मत्स्य पुराण दो सौ चौवनवाँ अध्याय
वास्तु शास्त्र के अन्तर्गत राजप्रासाद आदि की निर्माण-विधि
सूत उवाच
चतुःशालं प्रवक्ष्यामि स्वरूपान्नामतस्तथा ।
चतुःशालं चतुद्वरैिरलिन्दैः सर्वतोमुखम् ॥ १
नाम्ना तत् सर्वतोभद्रं शुभं देवनृपालये।
पश्चिमद्वारहीनं च नन्द्यावर्त प्रचक्षते ॥ २
दक्षिणद्वारहीनं तु वर्धमानमुदाहृतम् ।
पूर्वद्वारविहीनं तत् स्वस्तिकं नाम विश्रुतम् ॥ ३
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। अब मैं चतुःशाल (त्रिशाल, द्विशाल आदि) भवनोंके स्वरूप, उनके विशिष्ट नामोंके साथ बतला रहा हूँ। जो चतुःशाल चारों ओर भवन, द्वार तथा बरामदोंसे युक्त हो, उसे 'सर्वतोभद्र' कहा जाता है। वह देव मन्दिर तथा राजभवनके लिये मङ्गलकारक होता है। वह चतुःशाल यदि पश्चिम द्वारसे हीन हो तो 'नन्द्यावर्त', दक्षिणद्वारसे हीन हो तो 'वर्धमान', पूर्वद्वारसे रहित हो तो 'स्वस्तिक', उत्तरद्वारसे विहीन हो तो 'रुचक' कहा जाता है।३॥
रुचकं चोत्तरद्वारविहीनं तत् प्रचक्षते ।
सौम्यशालाविहीनं यत् त्रिशालं धान्यकं च तत् ॥ ४
क्षेमवृद्धिकरं नृणां बहुपुत्रफलप्रदम् ।
शालया पूर्वया हीनं सुक्षेत्रमिति विश्रुतम् ॥ ५
धन्यं यशस्यमायुष्यं शोकमोहविनाशनम् ।
शालया याम्यया हीनं यद् विशालं तु शालया ॥ ६
कुलक्षयकरं नृणां सर्वव्याधिभयावहम्।
हीनं पश्चिमया यत् तु पक्षघ्नं नाम तत् पुनः ॥ ७
मित्रबन्धुसुतान् हन्ति तथा सर्वभयावहम्।
याम्यापराभ्यां शालाभ्यां धनधान्यफलप्रदम् ॥ ८
क्षेमवृद्धिकरं नृणां तथा पुत्रफलप्रदम् ।
यमसूर्य च विज्ञेयं पश्चिमोत्तरशालकम् ॥ ९
राजाग्निभयदं नृणां कुलक्षयकरं च यत्।
उदक्पूर्वे तु शाले दण्डाख्ये यत्र तद् भवेत् ॥ १०
अकालमृत्युभयदं परचक्रभयावहम् ।
धनाख्यं पूर्वयाम्याभ्यां शालाभ्यां यद् शालकम् ॥ ११
तच्छस्त्रभयदं नृणां पराभवभयावहम् ।
चुल्ली पूर्वापराभ्यां तु सा भवेन्मृत्युसूचनी ॥ १२
वैधव्यदायकं स्त्रीणामनेकभयकारकम्।
कार्यमुत्तरयाम्याभ्यां शालाभ्यां भयदं नृणाम् ॥ १३
(अब त्रिशाल भवनोंके भेद बतलाते हैं।) उत्तर दिशाकी शालासे रहित जो त्रिशाल भवन होता है, उसे 'धान्यक' कहते हैं। वह मनुष्योंके लिये कल्याण एवं वृद्धि करनेवाला तथा अनेक पुत्ररूप फल देनेवाला होता है। पूर्वकी शालासे विहीन त्रिशाल भवनको 'सुक्षेत्र' कहते हैं। वह धन, यश और आयु प्रदान करनेवाला तथा शोक-मोहका विनाशक होता है। जो दक्षिणकी शालासे विहीन होता है, उसे 'विशाल' कहते हैं। वह मनुष्योंके कुलका क्षय करनेवाला तथा सब प्रकारकी व्याधि और भय देनेवाला होता है। जो पश्चिमशालासे हीन होता है, उसका नाम 'पक्षघ्न' है, वह मित्र, बन्धु और पुत्रोंका विनाशक तथा सब प्रकारका भय उत्पन्न करनेवाला होता है। (अब 'द्विशालों 'के भेद कहते हैं-) दक्षिण एवं पश्चिम दो शालाओंसे युक्त भवनको धनधान्यप्रद कहते हैं।
