मत्स्य पुराण दो सौ साठवाँ अध्याय
विविध देवताओं की प्रतिमाओं का वर्णन
सूत उवाच
अधुना सम्प्रवक्ष्यामि अर्धनारीश्वरं परम्।
अर्धेन देवदेवस्य नारीरूपं सुशोभनम् ॥ १
ईशार्थे तु जटाभागो बालेन्दुकलया युतः ।
उमार्धे चापि दातव्यौ सीमन्ततिलकावुभौ ॥ २
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। अब मैं भगवान् शिवके अर्धनारीश्वर रूपका वर्णन कर रहा हूँ। इसमें देवाधिदेव शंकरको बायीं ओर आधे भागमें अत्यन्त सुन्दर स्त्रीका रूप होता है २
वासुकिं दक्षिणे कर्णे वामे कुण्डलमादिशेत् ।
बालिका चोपरिष्टात् तु कपालं दक्षिणे करे।
त्रिशूलं वापि कर्तव्यं देवदेवस्य शूलिनः ॥ ३
वामतो दर्पणं दद्यादुत्पलं तु विशेषतः ।
वामबाहुश्च कर्तव्यः केयूरवलयान्वितः ॥ ४
उपवीतं च कर्तव्यं मणिमुक्तामयं तथा ॥ ५
स्तनभारं तथार्थे तु वामे पीतं प्रकल्पयेत्।
परार्धमुज्ज्वलं कुर्याच्छ्रोण्यर्थं तु तथैव च ॥ ६
लिङ्गार्धमूर्ध्वगं कुर्याद् व्यालाजिनकृताम्बरम्।
वामे लम्बपरीधानं कटिसूत्रत्रयान्वितम् ॥ ७
नानारत्नसमोपेतं दक्षिणे भुजगान्वितम् ।
देवस्य दक्षिणं पादं पद्मोपरि सुसंस्थितम् ॥ ८
किञ्चिदूर्ध्वं तथा वामं भूषितं नूपुरेण तु।
रत्नैर्विभूषितान् कुर्यादङ्गुलीष्वङ्गुलीयकान् ॥ ९
सालक्तर्क तथा पादं पार्वत्या दर्शयेत् सदा।
अर्धनारीश्वरस्येदं रूपमस्मिन्नुदाहृतम् ॥ १०
तथा अर्धभागमें दाहिनी ओर पुरुषरूप। पुरुषभागमें प्रतिमाको जटाजूट तथा बालचन्द्रकी कलासे युक्तकर उमाके अर्धभागमें मस्तकपर सौमन्त (माँग) में सिन्दूर और ललाटपर तिलक निर्मित करे। दाहिने कानमें वासुकि नाग और बायें कानमें कुण्डलकी रचना की जानी चाहिये। वहीं ऊपरकी ओर केशोंके आभूषण तथा कानमें बाली बनानी चाहिये। देवदेवेश्वर शिवके दाहिने हाथमें कपाल या त्रिशूल तथा बायें हाथमें दर्पण और कमल बनाये। विशेषतया बायें बाहुको बाजूबंद और कङ्कणसे युक्त बनाना चाहिये और दाहिनी ओरके भागमें मणियों और मोतियोंका यज्ञोपवीत बनाना चाहिये। प्रतिमाके बायें भागकी ओर स्तन तथा दाहिना भाग पीले वर्णका बनाये। ऊपरका आधा भाग उज्ज्वल हो, नितम्बका आधा भाग श्वेतवर्णका होना चाहिये। लिंगसे ऊपरका भाग सिंहके चर्मसे आवृत हो। बायें भागमें नाना प्रकारके रत्नोंसे बनी हुई तीन लड़ियोंवाली करधनी और साड़ी पहनानी चाहिये। दाहिना भाग सर्पोंसे युक्त हो। शिवजीका दाहिना पैर कमलके ऊपर स्थापित हो तथा नूपुरसे विभूषित बायाँ पैर उससे कुछ ऊपरकी ओर हो। उसकी अंगुलियोंको रत्ननिर्मित अँगूठियोंसे विभूषित करे। पार्वतीके चरण सर्वदा महावरसे युक्त प्रदर्शित किये जायें। इस प्रकार इस प्रसङ्गमें मैंने अर्धनारीश्वरके रूपका वर्णन किया ॥ ३ -१०॥
