मत्स्य पुराण दो सौ बासठवाँ अध्याय
पीठिकाओंके भेद, लक्षण और फल
सूर उवाच
पीठिकालक्षणं वक्ष्ये यथावदनुपूर्वशः ।
पीठोच्छ्रायं यथावच्च भागान् षोडश कारयेत् ॥ १
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। अब मैं आपलोगोंको पीठिकाओं के लक्षणों को आनुपूर्वी यथार्थ रूप से बठला रहा हूँ। पीठि का को ऊँचाईको सोलह भागोंमें विभक्त करे। १
भूमावेकः प्रविष्टः स्याच्चतुर्भिर्जगती मता।
वृत्तो भागस्तथैकः स्याद् वृतः पटलमागतः ॥ २
भागैस्त्रिभिस्तथा कण्ठः कण्ठपट्टस्तु भागतः ।
भागाभ्यामूर्ध्वपट्टश्च शेषभागेन पट्टिका ॥ ३
प्रविष्टं भागमेकैकं जगती यावदेव तु ।
निर्गमस्तु पुनस्तस्य यावद् वै शेषपट्टिका ॥ ४
वारिनिर्गमनार्थ तु तत्र कार्यः प्रणालकः ।
पीठिकानां तु सर्वांसामेतत्सामान्यलक्षणम् ॥ ५
विशेषान् देवताभेदाञ्शृणुध्वं द्विजसत्तमाः ।
स्थण्डिला वाथ वापी वा यक्षी वेदी च मण्डला ।। ६
पूर्णचन्द्रा च वज्रा च पद्मा वार्धशशी तथा।
त्रिकोणा दशमी तासां संस्थानं वा निबोधत ॥ ७
स्थण्डिला चतुरस्त्रा तु वर्जिता मेखलादिभिः।
वापी द्विमेखला ज्ञेया यक्षी चैव त्रिमेखला ।। ८
चतुरखायता वेदी न तां लिङ्गेषु योजयेत्।
मण्डला वर्तुला या तु मेखलाभिर्गणप्रिया ॥ ९
रक्ता द्विमेखला मध्ये पूर्णचन्द्रा तु सा भवेत्।
मेखलात्रयसंयुक्ता घडस्त्रा वत्रिका भवेत् ॥१०
उनमें बौचका एक भाग पृथ्वी में प्रविष्ट रहेगा। ऊपरके शेष चार भाग 'जगती' माने जाते हैं। उनसे ऊपरका एक भाग पटल भागसे घिरा हुआ 'मृच' कहलाता है। उसके ऊपर तीन भागोंसे कण्ठ, एक भागसे कण्ठपट्ट, दो भागों से ऊर्ध्व पट्ट तथा शेष भागों से पट्टिका बनायी जाती है। एक-एक भाग जगतीपर्यन्त एक-दूसरेमें प्रविष्ट रहते हैं। फिर शेष पट्टि का पर्यन्त सबका निर्गम होता है। पट्टिकामें जल निकलनेके लिये (सोमसूत्रसे मिली) नाली बनानी चाहिये। यह सभी पीठि का ओं का सामान्य लक्षण है। ऋषिगण। अब देवताओंके भेदसे पीठिकाओंके विशेष लक्षण सुनिये। स्थण्डिला, वापी, यक्षी, वेदी, मण्डला, पूर्णचन्द्रा, बना, पद्मा, अर्धशशी तथा दसवीं त्रिकोणा ये पौठिकाओंके भेद हैं। अब इनकी स्थिति सुनिये। स्थण्डिला-पीठिका चौकोर होती है, इसमें मेखला आदि कुछ नहीं होती। बापीको दो मेखलाओंसे तथा यक्षीको तीन मेखलाओंसे युक्त जानना चाहिये। चार पहलवाली आयताकार पीठिका वेदी कही जाती है, उसे लिङ्गकी स्थापनामें प्रयुक्त नहीं करना चाहिये। मण्डला मेखलाओंसे युक्त गोलाकार होती है, वह प्रमथगणोंको प्रिय होती है। जो पीठिका लाल वर्णवाली तथा मध्यमें दो मेखलाओंसे युक्त होती है, उसे पूर्णचन्द्रा कहते हैं। तीन मेखलाओं से युक्त छः कोने वाली पीठि का को वज्रा कहते हैं॥ २-१०॥
षोडशास्त्रा भवेत् पद्मा किंचिद्धस्वा तु मूलतः ।
तथैव धनुषाकारा सार्धचन्द्रा प्रशस्यते ॥ ११
त्रिशूलसदृशी तद्वत् त्रिकोणा ह्यूर्ध्वतो मता।
प्रागुदक्प्रवणा तद्वत् प्रशस्ता लक्षणान्विता ॥ १२
परिवेषं त्रिभागेन निर्गमं तत्र कारयेत्।
विस्तारं तत्प्रमाणं च मूले चाग्रे तथोर्ध्वतः ॥ १३
जलमार्गश्च कर्तव्यस्त्रिभागेन सुशोभनः ।
