वीरक द्वारा पार्वती की स्तुति, पार्वती और शंकरका पुनः समागम, अग्नि को शाप, कृत्तिकाओं की प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति | virak dvara parvati ki stuti, parvati aura shankaraka punah samagam, agni ko shap, kruttikaom ki pratignya aura skandaki utpatti

मत्स्य पुराण एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय 

वीरक द्वारा पार्वती की स्तुति, पार्वती और शंकर का पुनः समागम, अग्नि को शाप,कृत्ति का ओं की प्रतिज्ञा और स्कन्दकी उत्पत्ति

बौरक उवाच

एवमुक्त्वा गिरिसुता माता मे स्नेहवत्सला। 
प्रवेशं लभते नान्या नारी कमललोचने ॥ १

इत्युक्ता तु तदा देवी चिन्तयामास चेतसा । 
न सा नारीति दैत्योऽसौ वायुर्मे यामभाषत ॥ २

वृथैव वीरकः शप्तो मया क्रोधपरीतया। 
अकार्य क्रियते मूढैः प्रायः क्रोधसमीरितैः ॥ ३

क्रोधेन नश्यते कीर्तिः क्रोधो हन्ति स्थिरां श्रियम्। 
अपरिच्छिन्नतत्त्वार्था पुत्रं शापितवत्यहम्। 
विपरीतार्थबुद्धीनां सुलभो विपदोदयः ॥ ४

संचिन्त्यैवमुवाचेदं वीरकं प्रति शैलजा। 
लज्जासज्जविकारेण वदनेनाम्बुजत्विषा ॥ ५

वीरकने कहा-कमललोचने। मेरी स्नेहवत्सला माता पार्वतीने भी मुझे ऐसा ही आदेश दिया है, अतः कोई भी परायी स्त्री भवनके भीतर प्रवेश नहीं कर सकती। वीरकद्वारा ऐसा कही जानेपर पार्वतीदेवी मनमें विचार करने लगीं कि वायुने मुझे जिस स्त्रीके विषयमें सूचना दी थी, वह स्त्री नहीं थी, प्रत्युत वह कोई दैत्य था। क्रोधके वशीभूत हो मैंने व्यर्थ ही वीरकको शाप दे दिया। क्रोधसे प्रेरित हुए मूर्खलोग प्रायः इसी प्रकार अकार्य कर बैठते हैं। क्रोध करनेसे कीर्ति नष्ट हो जाती है और क्रोध सुस्थिर लक्ष्मीका भी विनाश कर देता है। इसी कारण तत्त्वार्थको निश्चितरूपसे न जानकर मैंने अपने पुत्रको ही शाप दे दिया। जिनकी बुद्धि विपरीत अर्थको ग्रहण करती है, उन्हें विपत्तियाँ मिलती हैं। ऐसा विचारकर पार्वती कमल-सी कान्तिवाले मुखसे लज्जाका नाट्य करती हुई वीरकसे इस प्रकार कहने लगों ॥१-५॥

देव्युवाच

अहं वीरक ते माता मा तेऽस्तु मनसो भ्रमः । 
शङ्करस्यास्मि दयिता सुता तुहिनभूभृतः ॥ ६

मम गात्रच्छविभ्रान्त्या मा शङ्कां पुत्र भावय।
तुष्टेन गौरता दत्ता ममेयं पदाजन्मना ॥ ७

मया शप्तोऽस्यविदिते वृत्तान्ते दैत्यनिर्मिते। 
ज्ञात्वा नारीप्रवेशं तु शङ्करे रहसि स्थिते ॥ ८

न निवर्तयितुं शक्यः शापः किंतु ब्रवीमि ते। 
शीघ्रमेष्यसि मानुष्यात्स त्वं कामसमन्वितः ॥ ९ 

देवी बोलीं-वीरक! तुम अपने मनमें मेरे प्रति संदेह मत करो। मैं ही हिमाचलकी पुत्री, शंकरजीकी प्रियतमा पत्नी और तुम्हारी माता हूँ। बेटा! मेरे शरीरको अभिनव शोभाके भ्रमसे तुम शङ्का मत करो। यह गौर कान्ति मुझे ब्रह्माने प्रसन्न होकर प्रदान की है। मुझे यह दैत्यद्वारा निर्मित वृत्तान्त ज्ञात नहीं था, अतः शंकरजीके एकान्तमें स्थित रहनेपर किसी अन्य नारीका प्रवेश (तुम्हारी असावधानीसे) जानकर मैंने तुम्हें शाप दे दिया है। वह शाप तो अब टाला नहीं जा सकता, किंतु उससे उद्धारका उपाय तुम्हें बतला रही हूँ। तुम मनुष्य-योनिमें जन्म लेकर वहाँ अपना मनोरथ पूरा करके शीघ्र ही मेरे पास वापस आ जाओगे ॥ ६-९ ॥