उमामहेश्वरस्यापि लक्षणं शृणुत द्विजाः।
संस्थानं तु तयोर्वक्ष्ये लीलाललितविभ्रमम् ॥ ११
चतुर्भुजं द्विबाहुं वा जटाभारेन्दुभूषितम् ।
लोचनत्रयसंयुक्तमुमैकस्कन्धपाणिनम् ॥१२
दक्षिणेनोत्पलं शूलं वामे कुचभरे करम्।
द्वीपिचर्मपरीधानं नानारत्नोपशोभितम् ॥ १३
सुप्रतिष्ठं सुवेषं च तथार्थेन्दुकृताननम् ।
वामे तु संस्थिता देवी तस्योरी बाहुगूहिता ॥ १४
शिरोभूषणसंयुक्तैरलकैर्ललितानना ।
सबालिका कर्णवती ललाटतिलकोज्वला ॥ १५
मणिकुण्डलसंयुक्ता कर्णिकाभरणा क्वचित् ।
हारकेयूरबहुला हरवक्त्रावलोकिनी ॥ १६
वामांसं देवदेवस्य स्पृशन्ती लीलया ततः ।
दक्षिणं तु बहिः कृत्वा बाहुं दक्षिणतस्तथा ॥ १७
स्कन्धे वा दक्षिणे कुक्षौ स्पृशन्त्यङ्गुलिजैः क्वचित्।
वामे तु दर्पणं दद्यादुत्पलं वा सुशोभनम् ॥ १८
कटिसूत्रत्रयं चैव नितम्बे स्यात् प्रलम्बकम् ।
जया च विजया चैव कार्तिकेयविनायकौ ॥ १९
पार्श्वयोर्दर्शयेत् तत्र तोरणे गणगुह्यकान् ।
माला विद्याधरांस्तद्वद्वीणावानप्सरोगणः ॥ २०
ब्राह्मणो! अब आपलोग उमामहेश्वर-मूर्तिके लक्षण सुनिये। मैं उन दोनोंकी स्थितिका वर्णन कर रहा हूँ। उमामहेश्वर की प्रतिमा मनोहर लीलाओंसे युक्त हो। उसे जटाओंके भार और चन्द्रमासे विभूषित दो या चार बाहुओं तथा तीन नेत्रोंसे युक्त बनाना चाहिये। उसमें भगवान् शिवका एक हाथ उमाके कंधेपर विराजमान होना चाहिये। मूर्तिके दाहिने हाथमें कमल या शूल हो, बायाँ हाथ स्तनपर न्यस्त होना चाहिये। उसे विविध प्रकारके रत्नोंसे विभूषित, व्याघ्रचर्मसे युक्त सुन्दर वेषोंसे सुसज्जित, मुखमण्डलको अर्धचन्द्रमासे विभूषित तथा उचित रूपसे प्रतिष्ठित करना चाहिये। उसके बायें भागमें देवीकी मूर्ति होगी, जिसके दोनों ऊरुभाग बाहुओंसे छिपे रहेंगे। सिरके आभूषणों तथा अलकावलियोंद्वारा मुखभाग ललित हो और बालियोंसे कान तथा तिलकसे ललाट शोभायमान हो रहा हो।
