचलाभे सितकर्णचामरे सुवर्णपद्यामलसुन्दरत्रजि ।
कृताभिरागोज्वलकुङ्कुमाङ्कुरे कपोललीलालिकदम्बसंकुले ॥ ९९

स्थितस्तदैरावतनामकुञ्जरे महाबलश्चित्रविभूषणाम्बरः।
विशालवस्त्रांशुवितानभूषितः प्रकीर्णकेयूरभुजाग्रमण्डलः ।
सहस्त्रदृग्वन्दिसहस्रसंस्तुत-स्त्रिविष्टपेऽशोभत पाकशासनः ॥ १००

तुरङ्गमातङ्गबलौघसंकुला सितातपत्रध्वजराजिशालिनी ।
चमूश्च सा दुर्जयपत्रिसंतता विभाति नानायुधयोधदुस्तरा ॥ १०१

जलेश्वर वरुणकी ध्वजापर चाँदीका बना हुआ हंस अङ्कित था, जिसे मुक्तासमूहोंसे सुशोभित किया गया था। वह भयंकर धूमसे घिरे हुए अग्नि-ध्वज जैसा दीख रहा था। कुबेरकी ध्वजापर पद्मरागमणि एवं बहुमूल्य रत्नोंसे वृक्षकी आकृति बनायी गयी थी। यमराजके महान् ध्वजपर काष्ठ और लोहेसे भेड़ियेका चिह्न अङ्कित किया गया था। वह ऊँचा ध्वज ऐसा लग रहा था मानो आकाशको पार कर जाना चाहता है। राक्षसेशके ध्वजपर प्रेतका मुख शोभा पा रहा था। अमित तेजस्वी चन्द्रदेव और सूर्यदेवके ध्वजपर सोनेके सिंह बने हुए थे। अश्विनीकुमारोंके ध्वजॉपर रत्नोंद्वारा कुम्भका आकार बना हुआ था। इन्द्रके ध्वजपर सोनेका हाथी बना हुआ था, जिसे चित्र-विचित्र रत्नोंसे सजाया गया था और वह श्वेत चैवरसे सुशोभित था। नाग, यक्ष, गन्धर्व, महोरग और निशाचरोंसे भरी हुई देवराज इन्द्रकी वह सेना त्रिभुवनमें अजेय थी। इस प्रकार उस देव-सेनामें देवताओंकी संख्या तैंतीस करोड़ थी। 

उस समय स्वर्गलोकमें सहस्रनेत्रधारी महाबली पाकशासन इन्द्र ऐरावत नामक गजराजपर, जो हिमालयके समान विशालकाय था, जिसके श्वेत कान चैवरके समान हिल रहे थे, जिसके गलेमें स्वर्णनिर्मित कमलोंकी निर्मल एवं सुन्दर माला लटक रही थी, जिसके उज्वल मस्तकपर कुङ्कुमसे पत्रभंगीकी रचना की गयी थी तथा जिसके कपोलपर भ्रमरसमूह क्रीड़ा करते हुए मँडरा रहे थे, बैठे हुए शोभा पा रहे थे। वे चित्र-विचित्र आभूषण और वस्त्र पहने हुए थे, चमकीले वस्त्रोंके बने हुए विशाल छत्रसे सुशोभित थे, उनके बाजूबंदकी फैलती हुई प्रभा भुजाके अग्रभागको सुशोभित कर रही थी और हजारों बंदी उनकी स्तुति कर रहे थे। इसी प्रकार जो घोड़ों और हाथियोंके सैन्यसमूहसे व्याप्त, श्वेत छत्र और ध्वजसमूहोंसे सुशोभित, अजेय पैदल सैनिकोंसे भरी हुई तथा नाना प्रकारके आयुध धारण करने वाले योद्धाओंसे युक्त होनेके कारण दुस्तर वह देवसेना भी अत्यन्त शोभा पा रही थी ॥ ९२-१०१ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे तारकोपाख्याने रणयोजनो नामाष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४८ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके तारकोपाख्यानमें रणयोजन नामक एक सी अड़तालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १४८ ॥ 

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