वह मनुष्योंके लिये कल्याणका वर्धक तथा पुत्रप्रद कहा गया है। पश्चिम और उत्तरशालावाले भवनको 'यमसूर्य' नामक शाल जानना चाहिये। वह मनुष्योंके लिये राजा और अग्निसे भयदायक और कुलका विनाशक होता है। जिस भवनमें केवल पूर्व और उत्तरकी ही दो शालाएँ हों, उसे 'दण्ड' कहते हैं। वह अकालमृत्यु तथा शत्रुपक्षसे भय उत्पन्न करनेवाला होता है। जो पूर्व और दक्षिणकी शालाओंसे युक्त द्विशाल भवन हो, उसे 'धन' कहते हैं। वह मनुष्योंके लिये शस्त्र तथा पराजयका भय उत्पन्न करनेवाला होता है। इसी प्रकार केवल पूर्व तथा पश्चिमकी और बना हुआ 'चुल्ली' नामक द्विशालभवन मृत्युसूचक है। वह स्त्रियोंको विधवा करनेवाला तथा अनेकों प्रकारका भय उत्पन्न करनेवाला होता है। केवल उत्तर एवं दक्षिणकी शालाओंसे युक्त द्विशाल भवन मनुष्योंके लिये भयदायक होता है। अतः ऐसे भवनको नहीं बनवाना चाहिये। बुद्धिमानोंको सदा सिद्धार्थ और वज्रसे भिन्न द्विशालभवन बनवाना चाहिये ॥ ४-१३ ॥
सिद्धार्थवज्रवर्ज्याणि द्विशालानि सदा बुधैः ।
अथातः सम्प्रवक्ष्यामि भवनं पृथिवीपतेः ॥ १४
पञ्चप्रकारं तत् प्रोक्तमुत्तमादिविभेदतः ।
अष्टोत्तरं हस्तशतं विस्तरश्चोत्तमो मतः ॥ १५
चतुर्व्वन्येषु विस्तारो हीयते चाष्टभिः करैः ।
चतुर्थांशाधिकं दैर्ध्वं पञ्चस्वपि निगद्यते ॥ १६
युवराजस्य वक्ष्यामि तथा भवनपञ्चकम् ।
षड्भिः षद्भिस्तथाशीतिहींयते तत्र विस्तरात् ॥ १७
त्र्यंशेन चाधिकं दैर्ध्य पञ्चस्वपि निगद्यते।
सेनापतेः प्रवक्ष्यामि तथा भवनपञ्चकम् ॥ १८
चतुःषष्टिस्तु विस्तारात् षद्भिः षड्भिस्तु हीयते।
पञ्चस्वेतेषु दैर्घ्यं च षड्भागेनाधिकं भवेत् ॥ १९
मन्त्रिणामथ वक्ष्यामि तथा भवनपञ्चकम् ।
चतुश्चतुर्भिहींना स्यात् करषष्टिः प्रविस्तरे ॥ २०
अष्टांशेनाधिकं दैघ्यै पञ्चस्वपि निगद्यते।
सामन्तामात्यलोकानां वक्ष्ये भवनपञ्चकम् ॥ २१
चत्वारिंशत् तथाष्टौ च चतुभिहींयते क्रमात्।
चतुर्थांशाधिकं दैर्ध्वं पञ्चस्वेतेषु शस्यते ॥ २२
शिल्पिनां कञ्चुकीनां च वेश्यानां गृहपञ्चकम् ।
अष्टाविंशत् कराणां तु विहीनं विस्तरे क्रमात् ॥ २३