कहीं-कहीं कानोंको अलंकृत करनेके लिये मणिनिर्मित कुण्डल पहनाये जाते हैं। उसे हार और केयूरसे सुसज्जित कर शिवजीके मुखका अवलोकन करनेवाली बनावे। वे लीलापूर्वक देवदेव शंकरके बायें कंधेका स्पर्श कर रही हों तथा उनका दाहिना हाथ दाहिने भागसे बाहरकी ओर बना हो। या किसी-किसी प्रतिमामें दाहिने कंधे अथवा कुक्षिभागमें नखोंसे स्पर्श कर रही हों, बायें हाथमें दर्पण अथवा सुन्दर कमल रहना चाहिये। नितम्बभागपर तीन लड़ियोंवाला कटिसूत्र लटकता रहना चाहिये। पार्वतीके दोनों ओर जया, विजया, स्वामिकार्तिकेय और गणेशको तथा तोरणद्वार पर गुह्यक गणोंको प्रदर्शित करना चाहिये। उसी प्रकार वहाँ माला, विद्याधर और वीणासे सुशोभित अप्सराओंको बनाना चाहिये। समृद्धिकासीको उमापति शिवकी प्रतिमा इस प्रकारकी बनवानी चाहिये ॥ ११-२०॥
एतद् रूपमुमेशस्य कर्तव्यं भूतिमिच्छता।
शिवनारायणं वक्ष्ये सर्वपापप्रणाशनम् ॥ २१
वामार्थे माधवं विद्याद् दक्षिणे शूलपाणिनम्।
बाहुद्वयं च कृष्णस्य मणिकेयूरभूषितम् ॥ २२
शङ्खचक्रधरं शान्तमारक्ताङ्गुलिविभ्रमम् ।
चक्रस्थाने गदां वापि पाणौ दद्यादधस्तले ॥ २३
शङ्ख चैवोत्तरे दद्यात् कट्यर्थ भूषणोज्ज्वलम् ।
पीतवस्त्रपरीधानं चरणं मणिभूषणम् ॥ २४
दक्षिणार्धं जटाभारमर्धेन्दुकृतभूषणम् ।
भुजङ्गहारवलयं वरदं दक्षिणं करम् ॥ २५
द्वितीयं चापि कुर्वीत त्रिशूलवरधारिणम् ।
व्यालोपवीतसंयुक्तं कट्यर्थे कृत्तिवाससम् ॥ २६
मणिरत्नैश्च संयुक्तं पादं नागविभूषितम् ।
शिवनारायणस्यैवं कल्पयेद् रूपमुत्तमम् ॥ २७
महावराहं वक्ष्यामि पद्महस्तं गदाधरम् ।
तीक्ष्णदंष्ट्राग्रघोणास्यं मेदिनी वामकूर्परम् ॥ २८
दंष्ट्राग्रेणोद्धृतां दान्तां धरणीमुत्पलान्विताम् ।
विस्मयोत्फुल्लवदनामुपरिष्टात् प्रकल्पयेत् ॥ २९
दक्षिणं कटिसंस्थं तु करं तस्याः प्रकल्पयेत् ।
कूर्मोपरि तथा पादमेकं नागेन्द्रमूर्धनि ॥ ३०
अब मैं सभी पापोंके विनाशक शिवनारायणकी प्रतिमाकी विधि बता रहा हूँ। इस प्रतिमाकी बार्यों और आधे भागमें भगवान् विष्णु तथा दाहिनी ओर आधे भागमें शूलपाणि शिवको बनाना चाहिये। कृष्णकी दोनों भुजाएँ मणिनिर्मित केयूरसे विभूषित होनी चाहिये। दोनों भुजाओंमें शङ्ख और चक्र धारण किये हों, शान्तरूप हों तथा मनोहर अंगुलियाँ लाल वर्णकी हों। हाथके निचले भागमें चक्रके स्थानमें गदा भी देनी चाहिये। ऊपरी भागमें शङ्ख, कटिभागमें उज्ज्वल आभूषण और पीताम्बर धारण किये हुए हों तथा चरण मणिनिर्मित नूपुरोंसे विभूषित हों। इसका दाहिना आधा भाग जटाभार