प्रतिमा-प्रतिष्ठा की विधि | pratima-pratishtha kee vidhi

मत्स्य पुराण दो सौ छाछठवाँ अध्याय

प्रतिमा-प्रतिष्ठाकी विधि

सूत उवाच

कृत्वाधिवासं देवानां शुभं कुर्यात् समाहितः । 
प्रासादस्यानुरूपेण मानं लिङ्गस्य वा पुनः ॥ १

पुष्पोदकेन प्रासादं प्रोक्ष्य मन्त्रयुतेन तु। 
पातयेत् पक्षसूत्रं तु द्वारसूत्रं तथैव च। २

सुतजी कहते हैं ऋषियो। इस प्रकार उपर्युक्त विधिसे देवताओंकी प्रतिमाका शुभ अधिवासन करना चाहिये। यज मान को एकाग्रचित्तसे प्रासाद‌के अनुरूप लिङ्ग (प्रतिमा) का मा लिङ्गके अनुरूप प्रासादका मान रखना चाहिये। १-२

आश्रयेत् किञ्चिदीशानी मध्यं ज्ञात्वा दिशं बुधः। 
ईशानीमाश्रितं देवं पूजयन्ति दिवौकसः ।। ३

आयुरारोग्यफलदमथोत्तरसमाश्रितम् ।
शुभं स्वादशुभं प्रोक्तमन्यथा स्थापनं बुधैः ॥ ४

अधः कूर्मशिला प्रोक्ता सदा ब्रह्मशिलाधिका।
उपर्यवस्थिता तस्या ब्रह्मभागाधिका शिला ॥ ५

ततस्तु पिण्डिका कार्या पूर्वोक्तैर्मानलक्षणैः ।
ततः प्रक्षालिर्ता कृत्या पञ्चगव्येन पिण्डिकाम् ॥ ६

कषायतोयेन पुनर्मन्त्रयुक्तेन सर्वतः ।
देवतार्चाक्षयं मन्वं पिण्डिकासु नियोजयेत् ॥ ७

तत उत्थाय्य देवेशमुत्तिष्ठ ब्रह्मणेति च।
आनीय गर्भभवनं पीठान्ते स्थापयेत् पुनः ॥ ८

अर्घ्यपाद्यादिर्क तत्र मधुपर्क प्रयोजयेत्।
ततो मुहूर्त विश्रम्य रत्नन्यासं समाचरेत् ॥ ९

बज्रमौक्तिक वैदूर्यशङ्खस्फटिकमेव च।
पुष्परागेन्द्रनीलं च नीलं पूर्वादिदिक्क्रमात् ॥ १०

लिङ्गस्थापनके पूर्व पुष्यमिश्रित जलसे मन्दिरको धोकर मन्त्रोच्चारण करते हुए पक्षसूत्र तथा द्वारसूत्रको गिराकर नापना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुषको देवमण्डपको मध्यभूमिका निश्चय कर कुछ ईशानकोणकी ओर बढ़ना चाहिये; क्योंकि देवतागण ईशानको दिशामें अवस्थित भगवान् शंकरकी पूजा करते हैं। उत्तर दिशामें अधिवित देवता आयु तथा आरोग्यरूपी फल देनेवाले और कल्याणकारी कहे गये हैं। बुद्धिमानोंने इनके अतिरिक्त अन्य दिशाओंमें स्थापनाको अशुभकारी बताया है। लिङ्ग के नीचे कूर्म-शिलाको स्थापना करनी चाहिये। यह ब्रहाशिलाकी अपेक्षा बड़ी तथा भारी होती है। उसके ऊपर ब्रह्मभागसे बड़ी ब्रहाशिला स्थापित होती है। उसके ऊपर पूर्वोक परिमाणोंके अनुसार पिण्डिकाकी स्थापना करनी चाहिये। तत्पश्वात् पञ्चगव्यद्वारा पिण्डिकाको धौकर पुनः पञ्चकषायके जलसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक प्रक्षालन करे। पिण्डिकाओंमें भी देव-प्रतिमा-सम्बन्धी मन्त्रका प्रयोग करना चाहिये। तदुपरान्त 'उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्मते०' (वाजसने० ३४।५६) इस मन्त्रसे देव-प्रतिमाको उठाकर मण्डपके मध्यमें लाकर पुनः पीठिका पर स्थापित करे। वहाँ अर्घ्य, पाद्य और मधुपर्क आदि समर्पित करे। फिर एक मुहूर्ततक विश्रामकर वहाँ रत्नोंकी स्थापना करनी चाहिये। हीरा, मोती, बिल्लौर, शङ्ख, स्फटिक, पुखराज, नीलम और महानील-इन रत्नोंको पूर्व दिशाके क्रमसे स्थापित करना चाहिये॥३-१०॥ 

