तारकके आदेश से देवताओंक की बन्धन-मुक्ति, देवताओं का ब्रह्मा के पास जाना ओर अपनी विपत्तिगाथा सुनाना | taarakake aadesh se devataonk kee bandhan-mukti, devataon ka brahma ke paas jaana or apanee vipattigaatha sunaana

मत्स्य पुराण एक सौ चौवनवों अध्याय

तारकके आदेश से देवताओंक की बन्धन-मुक्ति, देवताओं का ब्रह्मा के पास जाना ओर अपनी विपत्तिगाथा सुनाना, ब्रह्माद्वारा तारक-वधके उपायका वर्णन, रात्रिदेवीका प्रसङ्क, उनका पार्वतीरूपमे जन्म, काम-दहन ओर रतिकी प्रार्थना, पार्वतीक्रो तपस्या, शिव पार्वती-विवाह तथा पार्वती का वीरकको पुत्रूपमें स्वीकार करना

सूत उवाच

प्रादुरासीत्‌ प्रतीहारः शुभ्रनीलाम्बुजाम्बरः।
स जानुभ्यां महीं गत्वा पिहितास्यः स्वपाणिना ॥ १

सूतजी कहते हँ--ऋषियो ! तदनन्तर स्वच्छ नीले कमल-सा वस्र धारण किये द्वारपाल तारकके सम्मुख  उपस्थित हुआ। वह अपने हाथसे मुखको ठके हुए था। १

उवाचानाविलं वाक्यमल्पाक्षरपरिस्फुटम्‌।
देत्येन्द्रम्कवृन्दानां विभ्रतं भास्वरं वपुः॥ २

कालनेमिः सुरान्‌ बद्धांश्चादाय द्वारि तिष्ठति।
स विज्ञापयति स्थेयं क्व बन्दिभिरिति प्रभो॥ ३

तन्निशम्याब्रवीद् दैत्यः प्रतीहारस्य भाषितम्। 
यथेष्टं स्थीयतामेभिर्गुहं मे भुवनत्रयम् ॥ ४

केवलं पाशबन्धेन विमुक्तैरविलम्बितम् ।
एवं कृते ततो देवा दूयमानेन चेतसा ॥ ५

जग्मुर्जगदुरुं द्रष्टुं शरणं कमलोद्भवम्।
निवेदितास्ते शक्राद्याः शिरोभिर्धरणिं गताः। 
तुष्टुवुः स्पष्टवर्णार्थैर्वचोभिः कमलासनम् ॥६

उसने घुटनोंके बल पृथ्वीपर माथा टेककर सूर्यसमूहोकेसे उदीप्त शरीर धारण करनेवाले दैत्येश्वर तारकसे स्वल्प कितु स्पष्ट शब्दोमे निवेदन किया--'प्रभो। कालनेमि देवताओंको वंदी बनाकर साथ लिये हए द्वारपर खडा है। वह प रहा है कि इन बंदियोंको कहँ रखा जाय। द्वारपालके उस कथनको सुनकर दैत्यराजने कहा-'अरे ! ये स्वेच्छानुसार कहीं भी स्थित रहें, इन्हें शीघ्र ही केवल बन्धन-मुक्त कर दिया जायः क्योंकि अब तो तीनों भुवन मेरा गृह है अर्थात् पूरे विश्वपर मेरा ही अधिकार है।' इस प्रकार बन्धन मुक्त होनेके पश्चात् देवगण दुःखी चित्तसे जगद्‌गुरु कमलजन्मा ब्रह्माका दर्शन करनेके लिये उनकी शरणमें गये। वहाँ पहुँचकर उन इन्द्र आदि देवताओंने पृथ्वीपर सिर टेककर ब्रह्माको प्रणाम किया और उनसे अपनी करुण कहानी कह सुनायी। तत्पश्चात् वे स्पष्ट अक्षरों एवं अर्थोंसे युक्त वचनोंद्वारा ब्रह्माकी स्तुति करने लगे ॥ २-६॥

देवा ऊचुः

त्वमोंकारोऽस्यङ्कराय प्रसूतो विश्वस्यात्मानन्तभेदस्य पूर्वम् ।
सम्भूतस्यानन्तरं सत्त्वमूर्ते संहारेच्छोस्ते नमो रुद्रमूर्ते ॥ ७

व्यक्तिं नीत्वा त्वं वपुः स्वं महिम्ना तस्मादण्डात् स्वाभिधानादचिन्त्यः ।
द्यावापृव्योरूर्ध्वखण्डावराभ्यां ह्यण्डादस्मात् त्वं विभागं करोषि ॥ ८

व्यक्तं मेरी यज्जनायुस्तवाभू- देवं विद्मस्त्वत्प्रणीतश्चकास्ति ।
व्यक्तं देवाजन्मनः शाश्वतस्य द्यौस्ते मूर्धा लोचने चन्द्रसूर्यौ ॥ ९

व्यालाः केशाः श्रोत्ररन्ध्रा दिशस्ते पादौ भूमिर्नाभिरन्धे समुद्राः । 
मायाकारः कारणं त्वं प्रसिद्धो वेदैः शान्तो ज्योतिषा त्वं हि युक्तः ॥ १०

देवगण बोले- सत्त्वमूर्ते! आप ओंकारस्वरूप हैं। आप विश्वकी रचनाके लिये प्रकट सर्वप्रथम अङ्कर हैं और इस अनन्त भेदोंवाले विश्वके आत्मा अर्थात् मूलस्वरूप हैं। रुद्रमूर्ते! अन्तमें इस उत्पन्न हुए विश्वका संहार भी आप ही करते हैं, आपको नमस्कार है। आपका स्वरूप अचिन्त्य है। आप अपनी महिमासे अपने शरीरको अपने ही नामसे युक्त अण्ड अर्थात् ब्रह्माण्डके रूपमें प्रकटकर उसी ब्रह्माण्डसे ऊपर एवं नीचेके दो खण्डोंद्वारा आकाश और पृथ्वीका विभाजन करते हैं। हमलोग स्पष्टरूपसे ऐसा जानते हैं कि मेरुपर्वतपर आपने जो देवादि प्राणियोंकी आयु सीमा निर्धारित की थी, वही कर्तव्यता आदि आपद्वारा निर्मित विधान अब भी प्रचलित है। देव! यह स्पष्ट है कि आप अजन्मा और अविनाशी हैं। आकाश आपका मस्तक, चन्द्रमा एवं सूर्य आपके नेत्र, सर्प केश, दिशाएँ कानोंके छिद्र, पृथ्वी दोनों चरण और समुद्र नाभिछिद्र हैं। आप मायाके रचयिता तथा जगत्के कारणरूपसे प्रसिद्ध हैं। वेदोंका कहना है कि आप परमज्योतिसे युक्त एवं शान्तस्वरूप हैं॥७-१०॥

वेदार्थेषु त्वां विवृण्वन्ति बुध्वा हृत्प‌द्मान्तः संनिविष्टं पुराणम्।
त्वामात्मानं लब्धयोगा गृणन्ति सांख्यैर्यास्ताः सप्त सूक्ष्माः प्रणीताः ॥ ११

तासां हेतुर्याष्टमी चापि गीता तस्यां तस्यां गीयसे वै त्वमन्तम् ।
दृष्ट्वा मूर्ति स्थूलसूक्ष्मां चकार देवैर्भावाः कारणैः कैश्चिदुक्ताः ॥ १२

सम्भूतास्ते त्वत्त एवादिसर्गे भूयस्तां तां वासनां तेऽभ्युपेयुः ।
त्वत्संकल्पेनानन्तमायाविमूढः कालोऽमेयो ध्वस्तसंख्याविकल्पः ॥ १३

भावाभावव्यक्तिसंहारहेतु- स्त्वं सोऽनन्तस्तस्य कर्तासि चात्मन् ।
येऽन्ये सूक्ष्माः सन्ति तेभ्योऽभिगीतः स्थूला भावाश्चावृतारश्च तेषाम् ॥ १४

तेभ्यः स्थूलैस्तैः पुराणैः प्रतीतो भूतं भव्यं चैवमुद्भूतिभाजाम् ।
भावे भावे भावितं त्वा युनक्ति युक्तं युक्तं व्यक्तिभावान्निरस्य ।
इत्थं देवो भक्तिभाजां शरण्य-स्त्राता गोप्ता नो भवानन्तमूर्तिः ॥ १५

विद्वान्लोग आपको वेदार्थोंमें खोजते हैं और आपको जानकर अपने हृदयकमलके भीतरी भागमें स्थित पुराणपुरुष बतलाते हैं। योगके ज्ञाता आपको आत्मस्वरूप कहते हैं तथा सांख्यज्ञोंद्वारा जो सात सूक्ष्म मूर्तियाँ निर्मित की गयी हैं तथा उनकी हेतुभूता जो आठवीं कही गयी है, उन सभीके अन्तमें आपकी ही स्थिति मानी गयी है। यह देखकर आपने ही स्थूल एवं सूक्ष्म मूर्तियोंका आविष्कार किया था। किन्हीं अज्ञात कारणवश देवताओंने उन भावोंका वर्णन किया था। वे सभी आदिसृष्टिके समय आपसे ही प्रकट हुए थे और आपके संकल्पके अनुसार उन्हें पुनः वैसी-वैसी वासना प्राप्त हुई थी। आप अनन्त मायाओंद्वारा निगूढ़, अप्रमेय कालस्वरूप एवं कल्पित संख्यासे अतीत हैं। आप भाव और अभावकी उत्पत्ति और संहारके कारण हैं। आत्मस्वरूप भगवन्! आप अनन्त विश्व-ब्रह्माण्डके कर्ता हैं। अन्यान्य जितने सूक्ष्म, स्थूल तथा उनको भी ढकनेवाले अर्थात् उनसे उत्कृष्ट भाव हैं, उनके द्वारा भी आपका गुणगान किया गया है। उनसे बढ़कर जो स्थूल एवं प्राचीन हैं, उनके द्वारा भी आप जाने गये हैं। आप उन्नतिशीलोंके भूत एवं भविष्य-रूप हैं। आप प्रत्येक भावमें अनुप्रविष्ट होकर व्यक्त होते हैं और व्यक्तिभावका निरसन कर उसमें अवस्थित रहते हैं। इस प्रकार अनन्त मूर्ति धारण करनेवाले देवाधिदेव! आप हम भक्तजनोंक लिये शरणदाता, रक्षक और सहायक होइये ॥११- १५ ॥ 

विरिञ्चिममराः स्तुत्वा ब्रह्माणमविकारिणम्। 
तस्थुर्मनोभिरिष्टार्थसम्प्राप्तिप्रार्थनास्ततः ॥ १६

एवं स्तुतो विरिञ्चिस्तु प्रसादं परमं गतः । 
अमरान् वरदेनाह वामहस्तेन निर्दिशन् ॥ १७

इस प्रकार देवगण अविकारी ब्रह्माकी स्तुति करके मनमें अभीष्ट प्रयोजनकी सिद्धिके लिये प्रार्थना करते हुए खड़े रहे। देवताओंद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर ब्रह्मा परम प्रसन्न हुए और अपने वरदायक बायें हाथसे देवताओंको निर्देश करते हुए बोले ॥१६-१७ ॥

ब्रह्मोवाच

नारीवाभर्तृका कस्मात् तनुस्ते त्यक्तभूषणा।
न राजते तथा शक्र म्लानवक्त्रशिरोरुहा ॥ १८

हुताशन विमुक्तोऽपि न धूमेन विराजसे।
भस्मनेव प्रतिच्छन्नो दग्धदावश्चिरोषितः ॥ १९

यमामयमये नैव शरीरे त्वं विराजसे।
दण्डस्यालम्बनेनेव ह्यकृच्छ्रस्तु पदे पदे ॥ २०

रजनीचरनाथोऽपि किं भीत इव भाषसे ।
राक्षसेन्द्र क्षताराते त्वमरातिक्षतो यथा ॥ २१

तनुस्ते वरुणोच्छुष्का परीतस्येव वह्निना। 
विमुक्तरुधिरं पाशं फणिभिः प्रविलोकयन् ॥ २२

वायो भवान् विचेतस्कस्त्वं स्निग्धैरिव निर्जितः ।
किं त्वं बिभेषि धनद संन्यस्यैव कुबेरताम् ॥ २३

रुद्रास्त्रिशूलिनः सन्तो वदध्वं बहुशूलताम्। 
भवन्तः केन तत्क्षिप्तं तेजस्तु भवतामपि ॥ २४

अकिञ्चित्करतां यातः करस्ते न विभासते ।
अलं नीलोत्पलाभेन चक्रेण मधुसूदन ॥ २५

किं त्वयानुदरालीनभुवनप्रविलोकनम्।
क्रियते स्तिमिताक्षेण भवता विश्वतोमुख ॥ २६

ब्रह्माजीने कहा-इन्द्र ! भूषणोंसे रहित तथा मलिन मुख एवं बालोंसे युक्त तुम्हारा शरीर पतिविहीना त्रीकी तरह शोभा नहीं पा रहा है। हुताशन । धूमसे रहित होनेपर भी तुम्हारी शोभा नहीं हो रही है। ऐसा प्रतीत होता है मानो तुम चिरकालसे जलकर शान्त हो गये हो और राखसे ढक गये हो। यमराज! इस रोगी शरीरमें तुम्हारी शोभा नहीं हो रही है। ऐसा ज्ञात होता है, मानो तुम पग-पगपर कठिनाईका अनुभव करते हुए कालदण्डके सहारे चल रहे हो। राक्षसेन्द्र निर्ऋति! तुम राक्षसोंके स्वामी होकर भी भयभीतकी तरह क्यों बोल रहे हो? अरे शत्रुसंहारक! तुम तो शत्रुओंद्वारा घायल किये हुए-से दीख रहे हो। वरुण! तुम्हारा शरीर अग्निसे घिरे हुएकी तरह अत्यन्त शुष्क दीख रहा है। ऐसा लग रहा है मानो सर्पोंने तुम्हारे पाशमेंसे खून उगल दिया है। वायुदेव ! तुम स्नेहीजनोंद्वारा पराजित हुएकी तरह अचेत से दीख रहे हो। कुबेर । तुम अपने यक्षाधिपत्यको त्यागकर क्यों भयभीत हो रहे हो? रुद्रगण! तुमलोग तो त्रिशूलधारी थे, बताओ तो सही, तुम्हारे त्रिशूलकी विशिष्ट क्षमता कहाँ चली गयी ? तुमलोगोंके भी उस तेजको किसने नष्ट कर दिया ? मधुसूदन ! आपका हाथ कर्तव्यहीन हो गया है, जिससे इसकी शोभा नहीं हो रही है। इस नीले कमलकी-सी कान्तिवाले चक्रके धारण करनेसे क्या लाभ ? विश्वतोमुख ! इस समय आप नेत्र बंद करके अपने उदरमें विलीन हुए भुवनोंका अवलोकन क्यों कर रहे हैं? ॥ १८-२६ ॥

एवमुक्ताः सुरास्तेन ब्रह्मणा ब्रह्ममूर्तिना । 
वाचां प्रधानभूतत्वान्मारुतं तमचोदयन् ।। २७

अथ विष्णुमुखैर्देवैः श्वसनः प्रतिबोधितः । 
चतुर्मुखं तदा प्राह चराचरगुरुं विभुम् ॥ २८

उन वेदमूर्ति ब्रह्माद्वारा इस प्रकार पूछे जानेपर देवताओंने वाणी-शक्तिके मुख्य कारण वायुको प्रेरित किया। उस समय विष्णु आदि देवताओंने वायुको भलीभाँति समझा दिया, तब वे ऐश्वर्यशाली एवं चराचर प्राणियोंके गुरु ब्रह्मासे बोले- ॥ २७-२८ ॥

न तु वेत्सि चराचरभूतगतं भवभावमतीव महानुच्छ्रितः प्रभवः ।
पुनरर्थिवचोऽभिविस्तृत- श्रवणोपमकौतुकभावकृतः ॥ २९

त्वमनन्त करोषि जगद्भवतां सचराचरगर्भविभिन्नगुणाम्।
अमरासुरमेतदशेषमपि त्वयि तुल्यमहो जनकोऽसि यतः ।
पितुरस्ति तथापि मनोविकृतिः सगुणो विगुणो बलवानबलः ।। ३०

भवतो वरलाभनिवृत्तभयः कुलिशाङ्गसुतो दितिजोऽतिबलः ।
सचराचर निर्मथने किमिति कितवस्तु कृतो विहितो भवता ॥ ३१

किल देव त्वया स्थितये जगतां महदद्भुतचित्रविचित्रगुणाः ।
अपि तुष्टिकृतः श्रुतकामफला विहिता द्विजनायक देवगणाः ॥ ३२

अपि नाकमभूत् किल यज्ञभुजां भवतो विनियोगवशात् सततम् ।
अपहृत्य विमानगणं स कृतो दितिजेन महामरुभूमिसमः ॥ ३३

'भगवन् ! चराचर प्राणियोंके मनोंमें उत्पन्न हुए भावोंको आप न जानते हों-ऐसी बात नहीं है। आप अत्यन्त महान्, सर्वोपरि और जगत्‌के उत्पत्तिस्थान हैं। यह तो आपने केवल याचकोंके वचनोंको विस्तारपूर्वक सुननेके लिये कुतूहलका भाव प्रकट किया है। अनन्त ! आप चराचर प्राणियोंसे युक्त विभिन्न गुणवाली विश्व सृष्टि करते हैं। यद्यपि ये सम्पूर्ण देवता और असुर आपकी दृष्टिमें एक-से हैं; क्योंकि आप ही सबको उत्पन्न करनेवाले हैं, तथापि पिताके मनमें भी पुत्रोंके सगुण-निर्गुण एवं सबल-निर्बलरूप पक्षको लेकर अन्तर रहता ही है। आपसे वरदान प्राप्त कर निर्भय हुआ वज्राङ्गका पुत्र महाबली धूर्त दैत्य तारक चराचर जगत्‌का नाश करनेके लिये क्या कर रहा है, यह आपको (भलीभाँति) विदित है। देव! क्या आपने जगत्‌की स्थितिके लिये महान् एवं अद्भुत चित्र-विचित्र गुणोंसे युक्त, संतुष्ट करनेवाले एवं वाञ्छित अभिलाषाओंकी पूर्ति करनेवाले देवगणोंकी सृष्टि नहीं की थी? द्विजनायक! क्या आपके आदेशानुसार स्वर्गलोक सदा यज्ञभोजी देवताओंके अधिकारमें नहीं रहता आया है, किंतु उस दैत्यने विमानसमूहोंको छीनकर उसे महान् मरुस्थल-सा बना दिया है॥ २९-३३॥ 

कृतवानसि सर्वगुणातिशयं यमशेषमहीधरराजतया । 
सममिङ्गितभावविधिः स गिरि-गंगनेन सदोच्छ्रयतां हि गतः ॥ ३४

अधिवासविहारविधावुचितो दितिजेन पविक्षतशृङ्गतटः ।
परिलुण्ठितरत्नगुहानिवहो बहुदैत्यसमाश्रयतां गमितः ॥ ३५

सुरराज स तस्य भयेन गतं व्यदधादशरीर इतोऽपि वृथा।
उपयोग्यतया विवृतं सुचिरं विमलद्युतिपूरितदिग्वदनम् ॥ ३६

भवर्तव विनिर्मितमादियुगे सुरहेतिसमूहमकुण्ठमिदम् ।
दितिजस्य शरीरमवाप्य गतं शतधा मतिभेदमिवाल्पमनाः ॥ ३७

जिस हिमालयको समस्त पर्वतोंका राजा होनेके कारण आपने सर्वगुण सम्पन्न बनाया, जो ऊँचाईमें आकाशतक व्याप्त था और संकेतानुसार चलनेवाला था, उसके शिखरके तटप्रान्तको उस दैत्यने वज्रसे तोड़-फोड़कर अपने निवास और विहारके उपयुक्त बना लिया है। उसकी गुफाओंके रन लूट लिये गये और अब वह बहुत-से दैत्योंका निवासस्थान बन गया है। उस दैत्यके भयसे वह शरीरहीन होनेपर भी इससे भी बढ़कर बुरे कामोंमें लगाया जा रहा है। सुरराज ! कृतयुगके आदिमें आपने ही देवताओंके लिये उपयोगी समझकर जिन विशाल, चिरस्थायी, अपनी निर्मल कान्तिसे दिशाओंको उद्भासित करनेवाले एवं अप्रतिहत अस्त्रसमूहोंका निर्माण किया था, वे अस्त्र भी उस दैत्यके शरीरपर गिरकर कायरकी बुद्धि-भिन्नताकी तरह सैकड़ों टुकड़ोंमें टूट-टूट कर चूर हो गये ॥३४-३७ ॥

आसारधूलिध्वस्ताङ्गा द्वारस्थाः स्मः कदर्शिनः । 
लब्धप्रवेशाः कृच्छ्रेण वयं तस्यामरद्विषः ॥ ३८

सभायाममरा देव निकृष्टेऽप्युपवेशिताः । 
वेत्रहस्तैर जल्पन्तस्ततोऽपहसितास्तु तैः ॥ ३९

महार्याः सिद्धसर्वार्था भवन्तः स्वल्पभाषिणः । 
चाटुयुक्तमथो कर्म ह्यमरा बहुभाषत ॥ ४०

सभेयं दैत्यसिंहस्य न शक्रस्य विसंस्थुला। 
वदतेति च दैत्यस्य प्रेष्यैर्विहसिता बहु ॥ ४१

ऋतवो मूर्तिमन्तस्तमुपासन्ते ह्यहर्निशम् । 
कृतापराधसंत्रासं न त्यजन्ति कदाचन ॥ ४२

तन्त्रीत्रयलयोपेतं सिद्धगन्धर्वकिन्नरैः । 
सुरागमुपधा नित्यं गीयते तस्य वेश्मसु ॥ ४३

हन्ताकृतोपकरणैर्मित्रारिगुरुलाघवैः।
शरणागतसंत्यागी त्यक्तसत्यपरिश्रयः ।। ४४

इति निःशेषमथवा निःशेषं वै न शक्यते । 
तस्याविनयमाख्यातुं स्त्रष्टा तत्र परायणम् ॥ ४५ 

इत्युक्तः स्वात्मभूर्देवः सुरैर्दैत्यविचेष्टितम् । 
सुरानुवाच भगवांस्ततः स्मितमुखाम्बुजः ॥ ४६ 

देवेश! (इतना ही नहीं) उस देवद्रोहीके द्वारपर कीचड़ और धूलिसे भरे हुए अङ्गवाले हमलोग तिरस्कार-पूर्वक बैठाये गये थे और बड़ी कठिनाईसे हमलोगोंको उसकी सभामें प्रवेश करनेका अवसर मिला था। उस सभामें भी देवगण निकृष्ट आसनोंपर बैठाये गये थे। वहाँ यद्यपि हमलोग कुछ बोल नहीं रहे थे, तथापि उसके बेंतधारी भृत्योंद्वारा हमलोगोंका उपहास किया जा रहा था। वे कह रहे थे- 'देवगण! आपलोग बड़े सम्मानित एवं सभी प्रयोजनोंको सिद्ध करनेवाले हैं, इसीलिये थोड़ा बोलते हैं न?' उनकी इन व्यङ्गयपूर्ण बातोंका उत्तर भी देवगण अनेक प्रकारकी चाटुताभरी बातोंद्वारा देते थे। 'यह दैत्यसिंह तारककी सभा है, 

इन्द्रकी लड़खड़ानेवाली सभा नहीं है, बोलो, बोलो।' इस प्रकार उस दैत्यके परिचारकोंद्वारा हमलोगोंकी बहुत हँसी उड़ायी गयी है। वहाँ छहों ऋतुएँ शरीर धारणकर रात-दिन उसकी सेवामें लगी हैं। वे कोई अपराध न हो जाय इस भयसे उसे कभी नहीं छोड़ती। सिद्ध, गन्धर्व और किंनर उसके महलोंमें निष्कपटरूपसे नित्य वीणापर तीनों लयोंसमेत सुन्दर राग अलापते रहते हैं। उस दैत्यका मित्र और शत्रुके प्रति भी बड़े-छोटेका विचार नहीं रह गया है। वह शरणमें आये हुएका भी त्याग कर देता है और सत्यका तो उसने व्यवहार ही छोड़ दिया है। यही सब उसकी बुराइयाँ हैं अथवा उसकी उद्दण्डता तो पूर्णरूपसे कही ही नहीं जा सकती। उसे तो ब्रह्मा ही जानें। इस प्रकार देवताओंद्वारा उस दैत्यकी कृतियोंका वर्णन किये जानेपर देवाधिदेव भगवान् ब्रह्माके मुखकमलपर मुसकराहट आ गयी, तब वे देवताओंसे बोले - ॥३८-४६ ॥

ब्रह्मोवाच

अवध्यस्तारको दैत्यः सर्वैरपि सुरासुरैः । 
यस्य वध्यः स नाद्यापि जातस्त्रिभुवने पुमान् ॥ ४७

मया स वरदानेन च्छन्दयित्वा निवारितः । 
तपसः साम्प्रतं राजा त्रैलोक्यदहनात्मकात् ॥ ४८

स च वने वधं दैत्यः शिशुतः सप्तवासरात् । 
स सप्तदिवसो बालः शंकराद् यो भविष्यति ।। ४९

तारकस्य निहन्ता स भास्कराभो भविष्यति । 
साम्प्रतं चाप्यपत्नीकः शंकरो भगवान् प्रभुः ॥५०

यच्चाहमुक्तवान् यस्या ह्युत्तानकरता सदा। 
उत्तानो वरदः पाणिरेष देव्याः सदैव तु ॥ ५१

हिमाचलस्य दुहिता सा तु देवी भविष्यति। 
तस्याः सकाशाद् यः शर्वस्त्वरण्यां पावको यथा ॥ ५२

जनयिष्यति तं प्राप्य तारकोऽभिभविष्यति। 
मयाप्युपायः स कृतो यथैवं हि भविष्यति ॥ ५३

शेषश्चाप्यस्य विभवो विनश्येत् तदनन्तरम् । 
स्तोककालं प्रतीक्षध्वं निविशङ्केन चेतसा ॥ ५४

ब्रह्माजीने कहा- देवगण ! दैत्यराज तारक सभी देवताओं एवं राक्षसोंद्वारा अवध्य है। जो उसका वध कर सकता है, वह पुरुष अभी त्रिभुवनमें उत्पन्न ही नहीं हुआ है। मैंने ही उस दैत्यराजको वरदान देकर त्रिलोकीको भस्म करनेवाले उस तपसे निवारण किया था। उस समय उस दैत्यने सात दिनके बालकद्वारा अपनी मृत्युका वरदान माँगा था। वह सप्तदिवसीय बालक जो शंकरजीसे उत्पन्न होगा, सूर्यके समान तेजस्वी होगा। वही तारकका वध करनेवाला होगा, किंतु इस समय सामर्थ्यशाली भगवान् शंकर पत्नी-रहित हैं। इसके लिये मैंने पहले जिस देवीके विषयमें उत्तानकरताकी बात कही थी, वही देवी हिमाचलकी कन्याके रूपमें प्रकट होगी। उस देवीका वह वरदायक हाथ सदा उत्तान ही रहेगा। उस देवीके सम्पर्कसे शंकरजी अरणीमें अग्निकी तरह जिस पुत्रको उत्पन्न करेंगे, उसे सम्मुख पाकर तारक पराजित हो जायगा। मैंने भी पहलेसे ही वैसा उपाय कर रखा है, जिससे यह सब वैसा ही होगा। तदनन्तर उसका यह सारा वैभव नष्ट हो जायगा। तुमलोग निःशङ्क चित्तसे थोड़े से कालकी और प्रतीक्षा करो ॥ ४७-५४॥

इत्युक्तास्त्रिदशास्तेन साक्षात्कमलजन्मना। 
जग्मुस्तं प्रणिपत्येशं यथायोग्यं दिवौकसः ॥ ५५

ततो गतेषु देवेषु ब्रह्मा लोकपितामहः । 
निशा सस्मार भगवान् स्वतनोः पूर्वसम्भवाम् ॥ ५६

ततो भगवती रात्रिरुपतस्थे पितामहम् । 
तां विविक्ते समालोक्य ब्रह्मोवाच विभावरीम् ॥ ५७

कमलजन्मा साक्षात् ब्रह्माद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर स्वर्गवासी देवगण उन देवेश्वरको प्रणाम करके अपने-अपने स्थानको चले गये। तदनन्तर देवताओंके चले जानेपर लोकपितामह भगवान् ब्रह्माने जिसे पहले अपने शरीरसे उत्पन्न किया था, उस निशाका स्मरण किया। तब भगवती रात्रिदेवी पितामहके निकट उपस्थित हुई। उस विभावरी (रात्रि) को एकान्तमें उपस्थित देखकर ब्रह्मा बोले ॥ ५५-५७॥

ब्रह्मोवाच

विभावरि महत्कार्य विबुधानामुपस्थितम्। 
तत्कर्तव्यं त्वया देवि शृणु कार्यस्य निश्चयम् ॥ ५८

तारको नाम दैत्येन्द्रः सुरकेतुरनिर्जितः । 
तस्याभावाय भगवाञ्जनयिष्यति चेश्वरः ॥ ५९

सुतं स भविता तस्य तारकस्यान्तकारकः ।
शंकरस्याभवत् पत्नी सती दक्षसुता तु या ॥ ६०

सा मृता कुपिता देवी कस्मिंश्चित्कारणान्तरे।
भविता हिमशैलस्य दुहिता लोकभाविनी ॥ ६१

विरहेण हरस्तस्या मत्वा शून्यं जगत्त्रयम्। 
तपस्यन् हिमशैलस्य कन्दरे सिद्धसेविते ॥ ६२

प्रतीक्षमाणस्तज्जन्म कञ्चित् कालं निवत्स्यति। 
तयोः सुतप्ततपसोर्भविता यो महाबलः ॥ ६३

स भविष्यति दैत्यस्य तारकस्य विनाशकः ।
जातमात्रा तु सा देवी स्वल्पसंज्ञा च भामिनी ।। ६४

विरहोत्कण्ठिता गाढं हरसङ्गमलालसा। 
तयोः सुतप्ततपसोः संयोगः स्याच्छुभानने ॥ ६५ 

ततस्ताभ्यां तु जनितः स्वल्पो वाक्कलहो भवेत् । 
ततोऽपि संशयो भूयस्तारकं प्रति दृश्यते ॥ ६६

तयोः संयुक्तयोस्तस्मात् सुरतासक्तिकारणे। 
विघ्नस्त्वया विधातव्यो यथा ताभ्यां तथा शृणु ॥ ६७

ब्रह्माजीने कहा-विभावरि (रात्रिदेवी)!इस समय देवताओंका एक बहुत बड़ा कार्य आ उपस्थित हुआ है। देवि ! उसे तुम्हें अवश्य पूरा करना है। अब उस कार्यका निर्णय सुनो। दैत्यराज तारक देवताओंका कट्टर शत्रु है, वह अजेय है। उसका विनाश करनेके लिये भगवान् शंकर जिस पुत्रको उत्पन्न करेंगे, वही उस तारकका वध करनेवाला होगा। उधर शंकरजीकी पत्नी जो दक्षपुत्री सती थी, वह देवी किसी कारणवश कुपित होकर शरीरको भस्म कर चुकी है। वही लोकसुन्दरी देवी हिमाचलकी कन्याके रूपमें प्रकट होगी। भगवान् शंकर उसके वियोगसे तीनों लोकोंको शून्य समझकर हिमाचलकी सिद्धोंद्वारा सेवित कन्दरामें तपस्या कर रहे हैं। वे उस देवीके जन्मकी प्रतीक्षा करते हुए वहाँ कुछ कालतक निवास करेंगे। उत्कृष्ट तप करनेवाले उन दोनों (शिव-पार्वती) से जो महाबली पुत्र उत्पन्न होगा, वही तारक दैत्यका विनाशक होगा। शुभानने। वह सुन्दरी देवी जन्म लेनेके पश्चात् थोड़ा होश सँभालनेपर जब विरहसे उत्कण्ठित होकर गाढ़ रूपसे शंकरजीके समागमकी लालसासे युक्त हो जायगी तब उन दोनों घोर तपस्वियोंका संयोग होगा। उस समय उन दोनोंमें थोड़ा वाक्-कलह भी हो जायगा जिससे तारकके विनाशके प्रति पुनः संशय दिखायी पड़ने लगेगा, अतः उन दोनोंके संयुक्त होनेपर सुरतकी आसक्तिके अवसरपर तुम्हें जैसा विघ्न उपस्थित करना होगा, उसे भी सुन लो ॥ ५८-६७ ॥

गर्भस्थाने च तन्मातुः स्वेन रूपेण रञ्जय। 
ततो विहाय शर्वस्तां विश्रान्तो नर्मपूर्वकम् ॥ ६८

भर्त्सयिष्यति तां देवीं ततः सा कुपिता सती। 
प्रयास्यति तपश्चर्तुं तत्तस्मात् तपसे पुनः ॥ ६९

जनयिष्यति यः शर्वादमितद्युतिमण्डितम् । 
स भविष्यति हन्ता वै सुरारीणामसंशयम् ॥ ७०

त्वयापि दानवा देवि हन्तव्या लोकदुर्जयाः । 
यावच्च न सती देहसंक्रान्तगुणसञ्चया ॥ ७१

तत्सङ्गमेन तावत् त्वं दैत्यान् हन्तुं न शक्ष्यसे। 
एवं कृते तपस्तप्त्वा सृष्टिसंहारकारिणी। ॥ ७२

समाप्तनियमा देवी यदा चोमा भविष्यति । 
तदा स्वमेव तद्रूपं शैलजा प्रतिपत्स्यते ॥ ७३

तनुस्तवापि सहजा सैकानंशा भविष्यति । 
रूपांशेन तु संयुक्ता त्वमुमायां भविष्यसि ॥ ७४ 

