विषयुक्त पदार्थोंके लक्षण एवं उससे राजा के बचने के उपाय | vishayukt padaarthon ke lakshan evan usase raaja ke bachane ke upaay

मत्स्य पुराण दो सौ उन्नीसवाँ अध्याय

विषयुक्त पदार्थों के लक्षण एवं उससे राजा के बचने के उपाय 

मनुरुवाच

राजरक्षारहस्यानि यानि दुर्गे निधापयेत् ।
कारयेद् वा महीभर्ता ब्रूहि तत्त्वानि तानि मे ॥ १

मनुने पूछा- भगवन् । राजाको राज्य की रक्षा के लिये जिन रहस्यपूर्ण साधनोंको दुर्ग में संगृहीत या प्रस्तुत करना चाहिये, उन तत्त्वोंका मुझसे वर्णन कीजिये ॥ १ ॥

मत्स्य उवाच

शिरीषोदुम्बरशमीबीजपूरं घृतप्लुतम् ।
क्षुद्योगः कथितो राजन् मासार्थस्य पुरातनैः ।। २

कशेरुफलमूलानि इक्षुमूलं तथा विषम् । 
दूर्वाक्षीरघृतैर्मण्डः सिद्धोऽयं मासिकः परः ॥ ३ 

नरं शस्त्रहतं प्राप्तो न तस्य मरणं भवेत् । 
कल्माषवेणुना तत्र जनयेत्तु विभावसुम् ॥ ४ 

गृहे त्रिरपसव्यं तु क्रियते यत्र पार्थिव। 
नान्योऽग्निञ्जलते तत्र नात्र कार्या विचारणा ॥ ५ 

कार्पासास्थ्ना भुजङ्गस्य तेन निर्मोचनं भवेत्। 
सर्पनिर्वासने धूपः प्रशस्तः सततं गृहे ॥ ६ 

सामुद्रसैन्धवयवा विद्युद्दग्धा च मृत्तिका। 
तयानुलिप्तं यद्वेश्म नाग्निना दह्यते नृप ॥ ७

दिवा च दुर्गे रक्ष्योऽग्निर्वाति वाते विशेषतः। 
विषाच्च रक्क्ष्यो नृपतिस्तत्र युक्तिं निबोध मे ॥ ८

क्रीडानिमित्तं नृपतिर्धारयेन्मृगपक्षिणः ।
अन्तं वै प्राक् परीक्षेत वह्नौ चान्यतरेषु च ॥ ९

वस्त्रं पुष्पमलङ्कारं भोजनाच्छादनं तथा।
नापरीक्षितपूर्व तु स्पृशेदपि महीपतिः ॥ १०

स्याच्चासौ वक्त्रसंतप्तः सोद्वेगं च निरीक्षते ।
विषदोऽथ विषं दत्तं यच्च तत्र परीक्षते ॥ ११ 

स्त्रस्तोत्तरीयो विमनाः स्तम्भकुड्यादिभिस्तथा ।
प्रच्छादयति चात्मानं लज्जते त्वरते तथा ॥ १२

भुवं विलिखति ग्रीवां तथा चालयते नृप। 
कण्डूयति च मूर्धानं परिलोड्याननं तथा ॥ १३

क्रियासु त्वरितो राजन् विपरीतास्वपि ध्रुवम् ।
एवमादीनि चिह्नानि विषदस्य परीक्षयेत् ॥ १४ 

समीपैर्विक्षिपेद् वह्नौ तदन्नं त्वरयान्वितः । 
इन्द्रायुधसवर्णं तु रूक्षं स्फोटसमन्वितम् ॥ १५ 

एकावर्त तु दुर्गन्धि भृशं चटचटायते। 
तद्धूमसेवनाज्जन्तोः शिरोरोगश्च जायते ॥ १६

मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् । शिरीष, गूलर, शमी और बिजौरा नीबू-इनको घृतमें परिप्लुतकर पंद्रह दिनों बाद सेवन करे, प्राचीन लोग इसे 'क्षुद्योग' कहते हैं। कशेरुके मूल भाग तथा फल, ईखके मूल भाग और विषको दूब, दूध और घीके साथ सिद्ध करनेसे बना हुआ पदार्थ मण्ड कहलाता है। एक मास बाद इसका सेवन करना चाहिये। इनके सेवनसे हथियारोंसे घायल हुआ मनुष्य मर नहीं सकता। वहाँ चितकबरे रंगवाले बाँसके टुकड़ेसे अग्नि उत्पन्न करे। राजन् ! उस अग्निको जिस घरमें अपसव्य होकर तीन बार प्रदक्षिणा करे, वहाँ कोई अन्य अग्नि नहीं जल सकती- इसमें अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है। कपासके साथ सर्पकी हड्डी जलानेसे घरमेंसे सर्पोंका निष्कासन होता है। घरमें निरन्तर इस वस्तुकी धूप करना साँपको निकालनेके लिये विशेष प्रसिद्ध है। राजन् ! सामुद्री नमक, सेन्धा नमक और यवा-ये तीन प्रकारके लवण तथा विद्युत्से जली हुई मिट्टी-इन वस्तुओंसे जिस भवनकी लिपाई होती है, उसे अग्नि नहीं जला सकती। 