सूत उवाच

शिरसा तु ततो वन्य मातरं पूर्णमानसः । 
उवाचोदितपूर्णेन्दुद्युतिं च हिमशैलजाम् ॥ १०

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। तदनन्तर वीरक प्रसत्र मनसे उदय हुए पूर्णिमाके चन्द्रमा की-सी कान्तिवाली माता पार्वती को सिर झुकाकर प्रणाम करनेके पश्चात् बोला ॥ १० ॥

वीरक उवाच

नतसुरासुरमौलिमिलन्मणि-प्रचयकान्तिकरालनखाङ्किते।
नगसुते शरणागतवत्सले तव नतोऽस्मि नतार्तिविनाशिनि । ११

तपनमण्डलमण्डितकन्धरे पृथुसुवर्णसुवर्णनगद्युते ।
विषभुजङ्गनिषङ्गविभूषिते गिरिसुते भवतीमहमाश्रये ॥ १२

जगति कः प्रणताभिमतं ददौ झटिति सिद्धनुते भवती यथा।
जगति कां च न वाञ्छति शङ्करो भुवनधृत्तनये भवतीं यथा ॥ १३

विमलयोगविनिर्मितदुर्जय-स्वतनुतुल्यमहेश्वरमण्डले। 
विदलितान्धकबान्धवसंहतिः सुरवरैः प्रथमं त्वमभिष्ठता ।। १४

सितसटापटलोद्धतकन्धरा-भरमहामृगराजरथस्थिता ।
विकलशक्तिमुखानलपिङ्गलायत भुजौध विपिष्टमहासुरा ॥ १५

वीरकने कहा- गिरिराजकुमारी। आपके चरण-नख प्रणत हुए सुरों और असुरोंके मुकुटोंमें लगी हुई मणिसमूहोंकी उत्कट कान्तिसे सुशोभित होते रहते हैं। आप शरणागतवत्सला तथा प्रणतजनोंका कष्ट दूर करनेवाली हैं। मैं आपके चरणोंमें नमस्कार कर रहा हूँ। गिरिनन्दिनि । आपके कन्धे सूर्य-मण्डलके समान चमकते हुए सुशोभित हो रहे हैं। आपकी शरीरकान्ति प्रचुर सुवर्णसे परिपूर्ण सुमेरु गिरिकी तरह है। आप विषैले सर्परूपी तरकससे विभूषित हैं, मैं आपका आश्रय ग्रहण करता हूँ। सिद्धोंद्वारा नमस्कार की जानेवाली देवि! आपके समान जगत्में प्रणतजनोंक अभीष्टको तुरंत प्रदान करनेवाला दूसरा कौन है? गिरिजे ! इस जगत्में भगवान् शंकर आपके समान किसी अन्य श्रीकी इच्छा नहीं करते। आपने महेश्वर-मण्डलको निर्मल योगबलसे निर्मित अपने शरीरके तुल्य दुर्जय बना दिया है। आप मारे गये अन्धकासुरके भाई बन्धुओंका संहार करनेवाली हैं। सुरेश्वरोंने सर्वप्रथम आपकी स्तुति की है। आप श्वेत वर्णकी जटा (केश) समूहसे आच्छादित कंधेवाले विशालकाय सिंहरूपी रथपर आरूढ़ होती हैं। आपने चमकती हुई शक्तिके मुखसे निकलनेवाली अग्निकी कान्तिसे पीला पड़नेवाली लम्बी भुजाओंसे प्रधान-प्रधान असुरोंको पीसकर चूर्ण कर दिया है॥ ११-१५ ॥

निगदिता भुवनैरिति चण्डिका जननि शुम्भनिशुम्भनिषूदनी।
प्रणतचिन्तितदानवदानव-प्रमथनैकरतिस्तरसा भुवि ॥ १६

