मत्स्य पुराण एक सौ असीवाँ अध्याय
वाराणसी-माहात्म्य के प्रसङ्गमें हरिकेश यक्षकी तपस्या, अविमुक्तकी शोभा और उसका माहात्म्य तथा हरिकेशको शिव जी द्वारा वरप्राप्ति
ऋषय ऊचुः
श्रुतोऽन्धकवधः सूत यथावत् त्वदुदीरितः ।
वाराणस्यास्तु माहात्म्यं श्रोतुमिच्छाम साम्प्रतम् ॥ १
भगवान् पिङ्गलः केन गणत्वं समुपागतः ।
अन्नदत्वं च सम्प्राप्तो वाराणस्यां महाद्युतिः ॥ २
क्षेत्रपालः कथं जातः प्रियत्वं च कथं गतः ।
एतदिच्छाम कथितं श्रोतुं ब्रह्मसुत त्वया ॥ ३
ऋषियोंने पूछा-सूतजी। आपद्वारा कहा गया अन्धक वधका प्रसङ्ग तो हमलोगोंने यथार्थरूपसे सुन लिया, अब हम लोग वाराणसीका माहात्म्य सुनना चाहते हैं। ब्रह्मपुत्र सूतजी। वाराणसीमें परम कान्तिमान् भगवान् पिङ्गलको गणेशत्वकी प्राप्ति कैसे हुई? वे अन्नदाता कैसे बने और क्षेत्रपाल कैसे हो गये? तथा वे शंकरजीके प्रेमपात्र कैसे बने ? आपके द्वारा कहे गये इस सारे प्रसङ्गको सुननेके लिये हमलोगोंकी उत्कट अभिलाषा है॥१-३॥
सूत उवाच
शृणुध्वं वै यथा लेभे गणेशत्वं स पिङ्गलः ।
अन्नदत्वं च लोकानां स्थानं वाराणसी त्विह ।। ४
पूर्णभद्रसुतः श्रीमानासीद्यक्षः प्रतापवान् ।
हरिकेश इति ख्यातो ब्रह्मण्यो धार्मिकश्च ह । ५
तस्य जन्मप्रभृत्येव शर्वे भक्तिरनुत्तमा।
तदासीत्तन्नमस्कारस्तन्निष्ठस्तत्परायणः ॥ ६
आसीनश्च शयानश्च गच्छंस्तिष्ठन्ननुव्रजन् ।
भुञ्जानोऽथ पिबन् वापि रुद्रमेवान्वचिन्तयत् ॥ ७
तमेवं युक्तमनसं पूर्णभद्रः पिताब्रवीत्।
न त्वां पुत्रमहं मन्ये दुर्जातो यस्त्वमन्यथा ॥ ८
न हि यक्षकुलीनानामेतद् वृत्तं भवत्युत।
गुह्यका बत यूयं वै स्वभावात् क्रूरचेतसः ॥ ९
क्रव्यादाश्चैव किम्भक्षा हिंसाशीलाश्च पुत्रक।
मैवं कार्षीनं ते वृत्तिरेवं दृष्टा महात्मना ॥ १०
स्वयम्भुवा यथाऽऽदिष्टा त्यक्तव्या यदि नो भवेत् ।
आश्रमान्तरजं कर्म न कुर्युर्गृहिणस्तु तत् ॥ ११
हित्वा मनुष्यभावं च कर्मभिर्विविधैश्वर।
यत्त्वमेवं विमार्गस्थो मनुष्याज्जात एव च ॥ १२
यथावद् विविधं तेषां कर्म तज्जातिसंश्रयम्।
मयापि विहितं पश्य कर्मेतन्नात्र संशयः ॥ १३
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! पिंगलको जिस प्रकार गणेशत्व, लोकोंके लिये अन्नदत्व और वाराणसी-जैसा स्थान प्राप्त हुआ था वह प्रसङ्ग बतला रहा हूँ, सुनिये। प्राचीनकालमें हरिकेश नामसे विख्यात एक सौन्दर्यशाली यक्ष हो गया है, जो पूर्णभद्रका पुत्र था। वह महाप्रतापी, ब्राह्मणभक्त और धर्मात्मा था। जन्मसे ही उसकी शंकरजीमें प्रगाढ़ भक्ति थी। वह तन्मय होकर उन्हींको नमस्कार करनेमें, उन्होंकी भक्ति करनेमें और उन्हींके ध्यानमें तत्पर रहता था। वह बैठते, सोते, चलते, खड़े होते, घूमते तथा खाते-पीते समय सदा शिवजीके ध्यानमें ही मग्न रहता था। इस प्रकार शंकरजीमें लीन मनवाले उससे उसके पिता पूर्णभद्रने कहा- 'पुत्र! मैं तुम्हें अपना पुत्र नहीं मानता। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम अन्यथा ही उत्पन्न हुए हो; क्योंकि यक्षकुलमें उत्पन्न होनेवालोंका ऐसा आचरण नहीं होता। तुम गुहाक हो। राक्षस ही स्वभावसे क्रूर चित्तवाले, मांसभक्षी, सर्वभक्षी और हिंसापरायण होते हैं। महात्मा ब्रह्माद्वारा ऐसा ही निर्देश दिया गया है। तुम ऐसा मत करो; क्योंकि तुम्हारे लिये ऐसी वृत्ति नहीं बतलायी गयी है। गृहस्थ भी अन्य आश्रमोंका कर्म नहीं करते। इसलिये तुम मनुष्यभावका परित्याग करके यक्षोंके अनुकूल विविध कर्मोंका आचरण करो। यदि तुम इस प्रकार विमार्गपर ही स्थित रहोगे तो मनुष्यसे उत्पन्न हुआ ही समझे जाओगे। अतः तुम यक्षजातिके अनुकूल विविध कर्मोंका ठीक-ठीक आचरण करो। देखो, में भी निःसंदेह वैसा ही आचरण कर रहा हूँ ॥४-१३॥
सूत उवाच
एवमुक्त्वा स तं पुत्रं पूर्णभद्रः प्रतापवान्।
उवाच निष्क्रम क्षिप्रं गच्छ पुत्र यथेच्छसि ॥ १४