दुर्ग में दिनके समय विशेषकर जब वायुका प्रकोप हो, अग्निकी रक्षा करनी चाहिये। विषसे राजाकी रक्षा करनी चाहिये। उस विषयमें मैं युक्ति बतलाता हूँ, सुनिये। राजाको चाहिये कि दुर्गमें क्रीड़ाके लिये कुछ पशु तथा पक्षियोंको रखे। सर्वप्रथम उसे अग्निमें डालकर अथवा अन्य किन्हीं उपायोंसे अन्नकी परीक्षा कर लेनी चाहिये। वस्त्र, पुष्प, आभरण, भोजन तथा आच्छादन (वस्त्र) को राजा पहले परीक्षा किये बिना स्पर्श भी न करे। विष देनेवाले मनुष्यने यदि विष दे दिया है तो उसकी परीक्षाके ये निम्नकथित लक्षण होते है- वह मलिनमुख, उद्वेग पूर्वक देखने वाला, खिसकती हुई चादरवाला, उदास, खम्भे और भीतकी आड़में अपनेको छिपानेकी चेष्टा करने वाला, लज्जित तथा शीघ्रता करनेवाला होता है। राजन्। वह पृथ्वीपर रेखा खींचने लगता है, गर्दन हिलाने लगता है तथा मुखको मलकर सिर खुजलाने लगता है। राजन्। निश्चय ही वह विपरीत कार्योंमें भी शीघ्रता करनेकी चेष्टा करता है। विषदाताके ऐसे ही लक्षण होते हैं। राजाको उसकी परीक्षा कर लेनी चाहिये। उसके द्वारा दिये गये अन्नको शीघ्रतापूर्वक समीपस्थ अग्निमें डाल देना चाहिये। विषैला अन्न अग्निमें पड़ते ही इन्द्रधनुष-जैसे रंगवाला हो जाता है तथा तुरंत ही सूख जाता है। उसमें स्फोट होने लगता है। वह एक ही ओरसे निकलता है, दुर्गन्धयुक्त होता है और अत्यन्त चटचटाने लगता है। उसके धुँएका सेवन करनेसे जीवके सिरमें रोग उत्पन्न हो जाता है॥ २-१६ ॥

सविषेऽन्ने निलीयन्ते न च पार्थिव मक्षिकाः ।
निलीनाश्च विपद्यन्ते संस्पृष्टे सविषे तथा ॥ १७

विरज्यति चकोरस्य दृष्टिः पार्थिवसत्तम।
विकृतिं च स्वरो याति कोकिलस्य तथा नृप ॥ १८

गतिः स्खलति हंसस्य भृङ्गराजश्च कूजति।
क्रौञ्च्चो मदमथाभ्येति कृकवाकुर्विरौति च ॥ १९

विक्रोशति शुको राजन् सारिका वमते ततः ।
चामीकरोऽन्यतो याति मृत्युं कारण्डवस्तथा ॥ २०

मेहते वानरो राजन् ग्लायते जीवजीवकः।
हृष्टरोमा भवेद् बभ्रुः पृषतश्चैव रोदिति ॥ २१

हर्षमायाति च शिखी विषसंदर्शनान्नृप।
अन्नं च सविषं राजंश्चिरेण च विपद्यते ॥ २२

तदा भवति निःश्रव्यं पक्षपर्युषितोपमम् ।
व्यापन्नरसगन्धं च चन्द्रिकाभिस्तथा युतम् ॥ २३

व्यञ्जनानां तु शुष्कत्वं द्रवाणां बुद्बुदोद्भवः । 
ससैन्धवानां द्रव्याणां जायते फेनमालिता ॥ २४

शस्यराजिश्च ताम्रा स्यान्नीला च पयसस्तथा । 
कोकिलाभा च मद्यस्य तोयस्य च नृपोत्तम । २५ 

धान्याम्लस्य तथा कृष्णा कपिला कोद्रवस्य च। 
मधुश्यामा च तक्रस्य नीला पीता तथैव च ॥ २६ 

