मत्स्य पुराण एक सौ पचासीवाँ अध्याय
वाराणसी-माहात्म्य
सूत उवाच
अविमुक्ते महापुण्ये चास्तिकाः शुभदर्शनाः।
विस्मयं परमं जग्मुर्हर्षगद्गदनिःस्वनाः ॥ १
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। अतिशय पुण्यमय अविमुक्तक्षेत्रमें आस्तिक, शुभ दर्शनवाले एवं हर्षगद्गद वाणीसे युक्त उन ऋषियोंको (इस आश्चर्यजनक आख्यानको सुनकर) महान् आश्चर्य हुआ। १
ऊचुस्ते हृष्टमनसः स्कन्दं ब्रह्मविदां वरम्।
ब्रह्मण्यो देवपुत्रस्त्वं ब्राह्मणो ब्राह्मणप्रियः ॥ २
ब्रह्मिष्ठो ब्रह्मविद् ब्रह्मा ब्रह्मेन्द्रो ब्रह्मलोककृत् ।
ब्रह्मकृद् ब्रह्मचारी त्वं ब्रह्मादिर्ब्रह्मवत्सलः ॥ ३
ब्रह्मतुल्योद्भवको ब्रह्मतुल्यो नमोऽस्तु ते।
ऋषयो भावितात्मानः श्रुत्वेदं पावनं महत् ॥ ४
तत्त्वं तु परमं ज्ञातं यज्ज्ञात्वामृतमश्रुते ।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामो भूर्लोकं शङ्करालयम् ॥ ५
यत्रासौ सर्वभूतात्मा स्थाणुभूतः स्थितः प्रभुः ।
सर्वलोकहितार्थाय तपस्युग्रे व्यवस्थितः ॥ ६
संयोज्य योगेनात्मानं रौद्रीं तनुमुपाश्रितः ।
गुह्यकैरात्मभूतस्तु आत्मतुल्यगुणैर्वृतः ॥ ७
तब उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर ब्रह्मज्ञानियोंमें श्रेष्ठ स्कन्दजीसे कहा- भगवन् । आप ब्राह्मण-भक्त, महादेवजीके पुत्र, ब्राह्मण, ब्राह्मणोंके प्रिय, ब्रह्ममें स्थित, ब्रह्मज्ञ, स्वयं ब्रह्मस्वरूप, ब्रह्मेन्द्र, ब्रह्मलोककर्ता, ब्रह्मकृत्, ब्रह्मचारी, ब्रह्मासे भी पुरातन, ब्रह्मवत्सल, ब्रह्माके समान सृष्टिकर्ता और ब्रह्मतुल्य हैं, आपको नमस्कार है। इस अतिशय पवित्र कथाको सुनकर हम ऋषिगण कृतार्थ हुए। हमने उस परम तत्त्वको जान लिया, जिसे जानकर अमरत्व (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। आपका कल्याण हो, अब हमलोग पृथ्वीलोकमें शिवजीके उस निवासस्थानपर जा रहे हैं, जहाँ सभी जीवों के आत्मस्वरूप सामर्थ्यशाली शिव स्थाणुरूपमें स्थित हैं। वे वहाँ सभी प्राणियोंके कल्याणकी कामनासे उग्र तपस्यामें संलग्न हैं। वे अपनेको योगयुक्त कर रुद्रभावापत्र शरीरका आश्रयण किये हुए हैं और अपने समान गुणोंसे युक्त आत्मभूत गुझकोंसे घिरे हुए विराजमान हैं॥ २-७॥
ततो ब्रह्मादिभिर्देवैः सिद्धैश्च परमर्षिभिः ।
विज्ञप्तः परया भक्त्या त्वत्प्रसादाद् गणेश्वर ॥ ८
वस्तुमिच्छाम नियतमविमुक्ते सुनिश्चिताः ।
एवंगुणे तथा मर्त्या ह्यविमुक्ते वसन्ति ये ॥ ९