ततः स निर्गतस्त्यक्त्वा गृहं सम्बन्धिनस्तथा।
वाराणसीं समासाद्य तपस्तेपे सुदुश्चरम् ॥ १५
स्थाणुभूतो ह्यनिमिषः शुष्ककाष्ठोपलोपमः ।
संनियम्येन्द्रियग्राममवातिष्ठत निश्चलः ।। १६
अथ तस्यैवमनिशं तत्परस्य तदाशिषः ।
सहस्त्रमेकं वर्षाणां दिव्यमप्यभ्यवर्तत ॥ १७
वल्मीकेन समाक्रान्तो भक्ष्यमाणः पिपीलिकैः ।
वज्रसूचीमुखैस्तीक्ष्णैर्विध्यमानस्तथैव च ।। १८
निर्मासरुधिरत्वक् च कुन्दशङ्खन्दुसप्रभः ।
अस्थिशेषोऽभवच्छर्वं देवं वै चिन्तयन्नपि ॥ १९
एतस्मिन्नन्तरे देवी व्यज्ञापयत शङ्करम् ॥ २०
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! प्रतापी पूर्णभद्रने अपने उस पुत्रसे इस प्रकार (कहा; किंतु जब उसपर कोई प्रभाव पड़ते नहीं देखा, तब वह पुनः कुपित होकर) बोला- 'पुत्र ! तुम शीघ्र ही मेरे घरसे निकल जाओ और जहाँ तुम्हारी इच्छा हो, वहाँ चले जाओ। 'तब वह हरिकेश गृह तथा सम्बन्धियोंका त्याग कर निकल पड़ा और वाराणसीमें आकर अत्यन्त दुष्कर तपस्यामें संलग्न हो गया। वहाँ वह इन्द्रियसमुदायको संयमित कर सूखे काष्ठ और पत्थरकी भाँति निश्चल हो एकटक स्थाणु (ठूंठ) की तरह स्थित हो गया। इस प्रकार निरन्तर तपस्यामें लगे रहनेवाले हरिकेशके एक सहस्र दिव्य वर्ष व्यतीत हो गये। उसके शरीरपर बिमवट जम गयी। वज्रके समान कठोर और सूई-जैसे पतले एवं तीखे मुखवाली चींटियोंने उसमें छेद कर उसे खा डाला। इस प्रकार वह मांस, रुधिर और चमड़ेसे रहित हो अस्थिमात्र अवशेष रह गया, जो कुन्द, शङ्ख और चन्द्रमाके समान चमक रहा था। इतनेपर भी वह भगवान् शंकरका ध्यान कर ही रहा था। इसी बीच पार्वती देवीने भगवान् शंकरसे निवेदन किया ॥ १४-२० ॥
देव्युवाच
उद्यानं पुनरेवेदं द्रष्टुमिच्छामि सर्वदा।
क्षेत्रस्य देव माहात्यं श्रोतुं कौतूहलं हि मे।
यतश्च प्रियमेतत् ते तथास्य फलमुत्तमम् ॥ २१
इति विज्ञापितो देवः शर्वाण्या परमेश्वरः ।
सर्वं पृष्टं ते यथातथ्यमाख्यातुमुपचक्रमे ॥ २२
निर्जगाम च देवेशः पार्वत्या सह शङ्करः ।
उद्यानं दर्शयामास देव्या देवः पिनाकधृक् ॥ २३
देवीने कहा-देव! मैं इस उद्यानको पुनः देखना चाहती हूँ। साथ ही इस क्षेत्रका माहात्म्य सुननेके लिये मेरे मनमें बड़ी उत्कण्ठा है; क्योंकि यह आपको परम प्रिय है और इसके श्रवणका फल भी उत्तम है। इस प्रकार भवानीद्वारा निवेदन किये जानेपर परमेश्वर शंकर प्रश्नानुसार सारा प्रसंग यथार्थरूपसे कहनेके लिये उद्यत हुए। तदनन्तर पिनाकधारी देवेश्वर भगवान् शंकर पार्वतीके साथ वहाँसे चल पड़े और देवीको उस उद्यानका दर्शन कराते हुए बोले ॥ २१-२३ ॥
देवदेव उवाच
प्रोत्फुल्लनानाविधगुल्मशोभितं लताप्रतानावनतं मनोहरम्।
विरूढपुष्पैः परितः प्रियङ्गुभिः सुपुष्पितैः कण्टकितैश्च केतकैः ॥ २४
तमालगुल्मैर्निचितं सुगन्धिभिः सकर्णिकारैर्बकुलैश्च सर्वशः।
अशोकपुन्नागवरैः सुपुष्यितै-द्विरेफमालाकुलपुष्पसञ्चयैः ॥ २५
क्वचित् प्रफुल्लाम्बुजरेणुरूषितै-विहङ्गमैश्चारुकलप्रणादिभिः।
विनादितं सारसमण्डनादिभिः प्रमत्तदात्यूहरुतैश्च वल्गुभिः ॥ २६
क्वचिच्च चक्राह्वरवोपनादितं क्वचिच्च कादम्बकदम्बकैर्युतम् ।
क्वचिच्च कारण्डवनादनादितं क्वचिच्च मत्तालिकुलाकुलीकृतम् ॥ २७
मदाकुलाभिस्त्वमराङ्गनाभि-निषेवितं चारुसुगन्धिपुष्पम् ।
क्वचित् सुपुष्पैः सहकारवृक्षै-लतोपगूढैस्तिलकद्रुमैश्च ॥ २८
प्रगीतविद्याधरसिद्धचारणं प्रमत्तनृत्याप्सरसां गणाकुलम् ।
प्रहृष्टनानाविधपक्षिसेवितं प्रमत्तहारीतकुलोपनादितम् ॥ २९
मृगेन्द्रनादाकुलसत्त्वमानसैः क्वचित्क्वचिद्वन्द्वकदम्बकैर्मुगैः।
प्रफुल्लनानाविधचारुपङ्कजैः सरस्तटाकैरुपशोभितं क्वचित् ॥ ३०