तालकं च शिलावन्नमञ्जनं श्याममेव च।
काञ्ची काशी समाक्षीकं गैरिकं चादितः क्रमात् ॥ ११

गोधूमं च यवं तद्वत् तिलमुद्रां तथैव च।
नीवारमध श्यामार्क सर्वपं व्रीहिमेव च ॥ १२

न्यस्य क्रमेण पूर्वादि चन्दनं रक्तचन्दनम्।
अगरुं चाञ्जनं चापि उशीरं च ततः परम् ॥ १३

वैष्णवीं सहदेवीं च लक्ष्मणां च ततः परम्।
स्वर्लोकपालनाम्ना तु न्यसेदोंकारपूर्वकम् ॥ १४

सर्वबीजानि धातूंश्च रत्नान्योषधयस्तथा।
काञ्चनं पद्मरागं तु पारदं पद्ममेव च ॥ १५

कूर्म धरां वृर्ष तत्र न्यसेत् पूर्वादितः क्रमात् । 
ब्रहास्थाने तु दातव्याः संहताः स्युः परस्परम् ॥ १६

कनकं विद्रुमं ताचं कांस्यं चैवारकूटकम्। 
रजतं विमलं पुष्पं लोहं चैव क्रमेण तु ॥ १७

काञ्चनं हरितालं च सर्वाभावेऽपि निक्षिपेत्।
दद्याद् बीजौषधिस्थाने सहदेवीं यवानपि ॥ १८

न्यासमन्त्रानतो वक्ष्ये लोकपालात्मकानिह।
इन्द्रस्तु सहसा दीप्तः सर्वदेवाधिपो महान् ॥ १९

वज्रहस्तो महासत्त्वस्तस्मै नित्यं नमो नमः ।
आग्रेयः पुरुषो रक्तः सर्वदेवमयः शिखी ॥ २०

धूमकेतुरनाधृष्यस्तस्मै नित्यं नमो नमः।
यमश्चोत्पलवर्णाभः किरीटी दण्डधृक् सदा ॥ २१ 