तथा अर्धचन्द्रसे विभूषित होना चाहिये। दाहिने हाथको वरद-मुद्रासे युक्त तथा सर्पोंके हार और कङ्कणसे सुशोभित तथा दूसरे हाथको त्रिशूलसे विभूषित बनाना चाहिये। उसे सर्पके यज्ञोपवीतसे युक्त और उसके कटिप्रदेशको गजचर्मसे आच्छादित कर दे। चरण मणि और रत्नोंसे अलंकृत तथा नागसे विभूषित हों। इस प्रकार शिव नारायण के उत्तम स्वरूपकी कल्पना करनी चाहिये। अब मैं महावराहका वर्णन कर रहा हूँ। उनके हाथोंमें पद्म और गदा हों, उनके दाढ़ोंके अर्धभाग तीक्ष्ण हों, थूथुनवाला मुख हो, बायीं केहुनीपर पृथ्वी हो, वह पृथ्वी दाढ़के अग्रभागपर रखी हुई कमलयुक्त और शान्त हो तथा उसका मुख विस्मयसे उत्फुल्ल हो, ऐसी मूर्तिको ऊपरकी ओर बनाना चाहिये। उस मूर्तिका दाहिना हाथ कटिप्रदेशपर हो। उनका एक पैर शेषनागके मस्तकपर और दूसरा कूर्मपर स्थित हो तथा लोकपालगण चारों ओरसे उनकी स्तुति कर रहे हों, ऐसी मूर्ति बनानी चाहिये ॥ २१-३० ॥
संस्तूयमानं लोकेशैः समन्तात्परिकल्पयेत् ।
नारसिंहं तु कर्तव्यं भुजाष्टकसमन्वितम् ॥ ३१
रौद्रं सिंहासनं तद्वद् विदारितमुखेक्षणम् ।
स्तब्धपीनसटाकर्णं दारयन्तं दितेः सुतम् ॥ ३२
विनिर्गतान्त्रजालं च दानवं परिकल्पयेत् ।
वमन्तं रुधिरं घोरं भुकुटीवदनेक्षणम् ॥ ३३
युध्यमानश्च कर्तव्यः क्वचित् करणबन्धनैः।
परिश्रान्तेन दैत्येन तर्ज्यमानो मुहुर्मुहुः ॥ ३४
दैत्यं प्रदर्शयेत् तत्र खड्गखेटकधारिणम्।
स्तूयमानं तथा विष्णुं दर्शयेदमराधिपैः ॥ ३५
तथा त्रिविक्रमं वक्ष्ये ब्रह्माण्डक्रमणोल्वणम् ।
पादपार्श्वे तथा बाहुमुपरिष्टात् प्रकल्पयेत् ॥ ३६
अधस्ताद् वामनं तद्वत् कल्पयेत् सकमण्डलुम्।
दक्षिणे छत्रिकां दद्यान्मुखं दीनं प्रकल्पयेत् ॥ ३७
भृङ्गारधारिणं तद्वद् बलिं तस्य च पार्श्वतः ।
बन्धनं चास्य कुर्वन्तं गरुडं तस्य दर्शयेत् ॥ ३८
मत्स्यरूपं तथा मत्स्यं कूर्म कूर्माकृतिं न्यसेत्।
एवंरूपस्तु भगवान् कार्यों नारायणो हरिः ॥ ३९
भगवान् नृसिंहकी प्रतिमा आठ भुजाओंसे युक्त बनायी जानी चाहिये। उसी प्रकार उनका सिंहासन भी भयंकर हो, मुख और नेत्र फैले हुए हों, गरदनके लम्बे बाल कानोंतक बिखरे हों तथा वे नखसे दितिपुत्र हिरण्यकशिपुको फाड़ रहे हों। जिसकी आँतें बाहर निकल गयी हों, मुखसे रुधिर गिर रहा हो, भृकुटी, मुख और नेत्र विकराल हों, ऐसे दानवराज हिरण्यकशिपुकी मूर्ति बनानी चाहिये। कहीं