देवाधिदेव शंकरने कहा- प्रिये। यह उद्यान खिले हुए नाना प्रकारके गुल्मोंसे सुशोभित है। यह लताओंके विस्तारसे अवनत होनेके कारण मनोहर लग रहा है। इसमें चारों ओर पुष्पोंसे लदे हुए प्रियङ्गुके तथा भली-भाँति खिली हुई कँटीली केतकीके वृक्ष दीख रहे हैं। यह सब ओर तमालके गुल्मों, सुगन्धित कनेर और मौलसिरी तथा फूलोंसे लदे हुए अशोक और पुंनागके उत्तम वृक्षोंसे, जिसके पुष्पोंपर भ्रमरसमूह गुञ्जार कर रहे हैं, व्याप्त है। कहीं पूर्णरूपसे खिले हुए कमलके परागसे धूसरित अङ्गवाले पक्षी सुन्दर कलनाद कर रहे हैं, कहीं सारसोंका दल बोल रहा है। कहीं मतवाले चातकोंकी मधुर बोली सुनायी पड़ रही है।
कहीं चक्रवाकों का शब्द गूँज रहा है। कहीं यूथ-के-यूथ कलहंस विचर रहे हैं। कहीं बतखोंके नादसे निनादित हो रहा है। कहीं झुंड-के-झुंड मतवाले भौर गुनगुना रहे हैं। कहीं मदसे मतवाली हुई देवाङ्गनाएँ सुन्दर एवं सुगन्धित पुष्पोंका सेवन कर रही है। कहीं सुन्दर पुष्पोंसे आच्छादित आमके वृक्ष और लताओंसे आच्छादित तिलकके वृक्ष शोभा पा रहे हैं । कहीं विद्याधर, सिद्ध और चारण राग अलाप रहे हैं तो कहीं अप्सराओंका दल उन्मत्त होकर नाच रहा है। इसमें नाना प्रकारके पक्षी प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं। यह मतवाले हारीतसमूहसे निनादित है। कहीं-कहीं झुंड-के-झुंड मृगके जोड़े सिंहकी दहाड़से व्याकुल मनवाले होकर इधर-उधर भाग रहे हैं। कहीं ऐसे तालाब शोभा पा रहे हैं, जिनके तटपर नाना प्रकारके सुन्दर कमल खिले हुए हैं॥ २४-३०॥
निविडनिचुलनीलं नीलकण्ठाभिरामं मदमुदितविहङ्गव्रातनादाभिरामम् ।
कुसुमिततरुशाखालीनमत्तद्विरेफं नवकिसलयशोभाशोभितप्रान्तशाखम् ॥ ३१
क्वचिच्च दन्तिक्षतचारुवीरुधं क्वचिल्लतालिङ्गितचारुवृक्षकम् ।
क्वचिद्विलासालसगामिबर्हिणं निषेवितं किम्पुरुषव्रजैः क्वचित् ॥ ३२
पारावतध्वनिविकूजितचारुशृङ्ग-रर्श्वकषैः सितमनोहरचारुरूपैः ।
आकीर्णपुष्पनिकुरम्बविमुक्तहासै-विभ्राजितं त्रिदशदेवकुलैरनेकैः ॥ ३३
फुल्लोत्पलागुरु सहस्त्रवितानयुक्तै-स्तोयाशयैः समनुशोभितदेवमार्गम् ।
मार्गान्तरागलितपुष्पविचित्रभक्ति-सम्बद्धगुल्मविटपैर्विहगैरुपेतम् ॥ ३४
तुङ्गायैर्नीलपुष्पस्तबक भरनतप्रान्तशाखैरशोकै -र्मत्तालिव्रातगीतश्रुतिसुखजननैर्भासितान्तर्मनोज्ञैः।
रात्रौ चन्द्रस्य भासा कुसुमिततिलकैरेकर्ता सम्प्रयातं छाया सुप्तप्रबुद्धस्थितहरिणकुलालुप्तदर्भाङ्कराग्रम् ॥ ३५
हंसानां पक्षपातप्रचलितकमलस्वच्छविस्तीर्णतोयं तोयानां तीरजातप्रविकचकदलीवाट नृत्यन्मयूरम् ।
मायूँरैः पक्षचन्द्रः क्वचिदपि पतितै रञ्जितक्ष्माप्रदेशं देशे देशे विकीर्णप्रमुदितविलसन्मत्तहारीतवृक्षम् ॥ ३६
सारङ्गैः क्वचिदपि सेवितप्रदेशं संछन्नं कुसुमचयैः क्वचिद्विचित्रैः ।
हृष्टाभिः क्वचिदपि किंनराङ्गनाभिः क्षीबाभिः सुमधुरगीतवृक्षखण्डम् ॥ ३७
यह घने बेंतकी लताओं एवं नीलमयूरोंसे सुशोभित और मदसे उन्मत्त हुए पक्षिसमूहोंके नादसे मनोरम लग रहा है। इसके खिले हुए वृक्षोंकी शाखाओंमें मतवाले भौरे छिपे हुए हैं और उन शाखाओंके प्रान्तभाग नये किसलयोंकी शोभासे सुशोभित हैं। कहीं सुन्दर वृक्ष हाथियोंके दाँतोंसे क्षत-विक्षत हो गये हैं। कहीं लताएँ मनोहर वृक्षोंका आलिङ्गन कर रही हैं। कहीं भोगसे अलसाये हुए मयूरगण मन्दगतिसे विचरण कर रहे हैं। कहीं किम्पुरुषगण निवास कर रहे हैं। जो कबूतरोंकी ध्वनिसे निनादित हो रहे थे, जिनका उज्वल मनोहर रूप है, जिनपर बिखरे हुए पुष्पसमूह हासकी छटा दिखा रहे हैं और जिनपर अनेकों देवकुल निवास कर रहे हैं, उन गगनचुम्बी मनोहर शिखरोंसे सुशोभित हो रहा है। खिले हुए कमल और अगुरुके सहस्रों वितानोंसे युक्त जलाशयोंसे जिसका देवमार्ग सुशोभित हो रहा है। उन मार्गोंपर पुष्प बिखरे हुए हैं