एकानंशेति लोकस्त्वां वरदे पूजयिष्यति। 
भेदैर्बहुविधाकारैः सर्वगा कामसाधिनी ॥ ७५ 

उस समय तुम उसकी माताके गर्भस्थानमें प्रवेश करके उसपर अपने रूपकी छाप डाल दो। तब शंकरजी उसे छोड़कर विश्राम करने लगेंगे और परिहासमें उस देवीकी भर्त्सना करेंगे जिससे कुपित होकर वह पुनः तपस्या करनेके लिये चली जायगी। पुनः उस तपस्यासे लौटनेपर वह शंकरजीके सम्पर्कसे जिस उत्कृष्ट कान्तिसे सुशोभित पुत्रको उत्पन्न करेगी, वह निःसंदेह देव-शत्रुओंका संहारक होगा। देवि ! तुम्हें भी इन लोकदुर्जय दानवोंका संहार करना चाहिये, किंतु जबतक तुम सतीके समागमसे उसके शरीरसे संक्रमित हुए गुणसमूहोंसे युक्त नहीं हो जाओगी, तबतक दैत्योंका संहार करनेमें समर्थ नहीं हो सकोगी। ऐसा करनेपर जब सृष्टिका संहार करनेवाली वह देवी तपस्या करनेके पश्चात् नियमोंको समाप्त कर उमारूपसे प्रकट होगी, तब पार्वती अपने उसी रूपको प्राप्त करेंगी। साथ ही तुम्हारा जो यह प्राकृतिक शरीर है, वह भी एकानंशा नामसे प्रसिद्ध होगा और तुम उमाके रूपके अंशसे युक्त होकर उमासे प्रकट होओगी। वरदायिनि ! संसार 'एकानंशा' नामसे तुम्हारी पूजा करेगा। तुम अनेकों प्रकारके भेदोंद्वारा सर्वगामिनी एवं कामनाओंको सिद्ध करनेवाली होओगी ॥ ६८-७५ ॥

ओंकारवक्त्रा गायत्री त्वमिति ब्रह्मवादिभिः । 
आक्रान्तिरूर्जिताकारा राजभिश्च महाभुजैः ॥ ७६

त्वं भूरिति विशां माता शूद्रैः शैवीति पूजिता। 
क्षान्तिर्मुनीनामक्षोभ्या दया नियमिनामिति ॥ ७७

त्वं महोपायसंदोहा नीतिर्नयविसर्पणाम्। 
परिच्छित्तिस्त्वमर्थानां त्वमीहा प्राणिहृच्छया ।। ७८

त्वं मुक्तिः सर्वभूतानां त्वं गतिः सर्वदेहिनाम् । 
त्वं च कीर्तिमतां कीर्तिस्त्वं मूर्तिः सर्वदेहिनाम् ॥ ७९ 

रतिस्त्वं रक्तचित्तानां प्रीतिस्त्वं हृष्टदर्शिनाम्। 
त्वं कान्तिः कृतभूषाणां त्वं शान्तिर्दुः खकर्मणाम् ॥ ८०

त्वं भ्रान्तिः सर्वभूतानां त्वं गतिः क्रतुयाजिनाम्। 
जलधीनां महावेला त्वं च लीला विलासिनाम् ॥ ८१

सम्भूतिस्त्वं पदार्थानां स्थितिस्त्वं लोकपालिनी। 
त्वं कालरात्रिर्निः शेषभुवनावलिनाशिनी ॥ ८२

प्रियकण्ठग्रहानन्ददायिनी त्वं विभावरी। 
इत्यनेकविधैर्देवि रूपैर्लोके त्वमर्चिता ॥ ८३

ये त्वां स्तोष्यन्ति वरदे पूजयिष्यन्ति वापि ये। 
ते सर्वकामानाप्स्यन्ति नियता नात्र संशयः ॥ ८४ 

इसी प्रकार ब्रह्मवादी विप्रगण तुम्हें ओंकाररूप मुखवाली गायत्री और महाबाहु नृपतिवृन्द उन्नतिशीला शक्ति कहेंगे। तुम पृथ्वीरूपसे वैश्योंकी माता कहलाओगी और शूद्र 'शैवी' कहकर तुम्हारी पूजा करेंगे। तुम मुनियोंकी क्षुब्ध न की जा सकनेवाली क्षमा, नियमधारियोंकी दया, नीतिज्ञोंकी महान् उपायोंसे परिपूर्ण नीति, अर्थ साधनाकी सीमा, समस्त प्राणियोंके हृदयमें निवास करनेवाली इच्छा, समस्त प्राणियोंकी मुक्ति, सम्पूर्ण देहधारियोंकी गति, कीर्तिमान् जनोंकी कीर्ति, अखिल देहधारियोंकी मूर्ति, अनुरागीजनोंकी रति, हर्षसे परिपूर्ण लोगोंकी प्रीति (प्रसन्नता), शृङ्गारसे सुसज्जित प्राणियोंकी कान्ति (शोभा), दुःखीजनोंके लिये शान्तिरूपा, निखिल प्राणियोंकी भ्रान्ति, यज्ञानुष्ठान करनेवालोंकी गति, समुद्रोंकी विशाल वेला (तट), विलासियोंकी लीला, पदार्थोकी सम्भूति (उत्पत्तिस्थान), लोकोंका पालन करनेवाली स्थिति, सम्पू सम्पूर्ण भुवनसमूहोंको नाश करनेवाली कालरात्रि तथा प्रियतमके गलेसे लगनेपर उत्पन्न हुए आनन्दको देनेवाली रात्रिके रूपमें सम्मानित होओगी। देवि! इस प्रकार तुम संसारमें अनेक प्रकारके रूपोंद्वारा पूजित होओगी। वरदे। जो लोग नियमपूर्वक तुम्हारा स्तवन-पूजन करेंगे, वे सभी मनोरथोंको प्राप्त कर लेंगे, इसमें तनिक भी संशय नहीं है॥ ७६-८४॥

इत्युक्ता तु निशा देवी तथेत्युक्त्वा कृताञ्जलिः । 
जगाम त्वरिता तूर्णं गृहं हिमगिरेः परम् ॥ ८५

तत्रासीनां महाहम्यें रत्नभित्तिसमाश्रयाम्। 
ददर्श मेनामापाण्डुच्छविवक्त्रसरोरुहाम् ॥ ८६

किंचिच्छ्याममुखोदग्रस्तनभारावनामिताम् । 
महौषधिगणाबद्धमन्त्रराजनिषेविताम् ॥ ८७

उद्वहन् कनकोन्नद्धजीवरक्षामहोरगाम् ।
मणिदीपगणज्योतिर्महालोकप्रकाशिते ॥ ८८

प्रकीर्णबहुसिद्धार्थे मनोजपरिवारके ।
शुचि न्यंशुकसंछन्नभूशय्यास्तरणोज्ज्वले ॥ ८९

धूपामोदमनोरम्ये सर्जगन्धोपयोगिके।
ततः क्रमेण दिवसे गते दूरं विभावरी ॥ ९०

व्यजृम्भत सुखोदर्के ततो मेनामहागृहे।
प्रसुप्तप्रायपुरुषे निद्राभूतोपचारिके ॥ ९१

स्फुटालोके शशभृति भ्रान्तिरात्रिविहङ्गमे। 
रजनीचरभूतानां सधैरावृतचत्वरे ॥ ९२

गाढकण्ठग्रहालग्नसुभगेष्टजने ततः ।
किंचिदाकुलताप्राप्ते मेनानेत्राम्बुजद्वये ॥ ९३

आविवेश मुखे रात्रिः सुचिरस्फुटसंगमा । 
जन्मदाया जगन्मातुः क्रमेण जठरान्तरे ॥ ९४

आविवेशान्तरं जन्म मन्यमाना क्षपा तु वै। 
अरञ्जयच्छविं देव्या गुहारण्ये विभावरी ॥ ९५ 

ब्रह्माद्वारा इस प्रकार आदेश दिये जानेपर विभावरी (रात्रि) देवी हाथ जोड़कर 'अच्छा, ऐसा ही करूँगी' यों कहकर तुरंत ही बड़े वेगसे हिमाचलके उस सुन्दर भवनकी ओर प्रस्थित हुई। वहाँ पहुँचकर उसने एक विशाल अट्टालिकापर रत्ननिर्मित दीवालके सहारे बैठी हुई मेनाको देखा। उस समय उनके मुखकमलकी कान्ति कुछ पीली पड़ गयी थी। वे कुछ काले रंगवाले चूचुकोंसे युक्त स्तनके भारसे झुकी हुई थीं। उनके गलेमें जीव-रक्षाके निमित्त एक स्वर्णनिर्मित विशाल सर्पके-से आकारवाली माला लटक रही थी, जिसमें महौषधियोंके समूह और अभिमन्त्रित मन्त्रराज बँधे हुए थे। उनका वह महल मणिनिर्मित दीपसमूहोंकी ज्योतिके उत्कट प्रकाशसे उद्भासित था। वहाँ प्रयोजन-सिद्धिके लिये बहुत-से पदार्थ रखे हुए थे, जिससे वह कामदेवके परिवार-जैसा लग रहा था। वहाँ भूतलपर शय्या बिछी थी, जिसपर शुद्ध एवं श्वेत रेशमी चद्दर बिछी हुई थी 

तथा सर्जकी गन्धके समान मनको लुभानेवाले धूपकी सुगन्ध फैल रही थी। तदनन्तर क्रमशः दिनके व्यतीत होनेपर विभावरी मेनाके उस सुखमय विशाल गृहमें अपना प्रसार करने लगी। तत्पश्चात् जब शयनके लिये बिछी हुई शय्याओंपर पुरुषगण प्रायः कुछ निद्रामग्न-से होने लगे, चाँदनी स्पष्टरूपसे बिखर गयी, रात्रिमें विचरनेवाले पक्षी निर्भय होकर इधर-उधर घूमने लगे, चबूतरों (चौराहों)-पर राक्षसों और भूत-प्रेतोंका जमघट लग गया, पति-पत्नी गाढ़रूपसे गले लगकर नींदके वशीभूत हो गये, तब मेनाके भी दोनों नेत्रकमल नींदसे कुछ व्याकुल हो गये। ऐसा अवसर पाकर चिरकालसे स्पष्टरूपसे संगमकी इच्छा रखनेवाली रात्रि देवी जगन्माता पार्वतीकी जन्मदायिनी मेनाके मुखमें प्रवेश कर गयी और उसने क्रमशः सारे उदरपर अधिकार जमा लिया। अपने प्रवेशके अनन्तर देवीका जन्म मानती हुई विभावरी रात्रिने जंगली गुफाकी तरह उस उदरमें देवीको कान्तिको अपने रंगसे रंग दिया ॥ ८५-९५॥ 

ततो जगत्परित्राणहेतुर्हिमगिरिप्रिया।
ब्राह्मे मुहूर्ते सुभगे व्यसूयत गुहारणिम् ॥ ९६ 

तस्यां तु जायमानायां जन्तवः स्थाणुजङ्गमाः ।
अभवन् सुखिनः सर्वे सर्वलोकनिवासिनः ॥ ९७

नारकाणामपि तदा सुखं स्वर्गसमं महत्।
अभवत् क्रूरसत्त्वानां चेतः शान्तं च देहिनाम् ॥ ९८

ज्योतिषामपि तेजस्त्वमभवत् सुरतोन्नता।
वनाश्रिताश्चौषधयः स्वादुवन्ति फलानि च ॥ ९९

गन्धवन्ति च माल्यानि विमलं च नभोऽभवत्। 
मारुतश्च सुखस्पर्शों दिशश्च सुमनोहराः ॥ १०० 

तेन चोद्भूतफलितपरिपाकगुणोज्वलाः। 
अभवत् पृथिवी देवी शालिमालाकुलापि च ॥ १०१

तपांसि दीर्घचीर्णानि मुनीनां भावितात्मनाम् । 
तस्मिन् गतानि साफल्यं काले निर्मलचेतसाम् ॥ १०२

विस्मृतानि च शस्त्राणि प्रादुर्भावं प्रपेदिरे।
प्रभावस्तीर्थमुख्यानां तदा पुण्यतमोऽभवत् ॥ १०३

अन्तरिक्षे सुराश्चासन् विमानेषु सहस्त्रशः ।
समहेन्द्रहरिब्रह्मवायुवह्निपुरोगमाः ॥ १०४

पुष्पवृष्टिं प्रमुमुचुस्तस्मिंस्तु हिमभूधरे। 
जगुर्गन्धर्वमुख्याश्च ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ १०५ 

तदनन्तर जगत्‌के परिरक्षणकी हेतुभूता हिमाचलप्रिया मेनाने सुन्दर ब्राह्ममुहूर्तमें स्कन्दकी माता पार्वतीको जन्म दिया। पार्वतीके उत्पन्न होनेपर सम्पूर्ण लोकोंके निवासी एवं सभी स्थावर-जङ्गम प्राणी सुखी हो गये। उस समय नरक-निवासियोंको भी स्वर्गके समान महान् सुखका अनुभव हुआ। क्रूर स्वभाववाले प्राणियोंका चित्त शान्त हो गया। ज्योतिर्गणोंका तेज बढ़ गया। देवसमूहोंकी उन्नति हुई। जंगली ओषधियाँ विकसित हो गयीं और फल स्वादिष्ट हो गये। पुष्पोंमें सुगन्ध बढ़ गयी और आकाश निर्मल हो गया। सुखस्पर्शी शीतल, मंद, सुगन्ध वायु चलने लगी। दिशाएँ अत्यन्त मनोहारिणी हो गयीं। वे कुछ उत्पन्न हुए, कुछ फले हुए और कुछ पके हुए पदार्थोंके गुणोंसे युक्त होनेके कारण चमक रही थीं। पृथ्वीदेवी भी धान्यसमूहोंसे व्याप्त हो गयी। निर्मल-चित्त एवं शुद्धात्मा मुनियोंकी दीर्घकालसे चली आती हुई तपस्याएँ उस समय सफल हो गयीं। भूले हुए शस्त्र पुनः प्रकट होने लगे। प्रधान-प्रधान तीर्थोंका प्रभाव परम पुण्यमय हो गया। उस समय महेन्द्र, विष्णु, ब्रह्मा, वायु, अग्नि आदि हजारों देवता विमानोंपर चढ़कर आकाशमें उपस्थित थे। वे उस हिमाचलपर पुष्पोंकी वर्षा करने लगे, प्रधान प्रधान गन्धर्व गाने लगे और अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ॥ ९६-१०५ ॥

मेरुप्रभृतयश्चापि मूर्तिमन्तो महाबलाः ।
तस्मिन्महोत्सवे प्राप्ते दिव्यप्रभृतपाणयः ॥ १०६ 

सरितः सागराश्चैव समाजग्मुश्च सर्वशः ।
हिमशैलोऽभवल्लोके तथा सर्वेश्वराचरैः ॥ १०७

सेव्यश्चाप्यभिगम्यश्च स श्रेयांश्चाचलोत्तमः ।
अनुभूयोत्सवं देवा जग्मुः स्वानालयान्मुदा ॥ १०८

देवगन्धर्वनागेन्द्रशैलशीलावनीगुणैः।
हिमशैलसुता देवी स्वयंपूर्विकया ततः ॥ १०९

क्रमेण वृद्धिमानीता लक्ष्मीवानलसैर्बुधैः । 
क्रमेण रूपसौभाग्यप्रबोधैर्भुवनत्रयम् ॥ ११०

अजयद् भूषयच्चापि निःसाधारैर्नगात्मजा । 
एतस्मिन्नन्तरे शक्रो नारदं देवसम्मतम् ॥ १११

देवर्षिमथ सस्मार कार्यसाधनसत्वरम् । 
स्मृतिं शक्रस्य विज्ञाय जातां तु भगवांस्तदा । ११२

आजगाम मुदा युक्तो महेन्द्रस्य निवेशनम्। 
तं स दृष्ट्वा सहस्त्राक्षः समुत्थाय महासनात् ॥ ११३

यथार्हेण तु पाद्येन पूजयामास वासवः ।
शक्रप्रणीतां तां पूजां प्रतिगृह्य यथाविधि ॥ ११४

नारदः कुशलं देवमपृच्छत पाकशासनम्।
पृष्टे च कुशले शक्रः प्रोवाच वचनं प्रभुः ॥ ११५

उस महोत्सवके अवसरपर महाबलौ सुमेरु आदि पर्वत शरीर धारणकर और हाथमें (उपहारके लिये) दिव्य पदार्थ लिये हुए तथा नदियों और सागरोंके दल सब ओरसे उपस्थित हुए। उस समय हिमाचल जगत्में सभी चराचर प्राणियोंद्वारा सेव्य तथा अभिगमन करने योग्य बन गये। वे श्रेष्ठ पर्वतके रूपमें मङ्गलरूप हो गये। तत्पश्चात् देवगण उस उत्सवका आनन्द लेकर हर्षपूर्वक अपने-अपने स्थानको चले गये। इधर हिमाचलकन्या पार्वतीदेवी आलस्यरहित एवं बुद्धिमान् पुरुषोंकी लक्ष्मीकी भाँति क्रमशः दिन-प्रति-दिन बढ़ने लगीं। पार्वतीने अपने देव, गन्धर्व, नागेन्द्र, पर्वत और पृथ्वीके शीलस्वभावसे युक्त गुणों तथा रूप, सौभाग्य और ज्ञानद्वारा क्रमशः तीनों लोकोंको जीत लिया और असाधारणरूपसे विभूषित भी किया। इसी बीच इन्द्रने देवताओंके अनुकूलवर्ती एवं शीघ्र ही कार्य-साधनमें जुट जानेवाले देवर्षि नारदका स्मरण किया। तब अपनेको इन्द्रद्वारा स्मरण किया गया जानकर भगवान् नारद हर्षपूर्वक महेन्द्रके निवासस्थानपर आये। उन्हें आया हुआ देखकर सहस्रनेत्रधारी इन्द्र अपने सिंहासनसे उठ खड़े हुए और उन्होंने यथायोग्य पाद्य आदिद्वारा नारदजीकी पूजा की। इन्द्रद्वारा विधिपूर्वक की गयी उस पूजाको ग्रहणकर नारदने देवराज इन्द्रसे कुशल-प्रश्न किया। तब कुशल पूछे जानेपर सामर्थ्यशाली इन्द्रने इस प्रकार कहा- ॥ १०६-११५ ॥

इन्द्र उवाच

कुशलस्याङ्करे तावत् सम्भूते भुवनत्रये।
तत्फलोद्भवसम्पत्तौ त्वं भवातन्द्रितो मुने ॥ ११६

वेत्सि चैतत्समस्तं त्वं तथापि परिचोदकः ।
निर्वृतिं परमां याति निवेद्यार्थं सुहृज्जने ॥ ११७

तद्यथा शैलजा देवी योगं यायात् पिनाकिना।
शीघ्रं तदुद्यमः सर्वैरस्मत्पक्षैर्विधीयताम् ॥ ११८

अवगम्यार्थमखिलं तत आमन्त्र्य नारदः ।
शक्रं जगाम भगवान् हिमशैलनिवेशनम् ॥ ११९

तत्र द्वारे स विप्रेन्द्रश्चित्रवेत्रलताकुले ।
वन्दितो हिमशैलेन निर्गतेन पुरो मुनिः ॥ १२० 

सह प्रविश्य भवनं भुवो भूषणतां गतम्। 
निवेदिते स्वयं हैमे हिमशैलेन विस्तृते ॥ १२१

महासने मुनिवरो निषसादातुलद्युतिः । 
यथार्ह चार्घ्यपाद्यं च शैलस्तस्मै न्यवेदयत् ॥ १२२

मुनिस्तु प्रतिजग्राह तमर्धं विधिवत् तदा। 
गृहीतार्थ मुनिवरमपृच्छच्छ्लक्ष्णया गिरा ॥ १२३

कुशलं तपसः शैलः शनैः फुल्लाननाम्बुजः । 
मुनिरप्यद्रिराजानमपृच्छत् कुशलं तदा ॥ १२४ 

इन्द्र बोले-मुने ! त्रिभुवनके कल्याणके लिये अङ्कुर तो उत्पन्न हो गया है, किंतु उससे फलरूपी सम्पत्तिकी उत्पत्तिके निमित्त आप सावधान हो जाय। यद्यपि आप यह सब कुछ जानते हैं, तथापि कहनेवाला अपने मित्रसे अपना प्रयोजन निवेदित करके परम संतोषका अनुभव करता है। इसलिये पार्वतीदेवी जिस प्रकार शीघ्र ही शंकरजीसे संयुक्त हो जायें, वह उपाय हमारे पक्षके सभी लोगोंको करना चाहिये। तत्पश्चात् सारा प्रयोजन समझकर और इन्द्रसे सलाह करके भगवान् नारद हिमाचलके भवनकी ओर चल पड़े। थोड़ी ही देरमें वे द्विजवर चित्र-विचित्र बेंतकी लताओंसे आच्छादित भवन द्वारपर जा पहुँचे। वहाँ पहलेसे ही भवनके बाहर निकले हुए हिमाचलने मुनिकी वन्दना की। फिर वे हिमाचलके साथ पृथ्वीके भूषणस्वरूप उनके भवनमें प्रविष्ट हुए। वहाँ अनुपम कान्तिवाले मुनिवर नारद स्वयं हिमाचलद्वारा निवेदित किये गये एक स्वर्णनिर्मित विशाल सिंहासनपर विराजमान हुए। तब शैलराजने उन्हें यथायोग्य पाद्य और अर्घ्य निवेदित किया। मुनिने विधिपूर्वक उस अर्घ्यको स्वीकार किया। उस समय शैलराजका मुख खिले हुए कमलके समान हर्षसे खिल उठा। तब उन्होंने अर्घ्य ग्रहण करनेके पश्चात् मुनिवरसे मधुर वाणीमें धीरेसे उनकी तपस्याके विषयमें कुशल पूछी। इसके बाद मुनिने भी पर्वतराजसे कुशल-समाचार पूछा ॥ ११६-१२४ ॥

नारद उवाच 

अहोऽवतारिताः सर्वे संनिवेशे महागिरे। 
पृथुत्वं मनसा तुल्यं कंदराणां तथाचल ॥ १२५ 

गुरुत्वं ते गुणौघानां स्थावरादतिरिच्यते। 
प्रसन्नता च तोयस्य मनसोऽप्यधिका च ते ॥ १२६ 

न लक्ष्यामः शैलेन्द्र शिष्यते कन्दरोदरात्। 
न च लक्ष्मीस्तथा स्वर्गे कुत्राधिकतया स्थिता ॥ १२७

नाना तपोभिर्मुनिभिर्ध्वलनार्कसमप्रभैः ।
पावनैः पावितो नित्यं त्वत्कन्दरसमाश्रितैः ।। १२८

अवमत्य विमानानि स्वर्गवासविरागिणः ।
पितुगृह इवासन्ना देवगन्धर्वकिन्नराः ॥ १२९

अहो धन्योऽसि शैलेन्द्र यस्य ते कंदरं हरः ।
अध्यास्ते लोकनाथोऽपि समाधानपरायणः ॥ १३०

इत्युक्तवति देवर्षी नारदे सादरं गिरा। 
हिमशैलस्य महिषी मेना मुनिदिदृक्षया ॥ १३१

अनुयाता दुहित्रा तु स्वल्पालिपरिचारिका।
लज्जाप्रणयनम्राङ्गी प्रविवेश निवेशनम् ॥१३२

यत्र स्थितो मुनिवरः शैलेन सहितो वशी। 
दृष्ट्वा तु तेजसो राशिं मुनिं शैलप्रिया तदा ॥ १३३

नारदजी बोले-महाचल! तुम्हारे इस भवनको देखकर आश्चर्य होता है। तुमने इस भवनमें सभी पदार्थोंको संगृहीत कर रखा है। पर्वतराज! तुम्हारी कन्दराओं की पृथुता तो मनके समान गम्भीर है। तुम्हारे अन्यान्य गुणसमूहोंकी गुरुता अन्य स्थावरोंसे कहीं बढ़-चढ़कर है। तुम्हारे जलकी निर्मलता मनसे भी अधिक है। शैलराज! मैं ऐसी कोई वस्तु नहीं देख रहा हूँ, जो तुम्हारी कन्दराओंके भीतर वर्तमान न हो। स्वर्गमें कहीं भी तुमसे बढ़कर लक्ष्मी नहीं है। तुम अपनी गुफाओंमें निवास करनेवाले, नाना प्रकारकी तपस्याओंमें निरत,अग्नि एवं सूर्यकी-सी कान्तिवाले पावन मुनियोंद्वारा नित्य पवित्र होते रहते हो। देवता, गन्धर्व और किन्नरवृन्द स्वर्गवाससे विरक्त हो विमानोंकी अवहेलना कर पिताके गृहकी तरह तुम्हारे यहाँ निवास कर रहे हैं। अहो! शैलेन्द्र ! तुम धन्य हो; क्योंकि तुम्हारी कन्दरामें लोकपति शंकर भी समाधिमें लीन होकर निवास कर रहे हैं। देवर्षि नारद इस प्रकार आदरपूर्ण वाणी बोल ही रहे थे कि उसी समय पर्वतराज हिमाचलकी पटरानी मेना अपनी कन्याके साथ मुनिका दर्शन करनेके लिये वहाँ आयीं। उनके साथ कुछ सखियाँ और सेविकाएँ भी थीं। उन्होंने लज्जा और प्रेमसे विनम्र हो उस भवनमें प्रवेश किया जहाँ जितेन्द्रिय मुनिवर नारद हिमाचलके साथ बैठे हुए थे। तब हिमाचल-पत्नी मेनाने तेजके पुञ्जभूत मुनिको देखकर लज्जावश मुखको छिपाये हुए करकमलोंकी अञ्जलि बाँधकर मुनिकी वन्दना की ॥ १२५-१३३॥ 

ववन्दे गूढवदना पाणिपद्मकृताञ्जलिः । 
तां विलोक्य महाभागो महर्षिरमितद्युतिः ॥ १३४

आशीर्भिरमृतोद्गाररूपाभिस्तां व्यवर्धयत्। 
ततो विस्मितचित्ता तु हिमवद्भिरिपुत्रिका ॥ १३५

उदैक्षन्नारदं देवी मुनिमद्भुतरूपिणम्। 
एहि वत्सेति चाप्युक्ता ऋषिणा स्निग्धया गिरा ॥ १३६ 

कण्ठे गृहीत्वा पितरमुत्सङ्गे समुपाविशत्। 
उवाच माता तां देवीमभिवन्दय पुत्रिके ॥ १३७

भगवन्तं ततो धन्यं पतिमाप्स्यसि सम्मतम्। 
इत्युक्ता तु ततो मात्रा वस्त्रान्तपिहितानना ॥ १३८

किंचित्कम्पितमूर्धा तु वाक्यं नोवाच किञ्चन। 
ततः पुनरुवाचेदं वाक्यं माता सुतां तदा ॥ १३९

वत्से वन्दय देवर्षि ततो दास्यामि ते शुभम्। 
रत्नक्रीडनकं रम्यं स्थापितं यच्चिरं मया ॥ १४०

इत्युक्ता तु ततो वेगादुद्धृत्य चरणौ तदा। 
ववन्दे मूर्ध्नि संधाय करपङ्कजकुड्मलम् ॥ १४१ 

अमित कान्तिसम्पन्न एवं महान् भाग्यशाली महर्षि नारदने तब मेनाको देखकर अमृतके उद्गारस्वरूप आशीर्वचनों द्वारा उनकी शुभकामना की। हिमाचलकी पुत्री पार्वतीदेवी यह देखकर आश्चर्यचकित हो गयीं। वे अद्भुत रूपवाले नारदमुनिकी ओर एकटक देख रही थीं। उस समय देवर्षि नारदने 'बेटी। आओ' ऐसी स्नेहपूर्ण वाणीसे पुकारा भी, किंतु वे पिताके गलेको पकड़कर उनकी गोदमें छिपकर बैठ गयीं। यह देखकर माता मेनाने पार्वती देवीसे कहा- 'बेटी! भगवान् नारदको प्रणाम करो, इससे तुम अपने मनके अनुकूल योग्य पति प्राप्त करोगी।' माताद्वारा इस प्रकार कही जानेपर पार्वतीने वत्रके छोरसे अपने मुखको ढक लिया और मस्तकको थोड़ा झुका दिया, परंतु मुखसे कुछ नहीं कहा। तत्पश्चात् माताने पुनः अपनी कन्यासे इस प्रकार कहा- 'बेटी ! यदि तुम देवर्षि नारदको प्रणाम कर लो तो मैं तुम्हें बड़ी सुन्दर वस्तु दूँगी। मैं तुम्हें वह सुन्दर रत्ननिर्मित खिलौना दूँगी, जिसे मैंने बहुत दिनोंसे छिपाकर रखा है।' इस प्रकार कही जानेपर पार्वतीने शीघ्र ही अपने कमल-मुकुल-सदृश दोनों हाथोंसे मुनिके दोनों चरणोंको उठाकर मस्तकपर रख कर प्रणाम किया ॥ १३४-१४१ ॥

कृते तु वन्दने तस्या माता सखीमुखेन तु।
चोदयामास शनकैस्तस्याः सौभाग्यशंसिनाम् ॥ १४२

शरीर लक्षणानां तु विज्ञानाय तु कौतुकात् । 
स्त्रीस्वभावाद्य‌दु‌हितुश्चिन्तां हृदि समुद्वहन् ॥ १४३

ज्ञात्वा तदिङ्गितं शैलो महिष्या हृदयेन तु। 
अनुगीर्णोऽक्षतिर्मेने रम्यमेतदुपस्थितम् ॥ १४४ 

चोदितः शैलमहिषीसख्या मुनिवरस्तदा। 
स्मिताननो महाभागो वाक्यं प्रोवाच नारदः ॥ १४५

न जातोऽस्याः पतिर्भद्रे लक्षणैश्च विवर्जिता। 
उत्तानहस्ता सततं चरणैर्व्यभिचारिभिः । 
स्वच्छायया भविष्येयं किमन्यद् बहु भाष्यते ॥ १४६

श्रुत्वैतत् सम्भ्रमाविष्टो ध्वस्तधैर्यो महाचलः ।
नारदं प्रत्युवाचाथ सानुश्रुकण्ठो महागिरिः ॥ १४७

पार्वतीके प्रणाम कर लेनेके पश्चात् माता मैनाने कुतूहलवश कन्याके सौभाग्यसूचक शरीर-लक्षणोंकी जानकारी प्राप्त करनेके लिये धीरेसे सखीद्वारा मुनिसे अनुरोध किया; क्योंकि स्त्री-स्वभाववश उनके हृदयमें कन्याविषयिणी चिन्ता उठ खड़ी हुई थी। पर्वतराज अपनी पत्नीके उस संकेतको जानकर मनमें परम प्रसन्न हुए कि यह तो बड़ा सुन्दर विषय उपस्थित हुआ। इसमें उन्हें कोई हानि नहीं दीख पड़ी, अतः वे स्वयं कुछ न बोले। तब हिमाचल-पत्नीकी सखीद्वारा अनुरोध किये जानेपर महाभाग मुनिवर नारद मुसकराते हुए इस प्रकार बोले 'भद्रे! इसका पति तो अभी जगत्‌में पैदा ही नहीं हुआ है। यह सभी शुभ लक्षणोंसे रहित है। इसकी हथेली सदा उत्तान ही रहती है तथा चरण भी कुलक्षणोंसे युक्त है। यह अपनी छायाके साथ अर्थात् अकेली ही रहेगी। इसके विषयमें और अधिक क्या कहा जाय।' यह सुनकर पर्वतराज हिमाचल व्याकुल हो गये। उनका सारा धैर्य जाता रहा। तब वे अश्रुगद्गद कण्ठसे नारदजीसे बोले ॥ १४२-१४७ ॥ 

हिमवानुवाच

संसारस्यातिदोषस्य दुर्विज्ञेया गतिर्यंतः । 
सृष्ट्यां चावश्यभाविन्यां केनाप्यतिशयात्मना ।। १४८

कर्जा प्रणीता मर्यादा स्थिता संसारिणामियम् ।
यो जायते हि यद्बीजाज्जनेतुः स ह्यसार्थकः ॥ १४९

जनिता चापि जातस्य न कश्चिदिति यत्स्फुटम् ।
स्वकर्मणैव जायन्ते विविधा भूतजातयः ॥ १५०

अण्डजो ह्यण्डजाज्जातः पुनर्जायत मानवः ।
मानुषाच्च सरीसृप्यां मनुष्यत्वेन जायते ॥ १५१

तत्रापि जातौ श्रेष्ठायां धर्मस्योत्कर्षणेन तु।
अपुत्रजन्मिनः शेषाः प्राणिनः समवस्थिताः ।। १५२

मनुजास्तत्र जायन्ते यतो न गृहधर्मिणः। 
क्रमेणाऽऽ श्रमसम्प्राप्तिर्ब्रह्मचारिव्रतादनु ॥ १५३

तस्य कर्तुर्नियोगेन संसारो येन वर्धितः ।
संसारस्य कुतो वृद्धिः सर्वे स्युर्यदतिग्रहाः ॥ १५४

अतः कर्जा तु शास्त्रेषु सुतलाभः प्रशंसितः । 
प्राणिनां मोहनार्थाय नरकत्राणसंश्रयात् ॥ १५५

स्त्रिया विरहिता सृष्टिर्जन्तूनां नोपपद्यते। 
स्त्रीजातिस्तु प्रकृत्यैव कृपणा दैन्यभाषिणी। 
शास्त्रालोचनसामर्थ्यमुज्झितं तासु वेधसा ॥ १५६ 

