वृष्टिजन्य उत्पात के लक्षण और उनकी शान्ति के उपाय | vrkshajany utpaat ke lakshan aur unakee shaanti ke upaay

मत्स्य पुराण दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय 

वृष्टिजन्य उत्पात के लक्षण और उनकी शान्ति के उपाय 

गर्ग उवाच

अतिवृष्टिरनावृष्टिदुर्भिक्षादि भयं मतम् ।
अनृतौ तु दिवानन्ता वृष्टिज्ञेया भयानका ॥ १

गर्गजीने कहा- मुने ! अतिवृष्टि और अनावृष्टि-ये दोनों दुर्भिक्षादिजन्य भयका कारण मानी गयी हैं। वर्षा-ऋतुके बिना दिनमें अनन्त वृष्टिका होना अत्यन्त भयानक है। 

अनभ्रे वैकृता चैव विज्ञेया राजमृत्यवे ।
शीतोष्णानां विपर्यासे नृपाणां रिपुजं भयम् ॥ २

शोणितं वर्षते यत्र तत्र शस्त्रभयं भवेत् । 
अङ्गारपांशुवर्षेषु नगरं तद् विनश्यति ॥ ३

मज्ञ्जास्थिस्नेहमांसानां जनमारभयं भवेत्।
फलं पुष्यं तथा धान्यं परेणातिभयाय तु ॥ ४

पांशुजन्तूपलानां च वर्षतो रोगजं भयम् ।
छिद्रे वान्नप्रवर्षेण सस्यानां भीतिवर्धनम् ।। ५

विरजस्के रवौ व्यभ्रे यदा छाया न दृश्यते ।
दृश्यते तु प्रतीपा वा तत्र देशभयं भवेत् ॥ ६

निरभ्रे वाथ रात्रौ वा श्वेतं याम्योत्तरेण तु । 
इन्द्रायुधं तथा दृष्ट्वा उल्कापातं तथैव च ॥ ७

दिग्दाहपरिवेषौ च गन्धर्वनगरं तथा।
परचक्रभयं ब्रूयाद् देशोपद्रवमेव च ॥८

सूर्येन्दुपर्जन्यसमीरणानां यागस्तु कार्यो विधिवद् द्विजेन्द्र।
धनानि गौः काञ्चनदक्षिणा च देया द्विजानामधनाशहेतोः ॥ ९

बादलरहित आकाशमें विकृत हुई वृष्टिको राजाकी मृत्युका कारण जानना चाहिये। शीतकालमें गर्मी एवं ग्रीष्ममें सर्दी पड़नेसे राजाओंपर शत्रुपक्षसे भय होता है। जिस स्थानपर आकाशसे रक्तकी वर्षा होती है वहाँ शस्त्रभय प्राप्त होता है। अङ्गार और धूलिकी वृष्टि होनेपर वह नगर विनष्ट हो जाता है। मज्जा, हड्डी, तेल और मांसकी वृष्टि होनेपर प्रजावर्गमें मृत्युका भय उपस्थित होता है। आकाशसे फल, पुष्प तथा अन्नकी वृष्टि शत्रुपक्षसे अत्यन्त भयका द्योतन करती है। धूलि, जन्तु और उपलोंके गिरनेसे रोगजन्य भय प्राप्त होता है। रुक-रुककर अन्नकी वृष्टि होनेसे फसलके भयकी वृद्धि होती है। सूर्यके बादल एवं धूलिसे रहित रहनेपर जब परछाई नहीं दीखती अथवा विपरीत दिखायी पड़ती है, तब सारे देशको भय प्राप्त होता है। बादलरहित रात्रिमें दक्षिण अथवा उत्तर दिशामें श्वेत रंगका इन्द्रधनुष, उल्कापात, दिशाओंमें दाह, सूर्य तथा चन्द्रमामें मण्डल तथा गन्धर्वनगर दिखायी पड़े तो उस समय देशपर शत्रु-पक्षकी सेनाका आक्रमण और देशमें विविध उपद्रवोंके संघटित होनेकी सम्भावना कहनी चाहिये। द्विजेन्द्र! ऐसे अवसरपर सूर्य, चन्द्रमा, मेघ और वायुके उद्देश्यसे विधिपूर्वक यज्ञ करना चाहिये और इस पापके विनाशके लिये ब्राह्मणोंको धन, गौ तथा सुवर्णकी दक्षिणा देनी चाहिये ॥ १-९ ॥

इति श्री माल्ये महापुराणेऽद्भुतशान्तौ वृष्टिवैकृतिप्रशमनं नाम त्रयस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २३३ ॥

इस प्रकार श्री मत्स्य महा पुराण के अद्भुतशान्ति-प्रसंगमें वृष्टि-विकारशमन नामक दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २३३॥

टिप्पणियाँ