नृसिंह-प्रतिमा युद्धके उपकरणोंसे युक्त दैत्योंसे युद्ध करती हुई बनायी जाती है और कहीं थके हुए दैत्यसे बारंबार धमकायी जाती हुई बनानी चाहिये। वहाँ दैत्यको तलवार और ढाल धारण किये हुए प्रदर्शित करना चाहिये तथा देवेश्वरोंद्वारा स्तुति किये जाते हुए विष्णुको दिखाना चाहिये। अब मैं वामनका वर्णन कर रहा हूँ। वे ब्रह्माण्डको नापनेके लिये तत्पर दीखते हों। उनके चरणोंके समीपमें ऊपरकी ओर बाहुका निर्माण करे। उसके नीचेकी ओर बायें हाथमें कमण्डलु धारण किये हुए वामनकी रचना करे। दाहिने हाथमें एक छोटी-सी छतरी होनी चाहिये। उनका मुख दीनतासे युक्त हो। उन्हींकी बगलमें जलका गेडुआ लिये हुए बलिका निर्माण होना चाहिये। उसी स्थलपर बलिको बाँधते हुए गरुड़को भी दिखाना चाहिये। इसी प्रकार मत्स्यभगवान्की प्रतिमा मछलीके आकारकी तथा कूर्मभगवान्की प्रतिमा कछुएके समान बनानी चाहिये। इस प्रकार भगवान् विष्णु तथा उनके अवतारोंकी प्रतिमाओंका निर्माण होना चाहिये ॥ ३१-३९ ॥
ब्रह्मा कमण्डलुधरः कर्तव्यः स चतुर्मुखः ।
हंसारूढः क्वचित् कार्यः क्वचिच्च कमलासनः ॥ ४०
वर्णतः पद्मगर्भाभश्चतुर्बाहुः शुभेक्षणः ।
कमण्डलुं वामकरे खुवं हस्ते तु दक्षिणे ॥ ४१
वामे दण्डधरं तद्वत् स्स्रुवञ्चापि प्रदर्शयेत्।
मुनिभिर्देवगन्धर्वैः स्तूयमानं समन्ततः ॥ ४२
कुर्वाणमिव लोकांस्त्रीशुक्लाम्बरधरं विभुम् ।
मृगचर्मधरं चापि दिव्ययज्ञोपवीतिनम् ।। ४३
आज्यस्थालीं न्यसेत् पार्श्वे वेदांश्च चतुरः पुनः ।
वामपार्श्वेऽस्य सावित्रीं दक्षिणे च सरस्वतीम् ॥ ४४
ब्रह्माको कमण्डलु लिये हुए चार मुखोंसे युक्त बनावे। उनकी प्रतिमा कहीं हंसपर बैठी हुई तथा कहीं कमलपर विराजमान रहती है। उनकी प्रतिमा कमलके भीतरी भागके समान अरुण, चार भुजाओंसे युक्त और सुन्दर नेत्रवाली हो। उनके नीचेके बायें हाथमें कमण्डलु और दाहिने हाथमें खुवा हो। उनके ऊपरके बायें हाथमें दण्ड तथा दाहिने हाथमें भी सुवा धारण किये हुए प्रदर्शित करना चाहिये। उनके चारों ओर देवता, गन्धर्व और मुनिगणोंद्वारा स्तुति किये जाते हुए दिखाना चाहिये। ऐसी भूमिका भी दिखाये, मानो वे तीनों लोकोंकी रचनामें प्रवृत्त हैं। वे श्वेत वस्त्रधारी, ऐश्वर्यसम्पन्न, मृगचर्म तथा दिव्य यज्ञोपवीतसे युक्त हों। उनके बगलमें आज्यस्थाली रहे और सामने चारों वेदोंकी मूर्तियाँ हों। उनकी बायीं ओर सावित्री, दाहिनी ओर सरस्वती तथा उनके अग्रभागमें मुनियोंके समूह हों ॥ ४०-४४ ॥