अब मैं राज भवन के विषयमें वर्णन कर रहा हूँ। वह उत्तम आदि भेदसे पाँच प्रकारका कहा गया है। एक सौ आठ हाथके विस्तारवाला राजभवन उत्तम माना गया है। अन्य चार प्रकारके भवनोंमें विस्तार क्रमशः आठ-आठ हाथ कम होता जाता है; किंतु पाँचों प्रकारके भवनों में लम्बाई विस्तारके चतुर्थांशसे अधिक होती है। अब मैं युवराजके पाँच प्रकारके भवनोंका वर्णन कर रहा हूँ। उसमें उत्तम भवनकी चौड़ाई अस्सी हाथकी होती है। अन्य चारकी चौड़ाई क्रमशः छः-छः हाथ कम होती जाती है। इन पाँचों भवनोंकी लम्बाई चौड़ाईसे एक तिहाई अधिक कही गयी है। इसी प्रकार अब मैं सेनापतिके पाँच प्रकारके भवनोंका वर्णन कर रहा हूँ। उसके उत्तम भवनकी चौड़ाई चौंसठ हाथकी मानी गयी है।
अन्य चार भवनोंकी चौड़ाई क्रमशः छः-छः हाथ कम होती जाती है। इन पाँचोंकी लम्बाई चौड़ाईके षष्ठांशसे अधिक होनी चाहिये। अब मैं मन्त्रियोंके भी पाँच प्रकारके भवन बतला रहा हूँ। उनमें उत्तम भवनका विस्तार साठ हाथ होता है तथा अन्य चार क्रमशः चार-चार हाथ कम चौड़े होते हैं। इन पाँचोंकी लम्बाई चौड़ाईके अष्टांशसे अधिक कही गयी है। अब मैं सामन्त, छोटे राजा और अमात्य (छोटे मन्त्री) लोगोंके पाँच प्रकारके भवनोंको बतलाता हूँ। इनमें उत्तम भवनकी चौड़ाई अड़तालीस हाथकी होनी चाहिये तथा अन्य चारोंकी चौड़ाई क्रमशः चार-चार हाथ कम कही गयी है। इन पाँचों भवनोंकी लम्बाई चौड़ाईकी अपेक्षा सवाया अधिक कही गयी है। अब शिल्प कार, कंचुकी और वेश्याओंके पाँच प्रकारके भवनोंको सुनिये। इन सभी भवनोंकी चौड़ाई अट्ठाईस हाथ कही गयी है। अन्य चारों भवनोंकी चौड़ाईमें क्रमशः दो-दो हाथको न्यूनता होती है। लम्बाई चौड़ाईसे दुगुनी कही गयी है ॥ १४-२३॥
द्विगुणं दैर्घ्यमेवोक्तं मध्यमेध्वेवमेव तत्।
दूतीकर्मान्तिकादीनां वक्ष्ये भवनपञ्चकम् ॥ २४
चतुर्थांशाधिकं दैर्ध्य विस्तारो द्वादशैव तु।
अर्थार्थकरहानिः स्याद् विस्तारात् पञ्चशः क्रमात् ॥ २५
दैवज्ञगुरुवैद्यानां सभास्तारपुरोधसाम् ।
तेषामपि प्रवक्ष्यामि तथा भवनपञ्चकम् ॥ २६
चत्वारिंशत् तु विस्ताराच्चतुर्भिर्धीयते क्रमात्।
पञ्चस्वेतेषु दैष्यं च षड्भागेनाधिकं भवेत् ॥ २७
चतुर्वर्णस्य वक्ष्यामि सामान्यं गृहपञ्चकम् ।
द्वात्रिंशतः कराणां तु चतुर्भिहींयते क्रमात् ॥ २८
आषोडशादिति परं नूनमन्त्यावसायिनाम् ।
दशांशेनाष्टभागेन त्रिभागेनाथ पादिकम् ॥ २९
अधिकं दैर्घ्यमित्याहुर्ब्रह्मणादेः प्रशस्यते ।
सेनापतेर्नुपस्यापि गृहयोरन्तरेण तु ॥ ३०
नृपवासगृहं कार्यं भाण्डागारं तथैव च।
सेनापतेर्गृहस्यापि चातुर्वर्ण्यस्य चान्तरे।
वासाय च गृहं कार्य राजपूज्येषु सर्वदा ॥ ३१
अन्तरप्रभवाणां च स्वपितुगृहमिष्यते।
तथा हस्तशतादर्थं गदितं वनवासिनाम् ॥ ३२
सेनापतेर्नुपस्यापि सप्तत्या सहितेऽन्विते ।
चतुर्दशहृते व्यासे शालान्यासः प्रकीर्तितः ॥ ३३