हिमवान्ने कहा- देवर्षे ! इस अत्यन्त दोषपूर्ण संसारकी गति दुर्विज्ञेय है। इस अवश्यम्भाविनी सृष्टिमें किसी कर्ता महापुरुषद्वारा जो मर्यादा स्थापित की गयी है, वह संसारी जीवोंके लिये स्थिर है। जो जिसके बीजसे उत्पन्न होता है, वह उस पैदा करनेवालेके लिये निरर्थक होता है, उसी प्रकार पैदा करनेवाला भी पैदा हुएका कोई नहीं है यह तो स्पष्ट है; क्योंकि प्राणियोंकी अनेकों जातियाँ अपने-अपने कर्मोंके अनुसार ही उत्पन्न होती हैं। एक ही जीव अण्डजके सम्पर्कसे अण्डजयोनिमें पैदा होता है और वही पुनः मनुष्यके संयोगसे मानव-योनिमें उत्पन्न होता है। फिर मानव-योनिसे भी उलटकर सर्प आदि रेंगनेवाली योनियोंमें जन्म लेता है। वहाँ भी धर्मकी उत्कृष्टतासे उत्तम जातिमें जन्म होता है। शेष जो अधार्मिक प्राणी होते हैं, वे पुत्रहीन होते हैं। उनमें गृहस्थधर्मका सुचारुरूपसे पालन न करनेवाले मानवोंको पुत्रकी प्राप्ति नहीं होती। इन आश्रमोंकी प्राप्ति उसी कर्ताकी व्यवस्थासे, जिसने संसारकी वृद्धि की है, क्रमशः ब्रह्मचर्य व्रतके बाद होती है। यदि सभी प्राणी आश्रमधर्मका त्याग कर दें तो संसारकी वृद्धि कैसे हो सकती है। इसीलिये सृष्टिकर्ताने शास्त्रोंमें नरकसे त्राण करने का लोभ दिखाकर प्राणियों को मोहित करनेके लिये पुत्रप्राप्तिकी प्रशंसा की है; परंतु प्राणियोंकी सृष्टि स्त्रीके बिना हो नहीं सकती और वह स्त्री-जाति स्वभावसे ही दयनीय और दीनतापूर्वक बोलनेवाली होती है। इसीलिये ब्रह्माने उन स्त्रियोंको शास्त्रालोचन की शक्ति नहीं दी है॥१४८-१५६ ॥

शास्त्रेषूक्तमसंदिग्धं बहुवारं महाफलम्। 
दशपुत्रसमा कन्या या न स्याच्छीलवर्जिता ॥ १५७

वाक्यमेतत् फलभ्रष्टं पुंसि ग्लानिकरं परम्। 
कन्या हि कृपणा शोच्या पितुर्दुःखविवर्धिनी ॥ १५८

यापि स्यात् पूर्णसर्वाढ्या पतिपुत्रधनादिभिः ।
किं पुनर्दुर्भगा हीना पतिपुत्रधनादिभिः ॥ १५९

त्वं चोक्तवान् सुताया मे शरीरे दोषसंग्रहम् ।
अहो मुह्यामि शुष्यामि ग्लामि सीदामि नारद ॥ १६०

अयुक्तमथ वक्तव्यमप्राप्यमपि साम्प्रतम् । 
अनुग्रहेण मे छिन्धि दुःखं कन्याश्रयं मुने ॥ १६१

परिच्छिन्नेऽप्यसंदिग्धे मनः परिभवाश्रयम् । 
तृष्णामुष्णातिनिष्णाता फललोभाश्रयाशुभा ॥ १६२

स्त्रीणां हि परमं जन्म कुलानामुभयात्मनाम् । 
इहामुत्र सुखायोक्तं सत्पतिप्राप्तिसंज्ञितम् ॥ १६३

दुर्लभः सत्पतिः स्त्रीणां विगुणोऽपि पतिः किल। 
न प्राप्यते विना पुण्यैः पतिर्नार्या कदाचन ॥ १६४

यतो निःसाधनो धर्मः परिमाणोज्झिता रतिः । 
धनं जीवितपर्याप्तं पत्यौ नार्याः प्रतिष्ठितम् ॥ १६५ 

इसी प्रकार शास्त्रोंमें अनेकों बार निश्चितरूपसे इस महान् फलका वर्णन किया गया है कि जो कन्या शील-सदाचारसे रहित न हो, वह दस पुत्रोंके समान मानी गयी है; किंतु यह वाक्य निष्फल है और पुरुषके लिये अत्यन्त ग्लानि उत्पन्न करनेवाला है; क्योंकि जो कन्या पति, पुत्र, धन आदि सभी सुख-साधनोंसे पूर्ण सम्पन्न होनेपर भी जब कृपण, शोचनीय और पिताके दुःखको बढ़ानेवाली होती है, तब जो पति, पुत्र, धन आदिसे हीन अभागिनी हो तो उसके विषयमें क्या कहना है। नारदजी! आपने मेरी कन्याके शरीरमें तो दोष-समूहका ही वर्णन किया है, इसी कारण मैं मोहमें पड़ा हूँ, मेरा शरीर सूखा जा रहा है, मनमें ग्लानि हो रही है और कष्ट पा रहा हूँ। मुने ! इस समय मुझपर अनुग्रह करके (कन्याके कष्ट-निवारक उपाय) यदि अयुक्त अथवा दुष्प्राप्य भी हो तो बतलाइये और मेरे कन्याविषयक दुःखको दूर कीजिये: क्योंकि निःसंदेहरूपसे कार्य सिद्धिकी सम्भावना होनेपर भी फलके लोभमें आसक्त एवं कार्य-साधनमें निपुण अशुभ तृष्णा मेरे परिभवयुक्त मनको ठग रही है। स्त्रियोंके लिये उत्तम पतिकी प्राप्ति ही उनके सौभाग्यशाली जन्मकी सूचक है तथा वह पितृकुल एवं पतिकुल-दोनों कुलोंके लिये इहलोक और परलोकमें सुखका साधन बतलायी गयी है। इस प्रकार स्त्रियोंके लिये उत्तम पतिका मिलना तो दुर्लभहै ही, परंतु गुणहीन पति भी नारीको पुण्यके बिना कभी नहीं प्राप्त होता; क्योंकि नारीको साधनरहित धर्म, प्रचुर मात्रामें कामवासनाकी प्राप्ति और जीवन-निर्वाहके लिये धन पतिके द्वारा ही प्रास होते हैं॥ १५७-१६५ ॥

निर्धनो दुर्भगो मूर्खः सर्वलक्षणवर्जितः । 
दैवतं परमं नार्याः पतिरुक्तः सदैव हि ॥ १६६ 

त्वया चोक्तं हि देवर्षे न जातोऽस्याः पतिः किल। 
एतद्दौर्भाग्यमतुलमसंख्यं गुरु दुःसहम् ॥ १६७

चराचरे भूतसर्गे यदद्यापि च नो मुने। 
न संजात इति ब्रूषे तेन मे व्याकुलं मनः ॥ १६८ 

मनुष्यदेवजातीनां शुभाशुभनिवेदकम्। 
लक्षणं हस्तपादादौ विहितैर्लक्षणैः किल । १६९

सेयमुत्तानहस्तेति त्वयोक्ता मुनिपुङ्गव। 
उत्तानहस्तता प्रोक्ता याचतामेव नित्यदा ॥ १७०

शुभोदयानां धन्यानां न कदाचित्प्रयच्छताम्। 
स्वच्छाययास्याश्चरणौ त्वयोक्तो व्यभिचारिणौ ॥ १७१ 

तत्रापि श्रेयसी ह्याशा मुने न प्रतिभाति नः । 
शरीरलक्षणाश्चान्ये पृथक् फलनिवेदिनः ॥ १७२

सौभाग्यधनपुत्रायुः पतिलाभानुशंसनम् ।
तैश्च सर्वैर्विहीनेयं त्वमात्थ मुनिपुङ्गव ॥ १७३

त्वं मे सर्वं विजानासि सत्यवागसि चाप्यतः । 
मुह्यामि मुनिशार्दूल हृदयं दीर्यतीव मे ॥ १७४

इत्युक्त्वा विरतः शैलो महादुःखविचारणात् । 
श्रुत्वैतदखिलं तस्माच्छैलराजमुखाम्बुजात् । 
स्मितपूर्वमुवाचेदं नारदो देवपूजितः ॥ १७५ 

पति निर्धन, अभागा, मूर्ख और सभी शुभ लक्षणोंसे रहित क्यों न हो, किंतु वह नारीके लिये सदैव परम देवता कहा गया है। देवर्षे! आपने कहा है कि मेरी पुत्रीका पति पैदा ही नहीं हुआ है, यह तो इसका अतुलनीय एवं बहुत बड़ा दुःसह दुर्भाग्य है। मुने! आप जो ऐसा कह रहे हैं कि चराचर प्राणियोंकी सृष्टिमें वह अभीतक उत्पन्न ही नहीं हुआ है, इससे मेरा मन व्याकुल हो गया है। मनुष्यों एवं देवजातियोंके शुभाशुभसूचक लक्षण हाथों एवं पैरोंमें चिह्नित लक्षणोंद्वारा जाने जाते हैं। मुनिश्रेष्ठ। इस विषयमें भी आपने इसे उत्तानहस्ता बतलाया है। यह उत्तानहस्ता सदा याचकोंकी ही कही गयी है, किंतु जो सौभाग्यशाली, धन्यवादके पात्र और दानी होते हैं, उनके हाथ कभी उत्तान नहीं रहते। मुने! आपने यह भी कहा है कि इसके चरण अपनी छायासे युक्त होनेके कारण दोषी हैं, अतः इस विषयमें भी हमें कल्याणकारिणी आशा नहीं प्रतीत हो रही है। शरीरके अन्यान्य लक्षण पृथक् पृथक् फल सूचित करते हैं। उनमें जो सौभाग्य, धन, पुत्र, आयु और पति-प्राप्तिके सूचक होते हैं, उन सभी लक्षणोंसे मेरी यह कन्या हीन है-ऐसा आप कह रहे हैं। मुनिश्रेष्ठ। आप मेरी सारी मनोगत अभिलाषाओंको जानते हैं। मुनिशार्दूल ! आप सत्यवादी हैं, इसी कारण (आपकी बात सुनकर) मैं मोहित हो रहा हूँ और मेरा हृदय फटा-सा जा रहा है। ऐसा कहकर हिमाचल उस महान् दुःखकी कल्पनासे विरत हो गये। उस शैलराजके मुखकमलसे निकली हुई ये सारी बातें सुनकर देवपूजित नारदजी मुसकराते हुए इस प्रकार बोले ॥ १६६-१७५ ॥

नारद उवाच

हर्षस्थानेऽपि महति त्वया दुःखं निरूप्यते । 
अपरिच्छिन्नवाक्यार्थे मोहं यासि महागिरे ॥ १७६

इमां शृणु गिरं मत्तो रहस्यपरिनिष्ठिताम् । 
समाहितो महाशैल मयोक्तस्य विचारणे ॥ १७७

न जातोऽस्याः पतिर्देव्या यन्मयोक्तं हिमाचल । 
न स जातो महादेवो भूतभव्यभवोद्भवः । 
शरण्यः शाश्वतः शास्ता शंकरः परमेश्वरः ॥ १७८

ब्रह्मविष्णिवन्द्रमुनयो जन्ममृत्युजरार्दिताः । 
तस्यैते परमेशस्य सर्वे क्रीडनका गिरे ॥ १७९

आस्ते ब्रह्मा तदिच्छातः सम्भूतो भुवनप्रभुः ।
विष्णुर्युगे युगे जातो नानाजातिर्महातनुः ॥ १८०

मन्यसे मायया जातं विष्णुं चापि युगे युगे। 
आत्मनो न विनाशोऽस्ति स्थावरान्तेऽपि भूधर ॥ १८१ 

संसारे जायमानस्य नियमाणस्य देहिनः । 
नश्यते देह एवात्र नात्मनो नाश उच्यते ॥ १८२

ब्रह्मादिस्थावरान्तोऽयं संसारो यः प्रकीर्तितः । 
स जन्ममृत्युदुःखार्तो ह्यवशः परिवर्तते ॥ १८३

महादेवोऽचलः स्थाणुर्न जातो जनकोऽजरः । 
भविष्यति पतिः सोऽस्या जगन्नाथो निरामयः ॥ १८४

नारदजीने कहा- गिरिराज! आप तो महान् हर्षका अवसर उपस्थित होनेपर भी दुःखकी गाथा गा रहे हैं और मेरे अस्पष्ट वाक्यके अर्थको समझे बिना मोहको प्राप्त हो रहे हैं। शैलराज! इस रहस्यपूर्ण वाणीका तात्पर्य मुझसे सुनिये और मेरे द्वारा कही हुई बातपर सावधानीपूर्वक विचार कीजिये। हिमाचल ! मैंने जो यह कहा है कि इस देवीका पति उत्पन्न ही नहीं हुआ है, इसका अभिप्राय यह है कि जो भूत, भविष्य, वर्तमान- तीनों कालोंमें वर्तमान रहनेवाले, जीवोंके शरणदाता, अविनाशी, नियामक, कल्याणकर्ता और परमेश्वर हैं, वे महादेव उत्पन्न नहीं हुए हैं अर्थात् वे अनादि हैं, उनका जन्म नहीं होता। पर्वतराज! ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, मुनि आदि जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थासे ग्रस्त हैं। ये सभी उस परमेश्वरके खिलौनेमात्र हैं। 

उन्हींकी इच्छासे त्रिभुवनके स्वामी ब्रह्मा प्रकट हुए हैं और विष्णु प्रत्येक युगमें विशाल शरीर धारण करके नाना प्रकारकी जातियोंमें उत्पन्न होते हैं। पर्वतराज ! प्रत्येक युगमें मायाका आश्रय लेकर उत्पन्न हुए विष्णुको तो तुम भी मानते ही हो। स्थावर योनिमें जन्म लेनेपर भी शरीरान्त होनेपर आत्माका विनाश नहीं होता। संसारमें उत्पन्न होकर मृत्युको प्राप्त हुए प्राणीका शरीरमात्र नष्ट होता है, आत्माका नाश नहीं कहा जाता। ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त जो यह संसार कहा जाता है, उसमें उत्पन्न हुए प्राणी जन्म-मृत्युके दुःखसे पीड़ित होकर पराधीन रहते हैं, किंतु महादेव स्थाणुकी भाँति अचल हैं। वे वृद्धावस्थासे रहित तथा सबको उत्पन्न करनेवाले हैं, किंतु स्वयं किसीसे उत्पन्न नहीं होते। वे ही निर्दोष जगदीश्वर शङ्कर इस कन्याके पति होंगे ॥ १७६-१८४॥ 

यदुक्तं च मया देवी लक्षणैर्वर्जिता तव। 
शृणु तस्यापि वाक्यस्य सम्यक्त्वेन विचारणम् ॥ १८५

लक्षणं दैविको ह्यङ्कः शरीरावयवाश्रयः । 
सर्वायुर्धनसौभाग्यपरिमाणप्रकाशकः॥ १८६

अनन्तस्याप्रमेयस्य सौभाग्यस्यास्य भूधर। 
नैवाङ्को लक्षणाकारः शरीरे संविधीयते ॥ १८७

अतोऽस्या लक्षणं गात्रे शैल नास्ति महामते । 
यथाहमुक्तवान् तस्या ह्युत्तानकरतां सदा ॥ १८८

उत्तानो वरदः पाणिरेष देव्याः सदैव तु ।
सुरासुरमुनिब्रातवरदेयं भविष्यति ॥ १८९

यथा प्रोक्तं तदा पादौ स्वच्छायाव्यभिचारिणौ।
अस्याः शृणु ममात्रापि वाग्युक्तिं शैलसत्तम ॥ १९०

चरणौ पद्मसंकाशावस्याः स्वच्छनखोज्वलौ । 
सुरासुराणां नमतां किरीटमणिकान्तिभिः ॥ १९१

विचित्रवर्णैर्भासन्तौ स्वच्छायाप्रतिबिम्बितौ । 
भार्या जगद्वरोह्येषा वृषाङ्कस्य महीधर ॥ १९२

जननी लोकधर्मस्य सम्भूता भूतभाविनी।
शिवेयं पावनायैव त्वत्क्षेत्रे पावकद्युतिः ॥ १९३

तद्यथा शीघ्रमेवैषा योगं यायात् पिनाकिना। 
तथा विधेयं विधिवत्त्वया शैलेन्द्रसत्तम। 
अत्यन्तं हि महत् कार्यं देवानां हिमभूधर ॥ १९४ 

साथ ही मैंने तुमसे जो यह कहा था कि यह देवी लक्षणोंसे रहित है, उस वाक्यका अभिप्राय भी सम्यक्-रूपसे सुनो। पर्वतराज ! शरीरके अवयवोंमें अङ्कित लक्षण दैविक चिह्न होता है। वह सभीके आयु, धन और सौभाग्यके परिणामको प्रकट करनेवाला होता है किंतु इसके शरीरमें इस अनन्त एवं अप्रमेय सौभाग्यके किसी लक्षणाकार चिह्नका संविधान नहीं किया गया है, इसीलिये मैंने कहा है कि इसके शरीरमें लक्षण नहीं है। महाबुद्धिमान् हिमाचल ! जो मैंने इसकी सदा उत्तानकरताका कथन किया था, उसका तात्पर्य यह है कि इस देवीका यह वरदायक हाथ सदा उत्तान ही रहेगा, जिससे यह सुर, असुर और मुनिसमूहके लिये वरदायिनी होगी। पर्वतश्रेष्ठ! उस समय मैंने जो ऐसा कहा था कि इसके चरण अपनी छायामें रहनेके कारण दोषी हैं, 

इस विषयमें भी तुम मेरे वचनोंकी युक्ति सुनो। इसके कमल-सदृश चरण स्वच्छ उज्वल नखोंसे सुशोभित हैं। जब वे नमस्कार करनेवाले सुरों एवं असुरोंके किरीटोंमें जड़ी हुई मणियोंकी विचित्र वर्णकी कान्तिसे उद्भासित होंगे, तब अपनी छायासे प्रतिबिम्बित कहलायेंगे। महीधर ! आपकी यह कन्या जगदुरु वृषभध्वज शङ्करकी भार्या, लोकधर्मकी जननी, प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाली, कल्याणस्वरूपा और अग्निके समान कान्तिमती है। यह तुम्हारे क्षेत्रमें तुम्हें पावन करनेके लिये प्रकट हुई है। इसलिये श्रेष्ठ पर्वतराज! जिस प्रकार यह शीघ्र-से-शीघ्र पिनाकधारी शङ्करजीके साथ संयुक्त हो जाय, तुम्हें विधिपूर्वक वैसा ही विधान करना चाहिये। हिमाचल ! इससे देवताओंका अत्यन्त महान् कार्य सिद्ध हो जायगा ॥ १८५-१९४ ॥

सूत उवाच 

एवं श्रुत्वा तु शैलेन्द्रो नारदात् सर्वमेव हि। 
आत्मानं स पुनर्जातं मेने मेनापतिस्तदा ॥ १९५

नमस्कृत्य वृषाङ्काय तदा देवाय धीमते। 
उवाच सोऽपि संहृष्टो नारदं तु हिमाचलः ॥ १९६

सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! नारदजीके मुखसे ये सारी बातें सुनकर उस समय मेनाके प्राणपति शैलराज अपनेको पुनः उत्पन्न हुआ-सा अनुभव करने लगे। तत्पश्चात् हर्षसे फूले हुए हिमाचल भी उत्कृष्ट बुद्धिसम्पन्न देवाधिदेव वृषभध्वज को नमस्कार करके नारदजीसे बोले ॥ १९५-१९६ ॥ 

हिमवानुवाच

दुस्तरान्नरकाद् घोरादुद्धृतोऽस्मि त्वया मुने। 
पातालादहमुद्धृत्य सप्तलोकाधिपः कृतः ॥ १९७

हिमाचलोऽस्मि विख्यातस्त्वया मुनिवराधुना। 
हिमाचलेऽचलगुणां प्रापितोऽस्मि समुन्नतिम् ॥ १९८

आनन्ददिवसाहारि हृदयं मेऽधुना मुने। 
नाध्यवस्यति कृत्यानां प्रविभागविचारणम् ॥ १९९

यदि वाचामधीशः स्यां त्वद्गुणानां विचारणे ॥ २००

भवद्विधानां नियतममोघं दर्शनं मुने। 
तवास्मान् प्रति चापल्यं व्यक्तं मम महामुने । २०१

भवद्भिरेव कृत्योऽहं निवासायात्मरूपिणाम्। 
मुनीनां देवतानां च स्वयं कर्तापि कल्मषम् ॥ २०२

तथापि वस्तुन्येकस्मिन्नाज्ञा मे सम्प्रदीयताम्। 
इत्युक्तवति शैलेन्द्रे स तदा हर्षनिर्भरे ॥ २०३

तथा च नारदो वाक्यं कृतं सर्वमिति प्रभो।
सुरकार्ये य एवार्थस्तवापि सुमहत्तरः ॥ २०४

इत्युक्त्वा नारदः शीघ्रं जगाम त्रिदिवं प्रति। 
स गत्वा शक्रभवनममरेशं ददर्श ह । २०५

ततोऽभिरूपे स मुनिरुपविष्टो महासने। 
पृष्टः शक्रेण प्रोवाच हिमजासंश्रयां कथाम् ॥ २०६ 

हिमवान्ने कहा-मुने ! आपने तो मुझे घोर दुस्तर नरकसे उबार लिया है और पाताललोकसे निकालकर सातों लोकोंका अधिपति बना दिया है। मुनिवर! इस समय आपने हिमाचलपर जो अचल गुणवाली समृद्धि उत्पन्न कर दी है, इससे मैं सचमुच हिमाचल नामसे विख्यात कर दिया गया हूँ। मुने। इस समय मेरा हृदय आनन्दमय दिनका अनुभव कर रहा है, जिससे यह आपके कृत्योंका विभागपूर्वक विचार करनेमें सक्षम नहीं हो रहा है। यदि मैं वाणीके अधीश्वर बृहस्पति हो जाऊँ तो भी आपके गुणोंका विचार करनेमें समर्थ नहीं हो सकता। मुने। आप जैसे महर्षियोंका दर्शन निश्चय ही अमोघ होता है। महामुने। हमलोगोंके प्रति आपकी अस्थिरता तो मुझे स्पष्टरूपसे ज्ञात है। आप लोगोंद्वारा ही मैं आत्मस्वरूप मुनियों एवं देवताओंके निवास योग्य बनाया गया हूँ। यद्यपि मैं स्वयं भी पाप करनेवाला हूँ, तथापि किसी एक वस्तुके लिये मुझे आज्ञा प्रदान कीजिये। उस समय हर्षसे भरे हुए शैलराजके इस प्रकार कहनेपर नारदजीने कहा- 'प्रभो! तुमने सब कुछ कर लिया। (अब मुझे यही कहना है कि) देवताओंके कार्यका जो प्रयोजन है, वह तुम्हारे लिये भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होगा।' ऐसा कहकर नारदजी शीघ्र ही स्वर्गलोकको चले गये। वहाँ इन्द्रके भवनमें जाकर वे देवराज इन्द्रसे मिले। जब वे एक सुन्दर सिंहासनपर आसीन हो गये, तब इन्द्रने उनसे जिज्ञासा प्रकट की। फिर तो वे पार्वती-सम्बन्धी कथाका वर्णन करने लगे ॥ १९७-२०६ ॥

नारद उवाच

समूह्य यत्तु कर्तव्यं तन्मया कृतमेव हि। 
किंतु पञ्चशरस्यैव समयोऽयमुपस्थितः ॥ २०७

इत्युक्तो देवराजस्तु मुनिना कार्यदर्शिना। 
चूताङ्करास्त्रं सस्मार भगवान् पाकशासनः ॥ २०८ 

संस्मृतस्तु तदा क्षिप्रं सहस्त्राक्षेण धीमता। 
उपतस्थे रतियुतः सविलासो झषध्वजः । 
प्रादुर्भूतं तु तं दृष्ट्वा शक्रः प्रोवाच सादरम् ॥ २०९

नारदजी बोले-देवराज! संगठित होकर सबके द्वारा जो काम किया जाना चाहिये, उसे तो मैंने अकेले ही कर दिया; किंतु इस अवसरपर अब कामदेवकी आवश्यकता आ पड़ी है। कार्यदर्शी नारद मुनिद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर देवराज भगवान् इन्द्रने आमके बौरके अङ्कुरको अस्त्ररूपमें धारण करनेवाले कामदेवका स्मरण किया। सहस्रनेत्रधारी बुद्धिमान् इन्द्रद्वारा स्मरण किये जानेपर झषकेतु कामदेव अपनी पत्नी रतिके साथ विलासपूर्वक शीघ्र ही उपस्थित हुआ। उसे उपस्थित देखकर इन्द्रने आदरपूर्वक उससे कहा ॥ २०७-२०९ ॥

शक्र उवाच 

उपदेशेन बहुना किं त्वां प्रति वदे प्रियम्। 
मनोभवोऽसि तेन त्वं वेत्सि भूतमनोगतम् ॥ २१०

तद्यथार्थकमेव त्वं कुरु नाकसदां प्रियम्।
शङ्करं योजय क्षिप्रं गिरिपुत्र्या मनोभव।
संयुतो मधुना चैव ऋतुराजेन दुर्जय ॥ २११

इत्युक्तो मदनस्तेन शक्रेण स्वार्थसिद्धये। 
प्रोवाच पञ्चबाणोऽथ वाक्यं भीतः शतक्रतुम् ॥ २१२

इन्द्र बोले-मनोभव । तुम तो अजेय हो और मनसे ही उत्पन्न होते हो, अतः सभी प्राणियोंके मनोगत भावोंको भलीभाँति जानते हो। ऐसी दशामें तुम्हारे प्रति अधिक उपदेश करनेसे क्या लाभ? मैं तुमसे एक प्रिय बात कह रहा हूँ। तुम स्वर्गवासियोंके उस प्रिय कार्यको अवश्य पूर्ण करो। (वह यह है कि) तुम चैत्रमास और ऋतुराज वसन्तको साथ लेकर शङ्करजीका गिरिराजकुमारी पार्वतीके साथ शीघ्र ही संयोग स्थापित करा दो। अपनी स्वार्थसिद्धिके निमित्त इन्द्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर पञ्चबाण कामदेव भयभीत होकर इन्द्रसे इस प्रकार बोला ॥ २१०-२१२॥ 

काम उवाच 

अनया देवसामग्र्या मुनिदानवभीमया।
दुःसाध्यः शङ्करो देवः किं न वेत्सि जगत्प्रभो ॥ २१३

तस्य देवस्य वेत्थ त्वं करणं तु यदव्ययम्।
प्रायः प्रसादः कोपोऽपि सर्वो हि महतां महान् ॥ २१४

सर्वोपभोगसारा हि सुन्दर्यः स्वर्गसम्भवाः ।
अध्याश्रितं च यत्सौख्यं भवता नष्टचेष्टितम् ॥ २१५ 

प्रमादादथ विभ्रंश्येदीशं प्रतिविचिन्त्यताम् ।
प्रागेव चेह दृश्यन्ते भूतानां कार्यसम्भवाः ॥ २१६

विशेषं काङ्क्षतां शक्र सामान्याद् भ्रंशनं फलम्। 
श्रुत्वैतद्वचनं शक्रस्तमुवाचामरैर्युतः ॥ २१७

कामदेवने कहा-जगन्नाथ! क्या आप यह नहीं जानते कि मुनियों और दानवोंको भयभीत करनेवाली इस देवसामग्रीसे देवाधिदेव शङ्करको वशमें कर लेना सहज नहीं है। उन महादेवकी इन्द्रियाँ विकाररहित हैं, इसका भी ज्ञान तो आपको है ही। साथ ही महापुरुषोंकी प्रसन्नता और क्रोध भी महान् होता है। इस समय आप जो सम्पूर्ण उपभोगोंकी सारभूता स्वर्गमें उत्पन्न होनेवाली सुन्दरी अप्सराओं तथा बिना चेष्टा किये ही प्राप्त होनेवाले सुखदायक पदार्थोंका उपभोग कर रहे हैं, वह शङ्करजीके प्रति प्रमाद करनेसे नष्ट हो जायगा। थोड़ा इसपर भी विचार कर लीजिये; क्योंकि सामान्य प्राणियोंको भी कार्यफलकी सम्भावना पहलेसे ही दीखने लगती है। इन्द्रदेव! जो लोग सामान्यको छोड़कर विशेषकी आका‌ङ्क्षा करते हैं, उनका सामान्यसे पतन हो जाना ही फल है। (विशेष तो अप्राप्त है ही।) कामदेवके इस कथनको सुनकर देवताओंसे घिरे हुए इन्द्रने उससे कहा- ॥ २१३-२१७ ॥ 

शक्र उवाच

वयं प्रमाणास्ते ह्यत्र रतिकान्त न संशयः । 
संदर्शन विना शक्तिरयस्कारस्य नेष्यते । 
कस्यचिच्च क्वचिद् दृष्टं सामर्थ्य न तु सर्वतः ॥ २१८

इत्युक्तः प्रययौ कामः सखायं मधुमाश्रितः । 
रतियुक्तो जगामाशु प्रस्थं तु हिमभूभृतः ॥ २१९

स तु तत्राकरोच्चिन्तां कार्यस्योपायपूर्विकाम् ।
महार्था ये हि निष्कम्पा मनस्तेषां सुदुर्जयम् ॥ २२०

तदादावेव संक्षोभ्य नियतं सुजयो भवेत्।
संसिद्धिं प्राप्नुयुश्चैव पूर्वे संशोध्य मानसम् ॥ २२१ 

कथं च विविधैर्भावैद्वेषानुगमनं विना।
क्रोधः क्रूरतरासङ्गाद् भीषणेर्ष्या महासखीम् ॥ २२२

चापल्यमूर्छिन विध्वस्तधैर्याधारां महाबलाम् । 
तामस्य विनियोक्ष्यामि मनसो विकृतिं पराम् ॥ २२३

पिधाय धैर्यद्वाराणि संतोषमपकृष्य च। 
अवगन्तुं हि मां तत्र न कश्चिदतिपण्डितः ॥ २२४

विकल्पमात्रावस्थाने वैरूप्यं मनसो भवेत्। 
पश्चान्मूलक्तियारम्भगम्भीरावर्तदुस्तरः ॥ २२५

हरिष्यामि हरस्याहं तपस्तस्य स्थिरात्मनः । 
इन्द्रियग्राममावृत्य रम्यसाधनसंविधिः ॥ २२६ 

इन्द्र बोले-रतिवल्लभ ! तुम्हारे इस कथनके लिये हमलोग प्रमाण हैं। तुम्हारे कथनमें कोई संदेह नहीं है, किंतु (निर्मित वस्तुके) आकार-प्रकारके बिना लोहार अथवा कारीगरकी शक्तिका पता नहीं चलता तथा किसीकी भी शक्ति किसी विशेष विषयमें ही सफलरूपसे देखी जाती है, सर्वत्र नहीं। इन्द्रद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर रतिसहित कामदेव सहायकरूपमें अपने मित्र मधुमास (अथवा वसन्त) को साथ लेकर प्रस्थित हुआ और शीघ्र ही हिमाचलके शिखरपर जा पहुँचा। वहाँ जाकर वह कार्यकी सिद्धिके लिये उपायपूर्वक चिन्ता करने लगा। उसने सोचा कि जो लोग महान् लक्ष्यसे युक्त और अटल निश्चयवाले हैं, उनके मनको जीतना अत्यन्त कठिन है। अतः सर्वप्रथम उसीको ही संक्षुब्ध कर निश्चयरूपसे विजय प्राप्त की जा सकती है; 

क्योंकि पूर्वकालमें मनको शुद्ध करके ही लोगोंने उत्तम सिद्धि प्राप्त की है। (किंतु कठिनाई तो यह है कि) क्रूरतर प्राणियोंके सङ्गसे अनेकों प्रकारके भावोंद्वारा द्वेषका अनुगमन किये बिना क्रोध कैसे उत्पन्न हो सकता है? इसके लिये मैं भयंकर ईर्ष्या नामकी महासखीको चपलताके मस्तकपर स्थापित करूँगा, तत्पश्चात् धैर्यके प्रवाहको विध्वस्त करनेवाली, महान् बलवती मनकी उस उत्कृष्ट विकृतिको शङ्करजीपर विनियुक्त करूँगा। वहाँ धैर्यके द्वारोंको बंद कर तथा संतोषको दूर हटाकर कोई भी ऐसा उत्कृष्ट विद्वान् नहीं है, जो मुझे जाननेमें समर्थ हो सके। किसी भी कार्यके आरम्भमें विकल्पमात्रका विचार करनेसे मनकी विरूपता उत्पन्न हो जाती है, जिससे आगे चलकर मूल कार्यके आरम्भ होनेपर गम्भीर आपत्तियोंकी लहरें उठने लगती हैं और कार्य दुस्तर हो जाता है। अतः अब मैं रमणीय साधनोंके संविधानसे उन स्थिरात्मा शङ्करजीके इन्द्रियसमूहको ढककर उनकी तपस्याको भङ्ग करूँगा ॥ २१८-२२६ ॥

चिन्तयित्वेति मदनो भूतभर्तुस्तदाश्रमम् । 
जगाम जगतीसारं सरलद्रुमवेदिकम् ॥ २२७

शान्तसत्त्वसमाकीर्णमचलप्राणिसंकुलम् । 
नानापुष्पलताजालं गगनस्थगणेश्वरम् ॥ २२८

निर्व्यग्रवृषभाध्युष्टनीलशाद्वलसानुकम् ।
तत्रापश्यत् त्रिनेत्रस्य रम्यं कञ्चिद् द्वितीयकम् ॥ २२९

वीरकं लोकवीरेशमीशानसदृशद्युतिम् । 
यक्षकुङ्कुमकिञ्जल्कपुञ्जपिङ्गजटासटम् ॥ २३० 

वेत्रपाणिनमव्यग्रमुग्रभोगीन्द्रभूषणम् ।
ततो निमीलितोन्निन्द्रपद्मपत्राभलोचनम् ॥ २३१

प्रेक्षमाणमृजुस्थानं नासिकाग्रं सुलोचनैः । 
श्रवस्तरससिंहेन्द्रचर्मलम्बोत्तरीयकम् ॥ २३२

श्रवणाहिफलन्मुक्तं निःश्वासानलपिङ्गलम् । 
प्रेङ्खत्कपालपर्यन्ततुम्बिलम्बिजटाचयम् ॥ २३३