और वह विचित्र भक्तिसे युक्त पक्षियोंसे सेवित गुल्मों और वृक्षोंसे युक्त है। जिनके अग्रभाग ऊँचे हैं, जिनकी शाखाओंका प्रान्तभाग नीले पुष्पोंके गुच्छोंके भारसे झुके हुए हैं तथा जिनकी शाखाओंके अन्तर्भागमें लीन मतवाले भ्रमरसमूहोंकी श्रवण-सुखदायिनी मनोहर गीत हो रही है, ऐसे अशोकवृक्षोंसे युक्त है। रात्रिमें यह अपने खिले हुए तिलक-वृक्षोंसे चन्द्रमाकी चाँदनीके साथ एकताको प्राप्त हो जाता है। कहीं वृक्षोंकी छायामें सोये हुए, सोकर जगे हुए तथा बैठे हुए हरिणसमूहोंद्वारा काटे गये दूर्वाकुरोंके अग्रभागसे युक्त है। कहीं हंसोंके पंख हिलानेसे चञ्चल हुए कमलोंसे युक्त, निर्मल एवं विस्तीर्ण जलराशि शोभा पा रही है। कहीं जलाशयोंके तटपर उगे हुए फूलोंसे सम्पत्र कदलीके लतामण्डपोंमें मयूर नृत्य कर रहे हैं। कहीं झड़कर गिरे हुए चन्द्रकयुक्त मयूरोंके पंखोंसे भूतल अनुरञ्जित हो रहा है। जगह-जगह पृथक् पृथक् यूथ बनाकर हर्षपूर्वक विलास करते हुए मतवाले हारीत पक्षियोंसे युक्त वृक्ष शोभा पा रहे हैं। किसी प्रदेशमें सारङ्ग जातिके मृग बैठे हुए हैं। कुछ भाग विचित्र पुष्पसमूहोंसे आच्छादित है। कहीं उन्मत्त हुई किंनराङ्गनाएँ हर्षपूर्वक सुमधुर गीत अलाप रहो हैं, जिनसे वृक्षखण्ड मुखरित हो रहा है॥ ३१-३७॥
संसृष्टैः क्वचिदुपलिप्तकीर्णपुष्पै- रावासैः परिवृतपादपं मुनीनाम्।
आमूलात् फलनिचितैः क्वचिद्विशालै- रुत्तुङ्गः पनसमहीरुहैरुपेतम् ।। ३८
फुल्लातिमुक्तकलतागृहसिद्धलीलं सिद्धाङ्गनाकनकनूपुरनादरम्यम् ।
रम्यप्रियङ्गुतरुमञ्जरिसक्तभृङ्गं भृङ्गावलीषु स्खलिताम्बुकदम्बपुष्यम् ॥ ३९
पुष्पोत्करानिलविघूर्णितपादपाग्र-मग्रेसरो भुवि निपातितवंशगुल्मम् ।
गुल्मान्तरप्रभृतिलीनमृगीसमूहं सम्मुहातां तनुभृतामपवर्गदातृ ।। ४०
चन्द्रांशुजालधवलैस्तिलकैर्मनोज्ञैः सिन्दूरकुङ्कुमकुसुम्भनिभैरशोकैः ।
चामीकराभनिचयैरथ कर्णिकारैः फुल्लारविन्द्ररचितं सुविशालशाखैः ॥ ४१
क्वचिद्रजतपर्णाभैः क्वचिद्विद्रुमसन्निभैः ।
क्वचित्काञ्चनसंकाशैः पुष्पैराचितभूतलम् ॥ ४२
पुंनागेषु द्विजगणविरुतं रक्ताशोकस्तबकभरनमितम् ।
रम्योपान्तश्रमहरपवनं फुल्लाब्जेषु भ्रमरविलसितम् ॥ ४३
सकलभुवनभर्ता लोकनाथस्तदानीं तुहिनशिखरिपुत्र्याः सार्धमिष्टैर्गणेशैः ।
विविधतरुविशालं मत्तहृष्टान्यपुष्ट-मुपवनतरुरम्यं दर्शयामास देव्याः ॥ ४४
कहीं वृक्षोंक नीचे मुनियेकि आवासस्थल बने हैं, जिनकी भूमि लिपी पुती हुई है और उनपर पुष्प बिखेरा हुआ है। कहीं जिनमें जड़से लेकर अन्ततक फल लदे हुए हैं, ऐसे विशाल एवं ऊँचे कटहलके वृक्षोंसे युक्त है। कहीं खिली हुई अतिमुक्तक लताके बने हुए सिद्धोंके गृह शोभा पा रहे हैं, जिनमें सिद्धाङ्गनाओंके स्वर्णमय नूपुरोंका सुरम्य नाद हो रहा है। कहीं मनोहर प्रियंगु वृक्षोंकी मंजरियोंपर भँवरे मंडरा रहे हैं। कहीं भ्रमर समूहोंके पंखोंके आघातसेकदम्बके पुष्प नीचे गिर रहे हैं। कहीं पुष्पसमूहका स्पर्श करके बहती हुई वायु बड़े-बड़े वृक्षोंके ऊपरकी शाखाओंको झुका दे रही है, जिनके आघातसे बाँसोंके झुरमुट भूतलपर गिर जा रहे हैं। उन गुल्मोंके अन्तर्गत हरिणियोंका समूह छिपा हुआ है। इस प्रकार यह उपवन मोहग्रस्त प्राणियोंको मोक्ष प्रदान करनेवाला है। यहाँ कहीं चन्द्रमाकी किरणों-सरीखे उज्वल मनोहर तिलकके वृक्ष, कहीं सिंदूर, कुंकुम और कुसुम्भ-जैसे लाल रंगवाले अशोकके वृक्ष, कहीं स्वर्णक समान पीले एवं लम्बी शाखाओंवाले कनेरके वृक्ष और कहीं खिले हुए कमलके पुष्प शोभा पा रहे हैं। इस उपवनकी भूमि कहीं चाँदीके पत्र-जैसे श्वेत, कहीं मैंगे-सरीखे लाल और कहीं स्वर्ण सदृश पौले पुष्पोंसे आच्छादित है। कहीं पुंनागके वृक्षोंपर पक्षिगण चहचहा रहे हैं। कहीं लाल अशोककी डालियाँ पुष्प गुच्छोंके भारसे झुक गयी हैं। रमणीय एवं श्रमहारी पवन शरीरका स्पर्श करके बह रहा है। उत्फुल्ल कमलपुष्पोंपर भौरे गुल्जार कर रहे हैं। इस प्रकार समस्त भुवनोंके पालक जगदीश्वर शंकरने अपने प्रिय गणेश्वरोंको साथ लेकर उस विविध प्रकारके विशाल वृक्षोंसे युक्त तथा उन्मत्त और हर्ष प्रदान करनेवाले उपवनको हिमालयकी पुत्री पार्वतीदेवीको दिखाया ॥ ३८-४४ ॥
