प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसंग में यज्ञाङ्ग रूप कुंडा के निर्माण की विधि | pratima-pratishtha ke prasang mein yagyaang roop kunda ke nirmaan kee vidhi

मत्स्य पुराण दो सौ चौंसठवाँ अध्याय

प्रतिमा-प्रतिष्ठा के प्रसंग में यज्ञाङ्ग रूप कुंडा के निर्माण की विधि 

ऋषि उवाच

देवतानामथैतासां प्रतिष्ठाविधिमुत्तमम् ।
वद सूत यथान्यायं सर्वेषामप्यशेषतः ॥ १

ऋषियोंने पूछा- सूतजी। अब आप इन सभी देवताओं की प्रतिमा के स्थापनको उत्तम विधि यथार्थ रूप से विस्तार पूर्वक बतलाइ‌ये ॥ १॥

सूत उवाच

अथातः सम्प्रवक्ष्यामि प्रतिष्ठाविधिमुत्तमम्। 
कुण्डमण्डपवेदीनां प्रमाणं च यथाक्रमम् ॥ २

चैत्रे वा फाल्गुने वापि ज्येष्ठे वा माधवे तथा।
माघे वा सर्वदेवानां प्रतिष्ठा शुभदा भवेत् ॥ ३

प्राप्य पक्षं शुभं शुक्लमतीते दक्षिणायने।
पञ्चमी व द्वितीया च तृतीया सप्तमी तथा ॥ ४

दशमी पौर्णमासी च तथा श्रेष्ठा त्रयोदशी।
आसु प्रतिष्ठा विधिवत् कृता बहुफला भवेत् ॥ ५

आषाढे द्वे तथा मूलमुत्तराद्वयमेव च।
ज्येष्ठाश्रवणरोहिण्यः पूर्वाभाद्रपदा तथा ॥ ६

हस्ताश्विनी रेवती च पुष्यो मृगशिरास्तथा।  
अनुराधा तथा स्वाती प्रतिष्ठादिषु शस्यते ॥ ७

बुधो बृहस्पतिः शुक्रस्त्रयोऽप्येते शुभग्रहाः । 
एभिर्निरीक्षितं लग्नं नक्षत्रं च प्रशस्यते ॥ ८

ग्रहताराबलं लब्ब्वा ग्रहपूजां विधाय च।
निमित्तं शकुनं लब्ध्वा वर्जयित्वाद्भुतादिकम् ॥ ९

शुभयोगे शुभस्थाने क्रूरग्रहविवर्जिते।
लग्ने ऋक्षे प्रकुर्वीत प्रतिष्ठादिकमुत्तमम् ॥ १०

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। अब मैं क्रमशः देवप्रतिमाकी प्रतिष्ठाकी उत्तम विधि तथा मण्डप, कुण्ड और वेदीके प्रमाण को बतला रहा हूँ। फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ अथवा माघमासमें सभी देवताओंकी प्रतिष्ठा शुभदायिनी होती है। दक्षिणायन बीत जानेपर अर्थात् उत्तरायणमें शुभकारी शुक्लपक्षमें द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी, पूर्णमासी तिथियोंमें विधिपूर्वक की गयी प्रतिष्ठा बहुत फल देनेवाली होती है। पूर्वाषाढ़, उत्तराषाढ़, मूल, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराभाद्रपद, ज्येष्ठा, श्रवण, रोहिणी, पूर्वाभाद्रपद, हस्त, अश्विनी, रेवती, पुष्प, मृगशिरा, अनुराधा तथा स्वाती चे नक्षत्र प्रतिष्ठा आदिमें प्रशस्त माने गये हैं। बुध, बृहस्पति तथा शुक्र- ये तीनों ग्रह शुभकारक हैं। इन तीनों ग्रहोंसे दृष्ट (एवं युक्त) लग्न तथा नक्षत्र प्रशंसनीय हैं। ग्रह और ताराका बल प्राप्तकर तथा उनकी पूजाकर शुभ शकुनको देखकर, अद्भुत आदि बुरे योगोंको छोड़कर शुभ योग में शुभस्थानपर कूर ग्रहोंसे रहित शुभ लग्न एवं शुभ नक्षत्रमें प्रतिष्ठा आदि उत्तम कार्योंको करना चाहिये ॥ २-१०॥