कृतवासुकिपर्यङ्कनाभिमूलनिवेशितम् ।
ब्रह्माञ्जलिस्थपुच्छाग्रनिबद्धोरगभूषणम् ॥ २३४

ददर्श शङ्करं कामः क्रमप्राप्तान्तिकं शनैः । 
ततो भ्रमरझङ्कारमालम्बिद्द्रुमसानुकम् ॥ २३५

प्रविष्टः कर्णरन्धेण भवस्य मदनो मनः।
शङ्करस्तमथाकर्ण्य मधुरं मदनाश्रयम् ॥ २३६

इस प्रकार सोच-विचारकर कामदेव प्राणियोंके पालक शङ्करजीके उस आश्रमपर गया, जो पृथ्वीका सारभूत था। वहाँ आमके वृक्ष उगे हुए थे, जिनकी छायामें वेदिकाएँ बनी थीं। वह शान्त स्वभाववाले जीवोंसे व्याप्त तथा पर्वतीय जीवोंसे भरा हुआ था। वहाँ नाना प्रकारके पुष्पोंकी लताएँ फैली हुई थीं। ऊपर आकाशमण्डलमें गणेश्वर विराजमान थे। वहीं एक ओर नीली घासके ऊपर वृषभराज नन्दीश्वर निश्चिन्तभावसे बैठे हुए थे। वहाँ कामदेवने त्रिनेत्रधारी शङ्करजीके निकट किसी दूसरे सुन्दर पुरुषको देखा। उसका नाम वीरक था। वह जगत्‌के वीरोंमें प्रधान था। उसकी शरीर-कान्ति शङ्करजीके समान थी। उसकी जटाएँ यक्षकुङ्कुम और पद्मकेसरके पुञ्जके समान पीली थीं। उसके हाथमें बेंत शोभा पा रहा था। वह विषैले सर्पोंके आभूषणोंसे विभूषित हो निश्चिन्त भावसे बैठा हुआ था। तदनन्तर कामदेवकी दृष्टि क्रमशः धीरे-धीरे निकट प्राप्त हुए शङ्करजीपर पड़ी, जिनके कमल-दलके सदृश नेत्र अधखुले थे। जो अपने सुन्दर नेत्रोंद्वारा सीधे नासिकाके अग्रभागको देख रहे थे। उनके कंधेपर सिंहके चमड़ेका ऐसा लम्बा उत्तरीय लटक रहा था, जिससे रक्त टपक रहा था। कानोंमें कुण्डलरूपमें पहने हुए सर्पोंके मुखसे निकलती हुई निःश्वासाग्निसे उनका शरीर पीला दीख रहा था। उनकी लम्बी जटाएँ खप्पर और तुम्बीतक हिलती हुई शोभा पा रही थीं। वे वासुकि नागकी शय्या बनाकर उसके नाभिमूलपर बैठे हुए थे। उनकी ब्रह्माञ्जलिमें भूषणरूपसे धारण किये गये सर्पकी पूँछका अग्रभाग स्थित था। तत्पश्चात् शङ्करजी जिस वृक्षके नीचे बैठे हुए थे, उसकी चोटीपर भ्रमरोंकी गुंजार गूंज उठी। उसी समय कामदेव शङ्करजीके श्रोत्रमार्गसे मनमें प्रविष्ट हुआ ॥ २२७-२३५॥ 

सस्मार दक्षदुहितां दयितां रक्तमानसः ।
ततः सा तस्य शनकैस्तिरोभूयातिनिर्मला ॥ २३७

समाधिभावना तस्थौ लक्ष्यप्रत्यक्षरूपिणी। 
ततस्तन्मयतां यातः प्रत्यूहपिहिताशयः ॥ २३८

वशित्वेन बुबोधेशो विकृतिं मदनात्मिकाम् । 
ईषत्कोपसमाविष्टो धैर्यमालम्ब्य धूर्जटिः ॥ २३९

निरासे मदनस्थित्या योगमायासमावृतः । 
स तया माययाऽऽविष्टो जज्वाल मदनस्ततः ॥ २४०

इच्छाशरीरो दुर्जेयो रोषदोषमहाश्रयः । 
हृदयान्निर्गतः सोऽथ वासनाव्यसनात्मकः ॥ २४१ 

बहिःस्थलं समालम्ब्य ह्युपतस्थौ झषध्वजः । 
अनुयातोऽथ हृद्येन मित्रेण मधुना सह ॥ २४२ 

सहकारतरी दृष्ट्वा मृदुमारुतनिधुतम् । 
स्तबकं मदनो रम्यं हरवक्षसि सत्वरम् ॥ २४३ 

मुमोच मोहनं नाम मार्गणं मकरध्वजः । 
शिवस्य हृदये शुद्धे नाशशाली महाशरः ॥ २४४ 

पपात परुषप्रांशुः पुष्पबाणो विमोहनः । 
ततः करणसंदेहो विद्धस्तु हृदये भवः ॥ २४५

बभूव भूधरौपम्यधैर्योऽपि मदनोन्मुखः । 
ततः प्रभुत्वाद्भावानां नावेशं समपद्यत ॥ २४६

भ्रमरोंकी उस मधुर झंकारको सुनकर शङ्करजीका मन कामदेवके प्रभावसे अनुरक्त हो गया। तब उन्होंने अपनी प्रिया दक्षकन्या सतीका स्मरण किया। उस समय उनकी वह लक्ष्यको प्रत्यक्षरूपमें प्रकट करनेवाली अत्यन्त निर्मल समाधिभावना धीरे-धीरे तिरोहित हो गयी। वे विघ्नोंद्वारा लक्ष्यके अवरुद्ध हो जानेसे सतीको तन्मयताको प्राप्त हो गये। थोड़ी देर बाद जितेन्द्रिय होनेके कारण शङ्करजी इस कामजन्य विकारको समझ गये। फिर तो उनमें थोड़ा क्रोधकी झलक आ गयी। तब उन जटाधारीने धैर्य धारणकर अपनेको कामदेवकी स्थितिसे मुक्त करनेके लिये योगमायाका आश्रय लिया। उस मायासे आविष्ट होनेके कारण कामदेव जलने लगा। तत्पश्चात् जो वासना और दुर्व्यसनका मूर्तरूप, स्वेच्छानुसार शरीर धारण करनेवाला, अजेय, क्रोध और दोषका महान् आश्रयस्थान था, वह कामदेव शङ्करजीके हृदयसे बाहर निकला और एक बाहरी स्थानका सहारा लेकर निकट ही खड़ा हो गया। उस समय उसका परम स्नेही मित्र मधु (चैत्रमास या वसन्त) भी उसके साथ था। वहाँ आमके वृक्षपर मन्द वायुसे हिलाये गये रमणीय पुष्पगुच्छको देखकर मकरध्वज कामदेवने शीघ्र ही शङ्करजीके वक्षःस्थलपर वह मोहन नामक बाण छोड़ा। वह विमोहन नामक पुष्पबाण विनाशकारी, महान् प्रभावशाली, कठोर और विशाल था। वह शङ्करजीके शुद्ध हृदयपर जा गिरा। जिससे उनका हृदय घायल हो गया और उनकी इन्द्रियाँ विचलित हो गयीं। फिर तो पर्वतके समान धैर्यशाली होनेपर भी शङ्करजी कामोन्मुख हो गये, किंतु अनेकों बाहरी विघ्नसमूहोंके प्राप्त होनेपर भी सद्भावोंके प्रभुत्वके कारण उनमें कामका आवेश विशेषरूपसे नहीं हुआ ॥ २३६-२४६॥ 

बाह्यं बहु समासाद्य प्रत्यूहप्रसवात्मकम्। 
ततः कोपानलोद्भूतघोरहुङ्कारभीषणे ॥ २४७

बभूव वदने नेत्रं तृतीयमनलाकुलम् । 
रुद्रस्य रौद्रवपुषो जगत्संहारभैरवम् ॥ २४८

तदन्तिकस्थे मदने व्यस्फारयत धूर्जटिः । 
तं नेत्रविस्फुलिङ्गेन क्रोशतां नाकवासिनाम् ॥ २४९

गमितो भस्मसात् तूर्णं कंदर्पः कामिदर्पकः । 
स तु तं भस्मसात्कृत्वा हरनेत्रोद्भवोऽनलः ॥ २५०

व्यजृम्भत जगद्दग्धुं ज्वालाहुङ्कारघस्मरः । 
ततो भवो जगद्धेतोर्व्यभजज्जातवेदसम् ॥ २५१

सहकारे मधौ चन्द्रे सुमनःसु परेष्वपि। 
भृङ्गेषु कोकिलास्येषु विभागेन स्मरानलम् ॥ २५२

स बाह्यान्तरविद्धेन हरेण स्मरमार्गणः । 
रागस्नेहसमिद्धान्तर्धावंस्तीव्रहुताशनः ॥ २५३

विभक्तलोकसंक्षोभकरो दुर्वारजृम्भितः । 
सम्प्राप्य स्नेहसम्पृक्तं कामिनां हृदयं किल ॥ २५४ 

तदुपरान्त क्रोधाग्ग्रिसे उत्पन्न हुए भयंकर हुंकारके भयानक शब्दसे युक्त मुखके ऊपर क्रोधाग्ग्रिसे उद्दीप्त तीसरा नेत्र प्रकट हो गया, जो भीषण रूपधारी शङ्करजीका जगत्‌का संहार करनेवाला भयानक रूप था। तब जटाधारी शङ्करजीने अपने निकट ही खड़े हुए कामदेवकी ओर दृष्टिपात किया। फिर तो उस नेत्रसे निकली हुई एक चिनगारीने तुरंत ही कामियोंके दर्पको बढ़ाने-वाले कामदेवको जलाकर भस्म कर दिया। यह देखकर स्वर्गवासी हाहाकार मचा रहे थे। इस प्रकार शङ्करजीके नेत्रसे उद्भुत हुई अग्नि कामदेवको भस्म कर जगत्‌को जलानेके लिये आगे बढ़ी और लपटोंके हुंकारसे पदार्थोंको भक्षण करने लगी। तब शङ्करजीने जगत्‌का कल्याण करनेके लिये उस अग्निका विभाजन कर दिया। उन्होंने कामाग्निको विभक्त कर आमके वृक्ष, वसन्त-ऋतु (अथवा चैत्रमास), चन्द्रमा, सुगन्धित पुष्पों, भ्रमरों और कोकिलोंके मुखोंमें स्थापित कर दिया। बाहर और भीतर दोनों प्रकारसे घायल हुए शिवजीद्वारा विभक्त हुआ वह कामदेवका बाण अनुराग और स्नेहसे उद्दीप्त हो वेगपूर्वक दौड़ती हुई अग्निकी तरह लोगोंके मनोंको क्षुब्ध करने लगा। उसकी उन्नति रोकी नहीं जा सकती थी। वह इतना भयंकर थी कि उसके प्रतिषेधका कोई उपाय बड़ी कठिनाईसे हो सकता था। इस प्रकार वह अब भी कामियोंके स्नेहसिक्त हृदयमें पहुँचकर उन्हें रात-दिन जलाता रहता है ॥ २४७-२५४ ॥

ज्वलत्यहर्निशं भीमो दुश्चिकित्स्यमुखात्मकः । 
विलोक्य हरहुङ्कारज्वालाभस्मकृतं स्मरम् ॥ २५५

विललाप रतिः क्रूरं बन्धुना मधुना सह। 
ततो विलप्य बहुशो मधुना परिसान्त्विता ॥ २५६

जगाम शरणं देवमिन्दुमौलिं त्रिलोचनम् । 
भृङ्गानुयातां संगृह्य पुष्पितां सहकारजाम् ॥ २५७

लतां पवित्रकस्थाने पाणौ परभृतां सखीम्।
निर्बध्य तु जटाजूटं कुटिलैरलकै रतिः ॥ २५८

उद्धूल्य गात्रं शुभ्रेण हृद्येन स्मरभस्मना। 
जानुभ्यामवनीं गत्वा प्रोवाचेन्दुविभूषणम् ॥ २५९ 

इस प्रकार कामदेवको शङ्करजीके हुंकारकी ज्वालासे भस्म हुआ देख रति कामदेवके मित्र वसन्तके साथ फूट-फूटकर विलाप करने लगी। बहुत प्रकारसे विलाप करनेके पश्चात् वसन्तद्वारा समझायी-बुझायी जानेपर रति त्रिनेत्रधारी भगवान् चन्द्रशेखरकी शरणमें जानेके लिये प्रस्थित हुई। उस समय उसने अपने एक हाथमें पवित्रकके स्थानपर फूली हुई आमकी लताको, जिसपर भँवरे मँडरा रहे थे, धारण कर रखा था और उसके दूसरे हाथपर उसकी सखी कोयल बैठी थी। उसने अपने घुँघराले बालोंको जटाजूटके रूपमें बाँधकर अपने प्रियतम कामदेवके श्वेत भस्मसे शरीरको धूसरित कर लिया था। वहाँ पहुँचकर वह पृथ्वीपर घुटने टेककर भगवान् चन्द्रशेखरसे बोली- ॥ २५५-२५९ ॥

रतिरुवाच

नमः शिवायास्तु निरामयाय नमः शिवायास्तु मनोमयाय।
नमः शिवायास्तु सुरार्चिताय तुभ्यं सदा भक्तकृपापराय ॥ २६०

नमो भवायास्तु भवोद्भवाय नमोऽस्तु ते ध्वस्तमनोभवाय ।
नमोऽस्तु ते गूढमहाव्रताय नमोऽस्तु मायागहनाश्रयाय ।। २६१

नमोऽस्तु शर्वाय नमः शिवाय नमोऽस्तु सिद्धाय पुरातनाय।
नमोऽस्तु कालाय नमः कलाय नमोऽस्तु ते ज्ञानवरप्रदाय ॥ २६२

नमोऽस्तु ते कालकलातिगाय नमो निसर्गामलभूषणाय ।
नमोऽस्त्वमेयान्धकमर्दकाय नमः शरण्याय नमोऽगुणाय ॥ २६३

नमोऽस्तु ते भीमगणानुगाय नमोऽस्तु नानाभुवनादिकर्ते ।
नमोऽस्तु नानाजगतां विधात्रे नमोऽस्तु ते चित्रफलप्रयोक्त्रे ॥ २६४

सर्वावसाने हह्यविनाशनेत्रे नमोऽस्तु चित्राध्वरभागभोको।
नमोऽस्तु भक्ताभिमतप्रदात्रे नमः सदा ते भवसङ्गहत्रे ॥ २६५

रतिने कहा-जो सब प्रकारकी क्षतिसे रहित हैं, उन शिवको नमस्कार है। जो सभी प्राणियोंके मनः स्वरूप हैं, उन शिवको प्रणाम है। जो देवताओंद्वारा पूजित और सदा भक्तोंपर कृपा करनेवाले हैं, उन आप शिवको अभिवादन है। जगत्‌को उत्पन्न करनेवाले शिवको नमस्कार है। कामदेवको भस्म कर देनेवाले आपको प्रणाम है। गुप्त रूपसे महान् व्रतको धारण करनेवाले आपको अभिवादन है। मायारूपी काननका आश्रय लेनेवालेको नमस्कार है।  आप जगत्‌के संहारक, कल्याणकारक और पुरातन सिद्ध हैं, आपको बारंबार प्रणाम है। आप कालस्वरूप, कल (कालकी गणना करनेवाले) और श्रेष्ठ ज्ञानके प्रदाता है, आपको पुनः पुनः अभिवादन है। कालकी कलाका अतिक्रमण करनेवाले आपको नमस्कार है। प्रकृतिरूप निर्मल आभूषण धारण करनेवालेको प्रणाम है। आप अप्रमेय शक्तिशाली अन्धकासुरका मर्दन करनेवाले, शरणदाता और निर्गुण हैं, आपको बारंबार अभिवादन है। भयंकर गणोंद्वारा अनुगमन किये जानेवाले आपको नमस्कार है। अनेकों भुवनोंके आदिकर्ताको प्रणाम है। अनेकों जगत्की रचना करनेवालेको अभिवादन है। चित्र-विचित्र फल प्रदान करनेवाले आपको नमस्कार है। सबकी समाप्ति अर्थात् महाप्रलयके अवसरपर आप विनाशसे बचे हुए प्राणियोंके नेता तथा विशाल यज्ञोंमें अपने भागको भोगनेवाले हैं, आपको प्रणाम है। भक्तोंको उनकी अभीष्ट वस्तुएँ प्रदान करनेवालेको अभिवादन है। संसारकी आसक्तिका हरण करने वाले आपको सदा नमस्कार है॥ २६०-२६५ ॥

अनन्तरूपाय सदैव तुभ्य-मसह्यकोपाय नमोऽस्तु तुभ्यम्।
शशाङ्कचिह्नाय सदैव तुभ्य-ममेयमानाय नमः स्तुताय ।। २६६

वृषेन्द्रयानाय पुरान्तकाय नमः प्रसिद्धाय महौषधाय।
नमोऽस्तु भक्त्याभिमतप्रदाय नमोऽस्तु सर्वार्तिहराय तुभ्यम् ॥ २६७

चराचराचारविचारवर्य-माचार्यमुत्प्रेक्षितभूतसर्गम् ।
त्वामिन्दुमौलिं शरणं प्रपन्ना प्रियाप्रमेयं महतां महेशम् ॥ २६८

प्रयच्छ मे कामयशः समृद्धिं पुनः प्रभो जीवतु कामदेवः ।
प्रियं विना त्वां प्रियजीवितेषु त्वत्तोऽपरः को भुवनेष्विहास्ति ।। २६९

प्रभुः प्रियायाः प्रसवः प्रियाणां प्रणीतपर्यायपरापरार्थः ।
त्वमेवमेको भुवनस्य नाथो दयालुरुन्मूलितभक्तभीतिः ॥ २७०

आप अनन्त रूपवाले हैं तथा आपका क्रोध असह्य होता है, आपको सदैव प्रणाम है। आप चन्द्रमाके चिह्नसे सुशोभित, अपरिमित मानसे युक्त और सभी प्राणियोंद्वारा स्तुत हैं, आपको सदैव अभिवादन है। वृषभेन्द्र नन्दी आपका वाहन है, आप त्रिपुरके विनाशक और प्रसिद्ध महौषधरूप हैं, आपको नमस्कार है। आप भक्तिके वशीभूत हो अभीष्ट प्रदान करनेवाले और सभी प्रकारके कष्टोंको दूर करनेवाले हैं, आपको बारंबार प्रणाम है। आप चराचर प्राणियोंके आचार-विचारसे सर्वश्रेष्ठ, जगत्‌के आचार्य, समस्त भूत-सृष्टिपर दृष्टि रखनेवाले, मस्तकपर चन्द्रमाको धारण करनेवाले, अतुलित प्रेमी और महनीयोंके भी महेश्वर हैं, मैं आपकी शरणमें आयी हूँ। प्रभो ! मुझे कामदेवके यशकी समृद्धि प्रदान कीजिये, जिससे ये कामदेव पुनः जीवित हो जाय। इस त्रिभुवनमें आपसे बढ़कर दूसरा कौन है, जो मेरे प्रियतमको जीवित कर सके। एकमात्र आप ही अपनी प्रियाके प्राणपति, प्रिय पदार्थोंके उद्म-स्थान, पर और अपर इन दोनों अर्थोंके पर्यायस्वरूप, जगत्के स्वामी, परम दयालु और भक्तोंके भयको उखाड़ फेंकनेवाले हैं ॥ २६६-२७० ॥

सूत उवाच

इत्थं स्तुतः शङ्कर ईड्य ईशो वृषाकपिर्मन्मथकान्तया तु।
तुतोष दोषाकरखण्डधारी उवाच चैनां मधुरं निरीक्ष्य ॥ २७१

सूतजी कहते हैं-ऋषियो । कामदेवकी पत्नी रतिद्वारा इस प्रकार स्तवन किये जानेपर स्तुतिके योग्य भगवान् शङ्कर प्रसन्न हो गये। तब चन्द्रखण्डको धारण करनेवाले शिवजी उसकी ओर दृष्टिपात करके मधुर वाणीमें बोले ॥२७१ ॥ 

शंकर उवाच

भवितेति च कामोऽयं कालात् कान्तोऽचिरादपि।
अनङ्ग इति लोकेषु स विख्यातिं गमिष्यति ॥ २७२

इत्युक्ता शिरसा वन्द्य गिरिशं कामवल्लभा ।
जगामोपवनं रम्यं रतिस्तु हिमभूभृतः ॥ २७३

रुरोद बहुशो दीना रमणेऽपि स्थले तु सा।
मरणव्यवसायात्तु निवृत्ता सा हराज्ञया ॥ २७४

शङ्करजीने कहा-कामवल्लभे । थोड़े ही समयके बाद यह कामदेव पुनः तुम्हें पतिरूपमें प्राप्त होगा। वह जगत्में अनङ्ग नाम से विख्यात होगा। इस प्रकार कही जानेपर काम-पत्नी रतिने सिर झुकाकर भगवान् शङ्करको प्रणाम किया, तत्पश्चात् वह हिमालयके रमणीय उपवनकी ओर चली गयी। उस सुरम्य स्थानपर पहुँचकर भी वह दीनभाव से बहुत देरतक विलाप करती रही; क्योंकि वह शङ्करजीकी आज्ञासे मृत्युके निश्चयसे निवृत्त हो चुकी थी ॥२७२-२७४ ॥

अथ नारदवाक्येन चोदितो हिमभूधरः । 
कृताभरणसंस्कारां कृतकौतुकमङ्गलाम् ॥ २७५

स्वर्गपुष्पकृतापीडां शुभ्रचीनांशुकाम्बराम्। 
सखीभ्यां संयुतां शैलो गृहीत्वा स्वसुतां ततः ॥ २७६

जगाम शुभयोगेन तदा सम्पूर्णमानसः । 
स काननान्युपाक्क्रम्य वनान्युपवनानि च ।। २७७

ददर्श रुदतीं नारीमग्रतः समहौजसम् । 
रूपेणासदृशीं लोके रम्येषु वनसानुषु ॥ २७८ 

कौतुकेन परामृश्य तां दृष्ट्वा रुदतीं गिरिः । 
उपसर्प्य ततस्तस्या निकटे सोऽभ्यपृच्छत ॥ २७९

इधर नारदजीके वाक्योंसे प्रेरित होकर पर्वतराज हिमालय उल्लासपूर्ण मनसे दो सखियोंके साथ अपनी कन्याको लेकर (शङ्करजीके पास जानेके लिये) शुभमुहूर्तमें प्रस्थित हुए। उस समय पार्वतीको आभूषणोंसे सुसज्जित कर दिया गया था। उनके सभी वैवाहिक मङ्गलकार्य सम्पन्न कर लिये गये थे। उनके मस्तकपर स्वर्गीय पुष्पोंकी माला पड़ी थी तथा शरीरपर श्वेत रंगकी महीन रेशमी साड़ी झलक रही थी। वे काननों, वनों एवं उपवनोंको पार करके जब आगे बढ़े तो उन्होंने उस रमणीय वनस्थलीमें एक महान् ओजस्विनी नारीको, जो लोकमें अनुपम रूपवती थी, रोती हुई देखा। तब गिरिराज उसे रोती देखकर कुतूहलवश उसके निकट गये और पूछने लगे ॥ २७५-२७९ ॥ 

हिमवानुवाच

कासि कस्यासि कल्याणि किमर्थं चापि रोदिषि। 
नैतदल्पमहं मन्ये कारणं लोकसुन्दरि ॥ २८०

सा तस्य वचनं श्रुत्वा उवाच मधुना सह।
रुदती शोकजननं श्वसती दैन्यवर्धनम् ॥ २८१ 

हिमवान् बोले-कल्याणि! तुम कौन हो? किसकी पत्नी हो? किसलिये इस प्रकार रुदन कर रही हो ? लोकसुन्दरि ! मैं इसका असाधारण कारण नहीं मानता, (अपितु इसका कोई विशेष कारण है। हिमाचलके वचनको सुनकर वसन्तसहित रोती हुई रति दीर्घ निःश्वास लेकर दैन्यवर्धक एवं शोकजनक वचन बोली ॥२८०-२८१ ॥

रतिरुवाच

कामस्य दयितां भार्या रति मां विद्धि सुव्रत । 
गिरावस्मिन् महाभाग गिरिशस्तपसि स्थितः ॥ २८२

तेन प्रत्यूहरुष्टेन विस्फार्यालोक्य लोचनम्। 
दग्धोऽसौ झषकेतुस्तु मम कान्तोऽतिवल्लभः ॥ २८३

अहं तु शरणं याता तं देवं भयविह्वला। 
स्तुतवत्यथ संस्तुत्या ततो मां गिरिशोऽब्रवीत् ॥ २८४

तुष्टोऽहं कामदयिते कामोऽयं ते भविष्यति। 
त्वत्स्तुतिं चाप्यधीयानो नरो भक्त्या मदाश्रयः । 
लप्स्यते काङ्गितं कामं निवर्त्य मरणादितः ॥ २८५

प्रतीक्षन्ती च तद्वाक्यमाशावेशादिभिर्हाहम् । 
शरीरं परिरक्षिष्ये कञ्चित् कालं महाद्युते ॥ २८६

इत्युक्तस्तु तदा रत्या शैलः सम्भ्रमभीषितः । 
पाणावादाय हि सुतां गन्तुमैच्छत् स्वकं पुरम् ॥ २८७

भाविनोऽवश्यभावित्वाद्भवित्री भूतभाविनी। 
लज्जमाना सखिमुखैरुवाच पितरं गिरिम् ॥ २८८ 

रतिने कहा-सुव्रत । आप मुझे कामदेवकी प्यारी पत्नी रति समझें। महाभाग ! इसी पर्वतपर भगवान् शङ्कर तपस्या कर रहे हैं। तपस्यामें विघ्न पड़नेसे रुष्ट होकर उन्होंने अपने तीसरे नेत्रको खोलकर देखा, जिससे मेरे परम प्रिय पति कामदेव जलकर भस्म हो गये। तब भयसे विह्वल हुई मैं उन देवाधिदेवकी शरणमें गयी। वहाँ मैंने उनकी स्तुति की। उस स्तवनसे प्रसन्न होकर भगवान् शङ्करने मुझसे कहा-'कामदयिते ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम्हारा यह मनोरथ पूर्ण हो जायगा। साथ ही जो मनुष्य मेरे शरणागत होकर तुम्हारे द्वारा की गयी इस स्तुतिका भक्तिपूर्वक पाठ करेगा, वह अपनी मनोवाञ्छित कामनाको प्राप्त कर लेगा। अब तुम मृत्युके निश्चयसे निवृत्त हो जाओ।' महाद्युतिमान् पर्वतराज ! उसी आशाके आवेशसे मैं शङ्करजीके वाक्यकी प्रतीक्षा करती हुई कुछ कालतक इस शरीरकी रक्षा करूँगी। रतिद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर हिमाचल उस समय भयभीत हो गये। तब वे अपनी कन्याका हाथ पकड़कर अपने नगरको लौट जानेके लिये उद्यत हो गये। तब जो होनहार है, वह तो अवश्य होकर ही रहेगा- ऐसा विचारकर प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाली पार्वती लजाती हुई सखीके मुखसे अपने पिता गिरिराजसे बोलीं ॥ २८२-२८८ ॥

शैलदुहितोवाच

दुर्भगेण शरीरेण किं मामनेन कारणम्।
कथं च तादृशं प्राप्तं सुखं मे स पतिर्भवेत् ॥ २८९

तपोभिः प्राप्यतेऽभीष्टं नासाध्यं हि तपस्यतः । 
दुर्भगत्त्वं वृथा लोको वहते सति साधने ॥ २९०

जीवितादुर्भगाच्छ्रेयो मरणं ह्यतपस्यतः । 
भविष्यामि न संदेहो नियमैः शोषये तनुम् ॥ २९१

तपसि भ्रष्टसंदेह उद्यमोऽर्थजिगीषया। 
साहं तपः करिष्यामि यदहं प्राप्य दुर्लभा । २९२

इत्युक्तः शैलराजस्तु दुहित्रा स्नेहविक्लवः ।
उवाच वाचा शैलेन्द्रो स्नेहगद्गद्वर्णया ॥ २९३ 

गिरिराजकुमारीने कहा- पिताजी ! इस अभागे शरीरको धारण करनेसे मुझे क्या लाभ प्राप्त हो सकता है? अब मैं किस प्रकार सुखी हो सकूँगी और किस उपायसे भगवान् शङ्कर मेरे पति हो सकेंगे? (ठीक है, ऐसा सुना जाता है कि) तपस्यासे अभीष्ट फलकी प्राप्ति होती है; क्योंकि तपस्वीके लिये कुछ भी असाध्य नहीं है। भला ऐसे उत्तम साधनके रहते हुए भी लोग व्यर्थ ही दुर्भाग्यका भार क्यों बहन करते हैं? तपस्या न करनेवालेके लिये भाग्यहीन जीवनसे तो मर जाना ही श्रेयस्कर है। अतः मैं निःसंदेह तपस्विनी बनूँगी और नियमोंके पालनद्वारा अपने शरीरको सुखा डालूँगी। प्रयोजन-सिद्धिके लिये तपस्याके निमित्त संदेहरहित उद्यम अवश्य करना चाहिये। इसलिये अब मैं तपस्या करूँगी, जिससे मुझे वह दुर्लभ कामना प्राप्त हो जाय। पुत्रीद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर पर्वतराज हिमाचल स्नेहसे विह्वल हो गये, तब वे स्नेहभरी गद्गद वाणीसे बोले ॥ २८९-२९३ ॥

हिमवानुवाच

उमेति चपले पुत्रि न क्षमं तावकं वपुः। 
सोढुं क्लेशस्वरूपस्य तपसः सौम्यदर्शने ॥ २९४

भावीन्यभिविचार्याणि पदार्थानि सदैव तु। 
भाविनोऽर्था भवन्त्येव हठेनानिच्छतोऽपि वा ॥ २९५

तस्मान्न तपसा तेऽस्ति बाले किञ्चित् प्रयोजनम्। 
भवनायैव गच्छामश्चिन्तयिष्यामि तत्र वै ॥ २९६

इत्युक्ता तु यदा नैव गृहायाभ्येति शैलजा। 
ततः स चिन्तयाऽऽविष्टो दुहितां प्रशशंस च ॥ २९७

ततोऽन्तरिक्षे दिव्या वागभूद्भुवनभूतले। 
उमेति चपले पुत्रि त्वयोक्ता तनया ततः ॥ २९८

उमेति नाम तेनास्या भुवनेषु भविष्यति। 
सिद्धिं च मूर्तिमत्येषा साधयिष्यति चिन्तिताम् ॥ २९९

इति श्रुत्वा तु वचनमाकाशात् काशपाण्डुरः । 
अनुज्ञाय सुतां शैलो जगामाशु स्वमन्दिरम् ॥ ३००

हिमवान्ने कहा-बेटी! तू तो बड़ी चञ्चल है। 'उमा'- उसे मत कर; क्योंकि सुन्दर स्वरूपवाली बच्ची ! तेरा यह शरीर क्लेशस्वरूप तपस्याके कष्टको सहन करनेके लिये सक्षम नहीं है। वत्से! भावी पदार्थोंके प्रति सदैव ऐसा समझना चाहिये कि होनहारके विषय न चाहने पर भी हठपूर्वक घटित होते ही हैं; अतः बाले! तुझे तपस्या करनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। आओ, हमलोग घर चलें, वहीं इस विषयमें विचार किया जायगा। इस प्रकार कहे जानेपर भी जब पार्वती घर लौटनेके लिये उद्यत नहीं हुई, तब हिमाचल चिन्तित हो गये और पुत्रीकी प्रशंसा करने लगे। इसी बीच धरातलपर इस प्रकारकी दिव्य आकाशवाणी सुनायी पड़ी 'शैलराज ! जो तुमने अपनी पुत्रीके प्रति 'उ मेति चपले पुत्रि- चञ्चल बेटी । उसे मत कर' ऐसा कहा है, इस कारण संसारमें इसका 'उमा' नाम प्रसिद्ध होगा। यह साक्षात् प्रकट होकर (भक्तोंको उनकी) अभीष्ट सिद्धि प्रदान करेगी।' इस आकाशवाणीको सुनकर कास पुष्पके समान उज्ज्वल वर्णवाले हिमाचल अपनी पुत्रीको तपके निमित्त आज्ञा देकर शीघ्र ही अपने भवनको लौट गये ॥ २९४-३००॥ 

सूत उवाच

शैलजापि ययाँ शैलमगम्यमपि दैवतैः । 
सखीभ्यामनुयाता तु नियता नगराजजा ॥ ३०१

शृङ्गं हिमवतः पुण्यं नानाधातुविभूषितम् । 
दिव्यपुष्पलताकीर्णं सिद्धगन्धर्वसेवितम् ॥ ३०२

नानामृगगणाकीर्ण भ्रमरोद्धुष्टपादपम् । 
दिव्यप्रस्त्रवणोपेतं दीर्घिकाभिरलङ्कृतम् ॥ ३०३

नानापक्षिगणाकीर्ण चक्रवाकोपशोभितम् । 
जलजस्थलजैः पुष्यैः प्रोत्फुल्लैरुपशोभितम् ॥ ३०४

चित्रकन्दरसंस्थानं गुहागृहमनोहरम् ।
विहङ्गसंघसंजुष्टं कल्पपादपसंकटम् ॥ ३०५

तत्रापश्यन्महाशाखं शाखिनं हरितच्छदम्। 
सर्वर्तुकुसुमोपेतं मनोरथशतोज्ज्वलम् ॥ ३०६

नानापुष्पसमाकीर्ण नानाविधफलान्वितम्। 
नतं सूर्यस्य रुचिभिभिन्नसंहतपल्लवम् ॥ ३०७

तत्राम्बराणि संत्यज्य भूषणानि च शैलजा। 
संवीता वल्कलैर्दिव्यैर्दर्भनिर्मितमेखला ।। ३०८

त्रिःस्नाता पाटलाहारा बभूव शरदां शतम्। 
शतमेकेन शीर्णेन पर्णेनावर्तयत् तदा ॥ ३०९


निराहारा शतं साभूत् समानां तपसां निधिः ।
तत उद्वेजिताः सर्वे प्राणिनस्तत्तपोऽग्निना ॥ ३१०