लिङ्गस्यार्थविभागेन स्थौल्येन समधिष्ठिता ।। १४
मेखला तत्त्रिभागेन खातं चैव प्रमाणतः ।
अथवा पादहीनं तु शोभनं कारयेत् सदा ॥ १५
उत्तरस्थं प्रणालं च प्रमाणादधिकं भवेत्।
स्थण्डिलायामथारोग्यं धनं धान्यं च पुष्कलम् ॥ १६
गोप्रदा च भवेद् यक्षी वेदी सम्पत्प्रदा भवेत्।
मण्डलार्या भवेत् कीर्तिवरदा पूर्णचन्द्रिका ॥ १७
आयुष्प्रदा भवेद् वज्रा पद्मा सौभाग्यदा भवेत्।
पुत्रप्रदार्थचन्द्रा स्यात् त्रिकोणा शत्रुनाशिनी ॥ १८
देवस्य यजनार्थ तु पीठिका दश कीर्तिताः ।
शैले शैलमयीं दद्यात् पार्थिवे पार्थिवीं तथा ॥ १९
दारुजे दारुर्जा कुर्यान्मिश्रे मिश्रां तथैव च।
नान्ययोनिस्तु कर्तव्या सदा शुभफलेप्सुभिः ॥ २०
अर्चायामासमें दैर्ध्व लिङ्गायामसमं तथा।
यस्य देवस्य या पत्नी तां पीठे परिकल्पयेत्।
एतत् सर्वं समाख्यातं समासात् पीठलक्षणम् ॥ २१
मूल भागमें कुछ छोटी (पद्मपत्र-सी) सोलह पहलोंवाली पीठिका पद्मा कही जाती है। उसी प्रकार धनुषके आकार वाली पीठि काको अर्धचन्द्रा कहते हैं। ऊपरसे त्रिशूलके समान दिखायी पड़नेवाली, पूर्व तथा उत्तरको ओर कुछ बालू एवं श्रेष्ठ लक्षणोंसे युक्त पौठिकाको त्रिकोणा कहते हैं। पीठिकाके तीन भाग परिधिके बाहर रहें और मूल, अग्रभाग तथा ऊपर-इन तीनों भागोंके विस्तार अधिक हों। त्रिभागमें जत निकलनेकी सुन्दर नाली (सोमसूत्र) होनी चाहिये। पीठिका लिङ्गके आधे भागको मोटाईके परिमाणसे बनानी चाहिये। लिङ्गके तीन भागके बराबर मेखलाका खात बनाना चाहिये। अथवा वह चौथाई भागसे कम रहे, किंतु सर्वदा सुन्दर बनाना चाहिये। उत्तरकी ओर स्थित नाली प्रमाणसे कुछ अधिक ही बनानी चाहिये।
स्थण्डिला-पीठिकाके स्थापित करनेसे आरोग्य तथा विपुल धन-धान्यादिकी प्राप्ति होती है। बक्षी गौ देनेवाली तथा वेदी सम्पत्तिदायिनी कही गयी है। मण्डलामें कीर्ति प्राप्त होती है. और पूर्णचन्द्रिका वरदान देनेवाली कही गयी है। बजा दीर्घायु प्रदान करनेवाली तथा पया सौभाग्यदायिनी कही गयी है। अर्धचन्द्रा पुत्र प्रदान करनेवाली तथा त्रिकोणा शत्रुनाशिनी होती है। इस प्रकार देवताकी पूजाके लिये में दस पीठिकाएँ कही गयी हैं। पत्थरकी प्रतिमानें पत्थरको तथा मिट्टीको मूर्तिमें मिट्टीकी पीठिका देनी चाहिये। इसी प्रकार काष्ठकी मूर्तिमें काष्ठकी तथा मिश्रित धातुओंकी प्रतिमामें धातुमिश्रितकी पौठिका रखनी चाहिये। शुभ फलको कामना करनेवालों को दूसरे प्रकारको पीठिका कभी नहीं देनी चाहिये। पीठिकाकी लम्बाई मूर्तिमें तथा लिङ्गमें बराबर नहीं रखी जाती। जिस देवताकी जो पत्नी हो, उसे उसी पौठपर स्थापित करना चाहिये। इस प्रकार यह मैंने आपलोगोंको संक्षेपमें पीठिकाका लक्षण बतलाया है॥ ११-२१॥
इति श्रीमालये महापुराणी देवताचाँनुकीर्तने पीठिकानुकीर्तन नाम द्विषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६२॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहादेवानुकीर्तनप्रसङ्गमें पीतिका वर्णन नामक दो सी बासतवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ २६२॥
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