धर्मशीला जितक्रोधा निर्ममा नियतेन्द्रियाः ।
ध्यानयोगपराः सिद्धिं गच्छन्ति परमाव्ययाम् ॥ १०
योगिनो योगसिद्धाश्च योगमोक्षप्रदं विभुम् ।
उपासते भक्तियुक्ता गुह्यं देवं सनातनम् ॥ ११
अविमुक्तं समासाद्य प्राप्तयोगान्महेश्वरात् ।
सप्त ब्रह्मर्षयो नीता भवसायुज्यमागताः ॥ १२
एतत्तु परमं क्षेत्रमविमुक्तं विदुर्बुधाः ।
अप्रबुद्धा न पश्यन्ति भवमायाविमोहिताः ॥ १३
तेनैव चाभ्यनुज्ञातास्तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
अविमुक्ते तनुं त्यक्त्वा शान्ता योगगतिं गताः ॥ १४
गणेश्वर! अब हमलोग ब्रह्मादि देवों, महर्षियों और सिद्धोंसे आज्ञा लेकर परम भक्तिपूर्वक आपकी कृपासे अविमुक्तक्षेत्रमें नियमपूर्वक सुनिश्चितरूपसे निवास करना चाहते हैं। पूर्वकथित गुणोंसे सम्पन्न इस अविमुक्तमें जो धर्मशील, क्रोधजयी, आसक्तिरहित, जितेन्द्रिय और ध्यानयोगपरायण मनुष्य निवास करते हैं, वे अविनाशिनी परम सिद्धिको प्राप्त होते हैं। योगसिद्ध योगिगण भक्तिपूर्वक योग और मोक्षको देनेवाले, सर्वव्यापी, सनातन एवं गुह्य महादेवकी उपासना करते हैं। सात ब्रह्मर्षियोंने अविमुक्त-क्षेत्रमें आकर महेश्वरकी कृपासे योगको प्राप्तकर भवसायुज्यको प्राप्त किया है। ज्ञानिगण इस अविमुक्तको परम क्षेत्र मानते हैं, किंतु भवकी मायासे विमोहित अज्ञानीलोग इसे नहीं जानते। शिवनिष्ठ एवं शिवभक्तिपरायण ऋषिगण शिवजीकी आज्ञासे अविमुक्तमें शरीरका त्यागकर शान्तिपूर्वक योगकी गतिको प्राप्त हो गये ॥ ८-१४॥
स्थानं गुह्यं श्मशानानां सर्वेषामेतदुच्यते।
न हि योगादृते मोक्षः प्राप्यते भुवि मानवैः ॥ १५
अविमुक्ते निवसतां योगो मोक्षश्च सिद्धयति ।
एक एव प्रभावोऽस्ति क्षेत्रस्य परमेश्वरि।
अनेन जन्मनैवेह प्राप्यते गतिरुत्तमा । १६
अविमुक्ते निवसता व्यासेनामिततेजसा ।
नैव लब्धा क्वचिद् भिक्षा भ्रममाणेन यत्नतः ॥ १७
क्षुधाविष्टस्ततः कुद्धोऽचिन्तयच्छापमुत्तमम् ।
दिनं दिनं प्रति व्यासः षण्मासं योऽवतिष्ठति ॥ १८
कथं ममेदं नगरं भिक्षादोषाद्धतं त्विदम् ।
विप्रो वा क्षत्रियो वापि ब्राह्मणी विधवापि वा ॥ १९
संस्कृतासंस्कृता वापि परिपक्वाः कथं नु मे।
न प्रयच्छन्ति वै लोका ब्राह्मणाश्चर्यकारकम् ॥ २०
एषां शापं प्रदास्यामि तीर्थस्य नगरस्य तु।
तीर्थं चातीर्थतां यातु नगरं शापयाम्यहम् ॥ २१
मा भूत्त्रिपौरुषी विद्या मा भूत्त्रिपौरुषं धनम्।
मा भूत्त्रिपुरुषं सख्यं व्यासो वाराणसीं शपन् ॥ २२