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! इधर पार्वती भी नियमबद्ध होकर अपनी दोनों सखियोंके साथ उस शिखरकी ओर प्रस्थित हुई, जो देवताओंके लिये भी अगम्य था। हिमालयका वह पावन शिखर अनेकों प्रकारकी धातुओंसे विभूषित था। उसपर दिव्य पुष्पोंकी लताएँ फैली हुई थीं। वह सिद्धों एवं गन्धर्वोद्वारा सेवित था। वहाँ अनेकों जातियोंके मृगसमूह विचर रहे थे। उसके वृक्षोंपर भ्रमर गुंजार कर रहे थे। वह दिव्य झरनोंसे युक्त तथा बावलियोंसे सुशोभित था। वहाँ नाना प्रकारके पक्षिसमूह चहचहा रहे थे। वह चक्रवाक पक्षीसे अलंकृत तथा जलमें एवं स्थलपर उत्पन्न होनेवाले खिले हुए पुष्पोंसे विभूषित था। वह विचित्र ढंगकी कन्दराओंसे युक्त था। उन गुफाओंमें मनको लुभानेवाले गृह बने थे। वहाँ घनेरूपमें कल्पवृक्ष उगे हुए थे, जिनपर पक्षिसमूह निवास करते थे। 
वहाँ पहुँचकर गिरिराजकुमारी पार्वतीने एक विशाल शाखाओंवाले वृक्षको देखा, जो हरे-हरे पत्तोंसे सुशोभित था। वह छहों ऋतुओंके पुष्पोंसे युक्त, सैकड़ों मनोरथोंकी भाँति उज्ज्वल, नाना प्रकारके पुष्पोंसे आच्छादित और अनेकविध फलोंसे लदा हुआ था। सूर्यकी किरणें उसके सघन पल्लवोंका भेदन कर नीचेतक नहीं पहुँच पाती थीं। उसी वृक्षके नीचे पार्वतीने अपने आभूषणों और वस्त्रोंको उतारकर मूँजकी मेखला और दिव्य वल्कलवस्त्रोंसे अपने शरीरको ढक लिया (और वे तपस्यामें निरत हो गयीं)। उन्होंने प्रथम सौ वर्ष त्रिकाल स्नान और पाटल वृक्षके पत्तोंका भोजन करके बिताया। फिर दूसरे सौ वर्षोंतक वे एक सूखा पत्ता चबाकर जीवननिर्वाह करती रहीं और पुनः सौ वर्षीतक निराहार रहकर तपस्यामें संलग्न रहीं। उस प्रकार वे तपस्याकी निधि बन गयीं। फिर तो उनकी तपस्याजन्य अग्निसे सभी प्राणी उद्विग्न हो उठे ॥ ३०१-३१०॥ 

ततः सस्मार भगवान् मुनीन् सप्त शतक्रतुः । 
ते समागम्य मुनयः सर्वे समुदितास्ततः ॥ ३११

पूजिताश्च महेन्द्रेण पप्रच्छ्रुस्तं प्रयोजनम्।
किमर्थं तु सुरश्रेष्ठ संस्मृतास्तु वयं त्वया ॥ ३१२

शक्रः प्रोवाच शृण्वन्तु भगवन्तः प्रयोजनम् । 
हिमाचले तपो घोरं तप्यते भूधरात्मजा ।
तस्या ह्यभिमतं कामं भवन्तः कर्तुमर्हथ ॥ ३१३ 

ततः समापतन् देव्या जगदर्थं त्वरान्विताः ।
तथेत्युक्त्वा तु शैलेन्द्रं सिद्धसंघातसेवितम् ॥ ३१४

ऊचुरागत्य मुनयस्तामथो मधुराक्षरम् ।
पुत्रि किं ते व्यवसितः कामः कमललोचने ॥ ३१५

तानुवाच ततो देवी सलज्जा गौरवान्मुनीन् । 
तपस्यतो महाभागाः प्राप्य मौनं भवादृशान् ॥ ३१६

वन्दनाय नियुक्ता धीः पावयत्यविकल्पितम् ।
प्रश्नोन्मुखत्वाद् भवतां युक्तमासनमादितः ॥ ३१७

उपविष्टाः श्रमोन्मुक्तास्ततः प्रक्ष्यथ मामतः । 
इत्युक्त्वा सा ततश्चक्रे कृतासनपरिग्रहान् ॥ ३१८

सा तु तान् विधिवत् पूज्यन् पूजयित्वा विधानतः । 
उवाचादित्यसंकाशान् मुनीन् सप्त सती शनैः ।। ३१९ 

तदनन्तर ऐश्वर्यशाली इन्द्रने सातों मुनियोंका स्मरण किया। स्मरण करते ही वे सभी मुनि हर्षपूर्वक वहाँ उपस्थित हो गये। तब महेन्द्रद्वारा पूजित होनेपर उन्होंने इन्द्रसे अपना स्मरण किये जानेका प्रयोजन पूछते हुए कहा-'सुरश्रेष्ठ! किसलिये आपने हमलोगोंका स्मरण किया है ?' यह सुनकर इन्द्रने कहा-' ऋषिगण! आपलोग मेरे उस प्रयोजनको श्रवण करें। हिमाचलकी कन्या पार्वती हिमालय पर्वतपर घोर तपका अनुष्ठान कर रही है। आपलोग उनकी अभीष्ट कामनाको पूर्ण करें।' तत्पश्चात् 'तथेति-बहुत अच्छा' यो कहकर जगत्‌का कल्याण करनेके लिये (अरुन्धतीसहित सभी) मुनिगण शीघ्र ही सिद्धसमूहोंसे सेवित हिमालयके शिखरपर पार्वती देवीके निकट पहुँचे। वहाँ पहुँचकर मुनियोंने पार्वतीसे मधुर वाणीमें पूछा-'कमलके समान नेत्रोंवाली पुत्रि! तुम अपना कौन-सा मनोरथ सिद्ध करना चाहती हो?' तब गौरववश लजाती हुई पार्वती देवीने उन मुनियोंसे कहा- 'महाभाग मुनिगण ! यद्यपि तपस्या करते समय मैंने मौनका नियम ले रखा था, तथापि आप-जैसे महापुरुषोंकी बन्दना करनेके लिये मेरी बुद्धि उत्सुक हो उठी है, जो निश्चय ही मुझे पावन बना रही है। प्रश्न पूछनेसे पूर्व आपलोगोंके लिये आसन ग्रहण कर लेना ही उपयुक्त है, अतः पहले आसनपर बैठिये, थकावटको दूर कीजिये, तत्पश्चात् मुझसे पूछिये।' ऐसा कहकर पार्वतीने उन पूजनीयोंको आसनपर विराजमान किया और विधि विधानपूर्वक उनकी पूजा की। तत्पश्चात् सती धीमे स्वरमें सूर्यके समान तेजस्वी उन सप्तर्षियोंसे कहने लगीं ॥ ३११-३१९ ॥

त्यक्त्वा व्रतात्मकं मौनं मौनं जग्राह ह्रीमयम्।
भावं तस्यास्तु मौनान्तं तस्याः सप्तर्षयो यथा ॥। ३२०

गौरवाधीनतां प्राप्ताः पप्रच्छुस्तां पुनस्तथा। 
सापि गौरवगर्भेण मनसा चारुहासिनी ॥ ३२१

मुनीशान्तकथालापान् प्रेक्ष्य प्रोवाच वाग्यमम् ।
भगवन्तो विजानन्ति प्राणिनां मानसं हितम् ॥ ३२२

मनोगतीभिरत्यर्थं कन्दर्प्यन्ते हि देहिनः । 
केचित्तु निपुणास्तत्र घटन्ते विबुधोद्यमैः ॥ ३२३

उपायैर्दुर्लभान् भावान् प्राप्नुवन्ति ह्यतन्द्रिताः । 
अपरे तु परिच्छिन्ना नानाकाराभ्युपक्रमाः ॥ ३२४

देहान्तरार्थमारम्भमाश्रयन्ति हितप्रदम् ।
मम त्वाकाशसम्भूतपुष्पदामविभूषितम् ॥ ३२५

वन्ध्या सुतं प्राप्तुकामा मनः प्रसरते मुहुः । 
अहं किल भवं देवं पतिं प्राप्तुं समुद्यता ॥ ३२६

प्रकृत्यैव दुराधर्षं तपस्यन्तं तु सम्प्रति । 
सुरासुरैरनिर्णीतपरमार्थक्रियाश्रयम् ॥ ३२७

साम्प्रतं चापि निर्दग्धमदनं वीतरागिणम्। 
कथमाराधयेदीशं मादृशी तादृशं शिवम् ॥ ३२८

इत्युक्ता मुनयस्ते तु स्थिरतां मनसस्ततः । 
ज्ञातुमस्या वचः प्रोचुः प्रक्रमात् प्रकृतार्थकम् ॥ ३२९ 

उस समय उन्होंने व्रतसम्बन्धी मौनका त्याग कर लज्जामय मौन ग्रहण कर लिया था, जिससे उनका भाव मौन-दशामें परिणत हो गया था। तब सप्तर्षियोंने गौरवके अधीन हुई पार्वतीसे उस प्रयोजनके विषयमें पुनः प्रश्न किया। तदुपरान्त सुन्दर मुसकानवाली पार्वतीने गौरवपूर्ण मनसे मुनियोंको शान्तरूपसे वार्तालाप करते देखकर वाणीपर संयम रखते हुए इस प्रकार कहा- 'महर्षियो ! आपलोग तो प्राणियोंक मानस हितको भलीभांति जानते हैं। शरीरधारी प्राणी प्रायः अपने मनोगत भावोंके कारण ही अत्यधिक कष्टका अनुभव करते हैं। उनमें कुछ लोग ऐसे निपुण हैं, जो आलस्यरहित हो दैवी उपायोंद्वारा प्रयत्न करते हैं और दुर्लभ विषयोंको प्राप्त कर लेते हैं। दूसरे कुछ लोग ऐसे हैं, जो परिमित एवं नाना प्रकारके उपायोंसे युक्त हैं। वे देहान्तरको ही हितप्रद मानकर उसके लिये कार्यारम्भ करते हैं। परंतु मेरा मन आकाशमें उत्पन्न हुए पुष्पोंकी मालासे विभूषित वन्ध्या पुत्रको प्राप्त करनेके लिये बारंबार प्रयास कर रहा है। मैं निश्चितरूपसे भगवान् शङ्करको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये उद्यत हूँ। वे एक तो स्वभावसे ही दुराराध्य हैं, दूसरे इस समय तो वे तपस्यामें निरत हैं। सुर अथवा असुर कोई भी अबतक उनकी परमार्थ-क्रियाका निर्णय नहीं कर सका। अभी-अभी हालमें ही वे कामदेवको जलाकर वीतरागी तपस्वी बन गये हैं। भला मुझ जैसी अबला वैसे कल्याणकारी शिवकी आराधना कैसे कर सकती है।' इस प्रकार कहे जानेपर वे मुनिगण पार्वतीके मनको स्थिरताका ज्ञान प्राप्त करनेके लिये क्रमशः उसी विषयपर पुनः बोले ॥ ३२०-३२९॥ 

मुनय ऊचुः

द्विविधं तु सुखं तावत् पुत्रि लोकेषु भाव्यते।
शरीरस्यास्य सम्भोगैश्चेतसश्चापि निर्वृतिः ॥ ३३०

प्रकृत्या स तु दिग्वासा भीमः पितृवणेशयः ।
कपाली भिक्षुको नग्नो विरूपाक्षः स्थिरक्रियः ॥ ३३१

प्रमत्तोन्मत्तकाकारो बीभत्सकृतसंग्रहः ।
यतिना तेन कस्तेऽर्थो मूर्तानर्थेन काङ्कितः ॥ ३३२ 

यदि ह्यस्य शरीरस्य भोगमिच्छसि साम्प्रतम् ।
तत् कथं ते महादेवाद्भयभाजो जुगुप्सितात् ॥ ३३३

स्रवद्रक्तवसाभ्यक्तकपालकृतभूषणात् ।
श्वसदुग्रभुजंगेन्द्रकृतभूषणभीषणात् ॥ ३३४

मुनियोंने कहा- 'बेटी ! लोकोंमें दो प्रकारके सुख बतलाये जाते हैं-एक तो इस शरीरके सम्भोगोंद्वारा और दूसरा मनकी (विषयभोगोंसे) निवृत्तिद्वारा प्राप्त होता है। शङ्करजी तो स्वभावसे ही दिगम्बर, विकृत वेषधारी, पितृवनमें शयन करनेवाले, कपालधारी, भिक्षुक, नग्न, विकृत नेत्रोंवाले और उद्यमहीन हैं। उनका आकार मतवाले पागलोंकी तरह है। वे घृणित वस्तुओंका ही संग्रह करते हैं। वे एकदम अनर्थकी मूर्ति हैं। ऐसे संन्यासीसे तुम अपना कौन-सा प्रयोजन सिद्ध करना चाहती हो? यदि तुम इस समय इस शरीरके भोगकी इच्छा करती हो तो भला उन भयावने एवं निन्दित महादेवसे तुम्हें उसकी प्राप्ति कैसे हो सकती है; उनके तो चूते हुए रक्त और मज्जासे चुपड़े हुए कपाल ही भूषण हैं। वे फुफकारते हुए विषैले सर्पराजोंका आभूषण धारण करनेके कारण बड़े भीषण दीख पड़ते हैं, सदा श्मशानमें निवास करते हैं और भयंकर प्रमथगण उनके अनुचर हैं ॥ ३३०-३३४ ॥

श्मशानवासिनो रौद्रप्रमथानुगतात् सति ।
सुरेन्द्रमुकुटब्रातनिघृष्टचरणोऽरिहा ॥ ३३५ 

हरिरस्ति जगद्धाता श्रीकान्तोऽनन्तमूर्तिमान्। 
नाथो यज्ञभुजामस्ति तथेन्द्रः पाकशासनः ॥ ३३६

देवतानां निधिश्चास्ति ज्वलनः सर्वकामकृत् । 
वायुरस्ति जगद्धाता यः प्राणः सर्वदेहिनाम् ॥ ३३७

तथा वैश्रवणो राजा सर्वार्थमतिमान् विभुः । 
एभ्य एकतमं कस्मान्न त्वं सम्प्राप्तुमिच्छसि ॥ ३३८ 

उतान्यदेहसम्प्राप्त्या सुखं ते मनसेप्सितम् । 
एवमेतत् तवाप्यत्र प्रभवो नाकसम्पदाम्। 
अस्मिन् नेह परत्रापि कल्याणप्राप्तयस्तव ॥ ३३९ 

पितुरेवास्ति तत् सर्व सुरेभ्यो यन्न विद्यते। 
अतस्तत्प्राप्तये क्लेशः स वाप्यत्राफलस्तव ॥ ३४० 

प्रायेण प्रार्थितो भद्रे सुस्वल्पो ह्यतिदुर्लभः । 
अस्य ते विधियोगस्य धाता कर्तात्र चैव हि ।। ३४१

इनसे तो कहीं अच्छे भगवान् विष्णु हैं, जिनके चरणोंपर प्रधान देवता अपने मुकुटसमूहोंको रगड़ते रहते हैं। जो शत्रुओंके संहारक, जगत्‌का पालन-पोषण करनेवाले, लक्ष्मीके पति और अनुपम शोभाशाली हैं। इसी प्रकार यज्ञभोजी देवताओंके स्वामी पाकशासन हैं। देवताओंके निधिस्वरूप एवं समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाले अग्नि हैं। जगत्‌का पालन-पोषण करनेवाले वायु हैं, जो सभी शरीरधारियोंके प्राण हैं तथा विश्रवाके पुत्र राजाधिराज कुबेर हैं, जो बड़े ऐश्वर्यशाली, बुद्धिमान् और सम्पूर्ण सम्पत्तियोंके अधीश्वर हैं। तुम इनमेंसे किसी एकको प्राप्त करनेकी इच्छा क्यों नहीं कर रही हो ? अथवा यदि तुमने अपने मनमें यह ठान लिया हो कि जन्मान्तरमें सुखकी प्राप्ति होगी तो वह भी तुम्हें स्वर्गवासी देवताओंसे ही प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार तुम्हें देवताओंके बिना इस जन्ममें अथवा जन्मान्तरमें कल्याणकी प्राप्ति नहीं हो सकती। यदि अन्यान्य सुखदायक पदार्थोंको प्राप्त करना चाहती हो तो वे सब तुम्हारे पिताके पास ही इतने अधिक हैं, जो देवताओंके पास नहीं है; अतः उनकी प्राप्तिके हेतु तुम्हारा इस प्रकार कष्ट सहन करना व्यर्थ है। साथ ही भद्रे! प्रायः ऐसा देखा जाता है कि माँगी हुई वस्तुका मिलना अत्यन्त कठिन होता है और यदि मिल भी जाय तो बहुत थोड़ी ही मिलती है। इस कारण तुम्हारे इस मनोरथको ब्रह्मा ही पूर्ण कर सकते हैं (दूसरेकी शक्ति नहीं है) ॥३३५-३४९॥

सूत उवाच

इत्युक्ता सा तु कुपिता मुनिवर्येषु शैलजा। 
उवाच कोपरक्ताक्षी स्फुरद्भिर्दशनच्छदैः ॥ ३४२

सूतजी कहते हैं-ऋषियो! सप्तर्षियोंद्वारा इस प्रकार कही जानेपर पार्वती उन मुनियोंपर कुपित हो उठीं। उनके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये और होंठ फड़कने लगे, तब वे बोलीं ॥ ३४२॥

देव्युवाच

असग्रहस्य का नीतिर्नासनस्य क्व यन्त्रणा। 
विपरीतार्थबोद्धारः सत्पथे केन योजिताः ॥ ३४३

एवं मां वेत्थ दुष्प्रज्ञां ह्यस्थानासग्रहप्रियाम् । 
न मां प्रति विचारोऽस्ति ततोऽहङ्कारमानिनी ॥ ३४४

प्रजापतिसमाः सर्वे भवन्तः सर्वदर्शिनः ।
नूनं न वेत्थ तं देवं शाश्वतं जगतः प्रभुम् ॥ ३४५

अजमीशानमव्यक्तममेयमहिमोदयम् ॥ ३४६

आस्तां तद्धर्मसद्भावसम्बोधस्तावदद्भुतः । 
विदुर्य न हरिब्रह्मप्रमुखा हि सुरेश्वराः ॥ ३४७

यत्तस्य विभवात् स्वोत्थं भुवनेषु विजृम्भितम् । 
प्रकटं सर्वभूतानां तदप्यत्र न वेत्थ किम् ॥ ३४८

कस्यैतद्गनं मूर्तिः कस्याग्निः कस्य मारुतः । 
कस्य भूः कस्य वरुणः कश्चन्द्रार्कविलोचनः ॥ ३४९

कस्यार्चयन्ति लोकेषु लिङ्गं भक्त्या सुरासुराः । 
यं ब्रुवन्तीश्वरं देवा विधीन्द्राद्या महर्षयः ॥ ३५० 

देवीने कहा-सप्तर्षियो! असद् वस्तुको ग्रहण करनेवालेके लिये नीति कैसी? तथा दुर्व्यसनीके लिये व्यसनकी प्राप्तिमें कष्ट कहाँ? (अर्थात् जिसमें जिसका मन आसक्त हो गया है, उसकी प्राप्तिके लिये उसे कितना ही कष्ट क्यों न झेलना पड़े, परंतु वह उसकी परवा नहीं करता।) अरे! विपरीत अर्थको जाननेवाले आपलोगोंको किसने सन्मार्गपर नियुक्त कर दिया? आपलोग मुझे इस प्रकार दुष्ट बुद्धिवाली तथा अयुक्त एवं असद् वस्तुको ग्रहण करनेकी अभिलाषिणी मानते हैं, अतः आपलोगोंका विचार मेरे प्रति ठीक नहीं है। इसी कारण मेरे मनमें अहंकारपूर्वक मान उत्पन्न हो गया है। यद्यपि आप सभी लोग प्रजापतिके समान समदर्शी हैं तथापि उन महादेवके विषयमें आपलोगोंको निश्चय ही कुछ भी ज्ञात नहीं है। वे अविनाशी, जगत्‌के स्वामी, अजन्मा, शासक, अव्यक्त और अप्रमेय महिमावाले हैं। विष्णु और ब्रह्मा आदि सुरेश्वर भी जिन्हें नहीं जानते, उन महादेवके धर्म एवं सद्भावका जो अद्भुत ज्ञान आपलोग दे रहे हैं, उसे अब रहने दीजिये। जिसके विभवसे उत्पन्न हुआ चैतन्य सभी लोकोंमें फैला हुआ है और सभी प्राणियोंमें प्रत्यक्षरूपसे दृष्टिगोचर हो रहा है, उसे भी क्या आपलोग नहीं जानते। (भला सोचिये तो सही) यह आकाश, अग्नि, वायु, पृथ्वी और वरुण पृथक् पृथरूपसे किसकी मूर्ति हैं? चन्द्रमा और सूर्यको नेत्ररूपमें धारण करने वाला कौन है? समस्त सुर एवं असुर लोकोंमें भक्तिपूर्वक किसके लिङ्गकी अर्चना करते हैं? ब्रह्मा एवं इन्द्र आदि देवता तथा महर्षिगण जिन्हें अपना ईश्वर मानते हैं, उन देवताओंके प्रभाव एवं उत्पत्तिको भी क्या आपलोग नहीं जानते ? ॥ ३४३-३५०॥

प्रभावं प्रभवं चैव तेषामपि न वेत्थ किम् । 
अदितिः कस्य मातेयं कस्माज्जातो जनार्दनः ॥ ३५१

अदितेः कश्यपाज्जाता देवा नारायणादयः । 
मरीचेः कश्यपः पुत्रो ह्यदितिर्दक्षपुत्रिका ॥ ३५२

मरीचिश्चापि दक्षश्च पुत्रौ तौ ब्रह्मणः किल। 
ब्रह्मा हिरण्मयात्त्वण्डाद्दिव्यसिद्धिविभूषितात् ।। ३५३

कस्य प्रादुरभूद्ध्यानात्प्राकृतैः प्रकृतांशकात् । 
प्रकृतौ तु तृतीयायामम्बुजाज्जननक्रिया ॥ ३५४

जातः ससर्ज षड्वर्गान् बुद्धिपूर्वान्स्वकर्मजान् । 
अजातकोऽभवद्वेधा ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः ॥ ३५५ 

यः स्वयोगेन संक्षोभ्य प्रकृतिं कृतवानिदम् । 
ब्रह्मणः सिद्धसर्वार्थमैश्वर्यं लोककर्तृताम् ॥ ३५६

विदुर्विष्ण्वादयो यच्च स्वमहिम्ना सदैव हि। 
कृत्वान्यं देहमन्यादृक् तादृक् कृत्वा पुनर्हरिः ॥ ३५७

कुरुते जगतः कृत्यमुत्तमाधममध्यमम् । 
एवमेव हि संसारो यो जन्ममरणात्मकः ॥ ३५८

(यदि नहीं जानते तो सुनिये) ये अदिति किसकी माता हैं और विष्णु किससे उत्पन्न हुए हैं? ये नारायण आदि सभी देवता कश्यप और अदितिसे ही उत्पन्न हुए हैं। वे कश्यप महर्षि मरीचिके पुत्र हैं और अदिति प्रजापति दक्षकी पुत्री हैं। ये दोनों मरीचि और दक्ष भी ब्रह्माके पुत्र हैं और ब्रह्मा दिव्य सिद्धिसे विभूषित हिरण्मय अण्डसे प्रकट हुए हैं। उनका प्रादुर्भाव किसके ध्यानसे हुआ था ? (अर्थात् ब्रह्माके आविर्भावके कारण महादेव ही हैं।) ब्रह्मा प्राकृत गुणोंके संयोगसे प्रकृतिके अंशसे तृतीय-प्रकृतिमें कमलपर उत्पन्न हुए थे। जन्म लेते ही उन्होंने बुद्धिपूर्वक अपने कर्मवश उत्पन्न होनेवाले षड्‌वर्गोंकी सृष्टि की। इस प्रकार अव्यक्तजन्मा ब्रह्मसे उत्पन्न होनेके कारण ब्रह्मा अजन्मा कहलाये, जिन्होंने अपने योगबलसे प्रकृतिको संक्षुब्ध कर इस जगत्‌की रचना की। विष्णु आदि सभी देवता अपनी महिमासे सदासे ही ब्रह्माकी सर्वार्थसिद्धि, ऐश्वर्य और लोकरचनाको जानते हैं। पुनः श्रीहरि युगानुसार विभिन्न प्रकारका शरीर धारण कर जगत्‌के उत्तम, मध्यम और अधम कर्मोंका सम्पादन करते हैं। जन्म-मृत्युरूप संसारकी यही स्थिति है और अनेक रूपोंमें उत्पन्न हुए कर्मोंका भी यही फल है ॥ ३५१-३५८ ॥

कर्मणश्च फलं होतन्नानारूपसमुद्भवम् ।
अथ नारायणो देवः स्वकां छायां समाश्रयत् ॥ ३५९

तत्प्रेरितः प्रकुरुते जन्म नानाप्रकारकम्। 
सापि कर्मण एवोक्ता प्रेरणा विवशात्मनाम् ॥ ३६०

यथोन्मादादिजुष्टस्य मतिरेव हि सा भवेत्। 
इष्टान्येव यथार्थानि विपरीतानि मन्यते ॥ ३६१

लोकस्य व्यवहारेषु सृष्टेषु सहते सदा। 
धर्माधर्मफलावाप्तौ विष्णुरेव निबोधितः ॥ ३६२ 

अथानादित्वमस्यास्ति सामान्यात्तु तदात्मना। 
न ह्यस्य जीवितं दीर्घ दृष्टं देहे तु कुत्रचित् ॥ ३६३ 

भवद्भिर्यस्य नो दृष्टमन्तमग्रमथापि वा। 
देहिनां धर्म एवैष क्वचिज्जायेत् क्वचिन्प्रियेत् ॥ ३६४ 

क्वचिद्गर्भगतो नश्येत्क्वचिज्जीवेज्जरामयः । 
क्वचित्समाः शतं जीवेत् क्वचिद्बाल्ये विपद्यते ॥ ३६५

शतायुः पुरुषो यस्तु सोऽनन्तः स्वल्पजन्मनः । 
जीवितो न नियत्यग्रे तस्मात् सोऽमर उच्यते ।। ३६६

अदृष्टजन्मनिधना होवं विष्ण्वादयो मताः । 
एतत् संशुद्धमैश्वर्य संसारे को लभेदिह ॥ ३६७

तत्र क्षयादियोगात् तु नानाश्चर्यस्वरूपिणि । 
तस्माद्दिवश्चरान् सर्वान् मलिनान् स्वल्पभूतिकान् ।। ३६८ 

नाहं भद्राः किलेच्छामि ऋऋते शर्वात् पिनाकिनः ।
स्थितं च तारतम्येन प्राणिनां परमं त्विदम् ॥ ३६९ 

धीबलैश्वर्यकार्यादिप्रमाणं महतां महत्।
यस्मान्न कञ्चिदपरं सर्वे यस्मात् प्रवर्तते ॥ ३७०

यस्यैश्वर्यमनाद्यन्तं तमहं शरणं गता।
एष मे व्यवसायश्च दीर्घोऽतिविपरीतकः ॥ ३७१ 

यात वा तिष्ठतैवाथ मुनयो मद्विधायकाः ।
एवं निशम्य वचनं देव्या मुनिवरास्तदा ॥ ३७२

आनन्दानुपरीताक्षाः सस्वजुस्तां तपस्विनीम्। 
ऊचुश्च परमप्रीताः शैलजां मधुरं वचः ॥ ३७३

तदनन्तर भगवान् नारायण अपनी छायाका आश्रय ग्रहण करते हैं और उससे प्रेरित हो नाना प्रकारका जन्म धारण करते हैं। वह प्रेरणा भी भाग्याधीन प्राणियोंके कर्मके अनुरूप ही कही गयी है, जो उन्माद आदिसे युक्त पुरुषकी बुद्धि-जैसी होती है; क्योंकि वह अपनी यथार्थ इष्ट वस्तुओंको भी विपरीत ही मानता है और सदा लोकके लिये रचे गये व्यवहारोंमें कष्ट भोगता है। इस प्रकार धर्म और अधर्मके फलकी प्राप्तिमें विष्णु ही कारण माने गये हैं। यद्यपि विष्णुको सामान्यतया आत्मरूपसे अनादि माना जाता है, तथापि उनका किसी भी देहमें दीर्घ जीवन नहीं देखा गया। आपलोग भी उनके आदि-अन्तको नहीं जानते, किंतु देहधारियोंका यह धर्म है कि वे कहीं जन्म लेते हैं तो मरते कहीं हैं। कहीं गर्भमें ही नष्ट हो जाते हैं तो कहीं बुढ़ापा और रोगसे ग्रस्त होकर भी जीवित रहते हैं। कोई सौ वर्षोंतक जीवित रहता है तो कोई बचपनमें ही कालके गालमें चला जाता है। जिस पुरुषकी आयु सी वर्षकी होती है, वह थोड़ी आयुवालेकी अपेक्षा अनन्त आयुवाला कहा जाता है। 

सदा जीवित रहते हुए जो आगे चलकर मृत्युको नहीं प्राप्त होता, उसे अमर कहा जाता है। इस तरह विष्णु आदि देवगण भी प्रारब्ध, जन्म और मृत्युसे युक्त माने गये हैं। भला, जो विनाश आदिके संयोगसे नाना प्रकारके आश्चर्यमय स्वरूपोंसे युक्त है, उस संसारमें ऐसा विशुद्ध ऐश्वर्य किसको प्राप्त हो सकता है? अतः भद्रपुरुषो! मैं पिनाकधारी शङ्करजीके अतिरिक्त इन सभी मलिन एवं स्वल्प विभूतिवाले देवताओंको नहीं वरण करना चाहती। प्राणियोंकी यह उत्कृष्टता तो क्रमशः चली ही आ रही है, किंतु जो महापुरुष हैं, उनके बल, बुद्धि, ऐश्वर्य और कार्यका प्रमाण भी विशाल होता है। अतः जिन शङ्करजीसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है और जहाँ पहुँचकर सभी समाप्त हो जाते हैं तथा जिनका ऐश्वर्य आदि-अन्तसे रहित है, मैंने उन्हींकी शरण ग्रहण की है। मेरा यह व्यवसाय अत्यन्त महान् तथा विचित्र है। मेरे कल्याणका विधान करनेवाले मुनियो। अब आपलोग चाहे चले जायें अथवा ठहरें, यह आपकी इच्छापर निर्भर है। पार्वती देवीके ऐसे वचन सुनकर उन मुनिवरोंकी आँखोंमें आनन्दके आँसू छलक आये। तब उन्होंने उस तपस्विनी कन्याको गले लगाया। फिर वे परम प्रसन्न होकर पार्वतीसे मधुर वाणीमें बोले ॥ ३५९-३७३ ॥ 

ऋषय ऊचुः

अत्यद्भुतास्यहो पुत्रि ज्ञानमूर्तिरिवामला।
प्रसादयति नो भावं भवभावप्रतिश्रयात् ॥ ३७४

न तु विद्यो वयं तस्य देवस्यैश्वर्यमद्भुतम् । 
त्वन्निश्चयस्य दृढतां वेत्तुं वयमिहागताः ॥ ३७५

अचिरादेव तन्वङ्गि कामस्तेऽयं भविष्यति। 
क्वादित्यस्य प्रभा याति रत्नेभ्यः क्व द्युतिः पृथक् ।। ३७६

कोऽर्थो वर्णालिकाव्यक्तः कथं त्वं गिरिशं विना। 
यामो नैकाभ्युपायेन तमभ्यर्थयितुं वयम् ॥ ३७७

अस्माकमपि वै सोऽर्थः सुतरां हृदि वर्तते। 
अतस्त्वमेव सा बुद्धिर्यतो नीतिस्त्वमेव हि ॥ ३७८

अतो निःसंशयं कार्यं शङ्करोऽपि विधास्यति। 
इत्युक्त्वा पूजिता याता मुनयो गिरिकन्यया ।। ३७९

प्रययुर्गिरिशं द्रष्टुं प्रस्थं हिमवतो महत्। 
गङ्गाम्बुप्लावितात्मानं पिङ्गबद्धजटासटम् ॥ ३८०

भृङ्गानुयातपाणिस्थमन्दारकुसुमस्त्रजम् ।
गिरेः सम्प्राप्य ते प्रस्थं ददृशुः शङ्कराश्रमम् ॥ ३८१ 

प्रशान्ताशेषसत्त्वौधं नवस्तिमितकाननम्। 
निःशब्दाक्षोभसलिलप्रपानं सर्वतोदिशम् ॥ ३८२ 

तत्रापश्यंस्ततो द्वारि वीरकं वेत्रपाणिनम्। 
सप्त ते मुनयः पूज्या विनीताः कार्यगौरवात् ॥ ३८३

ऊचुर्मधुरभाषिण्या वाचा ते वाग्मिनां वराः ।
द्रष्टुं वयमिहायाताः शरण्यं गणनायकम् ॥ ३८४

त्रिलोचनं विजानीहि सुरकार्यप्रचोदिताः ।
त्वमेव नो गतिस्तत्त्वं यथा कालानतिक्रमः ॥ ३८५ 

सा प्रार्थनैषा प्रायेण प्रतीहारमयः प्रभुः ।
इत्युक्तो मुनिभिः सोऽथ गौरवात् तानुवाच सः ॥ ३८६

समन्वास्यापरां संध्यां स्नातुं मन्दाकिनीजलैः ।
क्षणेन भविता विप्रास्तत्र द्रक्ष्यथ शूलिनम् ॥ ३८७

इत्युक्ता मुनयस्तस्थुस्ते तत्कालप्रतीक्षिणः । 
गम्भीराम्बुधरं प्रावृट्तृषिताश्चातका यथा ॥ ३८८

