यम राज-सावित्री-संवाद तथा यम राज द्वारा सावित्री को तृतीय वरदान की प्राप्ति | yam raaj-saavitree-sanvaad tatha yam raaj dvaara saavitreeko trteey varadaan kee praapti

मत्स्य पुराण दो सौ बारहवाँ अध्याय

यम राज-सावित्री-संवाद तथा यम राज द्वारा सावित्री को तृतीय वरदान की प्राप्ति

सावित्र्युवाच

धर्मार्जने सुरश्रेष्ठ कुतो ग्लानिः क्लमस्तथा।
त्वत्पादमूलसेवा च परमं धर्मकारणम् ॥ १

सावित्रीने कहा- देवश्रेष्ठ ! धर्मोपार्जनके कार्य में कैसी ग्लानि और कैसा कष्ट? आपके चरणमूलकी सेवा ही परम धर्म का कारण है। १


धर्मार्जनं तथा कार्य पुरुषेण विजानता।
तल्लाभः सर्वलाभेभ्यो यदा देव विशिष्यते ॥ २

धर्मश्चार्थश्च कामश्च त्रिवर्गों जन्मनः फलम्।
धर्महीनस्य कामार्थों वन्ध्यासुतसमौ प्रभौ ॥ ३

धर्मादर्थस्तथा कामो धर्माल्लोकद्वयं तथा।
धर्म एकोऽनुयात्येनं यत्र क्वचनगामिनम् ॥ ४

शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति। 
एको हि जायते जन्तुरेक एव विपद्यते ॥ ५

धर्मस्तमनुयात्येको न सुहृन्न च बान्धवाः । 
क्रिया सौभाग्यलावण्यं सर्व धर्मेण लभ्यते ॥ ६

ब्रह्मेन्द्रोपेन्द्रसर्वेन्दुयमार्काग्न्यनिलाम्भसाम् । 
वस्वश्विधनदाद्यानां ये लोकाः सर्वकामदाः ॥ ७

धर्मेण तानवाप्नोति पुरुषः पुरुषान्तक । 
मनोहराणि द्वीपानि वर्षाणि सुसुखानि च ॥ ८

प्रयान्ति धर्मेण नरास्तथैव नरगण्डिकाः । 
नन्दनादीनि मुख्यानि देवोद्यानानि यानि च ॥ ९

तानि पुण्येन लक्ष्यन्ते नाकपृष्ठं तथा नरैः। 
विमानानि विचित्राणि तथैवाप्सरसः शुभाः ॥ १०

देव! ज्ञानी पुरुषको सर्वदा धर्मोपार्जन करना चाहिये; क्योंकि उसका लाभसभी लाभोंसे विशेष महत्त्वपूर्ण है। प्रभो! धर्म, अर्थ और काम ये तीनों एक साथ संसारमें जन्म लेनेके फल है; क्योंकि धर्महीन पुरुषके अर्थ और काम वन्ध्याके पुत्रकी भाँति निष्फल हैं। धर्मसे अर्थ और कामकी प्राप्ति होती है तथा धर्मसे ही दोनों लोक सिद्ध होते हैं। जहाँ-कहीं भी जानेवाले प्राणीके पीछे अकेले धर्म ही जाता है। अन्य सभी वस्तुएँ शरीरके साथ ही नष्ट हो जाती हैं। प्राणी अकेला ही पैदा होता है और अकेला ही मरकर जाता है। एक धर्म ही उसके पीछे-पीछे जाता है, मित्र एवं भाई-बन्धु कोई भी साथ नहीं देता। कार्योंमें सफलता, सौभाग्य और सौन्दर्य आदि सब कुछ धर्मसे ही प्राप्त होते हैं। पुरुषान्तक! ब्रह्मा, इन्द्र, विष्णु, शिव, चन्द्रमा, यम, सूर्य, अग्नि, वायु, वरुण, वसुगण, अश्विनीकुमार एवं कुबेर आदि देवताओंके जो सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाले लोक हैं, उन सबको मनुष्य धर्मके द्वारा ही प्राप्त करता है। मनुष्य मनोहर द्वीपों एवं सुखदायी वर्षोंको धर्मके द्वारा ही प्राप्त करते हैं। देवताओंके जो नन्दनादि मुख्य उद्यान हैं, वे भी मनुष्योंको पुण्यसे ही प्रास होते हैं। इसी प्रकार स्वर्ग, विचित्र विमान और सुन्दर अप्सराएँ पुण्यसे ही प्राप्त होती हैं ॥२-१०॥

