मत्स्य पुराण दो सौ पचपनवाँ अध्याय
वास्तु विषयक वेध का विवरण
सूत उवाच
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि स्तम्भमानविनिर्णयम् ।
कृत्वा स्वभवनोच्छ्रायं सदा सप्तगुणं बुधैः ॥ १
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। अब मैं स्तम्भके परिमाणके विषयमें बतला रहा हूँ। बुद्धिमान् पुरुषोंको चाहिये कि वे अपने गृहकी ऊँचाईके मान को सातसे गुणाकर उसके अस्सीवें भागके बराबर खम्भेकी मोटाई रखें। १
अशीत्यंशः पृथुत्वे स्यादग्रे नवगुणे सति।
रुचकश्चतुरः स्यात् तु अष्टास्त्रो वज्र उच्यते ॥ २
द्विवज्रः षोडशास्त्रस्तु द्वात्रिंशास्त्रः प्रलीनकः ।
मध्यप्रदेशे यः स्तम्भो वृत्तो वृत्त इति स्मृतः ॥ ३
एते पञ्च महास्तम्भाः प्रशस्ताः सर्ववास्तुषु।
पद्मवल्लीलताकुम्भपत्रदर्पणरूषिताः ॥ ४
स्तम्भस्य नवमांशेन पयकुम्भान्तराणि तु।
स्तम्भतुल्या तुला प्रोक्ता हीना चोपतुला ततः ॥ ५
त्रिभागेनेह सर्वत्र चतुर्भागेन वा पुनः ।
हीनं हीनं चतुर्थांशात् तथा सर्वासु भूमिषु ॥ ६
वासगेहानि सर्वेषां प्रविशेद् दक्षिणेन तु।
द्वाराणि तु प्रवक्ष्यामि प्रशस्तानीह यानि तु ॥ ७
पूर्वेणेन्द्रं जयन्तं च द्वारं सर्वत्र शस्यते।
याम्यं च वितथं चैव दक्षिणेन विदुर्बुधाः ॥ ८
पश्चिमे पुष्पदन्तं च वारुणं च प्रशस्यते।
उत्तरेण तु भल्लाटं सौम्यं तु शुभदं भवेत् ॥ ९
तथा वास्तुषु सर्वत्र वेधं द्वारस्य वर्जयेत्।
द्वारे तु रथ्यया विद्धे भवेत् सर्वकुलक्षयः ॥ १०
तरुणा द्वेषबाहुल्यं शोकः पङ्गेन जायते।
अपस्मारो भवेन्नूनं कूपवेधेन सर्वदा ॥ १९
व्यथा प्रस्त्रवणेन स्यात् कीलेनाग्निभयं भवेत्।
विनाशो देवताविद्धे स्तम्भेन स्त्रीकृतो भवेत् ॥ १२
उसकी मोटाईमें नौसे गुणा कर अस्सीवें भागके बराबर खम्भेका मूलभाग रखना चाहिये। चार कोणवाला स्तम्भ 'रुचक', आठ कोणवाला 'वज्र', सोलह कोणवाला 'द्विवज्र' तथा बत्तीस कोणवाला 'प्रलीनक' कहा जाता है। मध्य प्रदेशमें जो खम्भा वृत्ताकार रहता है, उसे 'वृत्त' कहा गया है। ये पाँच प्रकारके स्तम्भ सभी प्रकारके वास्तु-कार्यमें प्रशंसनीय कहे गये हैं। ये सभी स्तम्भ पद्म, वल्ली, लता, कुम्भ, पत्र एवं दर्पणसे चित्रित रहने चाहिये। इन कमलों तथा कुम्भोंमें स्तम्भके नवें अंशके बराबर अन्तर रहना चाहिये। स्तम्भके बराबर ऊँचाईको 'तुला' तथा उससे न्यूनको 'उपतुला' कहते हैं। मानके तृतीय या चतुर्थ भागसे हीन जो तुला है, वही 'उपतुला' है। यह उपतुला सभी भूमियों में रहती है। सभी वास-गृहोंमें दाहिनी ओर प्रवेशद्वार रखना चाहिये।
अब मैं गृहके जो प्रशस्तद्वार हैं, उन्हें बतला रहा हूँ। पूर्व दिशामें इन्द्र और जयन्तद्वार सभी गृहोंमें श्रेष्ठ माने गये हैं। बुद्धिमान् लोग दक्षिण द्वारोंमें याम्य और वितथको श्रेष्ठ मानते हैं। पश्चिम द्वारोंमें पुष्पदन्त और वरुण प्रशंसित हैं। उत्तर द्वारोंमें भल्लाट तथा सौम्य शुभदायक होते हैं। सभी वास्तुओंमें द्वारवेधको बचाना चाहिये। गली, सड़क या मार्गद्वारा द्वार-वेध होनेपर पूरे कुलका क्षय हो जाता है। वृक्षके द्वारा वेध होनेपर द्वेषकी अधिकता होती है। कीचड़से वेध होनेपर शोक होता है और कूपद्वारा वेध होनेपर अवश्य ही सदाके लिये मिरगीका रोग होता है। नाबदान या जलप्रवाहसे वेध होनेपर व्यथा होती है, कीलसे वेध होनेपर अग्निभय होता है, देवतासे विद्ध होनेपर विनाश तथा स्तम्भसे विद्ध होनेपर स्त्रीद्वारा क्लेशकी प्राप्ति होती है॥२-१२॥
गृहभर्तुर्विनाशः स्याद् गृहेण च गृहे कृते।
अमेध्यावस्करैर्विद्धे गृहिणी बन्धकी भवेत् ॥ १३