देव्युवाच
उद्यानं दर्शितं देव शोभया परया युतम् ।
क्षेत्रस्य तु गुणान् सर्वान् पुनर्वक्तुमिहार्हसि ॥ ४५
अस्य क्षेत्रस्य माहात्म्यमविमुक्तस्य तत्तथा।
श्रुत्वापि हि न मे तृप्तिरतो भूयो वदस्व मे ॥ ४६
देवीने पूछा-देव! अनुपम शोभासे युक्त इस उद्यानको तो आपने दिखला दिया। अब आप पुनः इस क्षेत्रके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन कीजिये। इस क्षेत्रका तथा अविमुक्तका माहात्म्य सुनकर मुझे तृप्ति नहीं हो रही है, अतः आप पुनः मुझसे वर्णन कीजिये ॥ ४५-४६ ॥
देवदेव उवाच
इदं गुह्यतमं क्षेत्रं सदा वाराणसी मम।
सर्वेषामेव भूतानां हेतुर्मोक्षस्य सर्वदा ॥ ४७
अस्मिन् सिद्धाः सदा देवि मदीयं व्रतमास्थिताः ।
नानालिङ्गधरा नित्यं मम लोकाभिकाङ्क्षिणः ॥ ४८
अभ्यस्यन्ति परं योगं मुक्तात्मानो जितेन्द्रियाः ।
नानावृक्षसमाकीर्णे नानाविहगकूजिते ॥ ४९
कमलोत्पलपुष्पाढ्यैः सरोभिः समलङ्कृते ।
अप्सरोगणगन्धर्वैः सदा संसेविते शुभे ॥ ५०
रोचते मे सदा वासो येन कार्येण तच्छृणु।
मन्मना मम भक्तश्च मयि सर्वार्पितक्रियः ॥५१
यथा मोक्षमिहाप्नोति ह्यन्यत्र न तथा क्वचित्।
एतन्मम पुरं दिव्यं गुह्यगद् गुह्यतरं महत् ॥ ५२
ब्रह्मादयस्तु जानन्ति येऽपि सिद्धा मुमुक्षवः ।
अतः प्रियतमं क्षेत्रं तस्माच्चेह रतिर्मम ॥ ५३
विमुक्तं न मया यस्मान्मोक्ष्यते वा कदाचन।
महत् क्षेत्रमिदं तस्मादविमुक्तमिदं स्मृतम् ॥ ५४
नैमिषेऽथ कुरुक्षेत्रे गङ्गाद्वारे च पुष्करे।
स्नानात् संसेविताद् वापि न मोक्षः प्राप्यते यतः ।। ५५
इह सम्प्राप्यते येन तत एतद् विशिष्यते।
प्रयागे च भवेन्मोक्ष इह वा मत्परिग्रहात् ॥ ५६
देवाधिदेव शंकर बोले- देवि! मेरा यह वाराणसी क्षेत्र परम गुहा है। यह सर्वदा सभी प्राणियोंके मोक्षका कारण है। देवि! इस क्षेत्रमें नाना प्रकारका स्वरूप धारण करनेवाले नित्य मेरे लोकके अभिलाषी मुक्तात्मा जितेन्द्रिय सिद्धगण मेरा व्रत धारण कर परम योगका अभ्यास करते हैं। अब इस नाना प्रकारके वृक्षोंसे व्याप्त, अनेकविध पक्षियोंद्वारा निनादित, कमल और उत्पलके पुष्पोंसे भरे हुए सरोवरोंसे सुशोभित और अप्सराओं तथा गन्धर्वोद्वारा सदा संसेवित इस शुभमय उपवनमें जिस हेतुसे मुझे सदा निवास करना अच्छा लगता है, उसे सुनो। मेरा भक्त मुझमें मन लगाकर और सारी क्रियाएँ मुझमें समर्पित कर इस क्षेत्रमें जैसी सुगमतासे मोक्ष प्राप्त कर सकता है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं प्राप्त कर सकता। यह मेरी महान् दिव्य नगरी गुह्यसे भी गुह्यतर है। ब्रह्मा आदि जो सिद्ध मुमुक्षु हैं, वे इसके विषयमें पूर्णरूपसे जानते हैं। अतः यह क्षेत्र मुझे परम प्रिय है और इसी कारण इसके प्रति मेरी विशेष रति है। चूंकि मैं कभी भी इस विमुक्त क्षेत्रका त्याग नहीं करता, इसलिये यह महान् क्षेत्र अविमुक्त नामसे कहा जाता है। नैमिष, कुरुक्षेत्र, गङ्गाद्वार और पुष्करमें निवास करने तथा स्नान करनेसे यदि मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती तो इस क्षेत्रमें वह प्राप्त हो जाता है, इसीलिये यह उनसे विशिष्ट है। प्रयागमें अथवा मेरा आश्रय ग्रहण करनेसे काशीमें मोक्ष प्राप्त हो जाता है॥ ४७-५६॥
प्रयागादपि तीर्थाग्र्यादिदमेव महत् स्मृतम्।
जैगीषव्यः परां सिद्धिं योगतः स महातपाः । ५७
अस्य क्षेत्रस्य माहात्म्याद् भक्त्या च मम भावनात् ।
जैगीषव्यो मुनिश्श्रेष्ठो योगिनां स्थानमिष्यते ॥ ५८
ध्यायतस्तत्र मां नित्यं योगाग्निर्दीप्यते भृशम्।
कैवल्यं परमं याति देवानामपि दुर्लभम् ॥ ५९
अव्यक्तलिङ्गैर्मुनिभिः सर्वसिद्धान्तवेदिभिः ।
इह सम्प्राप्यते मोक्षो दुर्लभो देवदानवैः ॥ ६०
तेभ्यश्चाहं प्रयच्छामि भोगैश्वर्यमनुत्तमम् ।