अयने विषुवे तद्वत् षडशीतिमुखे तथा।
एतेषु स्थापनं कार्य विधिदृष्टेन कर्मणा ॥ ११

प्राजापत्ये तु शयनं श्वेते तूत्थापनं तथा। 
मुहूर्ते स्थापनं कुर्यात् पुनर्ब्रह्मे विचक्षणः ॥ १२ 

प्रासादस्योत्तरे वापि पूर्वे वा मण्डपो भवेत्। 
हस्तान् षोडश कुर्वीत दश द्वादश वा पुनः ॥ १३ 

मध्ये वेदिकया युक्तः परिक्षिप्तः समंततः । 
पञ्च सप्तापि चतुरः करान् कुर्वीत वेदिकाम् ॥ १४

चतुर्भिस्तोरणैर्युक्तो मण्डपः स्याच्चतुर्मुखः । 
प्लक्षद्वारं भवेत् पूर्वं याम्ये चौदुम्बरं भवेत् ॥ १५ 

पश्चादश्वत्वघटितं नैयग्रोधं तथोत्तरे।
भूमी हस्तप्रविष्टानि चतुर्हस्तानि चोच्छ्रये ॥ १६ 

सूपलिप्तं तथा श्लक्ष्णं भूतलं स्वात् सुशोभनम् । 
वस्वैर्नानाविधैस्तद्वत् पुष्पपल्लवशोभितम् ॥ १७

कृत्वैवं मण्डपं पूर्व चतुद्वरिषु विन्यसेत् । 
अवणान् कलशानष्टौ ज्वलत्काञ्चनगर्भितान् ॥ १८

चूतपल्लवसंछन्नान् सितवस्त्रयुगान्वितान् । 
सर्वोषधिफलोपेतां श्चन्द‌नोदकपूरितान् ॥ १९

एवं निवेश्य तद्गर्भे गन्धधूपार्चनादिभिः । 
ध्वजादिरोहणं कार्य मण्डपस्य समन्ततः ॥ २० 

अयन (कर्क-मकर), विषुव (तुला मेष) और पडतीतिमुख (कन्या, मिथुन, धनुर्भीन) संक्रान्तियोंमें विधिपूर्वक अनुष्ठान द्वारा देवस्थापन करना चाहिये। चतुर मनुष्यको चाहिये कि वह प्राजापत्य मुहूर्तमें शयन, खेतमें उत्थापन तथा ब्राहामें स्थापन करे। अपने महलको पूर्व अथवा उत्तर दिशामें मण्डप बनवाना चाहिये। उसे सोलह, बारह अथवा दस हाथ का बनाना चाहिये। उसके मध्यभागमें वेदी होनी चाहिये, जो चारों ओरसे समान तथा पाँच, सात या चार हाथ विस्तृत हो। चतुर्मुख मण्डपके चारों और चार तोरण बने हों। पूर्व दिशामें पाकड़का, दक्षिणमें गूलरका, पश्चिममें पीपलका तथा उत्तरमें बरगदका द्वार होना चाहिये, जो भूमिमें एक हाथ प्रविष्ट हों तथा भूमिसे ऊपर चार हाथ ऊँचे हों। उसका भूक्त भलीभाँति लिपा हुआ, चिकना तथा सुन्दर होना चाहिये। इसी प्रकार विविध वस्त्र, पुष्प और पल्लवों से सुशोभित करना चाहिये। इस प्रकार मण्डपका निर्माण कर पहले चारों द्वारोंपर छिद्ररहित आठ कलशों की स्थापना करनी चाहिये, जो देदीप्यमान सुवर्णको भति कान्तियुक्त, आमके पल्लवोंसे आच्छादित, दो चेत वस्वोंसे युक्त, सभी ओषधियों एवं फलोंसे सम्पन्न तथा बन्दनमित्रित जलसे परिपूर्ण हों। इस प्रकार उन कलशोंको स्थापित कर गन्ध, धूप आदि पूजन-सामग्रियोंद्वारा उनके भीतर पूजन करे। फिर मण्डपके चारों ओर ध्वजा आदिकी स्थापना करनी चाहिये ॥ ११-२०॥

ध्वजांश्च लोकपालानां सर्वदिक्षु निवेशयेत्। 
पताका जलदाकारा मध्ये स्यान्मण्डपस्य तु ॥ २१

गन्धधूपादिकं कुर्यात् स्वैः स्वैर्मन्त्रैरनुक्रमात्। 
बलिं च लोकपालेभ्यः स्वमन्त्रेण निवेदयेत् ॥ २२