तैजसानि शरीराणि सदा पुण्यवतां फलम्। 
राज्यं नृपतिपूजा च कामसिद्धिस्तथेप्सिता ॥ ११

संस्काराणि च मुख्यानि फलं पुण्यस्य दृश्यते। 
रुक्मवैदूर्यदण्डानि चण्डांशुसदृशानि च ॥ १२

चामराणि सुराध्यक्ष भवन्ति शुभकर्मणाम्। 
पूर्णेन्दुमण्डलाभेन रत्नांशुकविकासिना ॥ १३

धार्यतां याति च्छत्रेण नरः पुण्येन कर्मणा। 
जयशङ्खस्वरौघेण सूतमागधनिःस्वनैः ॥ १४

वरासनं सभृङ्गारं फलं पुण्यस्य कर्मणः । 
वरान्नपानं गीतं च भृत्यमाल्यानुलेपनम् ॥ १५

रत्नवस्त्राणि मुख्यानि फलं पुण्यस्य कर्मणः । 
रूपौदार्यगुणोपेताः स्त्रियश्चातिमनोहराः ॥ १६

वासाः प्रासादपृष्ठेषु भवन्ति शुभकर्मिणाम्।
सुवर्णकिङ्किणीमिश्रचामरापीडधारिणः ॥ १७

वहन्ति तुरगा देव नरं पुण्येन कर्मणा।
हैमकक्षैश्च मातङ्गैश्चलत्पर्वतसंनिभैः ॥ १८

खेलद्भिः पादविन्यासैर्यान्ति पुण्येन कर्मणा। 
सर्वकामप्रदे देव सर्वाघदुरितापहे ॥ १९

वहन्ति भक्तिं पुरुषः सदा पुण्येन कर्मणा। 
तस्य द्वाराणि यजनं तपो दानं दमः क्षमा ॥ २०

ब्रह्मचर्य तथा सत्यं तीर्थानुसरणं शुभम्। 
स्वाध्यायसेवा साधूनां सहवासः सुरार्चनम् ॥ २१

गुरूणां चैव शुश्रूषा ब्राह्मणानां च पूजनम्। 
इन्द्रियाणां जयश्चैव ब्रह्मचर्यममत्सरम् ॥ २२

तस्माद् धर्मः सदा कार्यो नित्यमेव विजानता। 
न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतमस्य न वाकृतम् ॥ २३

बाल एव चरेद् धर्ममनित्यं देव जीवितम् । 
को हि जानाति कस्याद्य मृत्युरेवा पतिष्यति ॥ २४

पश्यतोऽप्यस्य लोकस्य मरणं पुरतः स्थितम् । 
अमरस्येव चरितमत्याश्चर्यं सुरोत्तम ॥ २५

युवत्वापेक्षया बालो वृद्धत्वापेक्षया युवा। 
मृत्युरुत्सङ्ग‌मारूढः स्थविरः किमपेक्षते ॥ २६ 

तत्रापि विन्दतस्त्राणं मृत्युना तस्य का गतिः ।
न भयं मरणं चैव प्राणिनामभयं क्वचित्।
तत्रापि निर्भयाः सन्तः सदा सुकृतकारिणः ॥ २७

पुण्यशाली मनुष्योंके तेजस्वी शरीर पुण्यके ही फल हैं। राज्यकी प्राप्ति, राजाओंद्वारा सम्मान, अभीष्ट मनोरथोंकी सिद्धि तथा मुख्य संस्कार- ये सभी पुण्यके ही फल देखे जाते हैं। देवाध्यक्ष ! पुण्यवान् पुरुषोंके चॅवर सुवर्ण तथा वैदूर्यके बने हुए डंडेवाले तथा सूर्यके समान तेजोमय होते हैं। पूर्णिमाके चन्द्रमण्डलके समान कान्तिमान् एवं रत्नजटित वस्त्रसे सुशोभित छत्र मनुष्यको पुण्य कर्मसे ही प्राप्त होता है। विजयकी सूचना देनेवाले शङ्ख-स्वरों तथा मागध-बन्दियोंकी माङ्गलिक ध्वनियोंके साथ अभिषेक-पात्रसहित श्रेष्ठ सिंहासनका प्राप्त होना पुण्यकर्मका ही फल है। उत्तम अन्न, जल, गीत, अनुचर, मालाएँ, चन्दन, रत्न तथा बहुमूल्य वस्त्र- ये सब पुण्यकर्मोंके फल हैं। सुन्दरता और औदार्य गुणोंसे युक्त अतिशय मनोहर स्त्रियाँ और उच्च महलोंपर निवास शुभ कर्मियोंको प्राप्त होते हैं। देव! मस्तकपर स्वर्णकी घंटियोंसे युक्त चमर धारण करनेवाले घोड़े पुण्यकर्मसे ही मनुष्यको वहन करते हैं। चलते हुए पर्वतोंके समान, सुवर्णनिर्मित अम्बारीसे सुशोभित तथा चञ्चल पादविन्याससे युक्त हाथियोंकी सवारी पुण्यकर्मके प्रभावसे ही प्राप्त होती है। 