आत्मनश्चैव सायुज्यमीप्सितं स्थानमेव च ॥ ६१
कुबेरस्तु महायक्षस्तथा सर्वार्पितक्रियः ।
क्षेत्रसंवसनादेव गणेशत्वमवाप ह॥ ६२
संवर्तों भविता यश्च सोऽपि भक्त्या ममैव तु।
इहैवाराध्य मां देवि सिद्धिं यास्यत्यनुत्तमाम् ॥ ६३
पराशरसुतो योगी ऋषिर्थ्यांसो महातपाः।
धर्मकर्ता भविष्यश्च वेदसंस्थाप्रवर्तकः ॥ ६४
रंस्यते सोऽपि पद्माक्षि क्षेत्रेऽस्मिन् मुनिपुङ्गवः ।
ब्रह्मा देवर्षिभिः सार्धं विष्णुर्वायुर्दिवाकरः ॥ ६५
देवराजस्तथा शक्रो येऽपि चान्ये दिवौकसः ।
उपासन्ते महात्मानः सर्वे मामेव सुव्रते ॥ ६६
अन्येऽपि योगिनः सिद्धाश्छन्नरूपा महाव्रताः ।
अनन्यमनसो भूत्वा मामिहोपासते सदा ॥ ६७
यह तीर्थश्रेष्ठ प्रयागसे भी महान् कहा जाता है। महातपस्वी जैगीषव्य मुनि यहाँ परा सिद्धि प्राप्त कर चुके हैं। मुनिश्रेष्ठ जैगीषव्य इस क्षेत्रके माहात्म्यसे तथा भक्तिपूर्वक मेरी भावना करनेसे योगियोंके स्थानको प्राप्त कर लिये हैं। वहाँ नित्य मेरा ध्यान करनेसे योगाग्नि अत्यन्त उद्दीप्त हो जाती है, जिससे देवताओंके लिये भी परम दुर्लभकैवल्य पद प्राप्त हो जाता है। यहाँ सम्पूर्ण सिद्धान्तोंके ज्ञाता एवं अव्यक्त चिह्नवाले मुनियोंद्वारा देवों और दानवोंके लिये दुर्लभ मोक्ष प्राप्त कर लिया जाता है। मैं ऐसे मुनियोंको सर्वोत्तम भोग, ऐश्वर्य, अपना सायुज्य और मनोवाञ्छित स्थान प्रदान करता हूँ। महायक्ष कुबेर, जिन्होंने अपनी सारी क्रियाएँ मुझे अर्पित कर दी थी, इस क्षेत्रमें निवास करनेके कारण ही गणाधिपत्यको प्राप्त हुए हैं। देवि। जो संवर्तनामक ऋषि होंगे, वे भी मेरे ही भक्त हैं। वे यहीं मेरी आराधना करके सर्वश्रेष्ठ सिद्धि प्राप्त करेंगे। पद्माक्षि! जो योगसम्पन्न, धर्मके नियामक और वैदिक कर्मकाण्डके प्रवर्तक होंगे, महातपस्वी मुनिश्रेष्ठ पराशरनन्दन महर्षि व्यास भी इसी क्षेत्रमें निवास करेंगे। सुव्रते। देवर्षियोंके साथ ब्रह्मा, विष्णु, वायु, सूर्य, देवराज इन्द्र तथा जो अन्यान्य देवता हैं, सभी महात्मा मेरी ही उपासना करते हैं। दूसरे भी योगी, सिद्ध, गुप्त रूपधारी एवं महाव्रती अनन्यचित्त होकर यहाँ सदा मेरी उपासना करते हैं॥ ५७-६७ ॥
अलर्कश्च पुरीमेतां मत्प्रसादादवाप्स्यति।
स चैनां पूर्ववत्कृत्वा चातुर्वण्यांश्रमाकुलाम् ॥ ६८
स्फीतां जनसमाकीर्णा भक्त्या च सुचिरं नृपः ।
मयि सर्वार्पितप्राणो मामेव प्रतिपत्स्यते ॥ ६९
ततः प्रभृति चार्वङ्गि येऽपि क्षेत्रनिवासिनः ।
गृहिणो लिङ्गिनो वापि मद्भक्ता मत्परायणाः ॥ ७०
मत्प्रसादाद् भजिष्यन्ति मोक्षं परमदुर्लभम्।
विषयासक्तचित्तोऽपि त्यक्तधर्मरतिर्नरः ॥ ७१
इह क्षेत्रे मृतः सोऽपि संसारं न पुनर्विशेत्।
ये पुनर्निर्ममा धीराः सत्त्वस्था विजितेन्द्रियाः ॥ ७२
व्रतिनश्च निरारम्भाः सर्वे ते मयि भाविताः ।
देहभङ्ग समासाद्य धीमन्तः सङ्गवर्जिताः ।
गता एव परं मोक्षं प्रसादान्मम सुव्रते ॥ ७३
जन्मान्तरसहस्त्रेषु युञ्जन् योगमवाप्नुयात्।
तमिहैव परं मोक्षं मरणादधिगच्छति ।। ७४
एतत् संक्षेपतो देवि क्षेत्रस्यास्य महत्फलम्।
अविमुक्तस्य कथितं मया ते गुह्यमुत्तमम् ॥ ७५
अतः परतरं नास्ति सिद्धिगुहां महेश्वरि।
एतद् बुद्धयन्ति योगज्ञा ये च योगेश्वरा भुवि ॥ ७६
एतदेव परं स्थानमेतदेव परं शिवम् ।
एतदेव परं ब्रह्म एतदेव परं पदम् ॥ ७७
वाराणसी तु भुवनत्रयसारभूता रम्या सदा मम पुरी गिरिराजपुत्रि।
अत्रागता विविधदुष्कृतकारिणोऽपि पापक्षयाद् विरजसः प्रतिभान्ति मर्त्याः ॥ ७८
एतत्स्मृतं प्रियतमं मम देवि नित्यं क्षेत्रं विचित्रतरुगुल्मलतासुपुष्पम् ।
अस्मिन् मृतास्तनुभृतः पदमाप्नुवन्ति मूर्खागमेन रहितापि न संशयोऽत्र ॥ ७९
