वराहभगवान का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्षद्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराहका स्तवन और भगवान्द्वारा उनका उद्धार | varahabhagavan ka pradurbhav, hiranyakshadvara rasatalamen le jayi gayi pruthvidevidvara yagnyavarahaka stavan aura bhagavandvara unaka uddhar

मत्स्य पुराण दो सौ अड़तालीसवाँ अध्याय 

वराहभगवान का प्रादुर्भाव, हिरण्याक्ष द्वारा रसातलमें ले जायी गयी पृथ्वीदेवीद्वारा यज्ञवराह का स्तवन और भगवान्द्वारा उनका उद्धार

शौनक उवाच

जगदण्डमिदं पूर्वमासीद् दिव्यं हिरण्मयम् । 
प्रजापतेरियं मूर्तिरितीयं वैदिकी श्रुतिः ॥ १

शौनकजीने कहा- अर्जुन। यह जगत् पहले दिव्य हिरण्मय अण्डके रूपमें था। यह प्रजापतिकी मूर्ति है-ऐसी वैदिकी श्रुति है। 

तत्तु वर्षसहस्त्रान्ते बिभेदोर्ध्वमुखं विभुः ।
लोकसर्जनहेतोस्तु बिभेदाधोमुखं पुनः ॥ २

भूयोऽष्टधा बिभेदाण्डं विष्णुर्वै लोकजन्मकृत् ।
चकार जगतश्चात्र विभागं स विभागकृत् ॥ ३

यच्छिद्रमूर्ध्वमाकाशं विवराकृतितां गतम् । 
विहितं विश्वयोगेन यदधस्तद्रसातलम् ॥ ४

यदण्डमकरोत् पूर्व देवो लोकचिकीर्षया। 
तत्र यत् सलिलं स्कन्नं सोऽभवत् काञ्चनो गिरिः ।। ५

शैलैः सहस्त्रैर्महती मेदिनी विषमाभवत् ॥ ६

तैश्च पर्वतजालौघैर्बहुयोजनविस्तृतैः । 
पीडिता गुरुभिर्देवी व्यथिता मेदिनी तदा ॥ ७

महामते भूरिबलं दिव्यं नारायणात्मकम् । 
हिरण्मयं समुत्सृज्य तेजो वै जातरूपिणम् ॥ ८

। अशक्ता वै धारयितुमधस्तात् प्राविशत् तदा 
पीड्यमाना भगवतस्तेजसा तस्य सा क्षितिः ॥ ९

पृथ्वीं विशन्तीं दृष्ट्वा तु तामधो मधुसूदनः ।
उद्धारार्थ मनश्चक्रे तस्या वै हितकाम्यया । १०

एक हजार वर्ष व्यतीत होनेपर सर्वव्यापी एवं लोकोंके जन्मदाता विष्णुने उस अण्डके ऊर्ध्व मुखका भेदन किया और पुनः लोकसृष्टिके लिये उसके अधोमुखको भी फोड़ दिया। फिर उस अण्डको आठ भागोंमें विभक्त कर दिया। तत्पश्चात् विभागकर्ता विष्णुने जगत्‌का भी विभाजन किया। विश्वस्रष्टा भगवान्द्वारा किया गया जो ऊपरका छिद्र था, वह विवरके आकारवाला आकाश और जो नीचेका छिद्र था, वह रसातल हुआ। भगवान्ने पूर्वकालमें लोकसृष्टिकी कामनासे जिस अण्डको उत्पन्न किया था, उससे जो जल टपका था, वह स्वर्णमय सुमेरु पर्वत हुआ और हजारों पर्वतोंके संयोगसे विशाल पृथ्वी विषमा अर्थात् ऊँची-नीची हो गयी। उस समय अनेकों योजन विस्तृत उन भारी पर्वतसमूहोंसे पीड़ित हुई पृथ्वी व्याकुल हो गयी। महामते! तब पृथ्वी जो स्वर्णमय तेजसे युक्त, महान् बलसे सम्पन्न और नारायणस्वरूप था, उस दिव्य हिरण्मय अण्डको धारण करनेमें असमर्थ होकर उसे त्यागकर नीचेकी ओर जाने लगीं; क्योंकि वह उन भगवान्‌के तेजसे पीड़ित हो रही थी। तब भगवान् मधुसूदनने पृथ्वीको नीचे प्रवेश करती हुई देखकर लोककल्याण-भावनासे उसके उद्धारका विचार किया ॥ २-१०॥ 

श्रीभगवानुवाच

मत्तेज एषा वसुधा समासाद्य तपस्विनी।
रसातलं प्रविशति पङ्के गौरिव दुर्बला ॥ ११

श्रीभगवान्ने कहा- यह तपस्विनी पृथ्वी मेरे तेजको प्राप्तकर (धारण करनेमें असमर्थ हो) कीचड़में फैंसी हुई दुबली गौकी भाँति रसातलमें प्रवेश कर रही है॥ ११॥ 

पृथिव्युवाच

त्रिविक्रमायामितविक्रमाय महावराहाय सुरोत्तमाय।
श्रीशार्ङ्गचक्रासिगदाधराय नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद ॥ १२