ऋषियोंने कहा- पुत्रि! तुम तो अत्यन्त अद्भुत निर्मल ज्ञानकी मूर्ति-जैसी प्रतीत हो रही हो। अहो ! शङ्करजीके भावसे भावित तुम्हारा भाव हमलोगोंको परम आनन्दित कर रहा है। शैलजे! उन देवाधिदेव शङ्करके इस अद्भुत ऐश्वर्यको हमलोग नहीं जानते हैं- ऐसी बात नहीं है, अपितु हमलोग तुम्हारे निश्चयकी दृढ़ता जाननेके लिये यहाँ आये हैं। तन्वङ्गि ! शीघ्र ही तुम्हारा यह मनोरथ पूर्ण होगा। भला, सूर्यकी प्रभा सूर्यको छोड़कर कहीं जा सकती है? रत्नोंकी कान्ति रत्नोंसे पृथक् होकर कहीं ठहर सकती है? तथा अक्षरसमूहोंसे प्रकट होने वाला अर्थ अक्षरोंसे अलग कहीं रह सकता है? उसी प्रकार तुम शङ्करजीके बिना कैसे रह सकती हो। अच्छा, अब हमलोग अनेकों उपायोंद्वारा शङ्करजीसे प्रार्थना करने के निमित्त जा रहे हैं; क्योंकि हमलोगोंके हृदयमें भी वही प्रयोजन निश्चित रूपसे वर्तमान है। उसकी सिद्धिके लिये तुम्हीं वह बुद्धि और नीति हो। अतः शङ्करजी भी निःसंदेह उस कार्यका विधान करेंगे। ऐसा कहकर गिरिराजकुमारीद्वारा पूजित हो वे मुनिगण वहाँसे चल पड़े। तदनन्तर जो अपने शरीरको गङ्गा-जलसे आप्लावित करते हैं, जिनके मस्तकपर पीली जटा बँधी रहती है तथा जिनके गलेमें पड़ी हुई मन्दार-पुष्पोंकी माला हथेलीतक लटकती रहती है, जिसपर भँवरे मँड़ाते रहते हैं, उन शङ्करजीका दर्शन करनेके लिये वे सप्तर्षि हिमालयके विशाल शिखरकी ओर प्रस्थित हुए। हिमालयके उस शिखरपर पहुँचकर उन्होंने शङ्करजीके आश्रमको देखा। उस आश्रममें सम्पूर्ण प्राणिसमूह शान्तरूपसे बैठे हुए थे। 

वहाँ का नूतन कानन भी शान्त था। चारों दिशाओंमें शब्दरहित एवं स्वच्छन्दगतिसे प्रवाहित होनेवाले जलसे युक्त झरने झर रहे थे। उस आश्रमके द्वारपर उन पूज्य एवं विनीत सप्तर्षियोंने हाथमें बेंत धारण किये वीरकको देखा। तब वक्ताओंमें श्रेष्ठ वे सप्तर्षि कार्यके गौरववश वीरकसे मधुर वाणीमें बोले- 'द्वारपाल! ऐसा समझो कि हमलोग देवकार्यसे प्रेरित होकर यहाँ शरणदाता एवं गणनायक त्रिनेत्रधारी भगवान् शङ्करका दर्शन करनेके लिये आये हैं। इस विषयमें तुम्हों हमलोगोंके साधन हो। इसलिये हमलोगोंकी यह प्रार्थना है कि ऐसा उपाय करो, जिससे हमलोगोंका कालातिक्रम न हो; क्योंकि स्वामियोंको सूचना तो प्रायः द्वारपालसे ही मिलती है।' मुनियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वीरकने गौरववश उनसे कहा- 'विप्रवरो ! अभी-अभी दोपहरकी संध्या समाप्त कर शङ्करजी मन्दाकिनीके जलमें स्नान करनेके लिये गये हैं, अतः क्षणभर ठहरिये, फिर आपलोग उन त्रिशूलधारीका दर्शन कीजियेगा।' इस प्रकार कहे जानेपर वे मुनिगण उस कालकी प्रतीक्षा करते हुए उसी प्रकार खड़े रहे, जैसे वर्षा ऋतुमें प्यासे चातक जलसे भरे हुए बादलकी ओर टकटकी लगाये रहते हैं ॥ ३७४-३८८ ॥

ततः क्षणेन निष्पन्नसमाधानक्रियाविधिः । 
वीरासनं बिभेदेशो मृगचर्मनिवासितम् ॥ ३८९

ततो विनीतो जानुभ्यामवलम्ब्य महीस्थितिम् ।
उवाच वीरको देवं प्रणामैकसमाश्रयः ॥ ३९०

सम्प्राप्ता मुनयः सप्त द्रष्टुं त्वां दीप्ततेजसः । 
विभो समादिश द्रष्टुमवगन्तुमिहार्हसि । 
तेऽब्रुवन् देवकार्येण तव दर्शनलालसाः ॥ ३९१

इत्युक्तो धूर्जटिस्तेन वीरकेण महात्मना।
भ्रूभङ्गसंज्ञया तेषां प्रवेशाज्ञां ददौ तदा ॥ ३९२

मूर्धकम्पेन तान् सर्वान् वीरकोऽपि महामुनीन् । 
आजुहावाविदूरस्थान् दर्शनाय पिनाकिनः ॥ ३९३

त्वराबद्धार्धचूडास्ते लम्बमानाजिनाम्बराः । 
विविशुर्वेदिकां सिद्धां गिरिशस्य विभूतिभिः ॥ ३९४ 

वद्धपाणिपुटाक्षिप्तनाकपुष्पोत्करास्ततः ।
पिनाकिपादयुगलं वन्द्यं नाकनिवासिनाम् ॥ ३९५

ततः स्निग्धेक्षिताः शान्ता मुनयः शूलपाणिना । 
मन्मथारिं ततो हृष्टाः सम्यक् तुष्टुवुरादृताः ॥ ३९६

तत्पश्चात् थोड़ी देर बाद जब समाधि सम्पन्न करके शङ्करजी मृगचर्मपर लगाये हुए वीरासनको छोड़कर उठे, तब वीरकने विनम्र भावसे पृथ्वीपर घुटने टेककर प्रणाम करते हुए महादेवजीसे कहा- 'विभो! प्रचण्ड तेजस्वी सप्तर्षि आपका दर्शन करनेके लिये आये हुए हैं। उन्हें दर्शन करनेके लिये आदेश दीजिये अथवा इस विषयमें आप जैसा उचित समझें। उनके मनमें आपके दर्शनकी लालसा है और वे कह रहे हैं कि हमलोग देवकार्यसे आये हुए हैं।' तब उस महात्मा वीरकद्वारा इस प्रकार उन लोगोंके लिये प्रवेशाज्ञा प्रदान की। फिर तो वीरकने सूचित किये जानेपर जटाधारी शङ्करने भौंहोंके संकेतसे भी समीपमें ही स्थित उन सभी मुनियोंको सिर हिलाकर संकेतसे पिनाकधारी शङ्करका दर्शन करनेके लिये बुलाया। यह देखकर उतावलीवश आधी बंधी हुई शिखावाले एवं मृगचर्मरूपी वस्त्रको लटकाये हुए वे मुनिलोग शङ्करजीको विभूतिसे सिद्ध हुई वेदीमें प्रविष्ट हुए। वहाँ उन्होंने बँधी हुई अञ्जलि तथा दोनेमें रखे हुए स्वर्गीय पुष्पसमूहोंको स्वर्गवासियोंद्वारा बन्दनीय शिवजीके दोनों चरणोंपर बिखेरकर नमस्कार किया। तब त्रिशूलधारी शङ्करने उन शान्तस्वभाव मुनियोंकी ओर स्नेहभरी दृष्टिसे देखा। इस प्रकार सत्कृत होनेसे प्रसन्न हुए ऋषिगण कामदेवके शत्रु भगवान् शङ्करकी सम्यक् प्रकारसे स्तुति करने लगे ॥ ३८९-३९६ ॥

मुनय ऊचुः

अहो कृतार्था वयमेव साम्प्रतं सुरेश्वरोऽप्यत्र पुरो भविष्यति ।
भवत्प्रसादामलवारिसेकतः फलेन काचित् तपसा नियुज्यते ॥ ३९७

जयत्यसौ धन्यतरो हिमाचल-स्तदाश्रयं यस्य सुता तपस्यति।
स दैत्यराजोऽपि महाफलोदयो विमूलिताशेषसुरो हि तारकः ॥ ३९८

त्वदीयमंशं प्रविलोक्य कल्मषात् स्वकं शरीरं परिमोक्ष्यते हि यः ।
स  धन्यधीर्लोकपिता चतुर्मुखो हरिश्च यत्सम्भ्रमवह्निदीपितः ।। ३९९

त्वदङ्घ्रियुग्मं हृदयेन बिभ्रतो महाभितापप्रशमैकहेतुकम्।
त्वमेव चैको विविधकृतक्रियः किलेति वाचा विधुरैर्विभाष्यते ।। ४००

अथाद्य एकस्त्वमवैषि नान्यथा जगत्तथा निघृणतां तव स्पृशेत् ।
न वेत्सि वा दुःखमिदं भवात्मकं विहन्यते ते खलु सर्वतः क्रिया ॥ ४०१

उपेक्षसे चेज्जगतामुपद्रवं दयामयत्वं तव केन कथ्यते।
स्वयोगमायामहिमागुहाश्रयं न विद्यते निर्मलभूतिगौरवम् ॥ ४०२

वयं च ते धन्यतमाः शरीरिणां यदीदृशं त्वां प्रविलोकयामहे ।
अदर्शनं तेन मनोरथो यथा प्रयाति साफल्यतया मनोगतम् ॥ ४०३

जगद्विधानैकविधौ जगन्मुखे करिष्यसेऽतो बलभिच्चरा वयम्।
विनेमुरित्थं मुनयो विसृज्य तां गिरं गिरीशश्रुतिभूमिसन्निधौ।
उत्कृष्टकेदार इवावनीतले सुबीजमुष्टिं सुफलाय कर्षकाः ॥ ४०४

मुनियोंने कहा-अहो भगवन् ! इस समय हमलोग तो कृतार्थ हो ही गये, आगे चलकर देवराज इन्द्र भी सफलमनोरथ होंगे। इसी प्रकार आपकी कृपारूपी निर्मल जलके सिंचनसे कोई तपस्विनी भी अपनी तपस्याके फलसे युक्त होगी। इस धन्यवादके पात्र हिमाचलकी जय हो, जिनके आश्रयमें रहकर उनकी कन्या तपस्या कर रही है। सम्पूर्ण देवताओंको उखाड़ फेंकनेवाले दैत्यराज तारकके भी महान् पुण्यफलका उदय हो गया है, जो आपके अंशसे उत्पन्न हुए पुत्रको देखकर पापसे निर्मुक्त हो अपने शरीरका परित्याग करेगा। लोकपिता चतुर्मुख ब्रह्माकी तथा तारकके भयरूपी अग्निसे संतप्त श्रीहरिकी भी बुद्धि धन्य है, जो महान् संतापके प्रशमनके लिये एकमात्र कारणभूत आपके दोनों चरणोंको अपने हृदयमें धारण करते हैं। एकमात्र आप ही अनेकविध दुरूह कार्योंको सम्पन्न करनेवाले हैं, दुःखी लोग आपका ऐसा विरद गाते हैं। इसे अकेले आप ही जानते हैं, अतः इसके विपरीत कोई ऐसा कार्य न कीजिये, जिससे जगत्‌को आपकी निर्दयताका अनुभव होने लगे। 

अथवा यदि आप इस सांसारिक दुःखकी ओर ध्यान नहीं देते तो आपकी सर्वतोमुखी क्रिया लुप्त होने जा रही है। यदि आप इस प्रकार जगत्‌के उपद्रवकी उपेक्षा कर दे रहे हैं तो किसलिये आपको दयामय कहा जा सकता है। साथ ही अपनी योगमायाकी महिमारूपी गुफामें स्थित रहनेवाला आपके निर्मल ऐश्वर्यका गौरव भी विद्यमान नहीं रह सकता। शरीरधारियोंमें हमलोग भी अतिशय धन्यवादके पात्र है, जो इस प्रकार आपका दर्शन कर रहे हैं। इसलिये हमारा मनोरथ नष्ट नहीं होना चाहिये। आप जगत्‌की रक्षाके विधानमें जगत्‌के लिये ऐसा करें जिससे हमारे मनोगत भाव सफल हो जायें। हमलोग देवराज इन्द्रके दूत बनकर आये हैं। ऐसा कहकर वे मुनिगण शङ्करजीके चरणोंमें अवनत हो गये। उस समय उन्होंने शङ्करजीके कानरूपी भूमिके निकट उस वाणीरूपी बीजको इस प्रकार छींट दिया था, जैसे किसानलोग भलीभाँति जोती हुई भूमिपर अच्छे फलकी प्राप्तिके निमित्त उत्तम बीजकी मूँठ डाल देते हैं॥ ३९७-४०४॥

तेषां श्रुत्वा ततो रम्यां प्रक्रमोपक्रमक्रियाम्।
वाचं वाचस्पतिरिव प्रोवाच स्मितसुन्दरः ॥ ४०५

तदनन्तर उन मुनियोंकी सिलसिलेवार योजनासे युक्त मनोहर वाणीको सुनकर भगवान् शङ्करके मुखपर मुसकान की छटा बिखर गयी। तब वे बृहस्पतिकी तरह सान्त्वनापूर्ण वचन बोले ॥ ४०५ ॥ 

शर्व उवाच

जाने लोकविधानस्य कन्यासत्कार्यमुत्तमम् । 
जाता प्रालेयशैलस्य संकेतकनिरूपणाः ॥ ४०६

सत्यमुत्कण्ठिताः सर्वे देवकार्यार्थमुद्यताः । 
तेषां त्वरन्ति चेतांसि किंतु कार्य विवक्षितम् ॥ ४०७

लोकयात्रानुगन्तव्या विशेषेण विचक्षणैः । 
सेवन्ते ते यतो धर्म तत्प्रामाण्यात्परे स्थिताः ।। ४०८

इत्युक्ता मुनयो जग्मुस्त्वरितास्तु हिमाचलम् । 
तत्र ते पूजितास्तेन हिमशैलेन सादरम्। 
ऊचुर्मुनिवराः प्रीताः स्वल्पवर्णं त्वरान्विताः ॥ ४०९

शङ्करजीने कहा-मुनिवरो! जगत्‌के कल्याणके लिये किये जाते हुए कन्याके उस उत्तम सत्कार्यको मैं जानता हूँ। वह कन्या हिमाचलकी पुत्रीरूपमें उत्पन्न हुई है। आपलोग उसीके संयोग प्रस्तावका निरूपण कर रहे हैं। यह सत्य है कि सभी लोग देवकार्यकी सिद्धिके हेतु उत्सुक और उद्यत हैं, इसीसे उनके चित्त उतावलीसे भर गये हैं, किंतु यह कार्य कुछ कालकी अपेक्षा कर रहा है अर्थात् इसके पूर्ण होनेमें कुछ विलम्ब है। विद्वानोंको विशेषरूपसे लोकव्यवहारका निर्वाह करना चाहिये; क्योंकि वे जिस धर्मका सेवन करते हैं, वही दूसरोंके लिये प्रमाणरूप बन जाता है। ऐसा कहे जानेपर मुनिगण तुरंत ही हिमाचलके पास चल दिये। वहाँ पहुँचनेपर हिमाचलने उनकी आदरपूर्वक आवभगत की। तब प्रसन्न हुए मुनिवर शीघ्रतापूर्वक थोड़े शब्दोंमें (इस प्रकार) बोले ॥ ४०६-४०९ ॥

मुनव ऊचुः

देवो दुहितरं साक्षात्पिनाकी तव मार्गते। 
तच्छीघ्रं पावयात्मानमाहुत्येवानलार्पणात् ॥ ४१०

कार्यमेतच्च देवानां सुचिरं परिवर्तते। 
जगदुद्धरणायैष क्रियतां वै समुद्यमः ॥ ४११

इत्युक्तस्तैस्तदा शैलो हर्षाविष्टोऽवदन्मुनीन् ।
असमर्थोऽभवद् वक्तुमुत्तरं प्रार्थयच्छिवम् ॥ ४१२

ततो मेना मुनीन् वन्द्य प्रोवाच स्नेहविक्लवा। 
दुहितुस्तान् मुनींश्चैव चरणाश्रयमर्थवित् ॥ ४१३

मुनियोंने कहा-पर्वतराज ! पिनाकधारी साक्षात् महादेव आपकी कन्याको प्राप्त करना चाहते हैं, अतः अग्निमें पड़ी हुई आहुतिकी तरह उसे शीघ्र ही उन्हें प्रदान करके अपने आत्माको पवित्र कर लीजिये। देवताओंका यह कार्य चिरकालसे चला आ रहा है, अतः जगत्‌का उद्धार करनेके लिये आप इस उद्योगको शीघ्र सम्पन्न कीजिये। मुनियोंद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर उस समय हिमाचल हर्षविभोर हो मुनियोंको उत्तर देनेके लिये उद्यत हुए; किंतु जब उत्तर देनेमें असमर्थ हो गये, तब मन-ही-मन शङ्करजीसे प्रार्थना करने लगे। तत्पश्चात् प्रयोजनको समझनेवाली मेनाने मुनियोंको प्रणाम किया और पुत्रीके स्नेहसे व्याकुल हुई वह उन मुनियोंके चरणोंके निकट स्थित हो इस प्रकार बोली ॥ ४१०-४१३ ॥

मेनोवाच

यदर्थं दुहितुर्जन्म नेच्छन्त्यपि महाफलम्।
तदेवोपस्थितं सर्वं प्रक्रमेणैव साम्प्रतम् ॥ ४१४

कुलजन्मवयोरूपविभूत्यद्धियुतोऽपि यः । 
वरस्तस्यापि चाहूय सुता देया ह्ययाचतः ॥ ४१५

तत्समस्ततपो घोरं कथं पुत्री प्रयास्यति। 
पुत्रीवाक्याद्यदत्रास्ति विधेयं तद्विधीयताम् ॥ ४१६

इत्युक्ता मुनयस्ते तु प्रियया हिमभूभृतः । 
ऊचुः पुनरुदारार्थं नारीचित्तप्रसादकम् ॥ ४१७

मेनाने कहा- मुनिवरो! जिन कारणोंसे लोग महान् फलदायक होनेपर भी कन्याके जन्मकी इच्छा नहीं करते, वही सब इस समय परम्परासे मेरे सामने आ उपस्थित हुआ है। (विवाहकी प्रथा तो यह है कि) जो वर उत्तम कुल, जन्म, अवस्था, रूप, ऐश्वर्य और सम्पत्तिसे भी युक्त हो, उसे अपने घर बुलाकर कन्या प्रदान करनी चाहिये, किंतु कन्याकी याचना करनेवालेको नहीं। भला बताइये, इस प्रकार समस्त घोर तर्पोको करनेवाले वरके साथ मेरी पुत्री कैसे जायगी। इसलिये इस विषयमें मेरी पुत्रीके कथनानुसार जो उचित हो, वही आपलोग करें। हिमाचलकी पत्नी मेनाद्वारा इस प्रकार कहे जानेपर वे मुनिगण पुनः नारीके चित्तको प्रसन्न करनेवाले उदार अर्थसे युक्त वचन बोले ॥ ४१४-४१७ ॥

मुनय ऊचुः

ऐश्वर्यमवगच्छस्व शंकरस्य सुरासुरैः ।
आराध्यमानपादाब्जयुगलत्वात् सुनिर्वृतैः ॥ ४१८ 

यस्योपयोगि यद्रूपं सा च तत्प्राप्तये चिरम्। 
घोरं तपस्यते बाला तेन रूपेण निर्वृतिः ॥ ४१९

यस्तद्भूतानि दिव्यानि नयिष्यति समापनम् । 
तत्र सावहिता तावत् तस्मात् सैव भविष्यति ॥ ४२०

इत्युक्त्वा गिरिणा सार्धं ते ययुर्यत्र शैलजा। 
जितार्कज्वलनज्वाला तपस्तेजोमयी ह्युमा ॥ ४२१

प्रोचुस्तां मुनयः स्निग्धं सम्मान्यपथमागतम्। 
रम्यं प्रियं मनोहारि मा रूपं तपसा दह ॥ ४२२

प्रातस्ते शंकरः पाणिमेष पुत्रि ग्रहीष्यति। 
वयमर्थितवन्तस्ते पितरं पूर्वमागताः ॥ ४२३

पित्रा सह गृहं गच्छ वयं यामः स्वमन्दिरम् ॥ ४२४

इत्युक्ता तपसः सत्यं फलमस्तीति चिन्त्य सा। 
त्वरमाणा ययाँ वेश्म पितुर्दिव्यार्थशोभितम् ॥ ४२५

सा तत्र रजनीं मेने वर्षायुतसमां सती। 
हरदर्शनसंजातमहोत्कण्ठा हिमाद्रिजा ।। ४२६

मुनियोंने कहा-मेना! तुम शङ्करजीके ऐश्वर्यका ज्ञान उन देवताओं और असुरोंसे प्राप्त करो, जो उनके दोनों चरणकमलोंकी आराधना करके भलीभाँति संतुष्ट  हो चुके हैं। जिसके लिये जो रूप उपयोगी होता है, वह उसीकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न करता है। इस नियमके अनुसार वह कन्या शंकरजीकी प्राप्तिके लिये चिरकालसे घोर तपस्या कर रही है। उसे उसी रूपसे पूर्ण संतोष है। जो पुरुष उसके दिव्य व्रतोंका समापन करेगा, उसके प्रति वह अतिशय प्रसन्न एवं संतुष्ट होगी। ऐसा कहकर वे मुनिगण हिमाचलके साथ उस स्थानपर गये, जहाँ सूर्य और अग्निकी ज्वालाको जीतनेवाली एवं तपस्याके तेजसे युक्त पार्वती उमा तपस्या कर रही थीं। वहाँ पहुँचकर मुनियोंने पार्वतीसे स्नेहपूर्ण वाणीमें कहा- 'पुत्रि ! अब तुम्हारे लिये सम्मान्यका पथ प्राप्त हो गया है, इसलिये अब तुम अपने इस रमणीय, प्रिय एवं मनको लुभानेवाले रूपको तपस्यासे दग्ध मत करो। प्रातःकाल वे शङ्कर तुम्हारा पाणिग्रहण करेंगे। हमलोग उनसे प्रार्थना करके पहले ही तुम्हारे पिताके पास आ गये हैं। अब तुम अपने पिताके साथ घर लौट जाओ और हमलोग अपने निवासस्थानको जा रहे हैं। इस प्रकार कही जानेपर पार्वती 'तपका फल निश्चय ही सत्य होता है' ऐसा विचारकर दिव्य पदार्थोंसे सुशोभित अपने पिताके घरकी ओर शीघ्रतापूर्वक प्रस्थित हुई। वहाँ पहुँचकर पार्वतीके मनमें शङ्करजीके दर्शनकी महान् उत्कण्ठा उत्पन्न हुई, जिससे सती पार्वतीको वह रात्रि दस हजार वर्षोंके समान प्रतीत होने लगी ॥ ४१८-४२६ ॥

ततो मुहूर्ते ब्राह्मे तु तस्याश्चकुः सुरस्त्रियः ।
नानामङ्गलसंदोहान् यथावत्क्रमपूर्वकम् ॥ ४२७

दिव्यमण्डनमङ्गानां मन्दिरे बहुमङ्गले। 
उपासत गिरिं मूर्ता ऋतवः सार्वकात्मकाः ॥ ४२८

वायवो वारिदाश्चासन् सम्मार्जनविधौ गिरेः । 
हम्र्येषु श्रीः स्वयं देवी कृतनानाप्रसाधना ॥ ४२९

कान्तिः सर्वेषु भावेषु ऋद्धिश्चाभवदाकुला। 
चिन्तामणिप्रभृतयो रत्नाः शैलं समंततः ॥ ४३०

उपतस्थुर्नगाश्चापि कल्पकाममहाद्रुमाः । 
ओषध्यो मूर्तिमत्यश्च दिव्यौषधिसमन्विताः ॥ ४३१

रसाश्च धातवश्चैव सर्वे शैलस्य किङ्कराः । 
किङ्करास्तस्य शैलस्य व्यग्राश्चाज्ञानुवर्तिनः ॥ ४३२

नद्यः समुद्रा निखिलाः स्थावरं जङ्गमं च यत्। 
तत्सर्वं हिमशैलस्य महिमानमवर्धयत् ॥ ४३३ 

तदनन्तर प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्तमें देवाङ्गनाओंने पार्वतीके लिये क्रमशः नाना प्रकारके माङ्गलिक कार्योंको यथार्थरूपसे सम्पन्न किया। फिर उस विविध प्रकारके मङ्गलोंसे युक्त भवनमें पार्वतीके अङ्गोंको दिव्य श्रृंगारसे सुशोभित किया गया। उस समय सभी प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाली छहों ऋतुएँ शरीर धारणकर हिमाचलकी सेवामें उपस्थित हुईं, वायु और बादल पर्वतकी गुफाओंमें झाड़-बुहारके कार्यमें संलग्न थे। अट्टालिकाओंपर स्वयं लक्ष्मीदेवी नाना प्रकारकी सामग्रियोंको सँजोये हुए विराजमान थीं। सभी पदार्थोंमें कान्ति फूटी पड़ती थी। ऋद्धि आकुल हो उठी थी। चिन्तामणि आदि रत्न पर्वतपर चारों ओर बिखरे हुए थे। कल्पवृक्ष आदि महनीय वृक्षोंसे युक्त अन्यान्य पर्वत भी सेवामें उपस्थित थे। दिव्यौषधिसे युक्त मूर्तिमती ओषधियाँ तथा सभी प्रकारके रस और धातुएँ हिमाचलके परिचारकरूपमें विद्यमान थे। हिमाचलके वे सभी किंकर आज्ञापालनके लिये उतावले हो रहे थे। इनके अतिरिक्त सभी समुद्र और नदियाँ तथा समस्त स्थावर जङ्गम प्राणी उस समय हिमाचलकी महिमाको बढ़ा रहे थे ॥ ४२७-४३३॥ 

अभवन् मुनयो नागा यक्षगन्धर्वकिन्नराः ।
शंकरस्यापि विबुधा गन्धमादनपर्वते ॥ ४३४

सर्वे मण्डनसम्भारास्तस्थुर्निर्मलमूर्तयः ।
शर्वस्यापि जटाजूटे चन्द्रखण्डं पितामहः ॥ ४३५

बबन्ध प्रणयोदारविस्फारितविलोचनः ।
कपालमालां विपुलां चामुण्डा मूर्ध्यबन्धत ॥ ४३६

उवाच चापि वचनं पुत्रं जनय शंकर।
यो दैत्येन्द्रकुलं हत्वा मां रक्तैस्तर्पयिष्यति ॥ ४३७

शौरिर्श्वलच्छिरोरत्नमुकुटं चानलोल्बणम् ।
भुजगाभरणं गृह्य सज्जं शम्भोः पुरोऽभवत् ॥ ४३८

शक्रो गजाजिनं तस्य वसाभ्यक्ताग्रपल्लवम् ।
दधे सरभसं स्विद्यद्विस्तीर्णमुखपङ्कजम् ॥ ४३९

वायुश्च विपुलं तीक्ष्णशृङ्गं हिमगिरिप्रभम्।
वृषं विभूषयामास हरयानं महौजसम् ॥ ४४० 

वितेनुर्नयनान्तः स्थाः शम्भोः सूर्यानलेन्दवः । 
स्वां द्युतिं लोकनाथस्य जगतः कर्मसाक्षिणः॥ ४४१ 

चिताभस्म समाधाय कपाले रजतप्रभम्। 
मनुजास्थिमयीं मालामाबबन्ध च पाणिना ॥ ४४२

प्रेताधिपः पुरो द्वारे सगदः समवर्तत। 
नानाकारमहारत्नभूषणं धनदाहृतम् ।। ४४३

विहायोदग्रसर्पेन्द्रकटकेन स्वपाणिना ।
कर्णोत्तंसं चकारेशो वासुकिं तक्षकं स्वयम् ॥ ४४४ 

उधर गन्धमादन पर्वतपर शङ्करजीके विवाहोत्सवमें सभी मुनि, नाग, यक्ष, गन्धर्व और किंनर आदि देवगण सम्मिलित हुए। वे सभी निर्मल मूर्ति धारणकर शृङ्गारसामग्रीके जुटानेमें तत्पर थे। उस समय प्रेम एवं उदार भावनासे उत्फुल्ल नेत्रोंवाले ब्रह्माने शंकरजीके जटाजूटमें चन्द्रखण्डको बाँधा। चामुण्डाने उनके मस्तकपर एक विशाल कपालमाला बाँधी और इस प्रकार कहा-'शंकर! ऐसा पुत्र उत्पन्न करो, जो दैत्यराज तारकके कुलका संहार कर मुझे रक्तसे तृप्त करे।' भगवान् विष्णु अग्निके समान उद्दीत एवं चमकीले अग्रभागवाले रत्लॉसे निर्मित मुकुट और सर्पोक आभूषण आदि शृङ्गारसामग्री लेकर शंकरजीके आगे उपस्थित हुए। इन्द्रने वेगपूर्वक गजचर्म लाकर शंकरजीको धारण कराया, जिसका अग्रभाग चर्बीसे लिप्त हुआ था। 

उस समय प्रसन्नतासे खिले हुए इन्द्रके मुखकमल पर पसीने की बूँदें झलक रही थीं। वायुने शंकरजीके वाहन उस वृषभराज नन्दीश्वरको विभूषित किया, जिसका शरीर विशाल था, जिसके सींग तीखे थे तथा जो हिमाचलके समान उज्ज्वल कान्तिवाला एवं महान् ओजस्वी था। जगत्‌के कर्मोंके साक्षी सूर्य, अग्नि और चन्द्र लोकनायक शम्भुके नेत्रोंके अन्तस्तलमें स्थित होकर अपनी-अपनी प्रभाका विस्तार करने लगे। प्रेतराज यमने शंकरजीके मस्तकपर चाँदीके समान चमकीला चिताभस्म लगाकर एक हाथसे मनुष्योंकी हड्डियों से बनी हुई मालाको बाँधा और फिर वे हाथमें गदा लेकर द्वारपर खड़े हो गये। तत्पश्चात् शिवजीने कुबेरद्वारा लाये गये नाना प्रकारके बहुमूल्य रत्नोंके बने हुए आभूषणों और वरुणद्वारा लायी गयी अम्लान (न कुम्हलानेवाले) पुष्पोंसे गूंधी गयी मालाको पृथक् रखकर विषैले सकि कङ्कणसे सुशोभित अपने हाथसे स्वयं वासुकि और तक्षकको अपना कुण्डल बनाया ॥ ४३४-४४४ ॥

जलाधीशाहृतां स्थास्नुप्रसूनावेष्टितां पृथक् ।
ततस्तु ते गणाधीशा विनयात् तत्र वीरकम् ।। ४४५

प्रोचुर्व्यग्राकृते त्वं नो समावेदय शूलिने। 
निष्पन्नाभरणं देवं प्रसाध्येशं प्रसाधनैः ।। ४४६

सप्त वारिधयस्तस्थुः कर्तुं दर्पणविभ्रमम् । 
ततो विलोकितात्मानं महाम्बुधिजलोदरे ॥ ४४७

धरामालिङ्गय जानुभ्यां स्थाणुं प्रोवाच केशवः । 
शोभसे देव रूपेण जगदानन्ददायिना ।। ४४८

मातरः प्रेरयन् कामवधं वैधव्यचिह्निताम् । 
कालोऽयमिति चालक्ष्य प्रकारेङ्गितसंज्ञया ॥ ४४९

ततस्ताश्चोदिता देवमूचुः प्रहसिताननाः । 
रतिः पुरस्तव प्राप्ता नाभाति मदनोज्झिता ॥ ४५०

ततस्तां सन्निवार्याह वामहस्ताग्रसंज्ञया।
प्रयाणे गिरिजावक्त्रदर्शनोत्सुकमानसः॥ ४५१

तत्पश्चात् वहाँ आये हुए गणाधीशोंने विनयपूर्वक वीरकसे कहा-'भयंकर आकृतिवाले वीरक ! तुम शंकरजीसे हमारे आगमनकी सूचना दे दो। हमलोग सजे-सजाये महादेवको शृङ्गार-सामग्रियोंद्वारा पुनः सुशोभित करेंगे।' इतनेमें वहाँ सातों समुद्र दर्पणकी स्थानपूर्ति करनेके लिये उपस्थित हुए। तब उस महासागरके जलके भीतर अपने रूपको देखकर भगवान् केशव घुटनोंद्वारा पृथ्वीका आलिङ्गन करके (अर्थात् पृथ्वीपर दोनों घुटने टेककर) शंकरजीसे बोले- 'देव! इस समय आप अपने इस जगत्‌को आनन्द प्रदान करनेवाले रूपसे सुशोभित हो रहे हैं।' इसी बीच मातृकाओंने उपयुक्त समय जानकर वैधव्यके चिह्नोंसे युक्त काम-पत्नी रतिको इशारेसे शंकरजीके सम्मुख जानेके लिये प्रेरित किया। (तब वह शिवजीके समक्ष जाकर खड़ी हो गयी।) तब वे मातृकाएँ हँसती हुई शंकरजीसे बोलीं- 'देव! आपके सम्मुख खड़ी हुई कामदेवसे रहित यह रति शोभा नहीं पा रही है।' तब शंकरजी अपने बायें हाथके अग्रभागके संकेतसे उसे सान्त्वना देते हुए सामनेसे हटाकर प्रस्थित हुए। उस समय उनका मन गिरिजाके मुखका अवलोकन करनेके लिये समुत्सुक हो रहा था॥४४५-४५१ ॥

ततो हरो हिमगिरिकन्दराकृतिं समुन्नतं मृदुगतिभिः प्रचोदयन् ।
महावृषं गणतुमुलाहितेक्षणं स भूधरानशनिरिव प्रकम्पयन् ॥ ४५२

ततो हरिद्रुतपदपद्धतिः पुरः-सरः श्रमाद् द्रुमनिकरेषु विश्रमन् ।
धरारजः शबलितभूषणोऽब्रवीत् प्रयात मा कुरुत पथोऽस्य संकटम् ॥ ४५३