अलर्क भी मेरी कृपासे इस पुरीको प्राप्त करेंगे। वे नरेश इसे पहलेकी तरह चारों वर्णों और आश्रमोंसे युक्त, समृद्धिशालिनी और मनुष्योंसे परिपूर्ण कर देंगे। तत्पश्चात् चिरकालतक भक्तिपूर्वक मुझमें प्राणॉसहित अपना सर्वस्व समर्पित करके मुझे ही प्राप्त कर लेंगे। सुन्दर अङ्गङ्गेवाली देवि ! तभीसे इस क्षेत्रमें निवास करनेवाले जो भी मत्परायण मेरे भक्त, चाहे वे गृहस्थ हों अथवा संन्यासी, मेरी कृपासे परम दुर्लभ मोक्षको प्राप्त कर लेंगे। जो मनुष्य धर्मत्यागका प्रेमी और विषयोंमें आसक चित्तवाला भी हो, वह भी यदि इस क्षेत्रमें प्राणत्याग करता है तो उसे पुनः संसारमें नहीं आना पड़ता। सुव्रते । फिर जो ममतारहित, धैर्यशाली, पराक्रमी, जितेन्द्रिय व्रतधारी, आरम्भरहित, बुद्धिमान् और आसक्तिहीन हैं, वे सभी मुझमें मन लगाकर यहाँ शरीरका त्याग करके मेरी कृपासे परम मोक्षको ही प्राप्त हुए हैं। हजारों जन्मोंमें योगका अभ्यास करनेसे जो मोक्ष प्राप्त होता है,
वह परम मोक्ष यहाँ मरनेसे ही प्राप्त हो जाता है। देवि ! मैंने तुमसे इस अविमुक्त क्षेत्रके इस उत्तम, गुह्य एवं महान् फलको संक्षेपरूपसे वर्णन किया है। महेश्वरि! भूतलपर इससे बढ़कर सिद्धिदाता दूसरा कोई गुहा स्थान नहीं है। इसे जो योगेश्वर एवं योगके ज्ञाता हैं, वे ही जानते हैं। यही परमोत्कृष्ट स्थान है, यही परम कल्याणकारक है, यही परब्रह्म है और यही परमपद है। गिरिराजपुत्रि ! मेरी रमणीय वाराणसीपुरी तो सदा त्रिभुवनकी सारभूता है। अनेकों प्रकारके पाप करनेवाले मानव भी यहाँ आकर पापोंके नष्ट हो जानेसे पापमुक्त हो सुशोभित होने लगते हैं। देवि! विचित्र वृक्षों, गुल्मों, लताओं और सुगन्धित पुष्पोंसे युक्त यह क्षेत्र मेरे लिये सदा प्रियतम कहा जाता है। वेदाध्ययनसे रहित मूर्ख प्राणी भी यदि यहाँ मरते हैं तो परम पदको प्राप्त हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं है॥ ६८-७९ ॥
सूत उवाच
एतस्मिन्नन्तरे देवो देवीं प्राह गिरीन्द्रजाम् ।
दातुं प्रसादाद् यक्षाय वरं भक्ताय भामिनि ॥ ८०
भक्तो मम वरारोहे तपसा हतकिल्बिषः ।
अहो वरमसौ लब्धुमस्मत्तो भुवनेश्वरि ॥ ८१
एवमुक्त्वा ततो देवः सह देव्या जगत्पतिः ।
जगाम यक्षो यत्रास्ते कृशो धमनिसन्ततः ॥ ८२
ततस्तं गुहाकं देवी दृष्टिपातैर्निरीक्षती।
श्वेतवर्णं विचर्माणं स्नायुबद्धास्थिपञ्जरम् ॥ ८३
देवी प्राह तदा देवं दशयन्ती च गुह्यकम्।
सत्यं नाम भवानुग्रो देवैरुक्तस्तु शङ्कर ॥ ८४
ईदृशे चास्य तपसि न प्रयच्छसि यद्वरम्।
अतः क्षेत्रे महादेव पुण्ये सम्यगुपासिते ॥ ८५
कथमेवं परिक्लेशं प्राप्तो यक्षकुमारकः ।
शीघ्रमस्य वरं यच्छ प्रसादात् परमेश्वर ॥ ८६
एवं मन्वादयो देव वदन्ति परमर्षयः ।
रुष्टाद् वा चाथ तुष्ठाद् वा सिद्धिस्तूभयतो भवेत्।
भोगप्राप्तिस्तथा राज्यमन्ते मोक्षः सदाशिवात् ॥ ८७
एवमुक्तस्ततो देवः सह देव्या जगत्पतिः ।
जगाम यक्षो यत्रास्ते कृशो धमनिसंततः ॥ ८८
तं दृष्ट्वा प्रणतं भक्त्या हरिकेशं वृषध्वजः ।
दिव्यं चक्षुरदात् तस्मै येनापश्यत् स शङ्करम् ॥ ८९
अथ यक्षस्तदादेशाच्छनैरुन्मील्य चक्षुषी।
अपश्यत् सगणं देवं वृषध्वजमुपस्थितम् ॥ ९०
सूतजी कहते हैं- ऋषियो। इसी बीच महादेवजीने गिरिराजकुमारी पार्वतीदेवीसे भक्तराज यक्षको कृपारूप वर प्रदान करनेके लिये यों कहा- 'भामिनि। वह मेरा भक्त है। वरारोहे। तपस्यासे उसके पाप नष्ट हो चुके हैं, अतः भुवनेश्वरि! वह अब हमलोगोंसे वर प्राप्त करनेका अधिकारी हो गया है।' तदनन्तर ऐसा कहकर जगदीश्वर महादेव पार्वतीदेवी के साथ उस स्थानके लिये चल पड़े, जहाँ धमनियोंसे व्याप्त दुर्बल यक्ष वर्तमान था। वहाँ पहुँचकर पार्वती देवी दृष्टि घुमाकर उस गुह्यककी ओर देखने लगीं, जिसका शरीर श्वेत रङ्गका हो गया था, चमड़ा गल गया था और अस्थिपंजर नसोंसे आबद्ध था। तब उस गुह्यकको दिखलाती हुई देवीने महादेवजीसे कहा- 'शंकर। इस प्रकारकी घोर तपस्यामें निरत इसे आप जो वर नहीं प्रदान कर