राजन् । विषयुक्त अन्नके ऊपर मक्खियाँ नहीं बैठीं, यदि बैठ गयीं तो विषसंयुक्त अन्नका स्पर्श होने के कारण तुरंत ही मर जाती हैं। पार्थिवश्रेष्ठ। विषयुक्त अन्नको देखते ही चकोरकी दृष्टि विरक्त हो जाती है अर्थात् वह अपनी आँखें फेर लेता है, कोकिलका स्वर विकृत हो जाता है, हंसकी गति लड़खड़ाने लगती है,भौरे जोरसे गूंजने लगते हैं, क्रौंच (कुरर) मदमत्त हो जाता है और मुर्गा जोर-जोरसे बोलने लगता है। राजन् ! शुक चें-चें करने लगता है, सारिका वमन करने लगती है, चामीकर भाग खड़ा होता है और कारण्डव मर जाता है। राजन् ! वानर मूत्र त्याग करने लगता है, जीवजीवक ग्लानियुक्त हो जाता है, नेवलेके रोएँ खड़े हो जाते हैं, पृषत् मृग रोने लगता है। राजन् । विषको देखते ही मयूर हर्षित हो जाता है; क्योंकि वह चिरकालसे विषयुक्त अन्नका भोजन करनेवाला है। राजन् ! वह विषयुक्त अन्न कहने योग्य नहीं रह जाता, पंद्रह दिनके बासी अन्नकी तरह दीख पड़ता है। उसका रस तथा गन्ध नष्ट हो जाती है तथा ऊपरसे वह चन्द्रिकाओंसे युक्त रहता है। नृपोत्तम । विषके मिलनेसे बना हुआ व्यञ्जन सूख जाता है, द्रव वस्तु ओं में बुल्ले उठने लगते हैं, लवणसहित पदार्थों में फेन उठने लगते हैं। अत्रोंसे बना हुआ विषैला भोजन ताम्रवर्ण का, दूधवाला नीले रंगका, मदिरा तथा जलयुक्त कोकिलके समान काला, अम्ल अन्नवाला काला, कोदोका कपिल तथा मट्ठायुक्त भोजन मधुके समान श्यामल, नीला और पीला हो जाता है॥ १७-२६ ॥

घृतस्योदकसंकाशा कपोताभा च मस्तुनः ।
हरिता माक्षिकस्यापि तैलस्य च तथारुणा ॥ २७

फलानामप्यपक्वानां पाकः क्षिप्रं प्रजायते । 
प्रकोपश्चैव पक्वानां माल्यानां म्लानता तथा ॥ २८

मृदुता कठिनानां स्यान्मृदूनां च विपर्ययः । 
सूक्ष्माणां रूपदलनं तथा चैवातिरङ्गता ॥ २९

श्याममण्डलता चैव वस्त्राणां वै तथैव च। 
लौहानां च मणीनां च मलपङ्कोपदिग्धता ॥ ३०

अनुलेपनगन्धानां माल्यानां च नृपोत्तम। 
विगन्धता च विज्ञेया वर्णानां म्लानता तथा। 
पीतावभासता ज्ञेया तथा राजन् जलस्य तु ॥ ३१

दन्ता ओष्ठौ त्वचः श्यामास्तनुसत्त्वास्तथैव च । 
एवमादीनि चिह्नानि विज्ञेयानि नृपोत्तम ।। ३२

तस्माद् राजा सदा तिष्ठेन् मणिमन्त्रौषधागदैः । 
उक्तैः संरक्षितो राजा प्रमादपरिवर्जकः ॥ ३३

प्रजातरोर्मूलमिहावनीश-स्तद्रक्षणाद् राष्ट्रमुपैति वृद्धिम् ।
तस्मात् प्रयत्नेन नृपस्य रक्षा सर्वेण कार्या रविवंशचन्द्र ॥ ३४

विष युक्तघृत का वर्ण जल की भौति, विषमिश्रित छाछका कबूतरकी तरह, मधुयुक्तका हरा और तेलमिश्रित विषका लाल रंग हो जाता है। विषके संसर्गसे न पके हुए फल शीघ्र ही पक जाते हैं और पका हुआ फल विकृत हो जाता है। पुष्प-मालाएँ मलिन हो जाती है। कठोर वस्तु कोमल तथा कोमल वस्तु कठोर हो जाती है। सूक्ष्म वस्तुओंका रूप नष्ट हो जाता है और रंग बदल जाता है। वस्त्रोंमें विशेषकर काले धब्बे पड़ जाते हैं। लोहे और मणियोंपर मैल जम जाती है। नृपश्रेष्ठ! शरीरमें लेपन किये जानेवाले द्रव्यों एवं उपयोगमें आनेवाली पुष्प-मालाओंमें दुर्गन्धि तथा रंगकी मलिनता समझनी चाहिये। राजन् ! उसी प्रकार जलमें भी पीलेपनका आभास आने लगता है। नृपोत्तम! विषके सेवनसे दाँत, होंठ और चमड़े श्यामल वर्णके हो जाते हैं और शरीरमें क्षीणताका अनुभव होने लगता है- इस प्रकार ये लक्षण जानने चाहिये। इसलिये राजाको सर्वदा मणि, मन्त्र और उपर्युक्त ओषधियोंसे सुरक्षित तथा सावधान रहना चाहिये। सूर्यवंशके चन्द्र ! इस पृथ्वीपर प्रजारूपी वृक्षकी जड़ राजा है, अतः उसीकी रक्षासे राष्ट्रकी वृद्धि होती है। इसलिये सभी को प्रयत्न पूर्वक राजाकी रक्षा करनी चाहिये ॥ २७-३४॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे राजधर्मे राजरक्षा नामैकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९९ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके राजधर्म-प्रकरणमें राजरक्षा नामक दो सौ उन्नीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २१९॥ 

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