वियति वायुपथे ज्वलनोज्वले-ऽवनितले तव देवि च यद्वपुः।
तदजितेऽप्रतिमे प्रणमाम्यहं भुवनभाविनि ते भववल्लभे ॥ १७

जलधयो ललितोद्धतवीचयो हुतवहद्युतयश्च चराचरम् ।
फणसहस्त्रभृतश्च भुजङ्गमा-स्त्वभिधास्यति मय्यभयंकराः ॥ १८

भगवति स्थिरभक्तजनाश्रये प्रतिगतो भवतीचरणाश्रयम्।
करणजातमिहास्तु ममाचलं नुतिलवाप्तिफलाशयहेतुतः ॥ १९

प्रशममेहि ममात्मजवत्सले तव नमोऽस्तु जगत् त्रयसंश्रये।
त्वयि ममास्तु मतिः सततं शिवे शरणगोऽस्मि नतोऽस्मि नमोऽस्तु ते ॥ २०

जननि । त्रिभुवनके प्राणी आपको शुम्भ-निशुम्भका संहार करनेवाली चण्डिका कहते हैं। एकमात्र आप इस भूतलपर विनम्र जनोंद्वारा चिन्तना किये गये प्रधान-प्रधान दानवोंका वेगपूर्वक मर्दन करनेमें उत्साह रखनेवाली हैं। देवि ! आप अजेय, अनुपम, त्रिभुवन-सुन्दरी और शिवजीकी प्राणप्रिया हैं, आपका जो शरीर आकाशमें, वायुके मार्गमें, अग्निकी भीषण ज्वालाओंमें तथा पृथ्वीतलपर भासमान है, उसे मैं प्रणाम करता हूँ। रुचिर एवं भीषण लहरोंसे युक्त महासागर, अग्निकी लपटें, चराचर जगत् तथा हजारों फण धारण करनेवाले बड़े-बड़े नाग ये सभी आपका नाम लेनेवाले मेरे लिये भयंकर नहीं दीख पड़ते। अनन्य भक्तजनोंकी आश्रयभूता भगवति! मैं आपके चरणोंकी शरणमें आ पड़ा हूँ। आपके चरणोंमें प्रणत होनेसे प्राप्त हुए थोड़े से फलके कारण मेरा इन्द्रियसमुदाय आपके चरणोंमें अटल स्थान प्राप्त करे। पुत्रवत्सले! मेरे लिये पूर्णरूपसे शान्त हो जाइये। त्रिलोकीको आश्रयभूता देवि! आपको नमस्कार है। शिवे। मेरी बुद्धि निरन्तर आपके चिन्तनमें ही लगी रहे। मैं आपके शरणागत हूँ और चरणोंमें पड़ा हूँ। आपको नमस्कार है॥ १६-२०॥ 

सूत उवाच

प्रसन्ना तु ततो देवी वीरकस्येति संस्तुता। 
प्रविवेश शुभं भर्तुर्भवनं भूधरात्मजा ॥ २१

द्वारस्थो वीरको देवान् हरदर्शनकाङ्क्षिणः ।
व्यसर्जयत् स्वकान्येव गृहाण्यादरपूर्वकम् ॥ २२

नास्त्यत्रावसरो देवा देव्या सह वृषाकपिः।
निधृतः क्रीडतीत्युक्ता ययुस्ते च यथागतम् ॥ २३

गते वर्षसहस्त्रे तु देवास्त्वरितमानसाः ।
ज्वलनं चोदयामासुर्जातुं शङ्करचेष्टितम् ॥ २४

प्रविश्य जालरन्ध्रण शुकरूपी हुताशनः ।
ददृशे शयने शर्व रतं गिरिजया सह ॥ २५ 

ददृशे तं च देवेशो हुताशं शुकरूपिणम्।
तमुवाच महादेवः किञ्चित्कोपसमन्वितः ॥ २६

शर्व उवाच

यस्मात्तु त्वत्कृतो विघ्नस्तस्मात्त्वव्युपपद्यते । 
इत्युक्तः प्राञ्जलिर्वह्निरपिबद् वीर्यमाहितम् ॥ २७

तेनापूर्यत तान् देवांस्तत्तत्कायविभेदतः । 
विपाट्य जठरं तेषां वीर्यं माहेश्वरं ततः ॥ २८

निष्क्रान्तं तप्तहेमाभं वितते शङ्कराश्रमे।
तस्मिन् सरो महज्जातं विमलं बहुयोजनम् ॥ २९