प्रभोः पुनः प्रथमनियोगमूर्जयन् सुतोऽब्रवीद् भुकुटिमुखोऽपि वीरकः।
वियच्चरा वियति किमस्ति कान्तकं प्रयात नो धरणिधरा विदूरतः ॥ ४५४

महार्णवाः कुरुत शिलोपमं पयः सुरद्विषागमनमहातिकर्दमम् ।
गणेश्वराश्चपलतया न गम्यतां सुरेश्वरैः स्थिरगतिभिश्च गंम्यताम् ॥ ४५५

न भृङ्गिणा स्वतनुमवेक्ष्य नीयते पिनाकिनः पृथुमुखमण्डमग्रतः ।
वृथा यम प्रकटितदन्तकोटरं त्वमायुधं वहसि विहाय सम्भ्रमम् ।। ४५६

पदं न यद्रथतुरगैः पुरद्विषः प्रमुच्यते बहुतरमातृसंकुलम् ।
अमी सुराः पृथगनुयायिभिर्वृताः पदातयो द्विगुणपथान् हरप्रियाः ।। ४५७

तदुपरान्त शंकरजीने विशालकाय महावृषभ नन्दीश्वर-पर, जिसकी आकृति हिमाचलके गुफा सदृश थी तथा जिसके नेत्र प्रमथगणोंकी ओर लगे हुए थे, सवार होकर उसे धीमी चालसे आगे बढ़ाया। उस समय उनके प्रस्थानसे पृथ्वी उसी प्रकार काँप रही थी, मानो वज्रके प्रहारसे पर्वत काँप रहे हों। तत्पश्चात् श्रीहरिने जिनके आभूषण पृथ्वीकी धूलसे धूसरित हो गये थे, शीघ्रतापूर्वक कदम बढ़ाते हुए आगे जाकर श्रमवश घने वृक्षोंके नीचे विश्राम करते हुए लोगोंसे कहा- 'अरे! चलो, आगे बढ़ो, इस मार्गमें भीड़ मत करो।' पुनः शंकरजीका पुत्र वीरक भौहें टेढ़ी कर श्रीहरिकी प्रथम आज्ञाको उच्च स्वरसे फैलाता हुआ बोला- अरे आकाशचारियो! आकाशमें कौन-सी सुन्दर वस्तु रखी है, जिसे सब लोग देख रहे हो, आगे बढ़ो। पर्वतसमूहो! तुमलोग एक-दूसरेसे अलग-अलग होकर चलो। महासागरो! तुमलोग राक्षसोंके आगमनसे उत्पन्न हुए महान् कीचड़से युक्त जलको शिलासदृश कर दो। गणेश्वरो! तुमलोग चञ्चलतापूर्वक मत चलो। सुरेश्वरोंको स्थिरगतिसे चलना चाहिये। शङ्करजीके आगे-आगे विशाल पानपात्रको लेकर चलने-वाले भृङ्गी अपने शरीरकी रक्षा करते हुए नहीं चल रहे हैं। यम! तुम अपने इस निकले हुए दाँतोंवाले आयुधको व्यर्थ ही धारण किये हुए हो। भय छोड़कर चलो। शङ्करजीके रथके घोड़े अपने मार्गको बहुत-सी माताओंसे व्याप्त होनेपर भी नहीं छोड़ रहे हैं। ये शङ्करजीके प्रिय देवगण पृथक् पृथक् अपने अनुयायियोंसे घिरे हुए पैदल ही दूना मार्ग तय कर रहे हैं॥ ४५२-४५७॥ 

स्ववाहनैः पवनविधूतचामैर- श्चलध्वजैव्रजत विहारशालिभिः ।
सुराः स्वकं किमिति न रागमूर्जितं विचार्यते नियतलयत्रयानुगम् ।। ४५८

न किन्नरैरभिभवितुं हि शक्यते विभूषणप्रचयसमुद्भवो ध्वनिः ।
स्वजातिकाः किमिति न षड्जमध्यम-पृथुस्वरं बहुतरमत्र वक्ष्यते ॥ ४५९

नतानतानतनततानतां गताः पृथक्तया समयकृता विभिन्नताम् ।
विशङ्किता भवदतिभेदशीलिनः प्रयान्त्यमी द्रुतपदमेव गौडकाः ॥ ४६०

विसंहताः किमिति न षाडवादयः स्वगीतकैर्ललितप्रदप्रयोजकैः ।
प्रभोः पुरो भवति हि यस्य चाक्षतं समुद्रगतार्थकमिति तत्प्रतीय ॥ ४६१

अमी पृथग्विरचितरम्यरासकं विलासिनो बहुगमकस्वभावकम्।
प्रयुञ्जते गिरिशयशोविसारिणं प्रकीर्णकं बहुतरनागजातयः॥ ४६२

अमी कथं ककुभि कथाः प्रतिक्षणं ध्वनन्ति ते विविधवधूविमिश्रिताः ।
न जातयो ध्वनिमुरजासमीरिता न मूच्छिताः किमिति च मूर्छनात्मिकाः ।। ४६३

श्रुतिप्रियक्रमगतिभेदसाधनं ततादिकं किमिति न तुम्बरेरितम् ।
न हन्यते बहुविधवाद्यडम्बरं प्रकीर्णवीणामुरजादि नाम यत् ॥ ४६४

'देवगण! आपलोग आमोदके साधनोंसे सम्पन्न एवं वायुके आवेगसे हिलते हुए चामरोंसे युक्त अपने वाहनोंद्वारा, जिनपर ध्वजाएँ फहरा रही हैं, अलग-अलग होकर चलिये। आपलोग नियतरूपसे तीनों लयोंका अनुगमन करनेवाले अपने ऊर्जस्वी रागके विषयमें क्यों नहीं विचार कर रहे हैं? किंनरगण (अपने वाद्योंद्वारा) आभूषणसमूहसे उत्पन्न हुई ध्वनिको परास्त नहीं कर सकते। अपनी जातिवाले गणेश्वरी! इस समय षड्ज, मध्यम और पृथु स्वरसे युक्त गीत अधिक मात्रामें क्यों नहीं गाये जा रहे हैं। ये गौड रागके जानकार लोग कालभेदके अनुसार विभिन्नताको प्राप्त हुए एवं नतानत, नत और आनतके लयसे युक्त अत्यन्त भेदवाले रागको पृथक्रूपमें निःशङ्कभावसे अलापते हुए बड़ी शीघ्रतासे चले जा रहे हैं। षाडवं रागके ज्ञातालोग पृथक् पृथक् अपने ललित पदोंके प्रयोजक गीतोंको अलापते हुए शंकरजीके आगे-आगे क्यों नहीं चल रहे हैं? ऐसा प्रतीत हो रहा है कि शंकरजीकी हर्षपूर्ण यात्रामें विघ्न न पड़ जाय, इस भयसे वे ऐसा नहीं कर रहे हैं। ये विभिन्न जातियोंके विलासोन्मत्त नाग शंकरजीके यशका विस्तार करनेवाले, अधिकांश गमकके स्वभावसे सम्पन्न तथा मनोहर ध्वनिसे युक्त संगीतका पृथक् पृथक् प्रयोग कर रहे हैं। उधर उस दिशामें ये वधुओंसहित अनेकों संगीतज्ञ प्रतिक्षण कैसा संगीत अलाप रहे हैं? पता नहीं क्यों, न तो उसमें मृदङ्गसे निकली हुई ध्वनिकी जातियाँ लक्षित हो रही है, न मूर्छना-आरोह-अवरोहसे युक्त स्वरका ही भान हो रहा है। तुम्बुरुद्वारा बजाये जानेवाले कर्णप्रिय तथा क्रम एवं गतिके भेदसे युक्त तारवाले बाजे क्यों नहीं बजाये जा रहे हैं? इधर वीणा, मृदंग आदि अनेकों प्रकारके वाद्यसमूह क्यों नहीं बजाये जा रहे हैं?' ॥ ४५८-४६४॥

इतीरितां गिरमवधार्य शालिनीं सुरासुराः सपदि तु वीरकाज्ञया।
नियामिताः प्रययुरतीव हर्षिता- श्चराचरं जगदखिलं ह्यपूरयन् ॥ ४६५ 

इति स्तनत्ककुभि रसन् महार्णवे स्तनद्धने विदलितशैलकन्दरे।
जगत्यभूत् तुमुल इवाकुलीकृतः पिनाकिना त्वरितगतेन भूधरः ॥ ४६६

परिज्वलत्कनकसहस्त्रतोरणं क्वचिन्मिलन्मरकतवेश्मवेदिकम् ।
क्वचित्क्वचिद्विमलविदूर्यभूमिकं क्वचिद्गलज्जलधररम्यनिर्झरम् ॥ ४६७

चलद्ध्वजप्रवरसहस्त्रमण्डितं सुरद्रुमस्तबकविकीर्णचत्वरम् ।
सितासितारुणरुचिधातुवर्णिकं नियोज्वलं प्रविततमार्गगोपुरम् ॥ ४६८

विजृम्भिताप्रतिमध्वनिवारिदं सुगन्धिभिः पुरपवनैर्मनोहरम् ।
हरो महागिरिनगरं समासदत् क्षणादिव प्रवरसुरासुरस्तुतः ॥ ४६९

इस प्रकार कही गयी उस सुन्दर वाणीको सुनकर देवता और दैत्य अत्यन्त प्रसन्न हो गये। तब वे तुरंत ही वीरककी आज्ञासे सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को आच्छादित करते हुए नियमपूर्वक आगे बढ़ने लगे। इस प्रकार शंकरजीके शीघ्रतापूर्वक गमनसे दिशाओंमें कोलाहल गूँज उठा, महासागरोंमें ज्वार उठने लगा, बादल गरजने लगे, पर्वतकी कन्दराएँ तहस-नहस हो गयीं, जगत्में तुमुल ध्वनि व्याप्त हो गयी और हिमाचल व्याकुल हो गये। इस प्रकार श्रेष्ठ सुरों एवं असुरोंद्वारा प्रशंसित होते हुए शिवजी क्षणमात्रमें ही पर्वतराज हिमाचलके उस नगरमें जा पहुँचे, जो तपाये गये सुवर्णके सहस्रों तोरणोंसे सुशोभित था। उसमें कहीं-कहीं मरकतमणिके संयोगसे बने हुए घरोंमें वेदिकाएँ बनी हुई थीं। कहीं-कहीं निर्मल वैदूर्य मणिके फर्श बने थे। कहीं बादलके समान रमणीय झरने झर रहे थे। वह नगर हजारों फहराते हुए ऊँचे-ऊँचे ध्वजोंसे विभूषित था। वहाँ चबूतरोंपर कल्पवृक्षके पुष्पोंके गुच्छे बिखेरे गये थे। वह श्वेत, काले और लाल रंगकी धातुओंसे रँगा हुआ था। उसकी उज्वल छटा फैल रही थी। उसके मार्ग और फाटक अत्यन्त विस्तृत थे। वहाँ उमड़े हुए बादलोंका अनुपम शब्द हो रहा था। सुगन्धयुक्त वायुके चलनेसे वह पुर अत्यन्त मनोहर लग रहा था ॥ ४६५-४६९ ॥

तं प्रविशन्तमगात् प्रविलोक्य व्याकुलतां नगरं गिरिभर्तुः ।
व्यग्रपुरन्ध्रिजनं जवियानं धावितमार्गजनाकुलरथ्यम् ।। ४७०

हर्म्यगवाक्षगतामरनारी-लोचननीलसरोरुहमालम् ।
सुप्रकटा समदृश्यत काचित् स्वाभरणांशुवितानविगूढा ॥ ४७१

काप्यखिलीकृतमण्डनभूषा त्यक्तसखीप्रणया हरमैक्षत् ।
काचिदुवाच कलं गतमाना कातरतां सखि मा कुरु मूळे ॥ ४७२

दग्धमनोभव एव पिनाकी कामयते स्वयमेव विहर्तुम् ।
काचिदपि स्वयमेव पतन्ती प्राह परां विरहस्खलिताङ्गीम् ॥ ४७३

मा चपले मदनव्यतिषङ्गं शङ्करजं स्खलनेन वद त्वम् ।
कापि कृतव्यवधानमदृष्ट्वा युक्तिवशाद्रिरिशो हयमूचे ।। ४७४

एष स यत्र सहस्त्रमखाद्या नाकसदामधिपाः स्वयमुक्तैः ।
नामभिरिन्दुजटं निजसेवा प्राप्तिफलाय नतास्तु घटन्ते ॥ ४७५

एष न चैष स एष यद्ये चर्मपरीततनुः शशिमौली।
धावति वज्रधरोऽमरराजो मार्गममुं विवृतीकरणाय ।। ४७६

एष स पद्मभवोऽयमुपेत्य प्रांशुजटामृगचर्मनगूढः ।
सप्रणयं करघट्टितवक्त्रः किंचिदुवाच मितं श्रुतिमूले ॥ ४७७

एवमभूत् सुरनारिकुलानां चित्तविसंस्थुलता गुरुरागात्।
शंकरसंश्रयणागिरिजाया जन्मफलं परमं त्विति चोचुः ॥ ४७८

शिवजी को उस नगरमें प्रवेश करते देखकर पर्वतराज हिमाचलका सारा नगर व्याकुल हो गया। पति-पुत्र आदिसे युक्त सम्मानित नारियाँ व्याकुल होकर वेगपूर्वक इधर-उधर भागने लगीं। मार्गों और गलियोंमें भागते हुए लोगोंकी भीड़ लग गयी। कोई देवाङ्गना अट्टालिकाके झरोखेमें बैठकर अपने नीलकमलके से नेत्रोंसे उसकी शोभा बढ़ा रही थी। कोई नारी अपने आभूषणोंकी किरणोंसे छिपी होनेपर भी प्रत्यक्ष रूपमें दीख रही थी। कोई सुन्दरी अपनेको सम्पूर्ण शृङ्गारोंसे विभूषितकर सखीके प्रेमको छोड़कर शिवजीकी ओर निहार रही थी। कोई नारी अभिमानरहित हो मधुर वाणीमें बोली- अरी भोली-भाली सखि । तुम कातर मत होओ। यद्यपि शिवजीने कामदेवको जला दिया है,
तथापि वे स्वयं ही विहार करनेकी इच्छा करते हैं।' कोई सुन्दरी, जो स्वयं मनोभवके फंदेमें पड़ गयी थी, विरहसे स्खलित अङ्गॉवाली दूसरी नारीसे बोली-' चपले! तुम भूलसे शङ्करजी के साथ कामदेवके संयोगकी चर्चा मत किया कर।' कोई कामिनी व्यवधान पड़नेके कारण शङ्करजीको न देखकर युक्तिपूर्वक 'शङ्कर यही हैं'- ऐसा मानकर कह रही थी- 'वे शिव यही हैं, जिन चन्द्रशेखरको अपनी सेवाके फलकी प्राप्तिके निमित्त स्वर्गवासियोंके अधीश्वर इन्द्र आदि देवगण स्वयं अपना-अपना नाम लेकर नमस्कार कर रहे हैं।' कोई नारी कह रही थी' अरे! शिवजी यह नहीं हैं, वे तो वह हैं, जिनके मस्तकपर चन्द्रमा शोभा पा रहा है और जिनका शरीर चमड़ेसे उँका हुआ है तथा जिनके आगे वज्रधारी देवराज इन्द्र इस मार्गको निर्बाध करनेके लिये दौड़ रहे हैं। देखो, ये लम्बी जटाओं और मृगचर्मसे सुशोभित पद्मयोनि ब्रह्मा भी उनके निकट जाकर हाथसे मुख पकड़े हुए प्रेमपूर्वक उनके कानोंमें कुछ कह रहे हैं।' इस प्रकार अतिशय प्रेमके कारण देवाङ्गनाओंके चित्तमें परम संतोष हुआ। तब वे कहने लगीं कि शङ्करजीका आश्रय ग्रहण करनेसे पार्वतीको अपने जन्मका परम फल प्राप्त हो गया ॥ ४७०-४७८॥

ततो हिमगिरेर्वेश्म विश्वकर्मनिवेदितम्। 
महानीलमयस्तम्भं ज्वलत्काञ्चनकुट्टिमम् ॥ ४७९

मुक्ताजालपरिष्कारं ज्वलितौषधिदीपितम् । 
क्रीडोद्यानसहस्त्राढ्यं काञ्चनाबद्धदीर्घिकम् ॥ ४८०

महेन्द्रप्रमुखाः सर्वे सुरा दृष्ट्वा तदद्भुतम्। 
नेत्राणि सफलान्यद्य मनोभिरिति ते दधुः ॥ ४८१

विमर्दकीर्णकेयूरा हरिणा द्वारि रोधिताः। 
कथंचित् प्रमुखास्तत्र विविशुर्नाकवासिनः॥ ४८२ 

प्रणतेनाचलेन्द्रेण पूजितोऽथ चतुर्मुखः ।
चकार विधिना सर्वं विधिमन्त्रपुरः सरम् ॥ ४८३

शर्वेण पाणिग्रहणमग्निसाक्षिकमक्षतम् ।
दाता महीभृतां नाथो होता देवश्चतुर्मुखः ॥ ४८४

वरः पशुपतिः साक्षात् कन्या विश्वारणिस्तथा।
चराचराणि भूतानि सुरासुरवराणि च ॥ ४८५ 

तत्राप्येते नियमतो ह्यभवन् व्यग्रमूर्तयः ।
मुमोचाभिनवान् सर्वान् सस्यशालीन् रसौषधीः ।। ४८६

व्यग्रा तु पृथिवी देवी सर्वभावमनोरमा। 
गृहीत्वा वरुणः सर्वरत्नान्याभरणानि च ॥ ४८७

पुण्यानि च पवित्राणि नानारत्नमयानि तु। 
तस्थौ साभरणो देवो हर्षदः सर्वदेहिनाम् ॥ ४८८

तदनन्तर भगवान् शङ्कर हिमाचलके उस भवनमें प्रविष्ट हुए, जिसका निर्माण देवशिल्पी विश्वकर्मान किया था तथा जिसमें महानीलमणिके खम्भे लगे हुए थे, जिसका फर्श तपाये हुए स्वर्णका बना हुआ था, जो मोतियोंकी झालरोंसे सुशोभित और जलती हुई औषधियोंके प्रकाशसे उद्दीत हो रहा था, जिसमें हजारों क्रीडोद्यान थे तथा जिसकी बावलियोंकी सीढ़ियाँ सोनेकी बनी हुई थीं। उस अद्भुत भवनको देखकर महेन्द्र आदि सभी देवताओंने अपने मनमें ऐसा समझा कि आज हमारे नेत्र सफल हो गये। उस भवनके द्वारपर श्रीहरिद्वारा रोके जानेपर भीड़के कारण जिनके केयूर परस्पर रगड़ खाकर चूर-चूर हो गये थे, ऐसे कुछ प्रमुख स्वर्गवासी किसी प्रकार उस भवनमें प्रविष्ट हुए। तदनन्तर वहाँ (मण्डपमें) पर्वतराज हिमाचलने विनम्रभावसे ब्रह्माकी पूजा की। तब उन्होंने विधानानुसार मन्त्रोचारणपूर्वक सारा कार्य सम्पन्न किया। तदुपरान्त शिवजीने अग्निको साक्षी बनाकर गिरिजाका अटूट पाणिग्रहण किया। उस विवाहोत्सवमें पर्वतोंके राजा हिमाचल दाता, देवाधिदेव ब्रह्मा होता, साक्षात् शिव वर तथा विश्वकी अरणिभूता पार्वती कन्या थीं। उस समय प्रधान देवता एवं असुर तथा चराचर सभी प्राणी (कार्याधिक्यके कारण) नियमको छोड़कर व्यग्र हो उठे। सभी प्रकारके मनोरम भावोंसे परिपूर्ण पृथ्वीदेवी आकुल होकर सभी प्रकारके नूतन अन्नों, रसों और औषधियोंको उड़ेलने लगीं। सभी प्राणियोंको हर्ष प्रदान करनेवाले वरुणदेव स्वयं आभूषणोंसे विभूषित हो सभी प्रकारके रत्नों तथा अनेकविध रत्नोंसे निर्मित पुण्यमय एवं पावन आभरणोंको लेकर वहाँ उपस्थित थे ॥ ४७९-४८८ ॥

धनदश्चापि दिव्यानि हैमान्याभरणानि च। 
जातरूपविचित्राणि प्रयतः समुपस्थितः ॥ ४८९

वायुर्ववौ सुसुरभिः सुखसंस्पर्शनो विभुः ।
छत्रमिन्दुकरोद्‌गारं सुसितं च शतक्रतुः ॥ ४९०

जग्राह मुदितः स्त्रग्वी बाहुभिर्बहुभूषणैः । 
जगुर्गन्धर्वमुख्याश्च ननृतुश्चाप्सरोगणाः ॥ ४९१

वादयन्तोऽति मधुरं जगुर्गन्धर्वकिन्नराः । 
मूर्ताश्च ऋतवस्तत्र जगुश्च ननृतुश्च वै ॥ ४९२

चपलाश्च गणास्तस्थुर्लोलयन्तो हिमाचलम्।
उत्तिष्ठन् क्रमशश्चात्र विश्वभुग्भगनेत्रहा ॥ ४९३

चकारौद्वाहिकं कृत्यं पल्या सह यथोचितम्।
दत्तार्थों गिरिराजेन सुरवृन्दैर्विनोदितः ॥ ४९४

अवसत् तां क्षपां तत्र पल्या सह पुरान्तकः ।
ततो गन्धर्वगीतेन नृत्येनाप्सरसामपि ॥ ४९५

स्तुतिभिर्देवदैत्यानां विबुद्धो विबुधाधिपः । 
आमन्त्र्य हिमशैलेन्द्रं प्रभाते चोमया सह। 
जगाम मन्दरगिरिं वायुवेगेन शृङ्गिणा ॥ ४९६

उस समय वहाँ कुबेर भी विनम्रभावसे विभिन्न प्रकारके स्वर्णमय दिव्य आभूषणोंको लिये हुए उपस्थित थे। स्पर्शसे सुख उत्पन्न करनेवाली परम सुगन्धित वायु चारों ओर बहने लगी। मालाधारी इन्द्र हर्षपूर्वक अनेकों आभूषणोंसे विभूषित अपनी भुजाओंद्वारा चन्द्रमाकी किरणोंके समान कान्तिमान् अत्यन्त उज्ज्वल छत्र लिये हुए थे। प्रधान-प्रधान गन्धर्व गीत गा रहे थे और अप्सराएँ नाच रही थीं। कुछ अन्य गन्धर्व और किंनर बाजा बजाते हुए अत्यन्त मधुर स्वरसे राग अलाप रहे थे। वहाँ छहों ऋतुएँ भी शरीर धारणकर नाचती और गाती थीं। चञ्चल प्रकृतिवाले प्रमथगण हिमाचलको विचलित करते हुए उपस्थित थे। इसी समय विश्वके पालनकर्ता एवं भगदेवताके नेत्रोंके विनाशक भगवान् शिव उठे और अपनी पत्नी पार्वतीके साथ क्रमशः सारा वैवाहिक कार्य यथोचितरूपसे सम्पन्न किये। उस समय पर्वतराज हिमाचलने उन्हें अर्घ्य प्रदान किया और सुरसमूह विनोदकी बातें करने लगे। तत्पश्चात् त्रिपुरके विनाशक भगवान् शङ्करने उस रातमें पत्नीके साथ वहाँ निवास किया। प्रातःकाल गन्धवंकि गीत, अप्सराओंके नृत्य तथा देवों एवं दैत्योंकी स्तुतियोंके माध्यमसे जगाये गये देवेश्वर शङ्कर पर्वतराज हिमाचलसे आज्ञा लेकर उमाके साथ वायुके समान वेगशाली नन्दीश्वरपर सवार हो मन्दराचलको चले गये ॥४८९-४९६ ॥ 



ततो गते भगवति नीललोहिते सहोमया रतिमलभन्न भूधरः ।
सबान्धवो भवति च कस्य नो मनो विह्वलं च जगति हि कन्यकापितुः ॥ ४९७
ज्वलन्मणिस्फटिकहाटकोत्कटं स्फुटद्युति स्फटिकगोपुरं पुरम्।
हरो गिरौ चिरमनुकल्पितं तदा विसर्जितामरनिवहोऽविशत् स्वकम् ॥ ४९८ 
तदोमासहितो देवो विजहार भगाक्षिहा। 
पुरोद्यानेषु रम्येषु विविक्तेषु वनेषु च ॥ ४९९
सुरक्तहृदयो देव्या मकराङ्कपुरःसरः । 
ततो बहुतिथे काले सुतकामा गिरेः सुता ॥ ५०० 
सखीभिः सहिता क्रीडां चक्रे कृत्रिमपुत्रकैः । 
कदाचिद्न्धतैलेन गात्रमभ्यज्य शैलजा ॥ ५०१ 
चूर्णैरुद्वर्तयामास मलिनान्तरितां तनुम् । 
तदुद्वर्तनकं गृह्य नरं चक्रे गजाननम् ॥ ५०२ 
पुत्रकं क्रीडती देवी तं चाक्षिपयदम्भसि । 
जाह्नव्यास्तु शिवासख्यास्ततः सोऽभूद् बृहद्वपुः ॥ ५०३ 
कायेनातिविशालेन जगदापूरयत्तदा। 
पुत्रेत्युवाच तं देवी पुत्रेत्यूचे च जाह्नवी ॥ ५०४ 
गाङ्गेय इति देवैस्तु पूजितोऽभूद्गजाननः । 
विनायकाधिपत्यं च ददावस्य पितामहः ॥ ५०५ 
पुनः सा क्रीडनं चक्रे पुत्रार्थं वरवर्णिनी। 
मनोज्ञमङ्करं रूढमशोकस्य शुभानना ॥ ५०६ 
वर्धयामास तं चापि कृतसंस्कारमङ्गला। 
बृहस्पतिमुखैर्विप्रैर्दिवस्पतिपुरोगमैः ॥ ५०७
ततो देवैश्च मुनिभिः प्रोक्ता देवी त्विदं वचः । 
भवानि भवती भव्या सम्भूता लोकभूतये ॥ ५०८ 
प्रायः सुतफलो लोकः पुत्रपौत्रैश्च लभ्यते। 
अपुत्रा च प्रजाः प्रायो दृश्यन्ते दैवहेतुतः ॥ ५०९



तदनन्तर नीललोहित भगवान् शङ्करके उमासहित चले जानेपर भाई-बन्धुओंसहित हिमाचलका मन खिन्न हो गया; क्योंकि जगत्‌में भला ऐसा कौन कन्याका पिता होगा, जिसका मन उसकी विदाईके समय विह्वल न हो जाता हो? उधर मन्दराचलपर शिवजीका नगर बहुत पहलेसे ही विरचित था। वह चमकती हुई मणियों, स्फटिक शिलाओं और स्वर्णसे निर्मित होनेके कारण अत्यन्त सुन्दर लग रहा था, उसकी कान्ति फूटी पड़ती थी और उसमें स्फटिकके फाटक लगे हुए थे। वहाँ पहुँचकर शिवजी देवसमूहको विदा कर अपने नगरमें प्रविष्ट हुए ॥ ४९७-४९८ ॥ 

वहाँ भग-नेत्रहारी भगवान् शङ्कर उमासहित नगरके रमणीय उद्यानों तथा एकान्त वनोंमें विहार करने लगे। उस समय उनका हृदय कामके वशीभूत होनेके कारण पार्वतीदेवीके प्रति अतिशय अनुरक्त हो गया था। इस प्रकार बहुत समय व्यतीत होनेके पश्चात् पार्वतीके मनमें पुत्रकी कामना उत्पन्न हुई, तब वे सखियोंके साथ कृत्रिम पुत्र बनाकर क्रीडा करने लगीं। किसी समय पार्वतीने सुगन्धित तेलसे शरीरको मलकर उसके मैल जमे हुए अङ्गोंमें चूर्णका उबटन भी लगाया। फिर उस लेपनको इकट्ठाकर उससे हाथीके से मुखवाले पुरुषकी आकृतिका निर्माण किया। उसके साथ क्रीडा करनेके पश्चात् पार्वतीदेवीने उसे अपनी सखी जाह्नवीके जलमें डलवा दिया। वहाँ वह विशाल शरीरवाला हो गया और अपने उस अत्यन्त विशाल शरीरसे सारे जगत्‌को आच्छादित कर लिया। तब पार्वतीदेवीने उसे 'पुत्र' ऐसा कहा और उधर जाह्नवीने भी उसे 'पुत्र' कहकर पुकारा। अन्तमें वह गजानन 'गाङ्गेय' नामसे देवताओंद्वारा सम्मानित किया गया और ब्रह्माने उसे विनायकोंका आधिपत्य प्रदान किया। तत्पश्चात् सुन्दर मुखवाली सुन्दरी पार्वतीने पुनः पुत्रकी कामनासे अशोकके नये निकले हुए सुन्दर अङ्कुरको खिलौना बनाया और बृहस्पति आदि विप्रों तथा इन्द्र आदि देवताओंद्वारा अपना माङ्गलिक संस्कार कराकर उसे पाला-पोसा। यह देखकर देवताओं और मुनियोंने पार्वतीदेवीसे यह बात कही 'भवानि ! आप तो परम सुन्दर रूपवाली हो और लोकके कल्याणके लिये प्रकट हुई हो। प्रायः संसार पुत्ररूप फलका ही प्रेमी है और वह फल पुत्र-पौत्रोंद्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। जगत्में जो प्रजाएँ पुत्रहीन हैं, वे प्रायः प्रारब्धके कारण ही वैसा दीख पड़ती हैं। देवि! इस समय आप शास्त्रद्वारा प्रदर्शित मार्गकी मर्यादा निर्धारित करें। इन कल्पित तरुपुत्रकोंसे क्या लाभउपलब्ध होगा?' ऐसा कही जानेपर उमाके अङ्ग हर्षसे पूर्ण हो गये, तब वे सुन्दर वाणीमें बोलीं ॥ ४९९-५१० ॥

अधुना दर्शिते मार्गे मर्यादां कर्तुमर्हसि। 
फलं किं भविता देवि कल्पितैस्तरुपुत्रकैः । 
इत्युक्ता हर्षपूर्णाङ्गी प्रोवाचोमा शुभां गिरम् ॥ ५१० 
देव्युवाच 
एवं निरुदके देशे यः कूपं कारयेद् बुधः ।
विन्दौ बिन्दौ च तोयस्य वसेत् संवत्सरं दिवि ॥ ५११
दशकूपसमा वापी दशवापीसमो हृदः । 
दशहृदसमः पुत्रो दशपुत्रसमो द्रुमः। 
एषैव मम मर्यादा नियता लोकभाविनी ॥ ५१२ 
इत्युक्तास्तु ततो विप्रा बृहस्पतिपुरोगमाः । 
जग्मुः स्वमन्दिराण्येव भवानीं वन्द्य सादरम् ॥ ५१३
गतेषु तेषु देवोऽपि शङ्करः पर्वतात्मजाम् । 
पाणिनाऽऽलम्ब्य वामेन शनैः प्रावेशयच्छुभाम् ॥ ५१४ 
चित्तप्रसादजननं प्रासादमनुगोपुरम् । 
लम्बमौक्तिकदामानं मालिकाकुलवेदिकम् ॥ ५१५ 
निर्धातकलधौतं च क्रीडागृहमनोरमम् । 
प्रकीर्णकुसुमामोदमत्तालिकुलकूजितम् ॥ ५१६ 
किन्नरोद्गीतसङ्गीतगृहान्तरितभित्तिकम् ।
सुगन्धिधूपसड्यातमनः प्रार्थ्यमलक्षितम् ॥ ५१७
क्रीडन्मयूरनारीभिर्वृतं वै ततवादिभिः । 
हंससंघातसड्युष्टं स्फाटिकस्तम्भवेदिकम् ॥ ५१८ 
अनारतमतिप्रीत्या बहुशः किन्नराकुलम् । 
शुकैर्यत्राभिहन्यन्ते पद्मरागविनिर्मिताः ॥ ५१९ 
भित्तयो दाडिमभ्रान्त्या प्रतिबिम्बितमौक्तिकाः । 
तत्राक्षक्रीडया देवी विहर्तुमुपचक्रमे ॥ ५२० 
स्वच्छेन्द्रनीलभूभागे क्रीडने यत्र धिष्ठितौ। 
वपुःसहायतां प्राप्तौ विनोदरसनिर्वृतौ ॥ ५२१ 
एवं प्रकीडतोस्तत्र देवीशङ्करयोस्तदा। 
प्रादुर्भवन्महाशब्दस्तद्गृहोदरगोचरः ॥ ५२२ 