अविमुक्ते निवसतां जनानां पुण्यकर्मणाम्।
विघ्नं सृजामि सर्वेषां येन सिद्धिर्न विद्यते ॥ २३
व्यासचित्तं तदा ज्ञात्वा देवदेव उमापतिः ।
भीतभीतस्तदा गौरीं तां प्रियां पर्यभाषत ।। २४
शृणु देवि वचो महां यादृशं प्रत्युपस्थितम् ।
कृष्णद्वैपायनः कोपाच्छापं दातुं समुद्यतः ॥ २५
सभी श्मशानों में यह अविमुक्त गुह्य स्थान कहा गया है। मनुष्य संसारमें योगके विना मोक्षको नहीं प्राप्त कर सकते, किंतु अविमुक्तमें निवास करनेवालोंके लिये योग और मोक्ष-दोनों ही सिद्ध हो जाते हैं। परमेश्वरि ! इस अविमुक्तक्षेत्र का एक ही प्रभाव है कि इसी जन्ममें और यहीं उत्तम गतिको प्राप्त किया जा सकता है। किसी समय असीम प्रतापी व्यास अविमुक्तमें निवास करते हुए प्रयत्नपूर्वक घूमते रहनेपर भी कहीं भी भिक्षा नहीं पा सके। तब वे भूखसे पीड़ित होकर क्रोधपूर्वक भयंकर शाप देनेका विचार करने लगे। इस प्रकार एक-एक दिन करते व्यासके छः मास बीत गये, (तब वे सोचने लगे कि) क्या कारण है
कि इस नगरमें मुझे भिक्षा नहीं मिल रही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, ब्राह्मणी, विधवा, संस्कृता या असंस्कृता, वृद्धा कोई भी नारी या कोई भी प्राणी और ब्राह्मण मुझे भिक्षा नहीं दे रहा है-आश्चर्य है। अतः मैं यहाँके निवासी, तीर्थ और नगर-सभीको ऐसा शाप दे रहा हूँ कि यह तीर्थ अतीर्थ हो जाय। अब मैं नगरको शाप दे रहा हूँ- यहाँ तीन पीढ़ीतक लोगोंकी विद्या नहीं रहेगी, तीन पीढ़ीतक धन नहीं रहेगा और तीन पीढ़ीतक मित्रता स्थिर नहीं रहेगी। अविमुक्तमें निवास करनेवाले सभी मनुष्योंके पुण्यकर्मीमें विघ्न उत्पन्न हो जायगा, जिससे उन्हें सिद्धि नहीं मिल सकेगी। उस समय देवदेव उमापति व्यासके हृदयको जानकर भयभीत हो गये। तब वे अपनी प्रिया गौरीसे बोले- 'देवि! इस नगरमें जैसी घटना घटित होनेवाली है, वह कह रहा हूँ, मेरी बात सुनो। श्रीकृष्णद्वैपायन क्रोधवश शाप देनेके लिये उद्यत हो गये हैं' ॥ १५-२५ ॥
देव्युवाच
किमर्थं शपते कुद्धो व्यासः केन प्रकोपितः ।
किं कृतं भगवंस्तस्य येन शापं प्रयच्छति ॥ २६
देवीने पूछा- भगवन् । व्यासजी क्क्रुद्ध होकर शाप देनेके लिये क्यों उद्यत हैं? वे किसके द्वारा क्रुद्ध किये गये हैं? उनका क्या अप्रिय कर दिया गया, जिससे वे शाप दे रहे हैं? ॥२६॥
देवदेव उवाच
अनेन सुतपस्तप्तं बहून् वर्षगणान् प्रिये।
मौनिना ध्यानयुक्तेन द्वादशाब्दान् वरानने । २७