प्रोत्फुल्लहेमकमलं नानाविहगनादितम् ।
तच्छ्रुत्वा तु ततो देवी हेमद्रुममहाजलम् ॥ ३०

जगाम कौतुकाविष्टा तत्सरः कनकाम्बुजम् । 
तत्र कृत्वा जलक्रीडां तदब्जकृतशेखरा ।। ३१

उपविष्टा ततस्तस्य तीरे देवी सखीयुता।
पातुकामा च तत्तोयं स्वादु निर्मलपङ्कजम् ॥ ३२

अपश्यत् कृत्तिकाः स्नाताः षडर्कद्युतिसन्निभाः ।
पद्मपत्रे तु तद्वारि गृहीत्वोपस्थिता गृहम् ॥ ३३

हर्षादुवाच पश्यामि पद्मपत्रे स्थितं पयः ।
ततस्ता ऊचुरखिलं कृत्तिका हिमशैलजाम् ॥ ३४

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। वीरकके इस प्रकार संस्तवन करनेपर पार्वतीदेवी प्रसन्न हो गयीं, तब वे अपने पति शिवजीके सुन्दर भवनमें प्रविष्ट हुई। इधर द्वारपाल वीरकने शिवजीके दर्शनकी अभिलाषासे आये हुए देवोंको आदरपूर्वक ऐसा कहकर अपने-अपने घरोंको लौटा दिया कि 'देवगण । इस समय मिलनेका अवसर नहीं है; क्योंकि भगवान् शंकर एकान्तमें पार्वतीदेवीके साथ क्रीडा कर रहे हैं।' ऐसा कहे जानेपर वे जैसे आये थे, वैसे ही लौट गये। इस प्रकार एक हजार वर्ष व्यतीत हो जानेपर देवताओंके मनमें उतावली उत्पन्न हो गयी, तब उन्होंने शंकरजीकी चेष्टाका पता लगानेके लिये अग्निको भेजा। वहाँ जाकर अग्निदेवने शुकका रूप धारण किया और गवाक्षमार्गसे भीतर प्रवेश करके देखा कि शंकरजी गिरिजाके साथ शय्यापर विराजमान है। उधर देवेश्वर शंकरजीकी दृष्टि शुकरूपी अग्निपर पड़ गयी, तब महादेव कुछ क्क्रुद्ध से होकर अग्निसे बोले।  शिवजीने कहा- अग्ने । चूँकि तुमने ही यह विघ्न उपस्थित किया है, इसलिये इसका फल भी तुम्हें भोगना पड़ेगा। 

ऐसा कहे जानेपर अग्नि हाथ जोड़कर शंकरजीद्वारा आधान किये गये वीर्यको पी गये और उसे सभी देवताओंके शरीरमें विभक्त करके उन्हें पूर्ण कर दिया। तदनन्तर शंकरजीका वह तपाये हुए स्वर्णके समान कान्तिमान् वीर्य देवताओंका उदर फाड़कर बाहर निकल आया और शंकरजीके उस विस्तृत आश्रममें अनेकों योजनोंमें विस्तृत एवं निर्मल जलसे पूर्ण महान् सरोवरके रूपमें परिणत हो गया। उसमें स्वर्णकी-सी कान्तिवाले कमल खिले हुए थे और नाना प्रकारके पक्षी चहचहा रहे थे। तत्पश्चात् स्वर्णमय वृक्ष एवं अगाध जलसे सम्पन्न उस सरोवरके विषयमें सुनकर कुतूहलसे भरी हुई पार्वतीदेवी उस स्वर्णमय कमलसे भरे हुए सरोवरके तटपर गयीं और उसके कमलको सिरपर धारण करके जलक्रीडा करने लगीं। तत्पश्चात् पार्वतीदेवी सखीके साथ उस सरोवरके तटपर बैठ गयीं और उस सरोवरके कमलकी गन्धसे सुवासित स्वच्छ स्वादिष्ट जलको पीनेकी इच्छा करने लगीं । इतने में ही उनकी दृष्टि उस सरोवरमें स्नान कर निकली हुई छहों कृत्तिकाओंपर पड़ी जो सूर्यकी कान्तिके समान उद्भासित हो रही थीं तथा कमलके पत्तेके दोनेमें उस सरोवरके जलको लेकर घरकी ओर जानेके लिये उद्यत थीं। तब पार्वतीने उनसे हर्षपूर्वक कहा- 'मैं कमलके पत्तेमें रखे हुए जलको देख रही हूँ।' यह सुनकर उन कृत्तिकाओंने पार्वतीसे सारा वृत्तान्त कह सुनाया ॥ २७-३४॥