फिर हरताल, शिलाजीत, अंजन, श्याम, कांजी, काशी, मधु और गेरू इन सबको क्रमसे पूर्वादि दिशाओंमें रखना चाहिये। गेहुँ, जौ, तिल, मूंग, तीनी, साँवाँ, सरसों और चावल इन सबको भी पूर्वादि दिशाके क्रमसे रखकर श्वेत चन्दन, लाल चन्दन, अगुरु, अंजन, उशीर (खश), विष्णुक्रान्ता, सहदेई तथा लक्ष्मणा (चेत कटहली)- इन्हें भी पूर्वादि दिशाओंमें क्रमशः उन-उन लोकपालोंके नामसे ओंकारपूर्वक स्थापित करना चाहिये। फिर सभी प्रकारके बीज, धातुएँ, रत्न, ओषधियाँ, सुवर्ण, पदद्मराग, पारद, पया, कूर्म, पृथ्वी तथा वृषभ इन्हें भी पूर्वादि दिशाओंके क्रमसे स्थापित करना चाहिये। ब्रह्माके स्थानपर सभी बस्तुओंको परस्पर एकत्र करके रखना चाहिये। सुवर्ण, मूँगा, ताँबा, कौसा, पीतल, चाँदी, निर्मल पुष्प और लौह-इन सबको भी क्रमसे रखना चाहिये। इन सभी वस्तुओंके अभावमें सुवर्ण और हरितालको भी रखा जा सकता है। बीज और ओषधिके स्थानपर सहदेवी और जी रखा जा सकता है। अब में न्यास करनेके लिये प्रत्येक लोकपालके क्रमसे मन्त्रोंको बतला रहा हूँ। पूर्व दिशाके स्वामी महान् दीप्तिशाली, सभी देवताओंके अधिपति बज्रधारी महापराक्रमी इन्द्र हैं, उन्हें नित्य बारंबार नमस्कार है। अग्निकोणमें स्थित पुरुष अग्निदेव लाल वर्णवाले, सर्वदेवमय, धूमकेतु और दुर्जय हैं, उन्हें नित्य बारंबार प्रणाम है। दक्षिण दिशाके स्वामी यमराजका वर्ण कमलके समान है। वे सिरपर किरीट तथा हाथमें सदा दण्ड धारण करनेवाले, धर्मके साक्षी और विशुद्धात्मा हैं, उन्हें नित्य बारंबार अभिवादन है॥ ११-२१॥

धर्मसाक्षी विशुद्धात्मा तस्मै नित्यं नमो नमः । 
निर्ब्रऋतिस्तु पुमान् कृष्णः सर्वरक्षोऽधिपो महान् ॥ २२

खड्गहस्तो महासत्त्वस्तस्मै नित्यं नमो नमः। 
वरुणो धवलो जिष्णुः पुरुषो निम्नगाधिपः ॥ २३

पाशहस्तो महाबाहुस्तस्मै नित्यं नमो नमः। 
वायुश्च सर्ववर्णों वै सर्वगन्धवहः शुभः ॥ २४

पुरुषो ध्वजहस्तश्च तस्मै नित्यं नमो नमः। 
गौरो यश्च पुमान् सौम्यः सर्वोषधिसमन्वितः ॥ २५

नक्षत्राधिपतिः सोमस्तस्मै नित्यं नमो नमः। 
ईशानपुरुषः शुक्लः सर्वविद्याधिपो महान् ।। २६

शूलहस्तो विरूपाक्षस्तस्मै नित्यं नमो नमः । 
पद्मयोनिश्चतुर्मूर्तिर्वेदवासाः पितामहः ॥ २७

यज्ञाध्यक्ष चतुर्वक्वस्तस्मै नित्यं नमो नमः। 
योऽसावनन्तरूपेण ब्रह्माण्ड सचराचरम् ॥ २८

पुष्पवद् धारयेन्मूर्तिन तस्मै नित्यं नमो नमः। 
ओङ्कारपूर्वका होते न्यासे बलिनिवेदने ॥ २९

मन्त्राः स्युः सर्वकार्याणां वृद्धिपुत्रफलप्रदाः । 
न्यासं कृत्वा तु मन्त्राणां पायसेनानुलेपितम् ।। ३०

पटेनाच्छादयेच्छुर्भ शुक्लेनोपरि यत्नतः । 
तत उत्थाप्य देवेशमिष्टदेशे तु शोभने ॥ ३९

धुवा द्यौरिति मन्वेण श्वभ्रोपरि निवेशयेत्। 
ततः स्थिरीकृतस्यास्य हस्तं दत्त्वा तु मस्तके ॥ ३२

ध्यात्वा परमस‌द्भावाद् देवदेवं च निष्कलम्। 
देवखतं तथा सोयं रुद्रसूक्तं तथैव च ॥ ३३