अग्रे च ऋषयस्तद्वत् कार्याः पैतामहे पदे।
कार्तिकेयं प्रवक्ष्यामि तरुणादित्यसप्रभम् ॥ ४५
कमलोदरवर्णाभं कुमारं सुकुमारकम्।
दण्डकैश्चीरकैर्युक्तं मयूरवरवाहनम् ॥ ४६
स्थापयेत् स्वेष्टनगरे भुजान् द्वादश कारयेत्।
चतुर्भुजः खर्वटे स्याद् वने ग्रामे द्विबाहुकः ॥ ४७
शक्तिः पाशस्तथा खड्गः शरः शूलं तथैव च।
वरदश्चैकहस्तः स्यादथ चाभयदो भवेत् ॥ ४८
एते दक्षिणतो ज्ञेयाः केयूरकटकोज्ज्वलाः ।
धनुः पताका मुष्टिश्च तर्जनी तु प्रसारिता ॥ ४९
खेटकं ताम्रचूडं च वामहस्ते तु शस्यते।
द्विभुजस्य करे शक्तिर्वामे स्यात् कुक्कुटोपरि ॥ ५०
चतुर्भुजे शक्तिपाशौ वामतो दक्षिणे त्वसिः ।
वरदोऽभयदो वापि दक्षिणः स्यात् तुरीयकः ॥ ५१
अब मैं कार्तिकेयकी प्रतिमाका वर्णन कर रहा हूँ। उनकी प्रतिमाको मध्यकालीन सूर्यकी भाँति परम तेजोमय, कमलके मध्यभागके समान अरुण, मयूरपर आरूढ़, दण्डों और चीरोंसे सुशोभित, सुकुमार शरीरसे युक्त और बारह भुजाओंवाली बनाना चाहिये। उसे अपने इष्ट नगरमें स्थापित करना चाहिये। खर्वट (पर्वतके समीपके ग्राम)-में इनकी चार भुजाओंवाली और वन अथवा ग्राममें दो बाहुवाली प्रतिमा स्थापित करानी चाहिये। (बारह भुजाओंवाली प्रतिमामें) उनकी दाहिनी ओरके छः हाथोंमें शक्ति, पाश, तलवार, बाण और शूल शोभायमान हों। एक हाथमें अभयमुद्रा अथवा वरदमुद्रा बनानी चाहिये। ये सभी केयूर तथा कटकसे विभूषित उज्ज्वल वर्णके होने चाहिये। बायीं ओरके छः हाथ क्रमशः धनुष, पताका, मुष्टि, फैली हुई तर्जनी, ढाल, मुर्गा-इन वस्तुओंसे युक्त और उसी वर्णके होने चाहिये। दो भुजाओंवाली प्रतिमाके बायें हाथमें शक्ति और दाहिना हाथ कुक्कुटपर न्यस्त रहना चाहिये। चतुर्भुज प्रतिमाकी बायर्थी ओरके दो हाथोंमें शक्ति और पाश तथा दाहिनी ओरके तीसरे हाथमें तलवार हो और चौथा हाथ अभय अथवा वरदमुद्रासे युक्त हो ॥ ४५-५१ ॥
विनायकं प्रवक्ष्यामि गजवक्त्रं त्रिलोचनम्।
लम्बोदरं चतुर्बाहुं व्यालयज्ञोपवीतिनम् ॥ ५२
ध्वस्तकर्ण बृहत्तुण्डमेकदंष्टुं पृथूदरम्।
स्वदन्तं दक्षिणकरे उत्पलं चापरे तथा ॥ ५३
मोदकं परशुं चैव वामतः परिकल्पयेत् ।
बृहत्वात्क्षिप्तवदनं पीनस्कन्धाङ्घियाणिकम् ॥ ५४
युक्तं तु सिद्धिबुद्धिभ्यामधस्तान्मूषकान्वितम् ।