पञ्चत्रिंशान्विते तस्मिन्नलिन्दः समुदाहृतः ।
तथा षविंशद्धस्ता तु सप्ताङ्गुलसमन्विता ।। ३४
विप्रस्य महती शाला न दैर्ध्य परतो भवेत् ।
दशाङ्गुलाधिका तद्वत् क्षत्रियस्य विधीयते ॥ ३५
अब मैं दूती-कर्म करनेवालों तथा परिवारके अन्य लोगोंके पाँच प्रकारके भवनोंको बतला रहा हूँ। उनकी चौड़ाई बारह हाथकी तथा लम्बाई उससे सवाया अधिक होती है। शेष चार गृहोंकी चौड़ाई क्रमशः आधा-आधा हाथ न्यून होती है। अब मैं ज्योतिषी, गुरु, वैद्य, सभापति और पुरोहित-इन सभीके पाँच प्रकारके भवनोंका वर्णन कर रहा हूँ। उनके उत्तम भवनकी चौड़ाई चालीस हाथको होती है। शेषकी क्रमसे चार-चार हाथकी कम होती है। इन पाँचों भवनोंकी लम्बाई चौड़ाईके षष्ठांशसे अधिक होती है। अब फिर साधारणतया चारों वर्णोंके लिये पाँच प्रकारके गृहोंका वर्णन करता हूँ। उनमें ब्राह्मणके घरकी चौड़ाई बत्तीस हाथकी होनी चाहिये। अन्य जातियोंके लिये क्रमशः चार-चार हाथकी कमी होनी चाहिये।
(अर्थात् ब्राह्मणके उत्तम गृहकी चौड़ाई बत्तीस हाथ, क्षत्रियके घरकी अट्ठाईस हाथ, वैश्यके घरकी चौबीस हाथ तथा सत्-शूद्रके घरकी बीस हाथ और असत्-शूद्रके घरको सोलह हाथ होनी चाहिये।) किंतु सोलह हाथसे कमकी चौड़ाई अन्त्यजोंके लिये है। ब्राह्मणके घरकी लम्बाई चौड़ाईसे दशांश, क्षत्रियके घरकी अष्टमांश, वैश्यके घरकी तिहाई और शूद्रके घरकी चौथाई भाग अधिक होनी चाहिये। यही विधि श्रेष्ठ मानी गयी है। सेनापति और राजाके गृहोंके बीचमें राजाके रहनेका गृह बनाना चाहिये। उसी स्थानपर भाण्डागार भी रहना चाहिये। सेनापतिके तथा चारों वर्णोंके गृहोंके मध्य भागमें सर्वदा राजाके पूज्य लोगोंके निवासार्थ गृह बनवाना चाहिये। इसके अतिरिक्त विभिन्न जातियोंके लिये एवं वनेचरोंके लिये शयन करनेका घर पचास हाथका बनवाना चाहिये। सेनापति और राजाके गृहके परिमाणमें सत्तरका योग करके चौदहका भाग देनेपर व्यासमें शालाका न्यास कहा गया है। उसमें पैंतीस हाथपर बरामदेका स्थान कहा गया है। छत्तीस हाथ सात अङ्गुल लम्बी ब्राह्मणकी बड़ी शाला होनी चाहिये। उसी प्रकार दस अङ्गुल अधिक क्षत्रियकौ शाला होनी चाहिये ॥ २४-३५ ॥
पञ्चत्रिंशत्करा वैश्ये ह्यङ्गुलानि त्रयोदश।
तावत्करैव शूद्रस्य युता पञ्चदशाङ्गुलैः ॥ ३६
शालायास्तु त्रिभागेन यस्याग्रे वीथिका भवेत्।
सोष्णीषं नाम तद्वास्तु पश्चाच्छ्रेयोच्छ्रयं भवेत् ॥ ३७
पार्श्वयोर्वीथिका यत्र सावष्टम्भं तदुच्यते ।
समन्ताद्वीथिका यत्र सुस्थितं तदिहोच्यते ॥ ३८
शुभदं सर्वमेतत् स्याच्चातुर्वण्यॆ चतुर्विधम् ।