देव! सभी मनोरथोंको पूर्ण करने वाले एवं सभी पापोंको दूर करनेवाले स्वर्गमें पुरुष सदा पुण्यकर्मोंके प्रभावसे ही भक्ति प्राप्त करते हैं। उसकी प्राप्तिके उपाय हैं- यज्ञ, तप, दान, इन्द्रियनिग्रह, क्षमाशीलता, ब्रह्मचर्य, सत्य, शुभदायक तीर्थोकी यात्रा, स्वाध्याय, सेवा, सत्पुरुषोंकी संगति, देवार्चन, गुरुजनोंकी शुश्रूषा, ब्राह्मणों की पूजा, इन्द्रियोंको वशमें रखना तथा मत्सररहित ब्रह्मचर्य। इसलिये विद्वान् पुरुषको सर्वदा धर्माचरण करना चाहिये; क्योंकि मृत्यु इसकी प्रतीक्षा नहीं करती कि इसने अपना कार्य पूरा किया अथवा नहीं। देव! मनुष्यको बाल्यावस्थासे ही धर्माचरण करना चाहिये; क्योंकि यह जीवन नश्वर है। यह कौन जानता है कि आज किसकी मृत्यु हो जायगी। सुरोत्तम ! इस जीवके देखते हुए भी मृत्यु सामने खड़ी रहती है, फिर भी वह मृत्युरहितकी भाँति आचरण करता है- यह महान् आश्चर्य है। युवककी अपेक्षा बालक और वृद्धकी अपेक्षा युवक अपनेको मृत्युसे दूर मानता है, किंतु मृत्युकी गोदमें बैठा हुआ वृद्ध किसकी अपेक्षा करता है। इतनेपर भी जो मृत्युसे रक्षाके उपाय सोचते हैं, उनकी क्या गति होगी ? प्राणधारियोंको इस जगत्में केवल मृत्युसे भय ही नहीं है, उनके लिये कहीं अभयस्थान भी नहीं है। तथापि पुण्यवान् सत्पुरुष सर्वदा निर्भय होकर संसारमें जीवित रहते हैं ॥ ११-२७ ॥

यम उवाच

तुष्टोऽस्मि ते विशालाक्षि वचनैर्धर्मसंगतैः । 
विना सत्यवतः प्राणान् वरं वरय मा चिरम् ॥ २८ 

यमराज बोले-विशालाक्षि! तुम्हारी इन धर्मयुक्त बातोंसे मैं विशेष संतुष्ट हूँ, अतः तुम सत्यवान्‌के प्राणोंके अतिरिक्त अन्य वर माँग लो, देर मत करो ॥ २८ ॥

सावित्र्युवाच

वरयामि त्वया दत्तं पुत्राणां शतमौरसम्। 
अनपत्यस्य लोकेषु गतिः किल न विद्यते ॥ २९

सावित्रीने कहा- देव! मैं आपसे अपनी कोखसे उत्पन्न होने वाले सौ पुत्रों का वरदान माँगती हूँ; क्योंकि लोकों में पुत्र हीन की सद्गति नहीं होती ॥ २९ ॥

यम उवाच

कृतेन कामेन निवर्त भद्रे भविष्यतीदं सफलं यथोक्तम्।
ममोपरोधस्तव च क्लमः स्यात् तथाधुना तेन तव ब्रवीमि ॥ ३०

यमराज बोले-भद्रे ! अब तुम शेष अभीष्ट कामनाको छोड़कर लौट जाओ, तुम्हारी यह याचना भी सफल होगी। इस प्रकार तुम्हारे अनुगमनसे मेरे कार्योंमें विघ्न होगा और तुम्हें भी कष्ट होगा, इसीलिये मैं तुमसे इस समय ऐसा कह रहा हूँ ॥३०॥ 

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सावित्र्युपाख्याने तृतीयवरलाभो नाम द्वादशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २१२ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सावित्री-उपाख्यानमें तृतीय वर-लाभ नामक दो सौ बारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २१२ ॥

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