आत्मानमीश्वरं कृत्वा नानाभरणभूषितम्।
यस्य देवस्य यद्रूपं तद्व्याने संस्मरेत् तथा ॥ ३४

नैऋत्यकोणके स्वामी निऋति (यातुधान) कृष्णवर्णवाले, महान् पुरुष, सम्पूर्ण राक्षसोंके अधिपति, खड्गधारी और महान् पराक्रमी हैं, उन्हें नित्य बारंबार नमस्कार है। पश्चिमके स्वामी वरुणदेव श्वेत वर्णवाले, विजेतास्वरूप, नदियोंके स्वामी, पाशधारी और महाबाहु हैं, उन्हें नित्य बारंबार प्रणाम है। वायव्यकोणके स्वामी वायुदेवता सब प्रकारके वर्णवाले, सभी प्रकारके गन्धको धारण करनेवाले और ध्वजाधारी हैं, उन्हें नित्य बारंबार अभिवादन है। उत्तरके स्वामी सोमदेव गौरवर्णवाले, सौम्य आकृतिसे युक्त, सभी ओषधियोंसे समन्वित तथा नक्षत्रोंके अधिपति हैं, उन्हें नित्य बारंबार नमस्कार है। ईशानकोणके स्वामी ईशान (महा) देव शुक्ल वर्णवाले, समस्त विद्याओंके अधिपति, महान् शूलधारी और विरुपाक्ष हैं, उन्हें नित्य बारंबार प्रणाम है। ऊर्जा (ऊपरको) दिशाके स्वामी पायीनि ब्रहम, वेदरूपी वस्त्रसे सुशोभित, यज्ञाध्यक्ष, चार मुखवाले पितामह है, उन्हें नित्य बारंबार अभिवादन है। ये जो अनन्तरूपसे निखिल चराचर ब्राण्डको पुष्पकी भाँति अपने मस्तकपर धारण करते हैं, (नीचेकी दिशाके स्वामी) उन शेषको नित्य बारंबार नमस्कार है। इन मन्त्रोंको न्यास करते तथा बलि देते समय ॐकारपूर्वक उच्चारण करना चाहिने। ये सभी कार्योंने समृद्धि तथा पुत्ररूभी फल देनेवाले हैं। इस प्रकार मन्त्रोंका न्यास कर भूतसे अनुलिप्त गर्तको बेत वरवाद्वारा यत्लपूर्वक ऊपरसे आच्छादित कर दे। तदनन्तर देवेशको उठाकर सुन्दर इट देशमें 'धुवा द्यौः (आधर्वण) इस मन्त्रका उच्चारण करते हुए गर्तपर स्थापित कर दे। फिर उसे स्थिर करके उसके मस्तकपर हाथ रखकर अपनेको नाना प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित परब्रह्मका अंश मानकर परम स‌द्भावपूर्वक निष्फल देवदेवेश्ररका ध्यान करके सोमसूक तथा 'रुद्रसूक' का पाठ करे। ध्यानके समय जिस देवताका जैसा स्वरूप हो, वैसा ही उसका स्मरण करना चाहिये ॥ २२-३४॥

अतसीपुष्यसंकाशं शङ्खचक्रगदाधरम्।
संस्थापयामि देवेशं देवो भूत्वा जनार्दनम् ॥ ३५

अक्षरे च दशबाहुं च चन्द्रार्धकृतशेखरम्।
गणेशं वृषसंस्थं च स्थापयामि त्रिलोचनम् ॥ ३६

ऋषिभिः संस्तुतं देवं चतुर्वक्वं जटाधरम्। 
पितामहं महाबाहुं स्थापयाम्यम्बुजोद्भवम् ॥ ३७

सहस्रकिरणं शान्तमप्सरोगणसंयुतम्। 
पद्महस्तं महाबाहुं स्थापयामि दिवाकरम् ॥ ३८

देवमन्त्रांस्तथा रौद्रान् रुद्रस्य स्थापने जपेत्। 
विष्णोस्तु वैष्णवांस्तद्वद् ब्राह्मान् वै ब्रह्मणो बुधः ॥ ३९