विस्तरात् षोडशो भागस्तथा हस्तचतुष्टयम् ॥ ३९
प्रथमो भूमिकोच्छ्राय उपरिष्टात् प्रहीयते।
द्वादशांशेन सर्वासु भूमिकासु तथोच्छ्यः ॥ ४०
पक्वेष्टका भवेद् भित्तिः षोडशांशेन विस्तरात् ।
दारवैरपि कल्प्या स्यात् तथा मृन्मयभित्तिका ।। ४१
गर्भमानेन मानं तु सर्ववास्तुषु शस्यते।
गृहव्यासस्य पञ्चाशदष्टादशभिरङ्गुलैः ॥ ४२
संयुतो द्वारविष्कम्भो द्विगुणश्चोच्छ्यो भवेत्।
द्वारशाखासु बाहुल्यमुच्छ्रायकरसम्मितैः ॥ ४३
अङ्गुलैः सर्ववास्तूनां शस्यते पृथुत्वं बुधैः ।
उदुम्बरोत्तमाङ्ग च तदर्धार्धप्रविस्तरात् ॥ ४४
वैश्यके लिये पैंतीस हाथ तेरह अङ्गुल लम्बी शाला होनी चाहिये। उतने ही हाथ तथा पंद्रह अङ्गुल शूद्रकी शालाका परिमाण है। शालाकी लम्बाईके तीन भागपर यदि सामनेकी और गली बनी हो तो वह 'सोष्णीष' नामक वास्तु है। पीछेकी और गली हो तो वह' श्रेयोच्छ्य' कहलाता है। यदि दोनों पाश्वौमें वीथिका हो तो वह 'सावष्टम्भ' तथा चारों ओर वीथिका हो तो 'सुस्थित' नामक वास्तु कहा जाता है। ये चारों प्रकारकी वीथियाँ चारों वर्णोंके लिये मङ्गलदायी हैं। शालाके विस्तारका सोलहवाँ भाग तथा चार हाथ-यह पहले खण्डकी ऊँचाईका मान है। अधिक ऊँचा करनेसे हानि होती है। उसके बाद अन्य सभी खण्डोंकी ऊँचाई बारहवें भागके बराबर रखनी चाहिये। यदि पक्की ईटोंकी दीवाल बनायी जा रही हो तो गृहकी चौड़ाईके सोलहवें भागके परिमाणके बराबर मोटाई होनी चाहिये। वह दौवाल लकड़ी तथा मिट्टीसे भी बनायी जा सकती है। सभी वास्तुओं में भीतरके मानके अनुसार लम्बाई-चौड़ाईका मान श्रेष्ठ माना गया है। गृहके व्याससे पचास अङ्गुल विस्तार तथा अठारह अङ्गुल वेधसे युक्त द्वारकी चौड़ाई रखनी चाहिये और उसकी ऊँचाई चौड़ाईसे दुगुनी होनी चाहिये। जितनी ऊँचाई द्वारकी हो उतनी ही दरवाजेमें लगी हुई शाखाओंकी भी होनी चाहिये। ऊँचाई जितने हाथोंकी हो उतने ही अङ्गुल उन शाखाओंकी मोटाई होनी चाहिये-यही सभी वास्तुविद्याके ज्ञाताओंने बताया है। द्वारके ऊपरका कलश (बुर्ज) तथा नीचेकी देहली (चौखट)- ये दोनों शाखाओंसे आधे अधिक मोटे हों, अर्थात् इन्हें शाखाओंसे ड्योढ़ा मोटा रखना चाहिये ॥ ३६-४४ ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे वास्तुविद्यासु गृहमाननिर्णयो नाम चतुः पञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २५४॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें वास्तुप्रकरणमें गृह-मान-निर्णय नामक दो सौ चौवनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २५४॥
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