ततः क्षुधा सुसंजाता भिक्षामटितुमागतः ।
नैवास्य केनचिद् भिक्षा ग्रासार्थमपि भामिनि ॥ २८
एवं भगवतः काल आसीत् षाण्मासिको मुनेः ।
ततः क्रोधापरीतात्मा शापं दास्यति सोऽधुना ।। २९
यावन्त्रैष शपेत्तावदुपायस्तत्र चिन्त्यताम् ।
कृष्णद्वैपायनं व्यासं विद्धि नारायणं प्रिये ॥ ३०
कोऽस्य शापान्न बिभेति ह्यपि साक्षात् पितामहः ।
अदैवं दैवतं कुर्याद् दैवं चाप्यपदैवतम् ॥ ३१
आवां तु मानुषौ भूत्वा गृहस्थाविहवासिनौ।
तस्य तृप्तिकरीं भिक्षां प्रयच्छावो वरानने ।। ३२
देवाधिदेव महादेवने कहा- प्रिये! व्यासजीने अनेक वर्षीतक कठोर तपस्या की है। वरानने। ये मौन धारणकर ध्यानपरायण हो बारह वर्षांतक तपस्यामें लीन रहे। तदनन्तर भूख लगनेपर ये भिक्षा माँगनेके लिये यहाँ आये हैं। किंतु भामिनि ! किसीने इन्हें आधा ग्रास भी भिक्षा नहीं दी। इस प्रकार भगवान् व्यासमुनिके छः महीने बीत गये। इसी कारण इस समय ये क्रोधसे अभिभूत होकर शाप देनेको उद्यत हो गये हैं। प्रिये! कृष्णद्वैपायन व्यासको साक्षात् नारायण समझो, अतः जबतक ये शाप नहीं दे देते, तभीतक इस विषयमें कोई उपाय सोच लो। कौन है, जो इनके शापसे नहीं डरता, चाहे वह साक्षात् ब्रह्मा ही क्यों न हो। ये मनुष्यको देवता और देवताको मनुष्य कर सकते हैं। वरानने! हम दोनों मनुष्य होकर यहाँ गृहस्थाश्रममें निवास कर रहे हैं, अतः उन्हें संतुष्ट करनेवाली भिक्षा समर्पित करें ॥ २७-३२ ॥
एवमुक्ता ततो देवी देवेन शम्भुना तदा।
व्यासस्य दर्शनं दत्त्वा कृत्वा वेषं तु मानुषम् ॥ ३३
एह्येहि भगवन् साधो भिक्षां गृहाण सत्तम।
अस्मद् गृहे कदाचित् त्वं नागतोऽसि महामुने ।। ३४
एतच्छ्रुत्वा प्रीतमना भिक्षां ग्रहीतुमागतः ।
भिक्षां दत्त्वा तु व्यासाय षड्रसाममृतोपमाम् ॥ ३५
अनास्वादितपूर्वा सा भक्षिता मुनिना तदा।
भिक्षां व्यासस्ततो भुक्त्वा चिन्तयन् हृष्टमानसः ।। ३६
ववन्दे वरदं देवं देवीं च गिरिजां तदा।
व्यासः कमलपत्राक्ष इदं वचनमब्रवीत् ॥ ३७
देवो देवी नदी गङ्गा मिष्टमन्त्रं शुभा गतिः ।
वाराणस्यां विशालाक्षि वासः कस्य न रोचते ।। ३८
एवमुक्त्वा ततो व्यासो नगरीमवलोकयन्।
चिन्तयानस्ततो भिक्षां हृदयानन्दकारिणीम् ॥ ३९
अपश्यत् पुरतो देवं देवीं च गिरिजां तदा।
गृहाङ्गणस्थितं व्यासं देवदेवोऽब्रवीदिदम् ॥ ४०
इह क्षेत्रे न वस्तव्यं क्रोधनस्त्वं महामुने।
एवं विस्मयमापन्नो देवं व्यासोऽब्रवीद् वचः ॥ ४१