सौराः सूर्यस्य जप्तव्यास्तथान्येषु तदाश्रयाः ।
वेदमन्वप्रतिष्ठा तु यस्मादानन्ददायिनी ॥ ४०

स्थापयेद् यं तु देवेशं तं प्रधानं प्रकल्पयेत्।
तस्य पार्श्वस्थितानन्यान् संस्मरेत् परिवारितः ॥ ४९

गणं नन्दिमहाकालं वृर्ष भृङ्गिरिटिं गुहम्।
देवीं विनायकं चैव विष्णुं ब्रह्माणमेव च ॥ ४२

रुद्रं शक्रं जयन्तं च लोकपालान् समंततः ।
तथैवाप्सरसः सर्वा गन्धर्वगणगुहाकान् ॥ ४३

मैं देवरूप होकर अलसी पुष्पके समान कान्तिवाले तथा शङ्ख. चक और गदाधारी देवेश जनार्दनको स्थापित कर रहा हूँ। इसी प्रकार मैं अविनाशी, दस बाहुओंसे सुशोभित, सिरपर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले, गणोंके स्वामी, वृषभारूद, त्रिनेत्रधारी शिवको स्थापित कर रहा हूँ। मैं ऋषियोंद्वारा संस्तुत, चार मुखवाले, जटाधारी, महाबाहु, कमलोद्भव ब्रह्मदेवकी स्थापना कर रहा हूँ। मैं सहन किरणोंसे सुशोभित, शान्त, अपाय समूहसे संयुक, पद्महस्त, महाबाहु सूर्यको स्थापना कर रहा हूँ। बुद्धिमान् पुरुषको स्ट्रकी स्थापनामें रौद्र मन्त्रोंका, विष्णुकी स्थापना वैष्णव मन्त्रोंका, ब्रह्माकी स्थापना में ब्राह्म मन्त्रोंका तथा सूर्यकी स्थापनामें सूर्यदेवताके मन्त्रोंका जप करना चाहिये। इसी प्रकार अन्य देवताओंकी स्थापना में उन्हींक मन्त्रोंका जप करना चाहिये क्योंकि बेदमन्त्रोच्चारणपूर्वक की गयी प्रतिष्ठछा आनन्ददामिनी होती है। जिन देवताकी प्रतिमा स्थापित की जाती है, उन्हींको प्रधान मानना चाहिये। उनके अगल-बगलमें स्थित अन्य देवताओंको उनके परिकरक्रम में समझना चाहिये। गण, नन्दिकेश्वर, महाकाल, वृषभ, भूङ्गिरिटि, स्वामिकार्तिक, देवी, विनायक, विष्णु, ब्रह्मा, रुद्र, इन्द्र, जयन्त, लोकपाल, अप्सराओंके समूह, गन्धबंकि समूह और गुझकोंको शिवके अथवा जो देवता जिस स्थानपर स्थापित किया गया हो, उसके चारों ओर स्थापित करना चाहिये ॥ ३५-४३ ॥ 

यो यत्र स्थाप्यते देवस्तस्य तान् परितः स्मरेत् । 
आवाहयेत् तथा रुद्रं मन्त्रेणानेन यत्नतः ॥ ४४

यस्य सिंहा रथे युक्ता व्याघ्नभूतास्तथोरगाः ।
ऋषयो लोकपालाश्च देवः स्कन्दस्तथा वृषः ।। ४५

प्रियो गणो मात्तरच सोमो विष्णुः पितामहः । 
नागा यक्षाः सगन्धर्वा ये च दिव्या नभश्चराः ।। ४६