ऊर्ध्वं तु ब्रह्मणे देयं त्वधस्ताच्छेषवासुकेः ।
संहितायां तु ये मन्त्रास्त‌दैवत्याः शुभाः स्मृताः ॥ २३

तैः पूजा लोकपालानां कर्तव्या च समन्ततः ।
त्रिरात्रमेकरात्रं वा पञ्चरात्रमधापि वा ॥ २४

अथवा सप्तरात्रं तु कार्य स्वादधिवासनम् । 
एवं सतोरणं कृत्वा अधिवासनमुत्तमम् ॥ २५ 

तस्याप्युत्तरतः कुर्यात् स्नानमण्डपमुत्तमम्। 
त्तदर्धेन त्रिभागेन चतुर्भागेन वा पुनः ॥ २६ 

आनीय लिङ्गमर्चा वा शिल्पिनः पूजयेद् बुधः । 
वस्त्राभरणरत्नैश्च येऽपि तत्परिचारकाः ॥ २७

क्षमध्वमिति तान् ब्रूयाद् यजमानोऽप्यतः परम् । 
देवं प्रस्तरणे कृत्वा नेत्रज्योतिः प्रकल्पयेत् ॥ २८ 

लोक पालों की पताका सभी दिशाओंमें स्थापित करे। मण्डपके मध्यभागमें बादलके रंगकी अथवा बहुत ऊँबी पताका स्थापित करनी चाहिये। फिर क्रमशः लोकपालोंक पृथक् पृथक् मन्त्रोंद्वारा गन्ध-धूपादिसे उनकी पूजा करे तथा उन्होंकि मन्त्रोंद्वारा उन्हें बलि प्रदान करे। ब्रह्माजीके लिये ऊपर तथा रोष वासुकिके लिये नीचे पूजाका विधान कहा गया है। संहितामें जो मन्त्र जिस देवताके लिये आये हैं, उसीके लिये प्रयुक्त होने पर मङ्गलकारी माने गये हैं। उन्हीं मन्त्रोंद्वारा चारों और लोकपालोंकी पूजा करनी चाहिये। तत्पश्चात् तीन रात, एक रात, पाँच रात अथवा सात राततक उनका अधिवासन करना चाहिये। इस प्रकार तोरण तथा उत्तम अधिवासन कर उक्त मण्डपकी उत्तर दिशामें उसके आधे, तिहाई अथवा चौथाई भागके परिमाणसे उत्तम स्नानमण्डपका निर्माण करना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुष लिङ्ग या मूर्तिको लाकर कारीगरों तथा उनके सभी अनुचरोंकी वस्त्र, आभूषण और रत्नद्वारा पूजा करे। तदनन्तर यजमान उनसे यह कहे कि 'मेरे अपराधोंको क्षमा कीजिये।' तत्पश्चात् देवताको बिछीनेपर लिटाकर उनकी नेत्रज्योति सम्पादित करे ॥ २१-२८॥

अक्ष्णोरुद्धरणं वक्ष्ये लिङ्गस्यापि समासतः । 
सर्वतस्तु बलिं दद्यात् सिद्धार्थघृतपायसैः ॥ २९

शुक्लपुष्पैरलङ्कृत्य घृतगुग्गुलधूपितम् । 
विप्राणां चार्चनं कुर्याद दद्याच्छक्त्या च दक्षिणाम् ॥ ३०

गां महीं कनकं चैव स्थापकाय निवेदयेत् ।
लक्षणं कारयेद् भक्त्या मन्त्रेणानेन वै द्विजः ॥ ३१

ओं नमो भगवते तुभ्यं शिवाय परमात्मने।
हिरण्यरेतसे विष्णो विश्वरूपाय ते नमः ॥ ३२

मन्त्रोऽयं सर्वदेवानां नेत्रज्योतिष्यपि स्मृतः ।
एवमामन्त्र्य देवेशं काञ्चनेन विलेखयेत् ॥ ३३

मङ्गल्यानि च वाद्यानि ब्रह्मघोषं सगीतकम् । 
वृद्धयर्थ कारयेद् विद्वानमङ्गल्यविनाशनम् ।। ३४

लक्षणोद्धरणं वक्ष्ये लिङ्गस्य सुसमाहितः । 
त्रिधा विभज्य पूज्यायां लक्षणं स्याद् ‌विभाजकम् ॥ ३५