तब महादेव शिवद्वारा इस प्रकार कही जानेपर देवीने मनुष्यका वेश धारण कर व्यासको दर्शन दिया और इस प्रकार कहा- 'ऐश्वर्यशाली श्रेष्ठ साधो ! आइये, आइये, भिक्षा ग्रहण कीजिये। महामुने। सम्भवतः आपने मेरे घरपर कभी आनेकी कृपा नहीं की है।' यह सुनकर व्यासजी प्रसन्नचित्त हो भिक्षा ग्रहण करनेके लिये आये। तब देवीने व्यासजीको छः रसोंसे समन्वित अमृतके समान भिक्षा प्रदान की। मुनिने पहले वैसी न खायी हुई भिक्षाको खाया। तत्पश्चात् भिक्षाको खाकर प्रसन्नचित्त हुए व्यासजी कुछ विचार करने लगे। तदुपरान्त कमलदलनेत्र व्यासजीने वरदाता शिव और देवी पार्वतीकी वन्दना की और इस प्रकार कहा- 'विशाल नेत्रोंवाली देवि ! वाराणसीमें महादेव, पार्वतीदेवी, गङ्गा नदी, स्वादिष्ट भोजन और शुभगति सभी सुलभ हैं, फिर यहाँका निवास किसे अच्छा नहीं लगेगा!' ऐसा कहकर व्यासजी हृदयको आनन्द देनेवाली भिक्षाको सोचते हुए, नगरीका अवलोकन करते हुए घूमने लगे। तदनन्तर उन्होंने महादेव और देवी पार्वतीको अपने समक्ष उपस्थित देखा। तब देवाधिदेव महादेवने घरके आँगनमें अवस्थित व्याससे यह कहा- 'महामुने! आप अतिशय क्रोधी स्वभावके हैं, अतः आपको इस क्षेत्रमें निवास नहीं करना चाहिये।' यह सुनकर व्यासजी आश्चर्यचकित हो गये और महादेवजीसे इस प्रकार बोले ॥ ३३-४१॥
व्यास उवाच
चतुर्दश्यामथाष्टम्यां प्रवेशं दातुमर्हसि।
एवमस्त्वित्यनुज्ञाय तत्रैवान्तरधीयत ।। ४२
न तद् गृहं न सा देवी न देवो ज्ञायते क्वचित् ।
एवं त्रैलोक्यविख्यातः पुरा व्यासो महातपाः ।। ४३
ज्ञात्वा क्षेत्रगुणान् सर्वान् स्थितस्तस्यैव पार्श्वतः ।
एवं व्यासं स्थितं ज्ञात्वा क्षेत्रं शंसन्ति पण्डिताः ।। ४४
व्यासजीने कहा- भगवन् ! चतुर्दशी और अष्टमीको मुझे यहाँ निवास करनेकी अनुमति दीजिये। अच्छा, 'ऐसा ही हो' यों अनुमति देकर शिवजी वहीं अन्तर्धान हो गये। फिर तो वहाँ न कहीं कोई घर था, न वह देवी थी और न महादेव ही थे। वे कहाँ चले गये, कुछ भी समझमें न आया। प्राचीनकालमें इस प्रकार तीनों लोकोंमें विख्यात महातपस्वी व्यास इस क्षेत्रके सभी गुणोंको जानकर उसीके पास (गङ्गाजीके पूर्वतटपर दक्षिणकी ओर) निवास करने लगे। इस प्रकार व्यासको वहाँ स्थित जानकर पण्डितगण इस क्षेत्रकी प्रशंसा करते हैं॥ ४२-४४॥
अविमुक्तगुणानां तु कः समर्थो वदिष्यति।
देवब्राह्मणविद्विष्टा देवभक्तिविडम्बकाः ।। ४५
ब्रह्मघ्नाश्च कृतघ्नाश्च तथा नैष्कृतिकाश्च ये।
लोकद्विषो गुरुद्विषस्तीर्थायतनदूषकाः ॥ ४६
