मत्स्य पुराण दो सौ दसवाँ अध्याय
यम राज का सत्यवान के प्राणको बाँधना तथा सावित्री और यमराज का वार्तालाप
मत्स्य उवाच
तस्य पाटयतः काष्ठं जज्ञे शिरसि वेदना।
स वेदनार्तः संगम्य भार्यां वचनमब्रवीत् ॥ १
मत्स्यभगवान्ने कहा- राजन् ! लकड़ी काटते हुए सत्यवान्के सिरमें पीड़ा उत्पन्न हुई, तब वे पीड़ासे व्याकुल हो पत्नीके पास आकर इस प्रकार कहने लगे 'इस परिश्रमसे मेरे सिरमें बहुत पीड़ा हो रही है। १
आयासेन ममानेन जाता शिरसि वेदना।
तमश्च प्रविशामीव न च जानामि किञ्चन ॥ २
त्वदुत्सङ्गे शिरः कृत्वा स्वप्तुमिच्छामि साम्प्रतम् ।
राजपुत्रीमेवमुक्त्वा तदा सुष्वाप पार्थिव ॥ ३
तदुत्सङ्गे शिरः कृत्वा निद्रयाऽऽविललोचनः ।
पतिव्रता महाभागा ततः सा राजकन्यका ॥ ४
ददर्श धर्मराजं तु स्वयं तं देशमागतम् ।
नीलोत्पलदलश्यामं पीताम्बरधरं प्रभुम् ॥ ५
विद्युल्लतानिबद्धाङ्गं सतोयमिव तोयदम् ।
किरीटेनार्कवर्णेन कुण्डलाभ्यां विराजितम् ॥ ६
हारभारार्पितोरस्कं तथाङ्गदविभूषितम् ।
तथानुगम्यमानं च कालेन सह मृत्युना ।। ७
स तु सम्प्राप्य तं देशं देहात् सत्यवतस्तदा ।
अङ्गुष्ठमात्रं पुरुषं पाशबद्धं वशं गतम् ॥ ८
आकृष्य दक्षिणामाशां प्रययौ सत्वरं तदा।
सावित्र्यपि वरारोहा दृष्ट्वा तं गतजीवितम् ॥ ९
अनुवव्राज गच्छन्तं धर्मराजमतन्द्रिता।
कृताञ्जलिरुवाचाथ हृदयेन प्रवेपता ॥ १०
इमं लोकं मातृभक्त्या पितृभक्त्या तु मध्यमम् ।
गुरुशुश्रूषया चैव ब्रह्मलोकं समश्नुते ॥ ११
सर्वे तस्यादृता धर्मा यस्यैते त्रय आदृताः।
अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफलाः क्रियाः ॥ १२
यावत् त्रयस्ते जीवेयुस्तावन्नान्यं समाचरे।
तेषां च नित्यं शुश्रूषां कुर्यात् प्रियहिते रतः ॥ १३
तेषामनुपरोधेन पारतन्त्र्यं यदा चरेत्।
तत्तन्निवेदयेत् तेभ्यो मनोवचनकर्मभिः ।
त्रिष्वप्येतेषु कृत्यं हि पुरुषस्य समाप्यते ॥ १४
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मैं अन्धकारमें प्रविष्ट हो रहा हूँ। मुझे कुछ भी सूझ नहीं रहा है। इस समय मैं तुम्हारी गोदमें सिर रखकर सोना चाहता हूँ।' राजन् ! राजपुत्रीसे ऐसा कहकर सत्यवान् उस समय उसकी गोदमें सो गये। जब सावित्रीकी गोंदमें सिर रखकर सोते हुए सत्यवान्के नेत्र निद्रावश मुँद गये, तब उस पतिव्रता महाभागा राजपुत्री सावित्रीने उस स्थानपर आये हुए सामर्थ्यशाली स्वयं धर्मराजको देखा, जो नीले कमलके से श्यामवर्णसे सुशोभित और पीताम्बर धारण किये हुए थे। वे चमकती हुई बिजलियोंसे युक्त जलपूर्ण मेष-जैसे दीख रहे थे तथा सूर्यके समान तेजस्वी मुकुट और दो कुण्डलोंसे सुशोभित थे। उनके वक्षः स्थलपर हार लटक रहा था।
वे बाजूबंदसे विभूषित थे तथा उनके पीछे मृत्युसहित महाकाल भी था। धर्मराजने उस स्थानपर पहुँचकर उस समय सत्यवान्के शरीरसे अंगूठेके परिमाणवाले पुरुषको पाशमें बाँधकर अपने अधीन किया और उसे खींचकर शीघ्रतापूर्वक दक्षिण दिशाकी ओर प्रस्थान किया। तब आलस्यरहित हो सुन्दरी सावित्री पतिको प्राणरहित देखकर जाते हुए धर्मराजके पीछे-पीछे चली और काँपते हुए हृदयसे अञ्जलि बाँधकर धर्मराजसे बोली- 'माताकी भक्तिसे इस लोक, पिताकी भक्तिसे मध्यम लोक और गुरुकी शुश्रूषासे ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है। जो इन तीनोंका आदर करता है, उसने मानो सभी धर्मोका पालन कर लिया तथा जिसने इन तीनोंका आदर नहीं किया, उसकी सारी सत्क्रियाएँ निष्फल हो जाती है। जबतक ये तीनों जीवित रहें, तबतक किसी अन्य धर्मके पालनकी आवश्यकता नहीं है। उनके प्रिय एवं सुखके कार्योंमें तत्पर रहकर नित्य उनकी शुश्रूषा करनी चाहिये। उनकी आज्ञासे यदि कभी परतन्त्रता भी स्वीकार करनी पड़े तो वह सब मन-वचन-कर्मद्वारा उन्हें निवेदित कर देना चाहिये। पुरुषके सारे कर्म माता, पिता और गुरु-इन्हीं तीनोंमें समास हो जाते हैं ॥ २-१४॥