रहे हैं, इस कारण देवतालोग आपको जो अत्यन्त निष्ठुर बतलाते हैं, वह सत्य ही है। महादेव! इस पुण्यक्षेत्रमें भली भाँति उपासना करनेपर भी इस यक्षकुमारको इस प्रकारका महान् कष्ट कैसे प्राप्त हुआ ? अतः परमेश्वर। कृपा करके इसे शीघ्र ही वरदान दीजिये। देव! मनु आदि परमर्षि ऐसा कहते हैं कि सदाशिव चाहे रुष्ट हों अथवा तुष्ट दोनों प्रकारसे उनसे सिद्धि, भोगकी प्राप्ति, राज्य तथा अन्तमें मोक्षकी प्राप्ति होती ही है। ऐसा कहे जानेपर जगदीश्वर महादेव पार्वतीके साथ उस स्थानके निकट गये जहाँ धमनियोंसे व्याप्त कृशकण यक्ष स्थित था। (उनकी आहट पाकर यक्ष उनके चरणोंर गिर पड़ा।) इस प्रकार उस हरिकेशको भक्तिपूर्वक चरणोंमें पड़ा हुआ देखकर शिवजीने उसे दिव्य वक्षु प्रदान किया जिससे वह शंकरका दर्शन कर सके। तदनन्तर यक्षने महादेवजीके आदेशसे धीरेसे अपने दोनों नेत्रोंको खोलकर गणसहित वृषध्वज महादेवजीको सामने उपस्थित देखा ॥८०-९० ॥
देवदेव उवाच
वरं ददामि ते पूर्व त्रैलोक्ये दर्शनं तथा ।
सावर्ण्य च शरीरस्य पश्य मां विगतज्वरः ॥ ९१
देवाधिदेव शंकरने कहा- यक्ष। अब तुम कष्टरहित होकर मेरी ओर देखो। मैं तुम्हें पहले वह वर देता हूँ जिससे तुम्हारे शरीरका वर्ण सुन्दर हो जाय तथा तुम त्रिलोकीमें देखनेयोग्य हो जाओ ॥ ९१॥
सूत उवाच
ततः स लब्ध्वा तु वरं शरीरेणाक्षतेन च।
पादयोः प्रणतस्तस्थौ कृत्वा शिरसि चाञ्जलिम् ॥ ९२
उवाचाथ तदा तेन वरदोऽस्मीति चोदितः ।
भगवन् भक्तिमव्यग्रां त्वय्यनन्यां विधत्स्व मे ॥ ९३
अन्नदत्वं च लोकानां गाणपत्यं तथाक्षयम्।
अविमुक्तं च ते स्थानं पश्येयं सर्वदा यथा ॥ ९४
एतदिच्छामि देवेश त्वत्तो वरमनुत्तमम् ॥ ९५
सूतजी कहते हैं-ऋषियो ! तत्पश्चात् वरदान पाकर वह अक्षत शरीरसे युक्त हो चरणोंपर गिर पड़ा, फिर मस्तकपर हाथ जोड़कर सम्मुख खड़ा हो गया और बोला-'भगवन् । आपने मुझसे कहा है कि 'मैं वरदाता हूँ' तो मुझे ऐसा वरदान दीजिये कि आपमें मेरी अनन्य एवं अटल भक्ति हो जाय। मैं अक्षय अनका दाता तथा लोकोंके गणोंका अधीश्वर हो जाऊँ, जिससे आपके अविमुक्त स्थानका सर्वदा दर्शन करता रहूँ। देवेश। मैं आपसे यही उत्तम वर प्राप्त करना चाहता हूँ ॥ ९२-९५॥
देवदेव उवाच
जरामरणसंत्यक्तः सर्वरोगविवर्जितः ।
भविष्यसि गणाध्यक्षो धनदः सर्वपूजितः ॥ ९६
अजेयश्चापि सर्वेषां योगैश्वर्य समाश्रितः ।
अन्नदश्चापि लोकेभ्यः क्षेत्रपालो भविष्यसि ॥ ९७
महाबलो महासत्त्वो ब्रह्मण्यो मम च प्रियः ।
त्र्यक्षश्च दण्डपाणिश्च महायोगी तथैव च ॥ ९८
उद्धमः सम्भ्रमश्चैव गणौ ते परिचारकौ।
तवाज्ञया करिष्येते लोकस्योद्भमसम्भ्रमी ॥ ९९
देवदेवने कहा-यक्ष। तुम जरा-मरणसे विमुक्त, सम्पूर्ण रोगोंसे रहित, सबके द्वारा सम्मानित धनदाता गणाध्यक्ष होओगे। तुम सभीके लिये अजेय, योगैश्वर्यसे युक्त, लोकोंके लिये अन्नदाता, क्षेत्रपाल, महाबली, महान् पराक्रमी, ब्राह्मणभक्त, मेरा प्रिय, त्रिनेत्रधारी, दण्डपाणि तथा महायोगी होओगे। उद्भम और सम्भ्रम-ये दोनों गण तुम्हारे सेवक होंगे। ये उद्घम और सम्भ्रम तुम्हारी आज्ञासे लोकका कार्य करेंगे ॥ ९६-९९॥
सूत उवाच
एवं स भगवांस्तत्र यक्षं कृत्वा गणेश्वरम्।
जगाम वासं देवेशः सह तेन महेश्वरः ॥ १००
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। इस प्रकार देवेश भगवान् महेश्वर वहाँ उस यक्षको गणेश्वर बनाकर उसके साथ अपने निवासस्थानको लौट गये ॥१००॥
मात्स्ये महापुराणे वाराणसीमाहात्म्ये दण्डपाणिवरप्रदानं नामाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८० ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके वाराणसी-माहात्म्यमें दण्डपाणि-वरप्रदान नामक एक सौ असीवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥ १८०॥
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