सदा पापरताश्चैव ये चान्ये कुत्सिता भुवि।
तेषां नास्तीति वासो वै स्थितोऽसौ दण्डनायकः ।। ४७
रक्षणार्थं नियुक्तं वै दण्डनायकमुत्तमम् ।
पूजयित्वा यथाशक्त्या गन्धपुष्पादिधूपकैः ॥ ४८
नमस्कारं ततः कृत्वा नायकस्य तु मन्त्रवित् ।
सर्ववर्णावृते क्षेत्रे नानाविधसरीसृपे ॥ ४९
ईश्वरानुगृहीता हि गतिं गाणेश्वरीं गताः ।
नानारूपधरा दिव्या नानावेषधरास्तथा ।। ५०
सुरा वै ये तु सर्वे च तन्निष्ठास्तत्परायणाः ।
यदिच्छन्ति परं स्थानमक्षयं तदवाप्नुयुः ॥ ५१
परं पुरं दैवपुराद् विशिष्यते तदुत्तरं ब्रह्मपुरात् पुरः स्थितम् ।
तपोबलादीश्वरयोगनिर्मितं न तत्समं ब्रह्मदिवौकसालयम् ।
मनोरमं कामगमं ह्यनामय-मतीत्य तेजांसि तपांसि योगवत् ॥ ५२
अधिष्ठितस्तु तत्स्थाने देवदेवो विराजते।
तपांसि यानि तप्यन्ते व्रतानि नियमाश्च ये ॥ ५३
सर्वतीर्थाभिषेकं तु सर्वदानफलानि च।
सर्वयज्ञेषु यत् पुण्यमविमुक्ते तदाप्नुयात् ॥ ५४
अतीतं वर्तमानं च यज्ञ्जानाज्ञानतोऽपि वा।
सर्वं तस्य च यत्पापं क्षेत्रं दृष्ट्वा विनश्यति ॥ ५५
अविमुक्तक्षेत्रके सभी गुणोंका वर्णन करनेमें कौन समर्थ हो सकता है? देवता और ब्राह्मणसे विद्वेष करनेवाले, देवभक्तिकी विडम्बना करनेवाले, ब्राह्मणोंकी हत्या करनेवाले, किये हुए उपकारको न माननेवाले, निश्वेष्ट- अकर्मण्य, लोकद्वेषी, गुरुद्वेषी, तीर्थस्थानोंको दूषित करनेवाले, सदा पापमें रत तथा इनके अतिरिक्त जो निषिद्ध कर्मोंके आचरण करनेवाले हैं- उन सबके लिये यहाँ स्थान नहीं है; क्योंकि यहाँ दण्डनायक अवस्थित हैं।यहाँ श्रेष्ठ दण्डनायक को इस की रक्षा के लिये नियुक्त किया गया है।
सभी वर्णाश्रमियों तथा अनेक प्रकारके जन्तुओंसे भरे हुए इस क्षेत्रमें नायकके परामर्शसे यथाशक्ति गन्ध, पुष्प, धूप आदिसे पूजन करनेके पश्चात् उन्हें नमस्कार करके ईश्वरके अनुग्रहसे बहुत से लोग गणेश्वरकी गतिको प्राप्त हो गये हैं। अनेकों वेष और विभिन्न रूप धारण करनेवाले सभी दिव्य देव, शिवमें श्रद्धासम्पन्न एवं शिवभक्ति-परायण हो जिस अक्षय श्रेष्ठ स्थानकी कामना करते हैं, वह उन्हें प्राप्त हो जाता है। यह श्रेष्ठ नगर अमरावतीसे भी विशिष्ट है। इस अविमुक्तनगरका उत्तरी भाग ब्रह्मलोकसे भी अधिक प्रतिष्ठित है। यह शिवजीके तपोबल और उनकी योगमहिमासे निर्मित है, अतः इसके समान ब्रह्मलोक तथा स्वर्ग भी नहीं है। यह मनोरम, अभिलाषाको पूर्ण करनेवाला, रोगरहित, तेज और तपस्यासे परे तथा