यम उवाच
कृतेन कामेन निवर्तयाशु धर्मो न तेभ्योऽपि हि उच्यते च।
ममोपरोधस्तव च क्लमः स्या-त्तथाधुना तेन तव ब्रवीमि ॥ १५
गुरुपूजारतिर्भर्ता त्वं च साध्वी पतिव्रता।
विनिवर्तस्व धर्मज्ञे ग्लानिर्भवति तेऽधुना ॥ १६
यमराजने कहा- तुम हमसे जिस कामनाको पूर्ण करानेके लिये आ रही हो उस कामनाको छोड़ दो और शीघ्र लौट जाओ। सचमुच संसारमें माता-पिता तथा गुरुकी सेवासे बढ़कर कोई अन्य धर्म नहीं है। तुम्हारे इस प्रकार पीछे-पीछे आनेसे मेरे काममें विघ्न पड़ रहा है और तुम भी थकावटसे चूर हो रही हो। इसलिये मैं इस समय तुमसे ऐसा कह रहा हूँ। धर्मज्ञे ! तुम्हारा पति सचमुच गुरुजनोंकी पूजामें प्रेम करनेवाला है और तुम भी पतिव्रता साध्वी हो। इस समय तुम्हें कष्ट हो रहा है, अतः तुम लौट जाओ ॥ १५-१६ ॥
सावित्र्युवाच
पतिर्हि दैवतं स्त्रीणां पतिरेव परायणम् ।
अनुगम्यः स्त्रिया साध्व्या पतिः प्राणधनेश्वरः ॥ १७
मितं ददाति हि पिता मितं भ्राता मितं सुतः ।
अमितस्य प्रदातारं भर्तारं का न पूजयेत् ॥ १८
नीयते यत्र भर्ता मे स्वयं वा यत्र गच्छति ।
मयापि तत्र गन्तव्यं यथाशक्ति सुरोत्तम ॥ १९
पतिमादाय गच्छन्तमनुगन्तुमहं यदा।
त्वां देव न हि शष्यामि तदा त्यक्ष्यामि जीवितम् ॥ २०
मनस्विनी तु या काचिद्वैधव्याक्षरदूषिता ।
मुहूर्तमपि जीवेत मण्डनार्हा ह्यमण्डिता ॥ २१
सावित्री बोली- स्त्रियोंका पति ही देवता है, पति ही उसको शरण देनेवाला है, इसलिये साध्वी स्त्रियोंको प्राणपति प्रियतमका अनुगमन करना चाहिये। पिता, भाई तथा पुत्र परिमित सम्पत्ति देनेवाले हैं, किंतु पति अपरिमित सम्पत्तिका दाता है। भला, ऐसे पतिकी कौन स्त्री पूजा नहीं करेगी। सुरोत्तम। आप मेरे पतिको जहाँ ले जा रहे हैं अथवा स्वयं जहाँ जा रहे हैं, वहीं मुझे भी यथाशक्ति जाना चाहिये। देव! मेरे प्राणपतिको ले जाते हुए आपके पीछे चलनेमें यदि मैं समर्थ न हो सकूँगी तो प्राणोंको त्याग दूँगी। जो कोई मनस्विनी स्त्री वैधव्य-धर्मसे दूषित होकर मुहूर्तभर जीवित रहती है तो वह सभी आभूषणोंसे अलंकृत होते हुए भी भाग्यहीन है ॥ १७-२१ ॥
यम उवाच
पतिव्रते महाभागे परितुष्टोऽस्मि ते शुभे।
विना सत्यवतः प्राणैर्वरं वरय मा चिरम् ॥ २२
यमने कहा- महाभाग्यशालिनी पतिव्रते ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, अतः शुभे। सत्यवान्के प्राणोंको छोड़कर कोई भी वरदान माँग लो, देर मत करो ॥ २२॥
सावित्र्युवाच
विनष्टचक्षुषो राज्यं चक्षुषा सह कारय।
च्युतराष्ट्रस्य धर्मज्ञ श्वशुरस्य महात्मनः ।। २३
सावित्री बोली- धर्मज्ञ! जो राज्यसे च्युत हो गये हैं तथा जिनकी आँखें नष्ट हो गयी हैं, ऐसे मेरे महात्मा वशुरको राज्य और नेत्रसे संयुक्त कर दीजिये ॥ २३ ॥
यम उवाच
दूरे पथे गच्छ निवर्त भद्रे भविष्यतीदं सकलं त्वयोक्तम् ।
ममोपरोधस्तव च क्लमः स्या त्तथाधुना तेन तव ब्रवीमि ॥ २४
यमराजने कहा-भद्रे ! तुम बहुत दूरतक चली आयी हो, अतः अब लौट जाओ। तुम्हारी यह सब अभिलाषा पूर्ण होगी। तुम्हारे मेरे पीछे चलनेसे मेरे काममें विघ्न पड़ेगा और तुम्हें भी थकावट होगी, इसीलिये इस समय मैं तुमसे ऐसा कह रहा हूँ ॥२४॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सावित्र्युपाख्याने प्रथमवरलाभो नाम दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २९० ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सावित्री-उपाख्यानमें प्रथम वरलाभ नामक दो सौ दसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २१० ॥
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