कात्यायन्याः प्रवक्ष्यामि रूपं दशभुजं तथा ॥ ५५
त्रयाणामपि देवानामनुकारानुकारिणीम् ।
जटाजूटसमायुक्तामर्धेन्दुकृतशेखराम् ॥५६
लोचनत्रयसंयुक्तां पूर्णेन्दुसदृशाननाम् ।
अतसीपुष्पवर्णाभां सुप्रतिष्ठां सुलोचनाम् ॥ ५७
नवयौवनसम्पन्नां सर्वाभरणभूषिताम्।
सुचारुदशनां तद्वत् पीनोन्नतपयोधराम् ॥ ५८
त्रिभङ्गस्थानसंस्थानां महिषासुरमर्दिनीम् ।
त्रिशूलं दक्षिणे दद्यात् खड्गं चक्रं क्रमादधः ॥ ५९
तीक्ष्णवाणं तथा शक्ति वामतोऽपि निबोधत ।
खेटकं पूर्णचापं च पाशमङ्कुशमेव च ॥ ६०
घण्टां वा परशुं वापि वामतः संनिवेशयेत् ।
अधस्तान्महिषं तद्वद् विशिरस्कं प्रदर्शयेत् ॥ ६१
शिरश्छेदोद्भवं तद्वद् दानवं खड्गपाणिनम्।
हृदि शूलेन निर्भिन्नं निर्यदन्त्रविभूषितम् ॥ ६२
रक्तरक्तीकृताङ्ग च रक्तविस्फुरितेक्षणम् ।
वेष्टितं नागपाशेन भुकुटीभीषणाननम् ॥ ६३
अब मैं गणेशजीकी प्रतिमाका विधान बता रहा हूँ। उनकी प्रतिमामें हाथी-सा मुख, तीन नेत्र, लम्बा उदर, चार भुजाएँ, सर्पका यज्ञोपवीत, सिमटा हुआ कान, विशाल शुण्ड, एक दाँत और तोंद स्थूल हो। उनके ऊपरके दाहिने हाथमें अपना दाँत और निचले हाथमें कमल होना चाहिये। बायीं ओरके ऊपरके हाथमें मोदक तथा निचले हाथमें परशु हों। बृहत् होनेके कारण मुख नौचेकी ओर विस्तृत तथा स्कन्ध, पाद और हाथ मोटे होने चाहिये। वह सिद्धि-बुद्धिसे युक्त हो, उसके नीचेकी ओर मूषक बना हो। अब मैं भगवती कात्यायनीकी मूर्तिका वर्णन कर रहा हूँ। वह दस भुजाओंसे युक्त, तीनों देवताओंकी आकृतियोंका अनुकरण करनेवाली, जटाजूटसे विभूषित, सिरपर अर्धचन्द्रसे सुशोभित, तीन नेत्रोंसे युक्त, पूर्णचन्द्रके समान मुखवाली, अलसी पुष्पके समान नीलवर्णा, तेजोमय, सुन्दर नेत्रोंसे विभूषित, नव यौवनसम्पन्ना, सभी आभूषणों से विभूषित, अत्यन्त सुन्दर दाँतोंसे युक्त, स्थूल एवं उन्नत स्तनोंवाली, त्रिभंगी रूपसे स्थित, महिषासुरनाशिनी आदि चिह्नोंसे युक्त हो। दाहिने हाथोंमें क्रमशः ऊपरसे नीचेकी ओर त्रिशूल, खड्ग, चक्र, तीक्ष्ण बाण और शक्ति तथा बायें हाथोंमें ढाल, धनुष, पाश, अङ्कुश, घण्टा अथवा परशु धारण कराना चाहिये। प्रतिमाके नीचे सिररहित महिषासुरको प्रदर्शित करना चाहिये। वह दानव सिर कटनेपर शरीरसे निकलता हुआ दीख पड़े तथा हाथमें खड्ग, हृदय शूलसे विदीर्ण और बाहर निकलती हुई अँतड़ियोंसे विभूषित हो। वह रक्तसे लथपथ शरीरवाला, विस्फारित लाल नेत्रोंसे युक्त, नागपाशसे परिवेष्टित, टेढ़ी भृकुटीके कारण भीषण मुखाकृति और दुर्गाद्वारा पाशयुक्त बायें हाथसे पकड़ा गया केशवाला हो ॥ ५२-६३ ॥