योगयुक्त है। इस अविमुक्तक्षेत्रमें देवाधिदेव शंकर सदा विराजमान रहते हैं। जो लोग सभी प्रकारके तप, व्रत, नियम, सम्पूर्ण तीर्थोंमें स्नान, सभी प्रकारके दान और सभी प्रकारके यज्ञानुष्ठानसे जो पुण्य प्राप्त करते हैं, वह अविमुक्तनगरमें प्राप्त हो जाता है। अतीत या वर्तमानमें ज्ञानसे या अज्ञानसे किये गये उनके सभी पाप क्षेत्रके दर्शनमात्रसे विनष्ट हो जाते हैं ॥ ४५-५५ ॥
शान्तैर्दान्तैस्तपस्तप्तं यत्किञ्चिद् धर्मसंज्ञितम्।
सर्वं च तदवाप्नोति अविमुक्ते जितेन्द्रियः ॥ ५६
अविमुक्तं समासाद्य लिङ्गमर्चयते नरः ।
कल्पकोटिशतैश्चापि नास्ति तस्य पुनर्भवः ॥ ५७
अमरा ह्यक्षयाश्चैव क्रीडन्ति भवसंनिधौ।
क्षेत्रतीर्थोपनिषदमविमुक्तं न संशयः ।। ५८
अविमुक्ते महादेवमर्चयन्ति स्तुवन्ति वै।
सर्वपापविनिर्मुक्तास्ते तिष्ठन्त्यजरामराः ॥ ५९
सर्वकामाश्च ये यज्ञाः पुनरावृत्तिकाः स्मृताः ।
अविमुक्ते मृता ये च सर्वे ते ह्यनिवर्तकाः ॥ ६०
ग्रहनक्षत्रताराणां कालेन पतनाद् भयम् ।
अविमुक्ते मृतानां तु पतनं नैव विद्यते ॥ ६१
कल्पकोटिसहस्त्रैस्तु कल्पकोटिशतैरपि।
न तेषां पुनरावृत्तिमृता ये क्षेत्र उत्तमे ॥ ६२
संसारसागरे घोरे भ्रमन्तः कालपर्ययात् ।
अविमुक्तं समासाद्य गच्छन्ति परमां गतिम् ॥ ६३
अपनी इन्द्रियोंको वशमें रखकर शान्तचित्तसे की गयी तपस्यासे एवं विहित कर्मोंके आचरणसे जो फल मिलते हैं, वह सब अविमुक्तनगरमें जितेन्द्रियको प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य अविमुक्तनगरमें आकर शिवलिङ्गकी पूजा करता है, उसका सैकड़ों करोड़ कल्पोंमें भी पुनर्जन्म नहीं होता। ऐसे लोग अमर और अविनश्वर रूपमें शिवके समीप क्रीड़ा करते हैं। यह अविमुक्तनगर अन्य स्थानों और तीर्थोंका प्रकाश-संवित्स्वरूप है- इसमें संदेह नहीं है। जो अविमुक्तनगरमें महादेवकी पूजा और स्तुति करते हैं, वे सभी पापोंसे विनिर्मुक्त होकर अजर-अमर हो जाते हैं। सभी कामनाओंको पूर्ण करनेवाले जो यज्ञ हैं, वे सभी पुनर्जन्म प्रदान करनेवाले हैं; किंतु जो अविमुक्तनगरमें शरीरका त्याग करते हैं, उनका संसारमें पुनः आगमन नहीं होता। ग्रह, नक्षत्र और तारागणोंको समयानुसार पतनका भय बना रहता है, किंतु अविमुक्तमें मरनेवालोंका पतन कभी नहीं होता। जो इस उत्तम क्षेत्रमें मरते हैं, उनका सैकड़ों-करोड़ों कल्पोंमें क्या हजारों-करोड़ कल्पोंमें भी पुनरागमन नहीं होता। जो कालक्रमानुसार संसार-सागरमें भ्रमण करते हुए अविमुक्तनगरमें आ जाते हैं, वे परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं॥ ५६-६३॥