तथा शस्त्रभयं विन्द्यादन्त्यजस्य गृहेण तु।
उच्छ्रायाद् द्विगुणां भूमिं त्यक्त्वा वेधो न जायते ॥ १४
स्वयमुद्घाटिते द्वारे उन्मादो गृहवासिनाम्।
स्वयं वा पिहिते विद्यात् कुलनाशं विचक्षणः ॥ १५
मानाधिके राजभयं न्यूने तस्करतो भवेत्।
द्वारोपरि च यद् द्वारं तदन्तकमुखं स्मृतम् ॥ १६
अध्वनो मध्यदेशे तु अधिको यस्य विस्तरः ।
वज्रं तु संकटं मध्ये सद्यो भर्तुर्विनाशनम् ॥ १७
तथान्यपीडितं द्वारं बहुदोषकरं भवेत्।
मूलद्वारात् तथान्यत् तु नाधिकं शोभनं भवेत् ॥ १८
कुम्भश्रीपणिवल्लीभिर्मूलद्वारं तु शोभयेत् ।
पूजयेच्चापि तन्नित्यं बलिना चाक्षतोदकैः ॥ १९
भवनस्य वटः पूर्वे दिग्भागे सार्वकामिकः ।
उदुम्बरस्तथा याम्ये वारुण्यां पिप्पलः शुभः ॥ २०
प्लक्षश्चोत्तरतो धन्यो विपरीतास्त्वसिद्धये।
कण्टकी क्षीरवृक्षञ्च आसनः सफलो हुमः ॥ २१
भार्याहानौ प्रजाहानौ भवेतां क्रमशस्तदा।
न च्छिन्द्याद् यदि तानन्यानन्तरे स्थापयेच्छुभान् ॥ २२
पुन्नागाशोकबकुलशमीतिलकचम्पकान् ।
दाडिमीपिप्पलीद्राक्षास्तथा कुसुममण्डपान् ॥ २३
जम्बीरपूगपनसगुमकेतकीभि-जाँतीसरोजशतपत्रिकमल्लिकाभिः ।
बन्नारिकेलकदलीदलपाटलाभि-र्युक्तं तदत्र भवनं श्रियमातनोति ॥ २४
एक घरसे दूसरे घरमें वेध पड़नेपर गृहपतिका विनाश होता है तथा अपवित्र द्रव्यादि द्वारा वेध होने पर घरकी स्वामिनी वन्ध्या हो जाती है। अन्त्यजके घरके द्वारा वेध होनेपर हथियारसे भय प्राप्त होता है। गृहकी ऊँचाईसे दुगुनी भूमिकी दूरीपर वेधका दोष नहीं होता। जिस घरके द्वार बिना हाथ लगाये स्वयं खुल जाते हैं, उस घरके निवासियोंको उन्मादका रोग होता है। इसी प्रकार स्वयं बंद हो जानेपर कुलका नाश हो जाता है-ऐसा विद्वान् लोग बतलाते हैं। गृहके द्वार यदि अपने मानसे अधिक ऊँचे हैं तो राजभय तथा यदि नीचे हैं तो चोरोंका भय होता है। द्वारके ऊपर जो द्वार बनता है, वह यमराजका मुख कहा जाता है। मार्गके बीचमें बने हुए जिस गृहकी चौड़ाई बहुत अधिक होती है, वह वज्रके समान शीघ्र ही गृहपतिके विनाशका कारण होता है।
यदि मुख्यद्वार अन्य द्वारोंसे निकृष्ट हो तो वह बहुत बड़ा दोषकारक होता है। अतः मुख्यद्वारकी अपेक्षा अन्य द्वारोंका बड़ा होना शुभकारक नहीं है। घट, श्रीपर्णी और लताओंसे मूलद्वारको सुशोभित रखना चाहिये और उसकी नित्य बलि, अक्षत और जलसे पूजा करनी चाहिये। घरकी पूर्व दिशामें बरगदका वृक्ष सभी प्रकारकी कामनाओंको पूर्ण करनेवाला होता है। दक्षिणमें गूलर और पश्चिममें पीपलका पेड़ शुभकारक होता है। इसी तरह उत्तरमें पाकड़का पेड़ मङ्गलकारी है। इससे विपरीत दिशामें रहनेपर ये वृक्ष विपरीत फल देनेवाले होते हैं। घरके समीप यदि काँटे या दूधवाले वृक्ष, असनाका वृक्ष एवं फलदार वृक्ष हों तो उनसे क्रमशः स्त्री और संतानकी हानि होती है। यदि कोई उन्हें काट न सके तो उनके समीप अन्य शुभदायक वृक्षोंको लगा दे। पुंनाग, अशोक, मौलसिरी, शमी, तिलक, चम्पा, अनार, पीपली, दाख, अर्जुन, जंबीर, सुपारी, कटहल, केतकी, मालती, कमल, चमेली, मल्लिका, नारियल, केला एवं पाटल-इन वृक्षोंसे सुशोभित घर लक्ष्मीका विस्तार करता है ॥ १३-२४॥
इति श्रीमाल्ये महापुराणे वास्तुविद्यासु वेधपरिवर्जनं नाम पञ्चपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५५ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके वास्तु-विद्या प्रसङ्गमें वेधविवरण नामक दो सौ पचपनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २५५ ॥
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