तमहं त्र्यक्षमीशानं शिवं रुद्रमुमापतिम् । 
आवाहयामि सगणं सपत्नीकं वृषध्वजम् ॥ ४७

आगच्छ भगवन् रुद्रानुग्रहाय शिवो भव।
शाश्वतो भव पूजां में गृहाण त्वं नमो नमः॥ ४८

ओं नमः स्वागतं भगवते नमः, औं नमः सोमाय
सगणाय सपरिवाराय प्रतिगृह्णातु 
भगवन्मन्त्रपूतमिदं सर्वमर्घ्यपाद्यमाचमनीयमासनं
ब्रह्मणाभिहितं नमो नमः स्वाहा ।। ४९

ततः पुण्याहघोषेण ब्रह्मघोषैश्च पुष्कलैः ।
स्त्रापयेत् तु ततो देवं दधिक्षीरघृतेन च ॥ ५० 

मधुशर्करया तद्वत्  पुष्पगन्धोदकेन च। 
शिवध्यानैकचित्तस्तु मन्त्रानेतानुदीरयेत् ॥ ५१

बजाग्रतो दूरमुदेति ततो विराडजायत इति च। 
सहस्त्रशीर्षा पुरुष इति च।
अभि त्वा शूर नो नुम इति च।
पुरुष एवेदं सर्वत्रिपादूर्ध्वमिति च ।
येनेदं भूतमिति नत्वा वाँ अन्य इति ॥ ५२

सर्वांश्चैतान् प्रतिष्ठासु मन्त्रान् जप्त्वा पुनः पुनः । 
चतुः कृत्वः स्पृशेदद्भिर्मूले मध्ये शिरस्यपि ॥ ५३

स्थापिते तु ततो देवे यजमानोऽथ मूर्तिपम्। 
आचार्य पूजयेद भक्त्या वस्त्रालङ्कारभूषणैः ॥ ५४

दीनान्धकृपणांस्तद्वद् ये चान्ये समुपस्थिताः । 
ततस्तु मधुना देवं प्रथमेऽहनि लेपयेत् ॥५५

हरिद्रयाथ सिद्धाबीर्द्वतीयेऽहनि तत्वतः । 
चन्दनेन यवैस्तद्वत् तृतीयेऽहनि लेपयेत् ।। ५६ 

मनःशिलाप्रियङ्गुभ्यां चतुर्थेऽहनि लेपयेत् । 
सौभाग्यशुभदं यस्मान्लेपनं व्याधिनाशनम् ॥ ५७

फिर इस निम्नाङ्कित मन्त्रद्वारा यत्नपूर्वक रुद्रका आवाहन करना चाहिये- 'जिनके रथमें सिंह, व्याघ्र, नाग, ऋषिगण, लोकपाल वृन्द, देव, स्कन्द, वृष, प्रिय, प्रमथगण, मातुकाएँ, बन्द्रमा, विष्णु, ब्रह्मा, सर्प, यक्ष, गन्धर्व, दिव्य आकाशचारी जीव जुते हुए हैं, उन तीन नेत्रोंवाले, ईशान, वृपध्वज, रुद्र, उमापति शिवको मैं गणों तथा पत्नीसहित आवाहन कर रहा हूँ। भगवन् रुद्र। अनुग्रह करनेके लिये आइये, कल्याणकारी होइये, शाश्वतरूपसे स्थित होइये और मेरी पूजाको ग्रहण कीजिये, आपको बारंबार नमस्कार है।' मन्त्र इस प्रकार 'ॐ नमः स्वागतं भगवते नमः, ॐ नमः सोमाय सगणाय सपरिवाराय प्रतिगृहातु भगवन् मन्त्रपूतमिदं सर्वमध्र्व्यपाद्यमाचमनीयमासनं ब्रह्मणाभिहितं नमो नमः स्वाहा।" अर्थात्ॐॐॐ भगवन्! आपका स्वागत है और आपको बारंबार नमस्कार है। ॐ गण और परिवारसहित सोमको प्रणाम है। भगवन्। आप मन्त्रद्वारा पवित्र किया हुआ तथा ब्रह्माद्वारा अभिनन्दित इस सकल अर्थ, पाद्य, आचमनीय और आसनको ग्रहण कीजिये। 