पार्वतीदेवीने कहा- 'विप्रवरो! इस प्रकारके जलरहित प्रदेशमें जो बुद्धिमान् पुरुष कुआँ बनवाता है, वह कुएँके जलके एक-एक बूँदके बराबर वर्षोंतक स्वर्गमें निवास करता है। इस प्रकार दस कुएँके समान एक बावली, दस बावलीके सदृश एक सरोवर, दस सरोवरकी तुलनामें एक पुत्र और दस पुत्रके समान एक वृक्ष माना गया है। यही लोकोंका कल्याण करनेवाली मर्यादा है, जिसे मैं निर्धारित कर रही हूँ। इस प्रकार कहे जानेपर बृहस्पति आदि विप्रगण भवानीको आदरपूर्वक नमस्कार कर अपने-अपने निवास स्थानको चले गये। उन सबके चले जानेपर देवाधिदेव शङ्करने भी सुन्दरी पार्वतीको बायें हाथका सहारा देकर धीरे-धीरे अपने भवनमें प्रवेश कराया। चित्तको प्रसन्न करनेवाला वह भवन फाटकके निकट ही था। उसमें मोतियोंकी लम्बी-लम्बी झालरें लटक रही थीं, वेदिकाएँ पुष्पहारोंसे सुसज्जित थीं, तपाये हुए स्वर्णके मनोरम क्रीडागृह बने हुए थे, बिखरे हुए पुष्पोंकी सुगन्धसे उन्मत्त हुए भँवरे गुंजार कर रहे थे, किन्नरोंद्वारा गाये गये संगीतसे गृहकी भीतरी दीवाल प्रतिध्वनित हो रही थी, मनको अच्छी लगनेवाली सुगन्धित धूपोंकी भीनी सुगन्ध फैल रही थी। वह नाचती हुई मयूरियों तथा तारवाले बाजे बजानेवाले वादकोंसे व्याप्त था। वहाँ हंस-समूहोंकी ध्वनि गूँज रही थी, स्फटिकके खम्भोंसे युक्त वेदिकाएँ सुशोभित थीं, अधिकांश किन्नर अत्यन्त प्रसत्रतापूर्वक निरन्तर उपस्थित रहते थे। उसमें पद्मराग मणिकी दीवालें बनी हुई थीं, जिनपर मोतियोंकी झलक पड़ रही थी, इस कारण अनारके भ्रमसे शुकसमूह उनपर अपने ठोरोंसे आघात कर रहे थे। ऐसे भवनमें पार्वतीदेवी द्यूतक्रीडाके माध्यमसे विहार करने लगीं। निर्मल इन्द्रनील मणिके बने हुए उस क्रीडा-स्थानपर क्रीडा करते हुए शिव-पार्वती विनोदके रसमें निमग्न हो परस्पर एक-दूसरेके शरीरकी सहायताको प्राप्त हुए ॥ ५११-५२१॥

तच्छ्रुत्वा कौतुकाद् देवी किमेतदिति शङ्करम् । 
पप्रच्छ तं शुभतनुर्हरं विस्मयपूर्वकम् ॥ ५२३

उवाच देवीं नैतत् ते दृष्टपूर्व सुविस्मिते। 
एते गणेशाः क्रीडन्ते शैलेऽस्मिन् मत्प्रियाः सदा ।। ५२४

तपसा ब्रह्मचर्येण नियमैः क्षेत्रसेवनैः । 
यैरहं तोषितः पूर्वं त एते मनुजोत्तमाः ॥ ५२५

मत्समीपमनुप्राप्ता मम हृद्याः शुभानने। 
कामरूपा महोत्साहा महारूपगुणान्विताः ॥ ५२६

कर्मभिर्विस्मयं तेषां प्रयामि बलशालिनाम्। 
सामरस्यास्य जगतः सृष्टिसंहरणक्षमाः ॥ ५२७

ब्रह्मविष्ण्विन्द्रगन्धर्वैः सकिन्नरमहोरगैः । 
विवर्जितोऽप्यहं नित्यं नैभिर्विरहितो रमे ॥ ५२८

हृद्या मे चारुसर्वाङ्गास्त एते क्रीडिता गिरौ। 
इत्युक्ता तु ततो देवी त्यक्त्वा तद्विस्मयाकुला ॥ ५२९ 

इस प्रकार वहाँ पार्वती और शंकरके क्रीडा करते समय उस गृहके भीतर महान् भयंकर शब्द प्रादुर्भूत हुआ। उसे सुनकर सुन्दर शरीरवाली पार्वतीदेवीने कुतूहलवश आश्चर्यपूर्वक भगवान् शंकरसे पूछा- 'यह क्या हो रहा है?' तब शिवजीने पार्वतीसे कहा- 'सुविस्मिते ! तुमने पहले इसे नहीं देखा है। मेरे परम प्रिय ये गणेश्वर इस पर्वतपर सदा क्रीडा करते रहते हैं। शुभानने। जो लोग पहले तपस्या, ब्रह्मचर्य, नियमपालन और तीर्थसेवनद्वारा मुझे संतुष्ट कर चुके हैं, वे ही ये श्रेष्ठ पुरुष मेरे पास प्राप्त हुए हैं। ये मुझे परम प्रिय हैं। ये इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले, महान् उत्साहसे सम्पन्न तथा अतिशय सौन्दर्य एवं गुणोंसे युक्त हैं। इन बलशालियोंके कार्योंसे तो मुझे भी परम विस्मय हो जाता है। ये देवताओंसहित इस जगत्‌की सृष्टि और संहार करनेमें समर्थ हैं। अतः ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, गन्धर्व, किंनर और प्रधान-प्रधान नागोंसे नित्य विलग रहनेपर भी मुझे कष्ट नहीं होता, परंतु इनसे वियुक्त होनेपर मुझे कभी आनन्द नहीं प्राप्त होता। इनके सभी अङ्ग अत्यन्त सुन्दर हैं और ये सभी मुझे परम प्रिय हैं। वे ही ये सब इस पर्वतपर क्रीडा कर रहे हैं।' इस प्रकार कही जानेपर पार्वतीने विस्मयसे व्याकुल हो द्यूतक्रीडा छोड़ दी और वे भौंचक्की-सी हो झरोखेमें बैठकर उनकी ओर देखने लगीं ॥ ५२२-५२९ ॥

गवाक्षान्तरमासाद्य प्रेक्षते विस्मितानना। 
यावन्तस्ते कृशा दीर्घा ह्रस्वाः स्थूला महोदराः ॥ ५३०

व्याघ्ने भवदनाः केचित् केचिन्मेषाजरूपिणः । 
अनेकप्राणिरूपाश्च ज्वालास्याः कृष्णपिङ्गलाः ॥ ५३१

सौम्या भीमाः स्मितमुखाः कृष्णपिङ्गजटासटाः । 
नानाविहङ्गवदना नानाविधमृगाननाः ॥ ५३२

कौशेयचर्मवसना नग्नाश्चान्ये विरूपिणः ।
गोकर्णा गजकर्णाश्च बहुवक्त्रेक्षणोदराः ॥ ५३३

बहुपादा बहुभुजा दिव्यनानास्त्रपाणयः । 
अनेककुसुमापीडा नानाव्यालविभूषणाः ॥ ५३४

वृत्ताननायुधधरा नानाकवचभूषणाः । 
विचित्रवाहनारूढा दिव्यरूपा वियच्चराः ॥ ५३५

वीणावाद्यमुखोद्युष्टा नानास्थानकनर्तकाः । 
गणेशांस्तांस्तथा दृष्ट्वा देवी प्रोवाच शङ्करम् ॥ ५३६

वे जितने थे, उनमें कुछ दुबले-पतले, लम्बे, छोटे और विशाल पेटवाले थे। किन्हींके मुख व्याघ्र और हाथीके समान थे तो कोई भेड़ और बकरेके-से रूपवाले थे। उनके रूप अनेकों प्राणियोंके सदृश थे। किन्हींके मुखसे ज्वाला निकल रही थी तो कोई काले एवं पीले रंगके थे। किन्हींके मुख सौम्य, किन्हींके भयंकर और किन्हींके मुसकानयुक्त थे। किन्हींके मस्तकपर काले एवं पीले रंगकी जटा बँधी थी। किन्होंके मुख नाना प्रकारके पक्षियोंके से तथा किन्होंके मुख विभिन्न प्रकारके पशुओं- सदृश थे। किन्हींके शरीरपर रेशमी वस्त्र थे तो कोई वत्रके स्थानपर चमड़ा ही लपेटे हुए थे और कुछ नंगे ही थे। कुछ अत्यन्त कुरूप थे। किन्हींके कान गौ-सरीखे थे तो किन्होंके कान हाथी-जैसे थे। किन्हींके बहुत-से मुख, नेत्र और पेट थे तो किन्होंके बहुत से पैर और भुजाएँ थीं। उनके हाथोंमें नाना प्रकारके दिव्यास्त्र शोभा पा रहे थे। किन्होंके मस्तकोंपर नाना प्रकारके पुष्प बँधे हुए थे तो कोई अनेकविध सर्पोंके ही आभूषण धारण किये हुए थे। कोई गोल मुखवाले अस्त्र लिये हुए थे तो कोई विभिन्न प्रकारके कवचोंसे विभूषित थे। कुछ दिव्य रूपधारी थे और विचित्र वाहनोंपर आरूढ़ हो आकाशमें विचर रहे थे। कुछ मुखसे वीणा आदि बाजे बजा रहे थे और कुछ यत्र-तत्र नाच रहे थे। इस प्रकार उन गणेश्वरोंको देखकर पार्वतीदेवी शंकरजीसे बोलीं ॥५३०-५३६ ॥

देव्युवाच

गणेशाः कति संख्याताः किं नामानः किमात्मकाः । 
एकैकशो मम ब्रूहि धिष्ठिता ये पृथक् पृथक् ॥ ५३७

देवीने पूछा- 'प्रभो! इन गणेश्वरोंकी संख्या कितनी है? इनके क्या-क्या नाम हैं? इनके स्वभाव कैसे हैं? ये जो पृथक् पृथक् बैठे हैं, इनमेंसे मुझे एक-एकका परिचय दीजिये ॥ ५३७॥

शङ्कर उवाच

कोटिसंख्या ह्यसंख्याता नानाविख्यातपौरुषाः । 
जगदापूरितं सर्वैरेभिर्भीमैर्महाबलैः ॥ ५३८

सिद्धक्षेत्रेषु रथ्यासु जीर्णोद्यानेषु वेश्मसु। 
दानवानां शरीरेषु बालेघून्मत्तकेषु च। 
एते विशन्ति मुदिता नानाहारविहारिणः ॥ ५३९

ऊष्मपाः फेनपाश्चैव धूमपा मधुपायिनः । 
रक्तपाः सर्वभक्षाश्च वायुपा ह्यम्बुभोजनाः ॥ ५४०

गेयनृत्योपहाराश्च नानावाद्यरवप्रियाः ।
न होषां वै अनन्तत्वाद् गुणान् वक्तुं हि शक्यते ।। ५४१

शंकरजी बोले- 'देवि! यों तो ये असंख्य हैं, परंतु प्रधान-प्रधान गणेश्वरोंकी संख्या एक करोड़ है। ये विभिन्न प्रकारके पुरुषार्थोंके लिये विख्यात हैं। इन सभी महाबली भयंकर गणोंसे सारा जगत् परिपूर्ण है। नाना प्रकारके आहार-विहारसे युक्त ये गणेश्वर हर्षपूर्वक सिद्ध क्षेत्रों, गलियों, पुराने उद्यानों, घरों, दानवोंके शरीरों, बालकों और पागलोंमें प्रवेश करते हैं। ये सभी ऊष्मा, फेन, धूम, मधु, रक्त और वायुका पान करनेवाले हैं। जल इनका भोजन है और ये सर्वभक्षी हैं। ये नाच-गानके उपहारसे प्रसन्न होनेवाले और अनेकों प्रकारके वाद्य-शब्दोंके प्रेमी हैं। अनन्त होनेके कारण इनके गुणोंका वर्णन नहीं किया जा सकता ॥ ५३८-५४१ ॥

देव्युवाच

मार्गत्वगुत्तरासङ्गः शुद्धाङ्गो मुञ्जमेखली।
वामस्थेन च शिक्येन चपलो रञ्जिताननः ॥ ५४२

मृगदंष्ट्रो ह्युत्पलानां स्त्रग्दामो मधुराकृतिः । 
पाषाणशकलोत्तानकांस्यतालप्रवर्तकः ॥ ५४३

असौ गणेश्वरो देवः किं नामा किंनरानुगः । 
य एष गणगीतेषु दत्तकर्णो मुहुर्मुहुः ॥ ५४४ 

देवीने पूछा- 'स्वामिन् ! जो मृगचर्मका दुपट्टा लपेटे हुए हैं, जिसके सभी अङ्ग शुद्ध हैं; जो मूँजकी मेखला धारण किये हुए हैं, जिसके बायें कंधेपर झोली लटक रही है, जो अत्यन्त चञ्चल और रंगे हुए मुखवाला है, जिसकी दाढ़ सिंहके सदृश है, जो कमल पुष्पोंकी माला धारण किये हुए, सुन्दर आकृतिसे युक्त और पाषाण-खण्डसे उत्तान रखे हुए काँसेके बाजेपर ताल लगा रहा है तथा जिसके पीछे किन्नर लोग चल रहे हैं और जो अन्य गणोंद्वारा गाये गये गीतोंपर बार-बार कान लगाये हुए हैं, उस गणेश्वर देवका क्या नाम है?॥ ५४२-५४४॥

शर्व उवाच

स एष वीरको देवि सदा मद्धृदयप्रियः । 
नानाश्चर्यगुणाधारो गणेश्वरगणार्चितः ।। ५४५ 

शंकरजीने कहा- देवि! यही वह वीरक है, जो सदा मेरे हृदयको प्रिय लगनेवाला है। यह नाना प्रकारके आश्चर्यजनक गुणोंका आश्रय तथा सभी गणेश्वरोंद्वारा पूजित सम्मानित है॥ ५४५॥

देव्युवाच

ईदृशस्य सुतस्यास्ति ममोत्कण्ठा पुरान्तक । 
कदाहमीदृशं पुत्रं द्रक्ष्याम्यानन्ददायिनम् ॥ ५४६

देवीने पूछा-त्रिपुरनाशक भगवन् ! मेरे मनमें ऐसा ही पुत्र प्राप्त करनेकी प्रबल उत्कण्ठा है। मैं कब ऐसे आनन्ददायक पुत्र को देखूँगी ? ॥ ५४६ ॥

शर्व उवाच

एष एव सुतस्तेऽस्तु नयनानन्दहेतुकः । 
त्वया मात्रा कृतार्थस्तु वीरकोऽपि सुमध्यमे ।। ५४७

इत्युक्ता प्रेषयामास विजयां हर्षणोत्सुका। 
वीरकानयनायाशु दुहिता हिमभूभृतः ॥ ५४८

सावरुह्य त्वरायुक्ता प्रासादादम्बरस्पृशः ।
विजयोवाच गणपं गणमध्ये प्रवर्तिता ॥ ५४९

एहि वीरक चापल्यात् त्वया देवः प्रकोपितः । 
किमुत्तरं वदत्यर्थे नृत्यरङ्गे तु शैलजा ॥ ५५०

इत्युक्तस्त्यक्तपाषाणशकलो मार्जिताननः । 
आहूतस्तु तयोद्भूतमूलप्रस्तावशंसकः ॥ ५५१

देव्याः समीपमागच्छद् विजयानुगतः शनैः ।
प्रासादशिखरात्फुल्ल रक्ताम्बुजनिभद्युतिः ॥ ५५२

तं दृष्ट्वा प्रस्तुतानल्पस्वादुक्षीरपयोधरा । 
गिरिजोवाच सस्नेहं गिरा मधुरवर्णया ॥ ५५३ 

शिवजीने कहा-सुमध्यमे । नेत्रोंको आनन्द प्रदान करनेवाला यह वीरक ही तुम्हारा पुत्र हो और बौरक भी तुम-जैसी माताको पाकर कृतार्थ हो जाय। इस प्रकार कही जानेपर पर्वतराजकी कन्या पार्वतीने हर्षसे उत्सुक होकर तुरंत हो वीरकको बुला लानेके लिये विजयाको भेजा। तब विजया शीघ्र ही उस गगनचुम्बी अट्टालिकासे नीचे उतरकर गणोंके मध्यमें पहुँची और गणेश्वर वीरकसे बोली-'वीरक । यहाँ आओ, तुम्हारी चञ्चलतासे भगवान् शंकर क्रुद्ध हो गये हैं। तुम्हारे इस नाच रंगके विषयमें माता पार्वती भी देखो क्या कहती हैं।' विजयाके ऐसा कहनेपर वीरकने पाषाणखण्डको फेंक दिया और वह अपने मुखको धोकर माताद्वारा बुलाये जानेके मूल कारणके विषयमें सोचता हुआ विजयाके पीछे-पीछे पार्वतीदेवीके निकट आया। खिले हुए लाल कमलपुष्पकी-सी कान्तिवाली पार्वतीने अट्टालिकाके शिखरपरसे जब वीरकको आते हुए देखा तो उनके स्तनोंसे अधिक मात्रामें स्वादिष्ट दूध टपकने लगा। तब गिरिजा स्नेहपूर्वक मधुर वाणीमें वीरकसे बोलीं ॥ ५४७-५५३ ॥

उमोवाच 

एह्येहि यातोऽसि मे पुत्रतां देवदेवेन दत्तोऽधुना वीरक।
इत्येवमङ्के निधायाथ तं पर्यचुम्बत् कपोले शनैः कलवादिनम् ॥ ५५४

मूर्युपाघ्नाय सम्मार्ज्य गात्राणि ते भूषयामास दिव्यैः स्त्रजैर्भूषणैः ।
किङ्किणीमेखलानूपुरै-र्माणिक्यकेयूरहारोरुमूलगुणैः ॥ ५५५

कोमलैः पल्लवैश्चित्रितैश्चारुभि-र्दिव्यमन्त्रोद्भवैस्तस्य शुभैस्ततो 
भूरिभिश्चाकरोन्मिश्र-सिद्धार्थकैरङ्गरक्षाविधिम् ॥५५६

एवमादाय चोवाच कृत्वा स्त्रजं मूर्छिन गोरोचनापत्रभङ्गोज्वलैः ॥ ५५७

गच्छ गच्छाधुना क्रीड सार्धं गणै-रप्रमत्तो वस श्वभ्रवर्जी 
शनै-व्र्व्यालमालाकुलाः शैलसानुद्रुम-दन्तिभिभिन्नसाराः परे सङ्गिनः ॥ ५५८ 

जाह्नवीयं जलं क्षुब्धतोयाकुलं कूलं मा विशेथा बहुव्याघ्रदुष्टे वने।
वत्सासंख्येषु दुर्गा गणेशेष्वेतस्मिन् वीरके पुत्रभावोपतुष्टान्तःकरणा तिष्ठतु ।। ५५९ 

उमाने कहा-वीरक! आओ, यहाँ आओ, देवाधिदेवने तुम्हें मुझे प्रदान किया है। अब तुम मेरे पुत्रस्वरूप हो गये हो। ऐसा कहकर माता पार्वती वीरकको अपनी गोदमें बैठाकर उस मधुरभाषी पुत्रके कपोलोंका चुम्बन करने लगी। उन्होंने उसका मस्तक सैंधकर शरीरके सभी अङ्गोंको नहलाकर स्वच्छ किया। फिर किंकिणी, कटिसूत्र, नृपुर, मणिनिर्मित केयूर, हार और ऊरुमूलगुण (कच्छी) आदि दिव्य आभूषणोंसे उसे स्वयं विभूषित किया। तत्पश्चात् अत्यन्त सुन्दर विचित्र रंगके कोमल पल्लवों, दिव्य मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित अनेकों माङ्गलिक सूक्तों तथा अनेक धातुओंके चूर्णोसे मिश्रित सफेद सरसोंसे उसके अङ्गॉकी रक्षाका विधान किया। इस प्रकार उसे गोदमें लेकर मुखपर गोरोचनसे उज्ज्वल पत्रभंगीकी रचना करके उसके मस्तकपर माला डालकर कहा-'बेटा! अब जाओ और अपने साथी गणोंके साथ सावधान होकर खेलो। उनके साथ कपटरहित होकर निवास करो। तुम्हारे दूसरे साथी व्यालसमूहोंसे व्याकुल और पर्वतशिखर, वृक्ष और गजराजोंसे परास्त हो रहे हैं। गङ्गाका जल अत्यन्त क्षुब्ध हो रहा है, उसने तटको जर्जर कर दिया है, अतः वहाँ तथा बहुत-से दुष्ट व्याघ्रोंसे भरे हुए वनमें मत प्रवेश करना। इन पुत्ररूप असंख्य गणेश्वरोंमें इस वीरकपर दुर्गादेवी सदा पुत्रभावसे संतुष्ट अन्तःकरणवाली बनी रहें। अपने पितृजनोंद्वारा प्रार्थित भावी अवश्य घटित होती है, अतः यह भव्यता तुम्हें भविष्यमें प्राप्त होगी' ॥ ५५४-५५९॥

स्वस्य पितृजनप्रार्थितं भव्यमायातिभाविन्यसौ भव्यता।
सोऽपि निर्वर्त्य सर्वान् गणान् सस्मय-माह बालत्वलीलारसाविष्ठधीः । ५६०

एष मात्रा स्वयं मे कृतभूषणो-ऽत्र एष पटः पटलैर्बिन्दुभिः ।
सिन्दुवारस्य पुष्यैरियं मालती-मिश्रिता मालिका मे शिरस्याहिता ॥ ५६१

कोऽयमातोद्यधारी गणस्तस्य दास्यामि हस्तादिदं क्रीडनम्।
दक्षिणात्पश्चिमं पश्चिमादुत्तर-मुत्तरात्पूर्वमभ्येत्य सख्या युता प्रेक्षती ॥ ५६२

तं गवाक्षान्तराद्वीरकं शैलपुत्री बहिः क्रीडनं यज्जगन्मातुरप्येष चित्तभ्रमः ।
पुत्रलुब्धो जनस्तत्र को मोहमायाति न स्वल्पचेता जडो मांसविण्मूत्रसङ्घातदेहः ।। ५६३

द्रष्टुमभ्यन्तरं नाकवासेश्वरै-रिन्दुमौलिं प्रविष्टेषु कक्षान्तरम् ।
वाहनात्यावरोहा गणास्तैर्युतो लोक-पालास्त्रमूर्ती हायं खड्‌गो विखड्गकरः ॥ ५६४

निर्ममः कृतान्तः कस्य केनाहतो बूत मौनेभवन्तोऽस्वदण्डेन किं दुःस्पृहाः ।
भीममूत्र्याननेनास्ति कृत्यं गिरौ य एषोऽस्त्रज्ञेन किं वध्यते ॥ ५६५

तदनन्तर बालक्रीडाके रसमें निमग्नबुद्धि वीरक भी वहाँसे लौटकर सभी गणोंसे हँसते हुए बोला- 'मित्रो ! देखो, स्वयं माताने मेरा यह शृङ्गार किया है। उन्होंने ही यह गुलाबी बुंदियोंसे युक्त वस्त्र पहनाया है और मालती-पुष्पोंसे मिली हुई यह सिन्दुवार पुष्पोंकी माला मेरे सिरपर रखी है। यह आतोद्य नामक बाजा धारण करनेवाला कौन गण है? मैं उसे अपने हाथसे वह खिलौना दूँगा।' उधर सखीके साथ पार्वती कभी दक्षिणसे पश्चिम, कभी पश्चिमसे उत्तर और कभी उत्तरसे पूर्वकी ओर घूम-घूमकर गवाक्ष मार्गसे बाहर खेलते हुए वीरककी ओर निहार रही थीं। जब जगन्माता पार्वतीके चित्तमें (पुत्रको खेलते हुए देखकर) इस प्रकार व्यामोह उत्पन्न हो जाता है, तब भला स्वल्पबुद्धि, मूर्ख, मांस, विष्ठा और मूत्रकी राशिसे भरे हुए शरीरको धारण करनेवाला ऐसा कौन पुत्रप्रेमी जन होगा जिसे मोह न प्राप्त हो। इसी बीच देवगण भगवान् चन्द्रशेखरका दर्शन करनेके लिये कक्षके भीतर प्रविष्ट हुए और प्रमथगण अपने वाहनोंपर आरूढ़ हो गये। उनसे घिरे हुए वीरकने लोकपाल यमके अस्त्र खड्गको म्यानसे खींचकर कहा-'तुमलोग बतलाओ, निर्दय कृतान्त किस कारण किसका वध करना चाहता है? तुमलोग मौन क्यों हो? अत्रदण्डसे क्या अलभ्य है? भयंकर आकृतिवाले मेरे वर्तमान रहते इस पर्वतपर ऐसा कौन-सा कार्य है जो अत्रज्ञद्वारा सिद्ध नहीं हो सकता ॥ ५६०-५६५ ॥ 

मा वृथा लोकपालानुगचित्तता एवमेवैतदित्यूचुरस्मै तदा देवताः ।
देवदेवानुगं वीरकं लक्षणा प्राह देवी वनं पर्वता निर्झराण्यग्निदेव्यान्यथो ॥ ५६६

भूतपा निर्झराम्भोनिपातेषु निमज्जत पुष्पजालावनद्धेषु धामस्वपि शेत प्रोत्तुङ्ग।
नानाद्रिकुजेष्वनुगञ्जन्तु हेमा-रुतास्फोटसंक्षेपणात्कामतः ॥ ५६७

काञ्चनोत्तुङ्गशृङ्गावरोहक्षितौ हेमरेणू-त्करासङ्गद्युतिं खेचराणां वनाधायिनि ।
रम्ये बहुरूपसम्पत्प्रकरे गणान्वासितं मन्दरकन्दरे सुन्दरमन्दारपुष्पप्रवालाम्बुजे ।। ५६८

सिद्धनारीभिरापीतरूपामृतं विस्तृतै-नॅत्रपात्रैरनुन्मेषिभिर्वीरकं ।
शैलपुत्री निमेषान्तरादस्मर-त्पुत्रगृघ्नी विनोदार्थिनी ॥ ५६९

सोऽपि तादृक्क्षणावाप्तपुण्योदयो योऽपि जन्मान्तरस्यात्मजत्वं गतः 
क्रीडतस्तस्य तृप्तिः कथं जायते योऽपि भाविजगद्वेधसा तेजसः कल्पितः 
प्रतिक्षणं दिव्यगीतक्षणो नृत्यलोलो गणेशैः प्रणतः ॥ ५७०

क्षणं सिंहनादाकुले गण्डशैले सृजद्रत्नजाले बृहत्सालताले ।
क्षणं फुल्लनानातमालालिकाले क्षणं वृक्षमूले विलोलो मराले ॥ ५७१

क्षणे स्वल्पपङ्के जले पङ्कजाढ्ये क्षणं मातुरङ्के शुभे निष्कलङ्के। 
परिक्रीडते बाललीलाविहारी गणेशाधिपो देवतानन्दकारी 
निकुञ्जेषु विद्याधरैर्गीतशीलः पिनाकीव लीलाविलासैः सलीलः ॥ ५७२ 

वीरकके इस प्रकार कहनेपर देवताओंने उनसे कहा- 'वीरक! तुम्हें इस प्रकार लोकपालोंके चित्तका अनुगमन नहीं करना चाहिये।' फिर लक्षणादेवी देवाधिदेव महादेवके अनुचर वीरकसे बोलीं- 'तुमलोग प्राणियोंकी रक्षा करते हुए वन, पर्वत, निर्झर और अग्नियुक्त स्थानोंपर विचरण करते हुए झरनोंके जलप्रवाहमें मज्जन करो, पुष्पोंसे सुसज्जित भवनोंमें शयन करो और ऊँचे-ऊँचे विभिन्न पर्वतोंके कुँओंमें स्वेच्छानुसार झंझावातके अव्यक्त शब्दका अनुकरण करते हुए गर्जना करो। विनोदकी अभिलाषावाली पुत्रप्रेमी पार्वती ऊँचे स्वर्णमय शिखरोंकी ढालू भूमिसे युक्त, आकाशचारियोंकी रमणीय वनस्थलीरूप, अनेकों प्रकारकी सम्पत्तियोंसे परिपूर्ण तथा सुन्दर मन्दारपुष्प, प्रवाल और कमल-पुष्पोंसे सुशोभित मन्दराचलके खोहोंमें खेलते वीरकको जिसकी अङ्गकान्ति सुवर्णकी रेणु-सरीखी थी, सिद्धोंकी स्त्रियाँ जिसके रूपामृतका पान कर रही थीं और जो गणोंके साथ विराजमान था, क्षण क्षणपर निमेषरहित विस्फारित नेत्रोंसे देखती हुई स्मरण करती रहती थीं। वीरकका भी उस समय जन्मान्तरका पुण्य उदय हो गया था, जिससे वह पार्वतीका पुत्र हो गया। ऐसी दशामें उसे खेलसे तृप्ति कैसे प्राप्त हो सकती है? वह जगत्कर्ता ब्रह्माद्वारा तेजके भावी अंशसे कल्पित किया गया था। वह प्रतिक्षण दिव्य गीतोंको सुनता था और स्वयं भी चञ्चलतापूर्वक नृत्य करता था। गणेश्वर उसके सामने नतमस्तक रहते थे। वह चञ्चलतापूर्वक किसी क्षण सिंहनादसे व्याप्त, रत्नसमूहोंकी खानवाले तथा बड़े-बड़े साल और ताड़के वृक्षोंसे सुशोभित पर्वत शिखरपर, किसी क्षण खिले हुए बहुत से तमाल वृक्षोंसे युक्त होनेके कारण काले दीखनेवाले वनोंमें, किसी क्षण राजहंसपर चढ़कर, किसी क्षण कमलसे भरे हुए थोड़े कीचड़ और जलवाले सरोवरमें तथा किसी क्षण माताकी निष्कलंक सुन्दर गोदमें बैठकर क्रीडा करता था। इस प्रकार देवताओंको आनन्द प्रदान करनेवाला एवं गणेश्वरोंका भी अधिपति वह बाललीलाबिहारी वीरक निकुञ्जओंमें विद्याधरोंके साथ गान करता और शंकरजीकी तरह लीलाविलाससे युक्त हो क्रीडा करता था॥ ५६६-५७२॥

प्रकाश्य भुवनाभोगी ततो दिनकरे गते।
देशान्तरं तदा पश्चाद् दूरमस्तावनीधरम् ॥ ५७३

उदयास्ते पुरो भावी यो हि चास्तेऽवनीधरः । 
मित्रत्वमस्य सुदृढं हृदये परिचिन्त्यताम् ॥ ५७४

नित्यमाराधितः श्रीमान् पृथुमूलः समुन्नतः । 
नाकरोत् सेवितुं मेरुरुपहारं पतिष्यतः ॥ ५७५ 

जलेऽप्येषा व्यवस्थेति संशयेताखिलं बुधः । 
दिनान्तानुगतो भानुः स्वजनत्वमपूरयत् ॥ ५७६ 

संध्याबद्धाञ्जलिपुटा मुनयोऽभिमुखा रविम् ।
याचन्त्यागमनं शीघ्रं निवार्यात्मनि भाविताम् ॥ ५७७

व्यजृम्भदथ लोकेऽस्मिन् क्रमाद् वैभावरं तमः । 
कुटिलस्येव हृदये कालुष्यं दूषयन्मनः ॥ ५७८

तदनन्तर भगवान् सूर्य सारे भुवनोंको प्रकाशित करनेके पश्चात् सायंकाल अस्ताचलकी और प्रस्थित हुए। उदयाचल और अस्ताचल- ये दोनों पर्वत पूर्वकालकी निश्चित योजनाके अनुसार स्थित हैं। इनमें सूर्यकी अस्ताचलके साथ सुदृढ़ मित्रता है-ऐसा विचारकर नित्य सूर्यद्वारा आराधित, शोभाशाली, स्थूल मूल भागवाले एवं समुन्नत मेरुने गिरते हुए सूर्यकी सेवा करनेके लिये कोई उपहार नहीं समर्पित किया। जलमें भी यही व्यवस्था है-इन सभी विषयोंपर बुद्धिमान् पुरुष संशय करेंगे। दिनके अवसानका अनुगमन करनेवाले सूर्यने अपनत्वकी पूर्ति की। संध्याके समय हाथ जोड़े हुए मुनिगण सूर्यके सम्मुख उपस्थित हो आत्मामें उत्पन्न हुई (बिछोहकी) भावनाको रोककर पुनः शीघ्र ही आगमनकी याचना कर रहे हैं। इस प्रकार सूर्यके अस्त हो जानेपर सारे जगत्में रात्रिका अन्धकार क्रमशः उसी प्रकार बढ़ने लगा, जैसे कुटिल मनुष्यके हृदयमें पाप मनको दूषित करते हुए फैल जाता है॥ ५७३-५७८ ॥

ज्वलत्फणिफणारत्नदीपोद्योतितभित्तिके । 
शयनं शशिसङ्घातशुभ्रवस्त्रोत्तरच्छदम् ॥ ५७९

नानारत्नद्युतिलसच्छक्रचापविडम्बकम् । 
रत्नकिङ्किणिकाजालं लम्बमुक्ताकलापकम् ॥ ५८०

कमनीयचलल्लोलवितानाच्छादिताम्बरम् । 
मन्दिरे मन्दसञ्चारः शनैर्गिरिसुतायुतः ॥ ५८१

तस्थौ गिरिसुताबाहुलतामीलितकन्धरः । 
शशिमौलिसितज्योत्स्राशुचिपूरितगोचरः ॥ ५८२

गिरिजाप्यसितापाङ्गी नीलोत्पलदलच्छविः । 
विभावर्या च सम्पृक्ता बभूवातितमोमयी।
तामुवाच ततो देवः क्रीडाकेलिकलायुतम् ॥ ५८३ 

तत्पश्चात् जिसकी दीवालें प्रभापूर्ण सर्पोंकी मणिरूपी दीपकोंसे उद्भाषित हो रही थीं, ऐसे भवनमें शय्या बिछी थी, जिसपर चाँदनीकी राशि जैसी उज्ज्वल चादर बिछी थी, नाना प्रकारके रत्नोंकी कान्तिसे सुशोभित होनेके कारण वह इन्द्रधनुषकी विडम्बना कर रही थी, उसमें रत्ननिर्मित क्षुद्रघण्टिकाएँ तथा मोतियोंकी लम्बी-लम्बी झालरें लटक रही थी और उसका ऊपरी भाग हिलते हुए कमनीय वितानसे आच्छादित था, ऐसी शय्यापर मन्दगतिसे चलते हुए भगवान् शंकर पार्वतीके साथ विराजमान हुए। उस समय उनका कंधा पार्वतीकी भुजलतासे संयुक्त था। चन्द्रभूषणकी उज्ज्वल एवं निर्मल प्रभा सर्वत्र फैल रही थी। कजरारे नेत्रोंवाली गिरिजाकी भी छवि नीले कमल-दलके समान थी। रात्रिसे संयुक्त होनेके कारण वे विशेषरूपसे तमोमयी दीख रही थीं। उस समय भगवान् शंकर पार्वतीसे क्रीडाकेलिकी कलासे युक्त वचन बोले ॥ ५७९-५८३ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे कुमारसम्भवे चतुः पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५४ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके कुमारसम्भवमें एक सौ चौवनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १५४ ॥

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