सपाशवामहस्तेन धृतकेशं च दुर्गया।
वमद्रुधिरवक्त्रं च देव्याः सिंहं प्रदर्शयेत् ॥ ६४
देव्यास्तु दक्षिणं पादं समं सिंहोपरि स्थितम्।
किंचिदूर्ध्वं तथा वाममङ्गुष्ठं महिषोपरि ॥ ६५
स्तूयमानं च तद्रूपममरैः संनिवेशयेत् ।
इदानीं सुरराजस्य रूपं वक्ष्ये विशेषतः ॥ ६६
सहस्त्रनयनं देवं मत्तवारणसंस्थितम् ।
पृथूरुवक्षोवदनं सिंहस्कन्धं महाभुजम् ॥ ६७
किरीटकुण्डलधरं पीवरोरुभुजेक्षणम्।
वज्रोत्पलधरं तद्वन्नानाभरणभूषितम् ॥ ६८
पूजितं देवगन्धर्वैरप्सरोगणसेवितम् ।
छत्रचामरधारिण्यः स्त्रियः पार्श्वे प्रदर्शयेत् ॥ ६९
सिंहासनगतं चापि गन्धर्वगणसंयुतम्।
इन्द्राणीं वामतश्चास्य कुर्यादुत्पलधारिणीम् ॥ ७०
देवीके सिंहको मुखसे रक्त उगलते हुए प्रदर्शित करना चाहिये। देवीका दाहिना पैर सिंहके ऊपर समानरूपसे स्थित हो तथा बायाँ कुछ ऊपरकी ओर उठा हो, उसका अंगूठा महिषासुरपर लगा हुआ हो। उनकी प्रतिमाको देवगणोंद्वारा स्तुति किये जाते हुए दिखाना चाहिये। (यहाँसे अष्टदिक्पाल या लोकपालोंकी प्रतिमाका वर्णन है) अब मैं देवराज इन्द्रके रूपको विशेष रूपसे कह रहा हूँ। हजार नेत्रोंवाले देवेन्द्रको मत्त गयन्दपर विराजमान बनाना चाहिये। उनके ऊरु, वक्षःस्थल और मुख विशाल हों, कंधे सिंहके समान हों, उनकी भुजाएँ विशाल हों, वे किरीट और कुण्डल धारण किये हों, उनके जघनस्थल, भुजाएँ तथा आँखें स्थूल हों, वे वज्र और कमल धारण किये हों तथा विविध आभूषणोंसे विभूषित हों, देवता और गन्धर्वोद्वारा पूजित और अप्सराओंद्वारा सेवित हों। उनके पार्श्वमें छत्र और चामर धारण करनेवाली स्त्रियोंको प्रदर्शित करना चाहिये। वे सिंहासनपर विराजमान हों, उनकी बार्यों और कमल धारण किये हुए इन्द्राणी स्थित हों, वे गन्धर्वोसे घिरे हों ॥ ६४-७० ॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे प्रतिमालक्षणे षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६० ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें प्रतिमा-लक्षण नामक दो सौ साठवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २६० ॥
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