आपको बारंबार अभिवादन है। मेरे सभी पाप जल जायें।' तदनन्तर पुण्याहवाचन एवं प्रचुर वेदध्वनिके साथ मूर्तिको दधि, क्षीर, घृत, मधु और शक्करसे स्नान कराकर पुनः पुष्प एवं सुगन्धमिश्रित जलसे स्नान कराये। उस समय एकाग्रचित्तसे भगवान् शिवका ध्यान करते हुए इन मन्त्रोंका उच्चारण करना चाहिये। वे मन्त्र इस प्रकार हैं- 'यज्जाग्रतो दूरमुदेति', 'ततो विराडजायत', 'सहस्रशीर्षा पुरुषः०', 'अभि त्या शूर नो नुम', 'पुरुष एवेदं सर्वम्०, 'त्रिपादूर्ध्वम्०', 'येनेदं भूतम्०', 'नत्वा वाँ अन्य०' इति। (वाजस० सं० ३१) प्रतिष्ठासम्बन्धी कार्योंमें इन उपर्युक्त सभी मन्त्रोंको बारंबार जप करके चार बार जलसे प्रतिमाके मूलभाग, मध्यभाग तथा शिरोभागमें स्पर्श करें। इस प्रकार देवके स्थापित हो जानेपर यजमान मूर्तिकी प्रतिष्ठा करानेवाले आचार्यको मस्त्र, अलंकार एवं आभूषणोंसे भक्तिपूर्वक पूजा करे। इसी प्रकार दौन, अन्धे, कृपण तथा अन्य जी कोई वहाँ उपस्थित हों, उन सबको भी संतुष्ट करना चाहिये। तदनन्तर प्रथम दिन मधुसे प्रतिमाका लेपन करना चाहिये। इसी तरह दूसरे दिन हल्दी तथा सरसोंसे, तीसरे दिन चन्दन और जौसे, चौथे दिन मैनसिल तथा प्रियङ्गु (मेहदी) से लेप करना चाहिये, क्योंकि यह लेप सौभाग्य और मङ्गलदायक, व्याधिनाशक तथा मनुष्योंके लिये परम प्रीतिकारक है, ऐसा वेदवेताओंने कहा है॥४४-५७॥ 

परे प्रीतिकरे नृणामेतद् वेदविदो विदुः। 
कृष्णाञ्जनं तिलं तद्वत् पञ्चमेऽपि निवेदयेत् ॥ ५८

षष्ठे तु सपूतं दद्याच्वन्दनं पचकेसरम्। 
रोचनागुरुपुष्यं तु सप्तमेऽहनि दापयेत् ॥ ५९

यत्र सद्योऽधिवासः स्यात् तत्र सर्व निवेदयेत् ।
स्थितं न चालयेद् देवमन्यथा दोषभान् भवेत् ॥ ६०

पूरयेत् सिकताभिस्तु निश्छिदं सर्वतो भवेत् ।
लोकपालस्य दिग्भागे यस्य संचलते विभुः ।। ६१

तस्य लोकपतेः शान्तिर्देवाचेमाझ दक्षिणाः ।
इन्द्राय वारणं दद्यात् काञ्चनं चाल्पवित्तवान् ॥ ६२

अग्नेः सुवर्णमेव स्थाद् यमस्य महिषं तथा।
अर्ज च काञ्चनं दद्यान्नैर्भतं राक्षसं प्रति ॥ ६३

वरुणं प्रति मुक्तानि सशुक्लीनि प्रदापयेत्।
रीतिकं वायवे दद्याद् वस्त्रयुग्मेन साम्प्रतम् ।। ६४

सोमाय धेनुर्दातव्या राजतं वृषभं शिवे।
यस्यां यस्यां सञ्चलनं शान्तिः स्थात् तत्र तत्र तु ॥ ६५