लेखात्रयं तु कर्तव्यं यवाष्टान्तरसंयुतम्। 
न स्थूलं न कृशं तद्वन्न वक्रं छेदवर्जितम् ॥ ३६ 

निम्नं यवप्रमाणेन ज्येष्ठलिङ्गस्य कारयेत्। 
सूक्ष्मास्ततस्तु कर्तव्या यथा मध्यमके न्यसेत् ॥ ३७

अष्टभक्तं ततः कृत्वा त्यक्त्वा भागत्रयं बुधः ।
लम्बयेत् सप्त रेखास्तु पार्श्वयोरुभयोः समाः ॥ ३८

तावत् प्रलम्बयेद् विद्वान् याव‌द्भागचतुष्टयम्। 
भ्राम्यते पञ्चभागोवं कारयेत् संगमं ततः ॥ ३९

रेखयोः संगमे तद्वत् पृष्ठे भागद्वयं भवेत्।
एवमेतत्समाख्यातं समासाल्लक्षणं मया ॥ ४०

अब मैं संक्षेपमें नेत्रों तथा अन्य चिह्नोंके उद्धारका प्रकार बता रहा हूँ। पहले देवताके चारों ओर पौली सरसों, घृत और खीरद्वारा वॉल प्रदान करे। फिर क्षेत पुष्पोंसे अलंकृतकर घृत और गुग्गुलसे धूप करनेके बाद ब्राह्मणोंकी पूजा करे और उन्हें अपनी शक्तिके अनुकूल दक्षिणा दे। स्थापना करानेवाले ब्राह्मणको गौ, पृथ्यो तथा सुवर्णकी दक्षिणा देनी चाहिये। फिर ब्राह्मण भक्तिपूर्वक इस मन्त्रद्वारा देवप्रतिमामें नेत्र (ज्योति) की स्थापना करे अथवा करवाये। मन्त्र यों है- 

'ॐ नमो भगवते तुभ्यं शिवाय परमात्मने। 
हिरण्यरेतसे विष्णो विश्वरूपाय ते नमः ।'

'विष्णो। आप शिव, परमात्मा, हिरण्यरेता, विश्वरूप और ऐश्वर्यशाली हैं, आपको बारंबार नमस्कार है।' यह मन्त्र सभी देवताओंकी प्रतिमाके नेत्रज्योतिसंस्कारमें उपयोगी माना गया है। इस प्रकार देवेशको आमन्त्रित कर सुवर्णकी शलाकाद्वारा उन्हें चिह्नित करे। तदुपरान्त विद्वान् पुरुष अपनी समृद्धि तथा अमङ्गलका विनाश करनेके लिये माङ्गलिक वाद्य, गीत और ब्राह्मणोंकी वेदध्वनियोंका समारोह करे। अब मैं स्वस्थचित्त होकर लिङ्गके लक्षणोद्धारण का प्रकार बता रहा हूँ। लिङ्गके तीन भाग करना चाहिये। उसमें विभाजक लक्षण होता है। आठ जौका अन्तर रखते हुए तीन रेखा चिह्नित करनी चाहिये, वे न तो मोटी हों, न सूक्ष्म हों, न टेढ़ी हों और न उनमें छिद्र हो। ज्येष्ठ लिङ्गमें जौके प्रमाणकी निम्न रेखा अंकित करनी चाहिये। उसके ऊपर उससे सूक्ष्म रेखा बनाये और मध्यम लिङ्गमें स्थापित करे। फिर बुद्धिमान् पुरुष आठ भाग करके तीन भागोंको छोड़ दे और दोनों पार्थोंमें समान अन्तर रखते हुए सात लम्बी रेखाएँ चिह्नित करे। विद्वान् पुरुष चार भागतिक रेखाएँ चिह्नित करे, पाँचवें भागके ऊपर रेखा घुमानी चाहिये और तदनन्तर मिला देनी चाहिये। यहीं पृष्ठभागमें रेखाओंका संगम होगा। इन दो रेखाओंक संगमस्थलपर पृष्ठदेशमें दो भाग हो जायेंगे। इस प्रकार मैंने संक्षेपमें यह लक्षणका वर्णन किया है।॥ २९-४०॥ 

इति श्रीमालये महापुराणे प्रतिद्वानुकीर्तनं नाम चतुःषधिकद्विशततमोऽध्यायः॥ २६४॥

इस प्रकार श्रीमाध्यमहापुराण प्रतिषतुकीर्तन नामक दी अभ्यासपूर्ण हुआ ॥ २६४॥ 

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