कृतिका ऊचुः

दास्यामो यदि ते गर्भः सम्भूतो यो भविष्यति। 
सोऽस्माकमपि पुत्रः स्यादस्मन्नाम्ना च वर्तताम्।
भवेल्लोकेषु विख्यातः सर्वेष्वपि शुभानने ॥ ३५

इत्युक्तोवाच गिरिजा कथं मद्रात्रसम्भवः ।
]सर्वैरवयवैर्युक्तो भवतीभ्यः सुतो भवेत् ॥ ३६

ततस्तां कृत्तिका ऊचुर्विधास्यामोऽस्य वै वयम् । 
उत्तमान्युत्तमाङ्गानि यद्येवं तु भविष्यति ॥ ३७

उक्ता वै शैलजा प्राह भवत्वेवमनिन्दिताः । 
ततस्ता हर्षसम्पूर्णाः पद्मपत्रस्थितं पयः ॥ ३८

तस्यै ददुस्तया चापि तत्पीतं क्रमशो जलम् । 
पीते तु सलिले तस्मिस्ततस्तस्मिन् सरोवरे ॥ ३९ 

विपाट्य देव्याश्च ततो दक्षिणां कुक्षिमुद्रगतः । 
निश्चक्रामाद्भुतो बालः सर्वलोकविभासकः ॥ ४०

प्रभाकरप्रभाकारः प्रकाशकनकप्रभः । 
गृहीतनिर्मलोदग्रशक्तिशूलः षडाननः ॥ ४१

दीप्तो मारयितुं दैत्यान् कुत्सितान् कनकच्छविः । 
एतस्मात् कारणाद् देवः कुमारश्चापि सोऽभवत् ॥ ४२

कृत्तिकाओंने कहा- शुभानने। यह जल हमलोग आपको दे देंगी, किंतु यदि आप यह प्रतिज्ञा करें कि इस जलके पान करनेसे जो गर्भ स्थित होगा, उससे उत्पन्न हुआ बालक हमलोगोंका भी पुत्र कहलाये और हमलोगोंके नामपर उसका नामकरण किया जाय। वह बालक सभी लोकोंमें विख्यात होगा। इस प्रकार कही जानेपर पार्वतीने कहा-'भला जो मेरे समान सभी अङ्गॉसे युक्त होकर मेरे शरीरसे उत्पन्न होगा, वह आप लोगोंका पुत्र कैसे हो सकेगा?' तब कृत्तिकाओंने पार्वतीसे कहा- 'यदि हमलोग इस बालकके उत्तम मस्तकोंकी रचना करेंगी तो यह वैसा हो सकता है।' उनके ऐसा कहनेपर पार्वतीने कहा-' अनिन्द्य सुन्दरियो ! ऐसा ही हो।' तब हर्षसे भरी हुई कृत्तिकाओंने कमलके पत्तेमें रखे हुए उस जलको पार्वतीको समर्पित कर दिया और पार्वतीने भी उस सारे जलको क्रमशः पी लिया। उस जलके पी लेनेपर उसी सरोवरके तटपर पार्वतीदेवीकी दाहिनी कोखको फाड़कर एक अद्भुत बालक निकल पड़ा जो समस्त लोकोंको उ‌द्भासित कर रहा था। उसकी शरीरकान्ति सूर्यके समान थी। वह स्वर्ण-सदृश प्रकाशमान तथा हाथोंमें निर्मल एवं भयावनी शक्ति और शूल धारण किये हुए था। उसके छः मुख थे। वह सुवर्णकी-सी छविसे युक्त हो उद्दीप्त हो रहा था और पापाचारी दैत्योंको मारनेके लिये उद्यत-सा दीख रहा था। इसी कारण वे देव 'कुमार' नामसे भी प्रसिद्ध हुए ॥ ३५-४२॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे तारकोपाख्याने कुमारसम्भवो नामाष्टपञ्चाशदधिकशततमोध्यायः ॥ १५८ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके तारकोपाख्यानमें कुमारसम्भव नामक एक सौ अट्ठावनवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १५८ ॥

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