ज्ञात्वा कलियुगं घोरं हाहाभूतमचेतनम् ।
अविमुक्तं न मुञ्चन्ति कृतार्थास्ते नरा भुवि ॥ ६४
अविमुक्तं प्रविष्टस्तु यदि गच्छेत् ततः पुनः ।
तदा हसन्ति भूतानि अन्योन्यं करताडनैः ॥ ६५
कामक्रोधेन लोभेन ग्रस्ता ये भुवि मानवाः ।
निष्क्रमन्ते नरा देवि दण्डनायकमोहिताः ॥ ६६
जपध्यानविहीनानां ज्ञानवर्जितचेतसाम् ।
ततो दुःखहतानां च गतिर्वाराणसी नृणाम् ॥ ६७
तीर्थानां पञ्चकं सारं विश्वेशानन्दकानने।
दशाश्वमेधं लोलार्कः केशवो बिन्दुमाधवः ।। ६८
पञ्चमी तु महाश्रेष्ठा प्रोच्यते मणिकर्णिका।
एभिस्तु तीर्थवर्यैश्च वर्ण्यते ह्यविमुक्तकम् ॥ ६९
एक एव प्रभावोऽस्ति क्षेत्रस्य परमेश्वरि।
एकेन जन्मना देवि मोक्षं पश्यन्त्यनुत्तमम् ॥ ७०
एतद् वै कथितं सर्वं देव्यै देवेन भाषितम् ।
अविमुक्तस्य क्षेत्रस्य तत् सर्वं कथितं द्विजाः ॥ ७१
जो मनुष्य हाहाकारमय एवं ज्ञानरहित भयंकर कलियुगको जानकर अविमुक्तका परित्याग नहीं करते, वे ही इस भूतलपर कृतार्थ हैं। जो अविमुक्तनगरमें जाकर यदि यहाँसे चला जाता है तो सभी प्राणी ताली बजाकर उसकी हँसी उड़ाते हैं। देवि! जो मानव भूतलपर क्रोध और लोभसे ग्रस्त हैं, वे ही दण्डनायककी मायासे मोहित होकर इस नगरसे चले जाते हैं। जो मनुष्य जप-ध्यानसे रहित, ज्ञानशून्य और दुःखसे संतप्त हैं, उनकी गति वाराणसी है। विश्वेश्वरके इस आनन्द-कानन में दशाश्वमेध, लोलार्क, केशव, बिन्दुमाधव और पाँचवीं जो परमश्रेष्ठ मणिकर्णिका कही गयी है- ये पाँचों तीथोंके सार कहे गये हैं। इन्हीं श्रेष्ठ तीर्थोंसे अविमुक्तकी प्रशंसा होती है। परमेश्वरी देवि ! इस क्षेत्रकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि एक ही जन्ममें मनुष्य परमश्रेष्ठ मोक्षको प्राप्त कर लेता है। द्विजगण! अविमुक्तक्षेत्रके विषयमें महादेवजीने पार्वतीसे जो बात कही थी, वह सभी मैंने आप लोगों से वर्णन कर दिया ॥ ६४-७१ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणेऽविमुक्तमाहात्म्यं नाम पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८५ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें अविमुक्तमाहात्म्यवर्णन नामक एक सौ पचासीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १८५ ॥
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