अन्यचा तु भवेद् घोरे भयं कुलविनाशनम्।
अचलं कारयेत् तस्मात् सिकताभिः सुरेश्वरम् ॥ ६६

अन्नं वस्त्रं च दातव्यं पुण्याहजयमङ्गलम्।
त्रिपक्ष सप्तदश वा दिनानि स्यान्महोत्सवः ॥ ६७

चतुर्थेऽद्धि महास्नानं चतुर्थीकर्म कारयेत्।
दक्षिणा च पुनस्तद्वद् देया तत्रातिभक्तितः ॥ ६८

देवप्रतिष्ठाविधिरेष तुभ्यं निवेदितः पापविनाशहेतोः ।
यस्माद् बुधैः पूर्वमनन्तमुक्त मनेकविद्याधरदेवपूज्यम् ॥ ६९

इसी प्रकार पाँचवें दिन काला अंजन और तिल, छठे दिन घृतसहित चन्दन एवं पाकेसर, सातवें दिन रोचना, अगुरु तथा पुष्प देना चाहिये। जिस मूर्तिकी स्थापनामें तुरंत ही अधिवासन हो जाय, वहाँ इन सबको एक साथ ही निवेदित कर देना चाहिये। अवस्थित हो जानेपर प्रतिमाको अपने स्थानसे विचलित नहीं करना चाहिये; अन्यथा दोषभागी होना पड़‌ता है। छिद्रोंको बालूसे भरकर सब और छिद्ररहित कर देना चाहिये। स्थापनाके बाद जिस लोकपालकी दिशाको और प्रतिमा अपने-आप झुकती है, उस लोकपालके लिये शान्ति कराकर क्रमशः ये दक्षिनाएँ देनी चाहिये। इन्द्रके लिये हाथी देना चाहिये। यदि थोड़ी सम्पत्तिवाला हो तो सुवर्ण दे। अग्निके लिये सुवर्णकी, यमराजके लिये महिषकी, राक्षसराज निर्ऋतिके लिये बकरा तथा सुवर्णकी, वरुणके लिये सुतुहियोंसहित मोतियोंकी, वायुके लिये दो बस्वों सहित पौठलकी, चन्द्रमाके लिये गौकी और शिवके लिये चाँदी-निर्मित वृषभको दक्षिणा देनी चाहिये। 

जिस-जिस दिशामें संचलन हो, उस-उस दिशाको शान्ति करानी चाहिये, अन्यथा कुलविनाशक भयंकर भय उत्पन्न होता है। अतः प्रतिमाको बासूसे भरकर अचल कर देना चाहिये। उक्त पुण्य दिनमें अन्न तथा बस्त्रका दान करना चाहिये। साथ ही पुण्याहवाचन, जय-जयकार एवं माङ्गलिक शब्दोंका उच्चारण करवाना चाहिये। यह महोत्सव तीन, पाँच, सात या दस दिनोंतक होना चाहिये। प्रतिष्ठाके चौथे दिन महास्नान तथा चतुर्थीकर्म कराना चाहिये। उस अवसरपर भी आयत भविपूर्वक पर्यंत दक्षिणा देनी चाहिये। ऋषिवृन्द । मैंने पापोंक विनाशार्थ आपलोगोंसे देव-प्रतिमाकी प्रतिष्ठाकी यह विधि वर्णन की है; क्योंकि पण्डितोंने इस विषयको पूर्वकालमें अनेक विद्याधर तथा देवताओंद्वारा पूज्प और अनन्त बतलाया है॥ ५८-६९॥

इति श्रीमालये महापुराणे प्रतिष्ठानुकीर्त्तनं नाम षट्‌षष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २६६ ॥

इस प्रकार श्रौमाध्यमहापुराणमें मूर्तिप्रविष्ठा नामक दो भी छाछ अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥ २६६॥ 

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