तव देहाञ्जगञ्जातं पुष्करद्वीपमुत्थितम् ।
ब्रह्माणमिह लोकानां भूतानां शाश्वतं विदुः ॥ १३

तव प्रसादाद् देवोऽयं दिवं भुङ्क्ते पुरन्दरः । 
तव क्रोधाद्धि बलवान् जनार्दन जितो बलिः ॥ १४

धाता विधाता संहर्ता त्वयि सर्वं प्रतिष्ठितम्। 
मनुः कृतान्तोऽधिपतिर्ध्वलनः पवनो घनः ॥ १५ 

वर्णाश्चाश्रमधर्माश्च सागरास्तरवोऽचलाः । 
नद्यो धर्मश्च कामश्च यज्ञा यज्ञस्य च क्रियाः ॥ १६

विद्या वेद्यं च सत्त्वं च ह्रीः श्रीः कीर्तिधृतिः क्षमा। 
पुराणं वेदवेदाङ्गं सांख्ययोगौ भवाभवौ ॥ १७

जङ्गमं स्थावरं चैव भविष्यं च भवच्च यत्। 
सर्वं तच्च त्रिलोकेषु प्रभावोपहितं तव ॥ १८

त्रिदशोदारफलदः स्वर्गस्त्रीचारुपल्लवः ।
सर्वलोकमनः कान्तः सर्वसत्त्वमनोहरः ॥ १९

विमानानेकविटपस्तोयदाम्बुमधुरुस्त्रवः।
दिव्यलोकमहास्कन्धः सत्यलोकप्रशाखवान् ॥ २०

सागराकारनिर्यासो रसातलजलाश्रयः ।
नागेन्द्रपादपोपेतो जन्तुपक्षिनिषेवितः ।। २१

पृथ्वीने कहा- जो तीन पगमें पृथ्वीको नाप लेनेवाले वामनरूप, अमित पराक्रमी महावराहरूप, सुरश्रेष्ठ तथा लक्ष्मी, धनुष, चक्र, खड्ग और गदा धारण करनेवाले हैं, ऐसे आपको नमस्कार है। देवश्रेष्ठ। आप मुझपर प्रसन्न हो जाइये। प्रभो! आपके शरीरसे जगत् उत्पन्न हुआ है, पुष्कर द्वीपकी उत्पत्ति हुई है और ब्रह्मा प्रकट हुए हैं, आप सभी लोकों और प्राणियोंके सनातन पुरुष माने जाते हैं। आपकी कृपासे ये देवराज इन्द्र स्वर्गका उपभोग कर रहे हैं। जनार्दन! आपके क्रोधसे बलवान् बलि जीता गया है। आप धाता, विधाता और संहर्ता हैं। आपमें समस्त जगत् प्रतिष्ठित है। मनु, प्रजापति, यम, अग्नि, पवन, मेघ, वर्णधर्म, आश्रमधर्म, समुद्र, वृक्ष, पर्वत, नदियाँ, धर्म, काम, यज्ञ; यज्ञकी क्रियाएँ, विद्या, जाननेयोग्य अन्य बातें, जीवगण, लज्जा, ही, श्री, कीर्ति, धैर्य, क्षमा, पुराण, वेद, वेदाङ्ग, सांख्य, योग, जन्म, मरण, जंगम, स्थावर, भूत और भविष्यत्- ये सभी तीनों लोकोंमें आपके प्रभावसे आच्छादित हैं। आप देवताओंको उत्तम फल देनेवाले, स्वर्गकी रमणियोंके लिये सुन्दर पल्लवरूप, सभी लोगोंके मनको प्रिय लगनेवाले, सभी जीवोंके मनके हरणकर्ता, विमानरूपी अनेक वृक्षोंसे युक्त, मेघोंके जलरूप मधु टपकानेवाले, दिव्य लोकरूप महान् स्कन्धवाले, सत्यलोकरूप शाखाओंसे युक्त, सागररूप रस, रसातलकी तरह जलके आश्रयस्थान, ऐरावतरूप वृक्षसे युक्त तथा जन्तुओं और पक्षियोंसे सुसेवित हैं ॥ १२-२१ ॥ 

शीलाचारार्यगन्धस्त्वं सर्वलोकमयोद्रुमः ।
द्वादशार्कमयद्वीपो रुद्रैकादशपत्तनः ॥ २२

वस्वष्टाचलसंयुक्तस्त्रैलोक्याम्भोमहोदधिः ।
सिद्धसाध्योर्मिकलिलः सुपर्णानिलसेवितः ॥ २३

दैत्यलोकमहाग्राहो रक्षोरगझषाकुलः ।
पितामहमहाधैर्यः स्वर्गस्त्रीरत्नभूषितः ।। २४

धीश्रीह्रीकान्तिभिर्नित्यं नदीभिरुपशोभितः ।
कालयोगमहापर्वप्रयागगतिवेगवान् ॥ २५

त्वं स्वयोगमहावीर्यो नारायण महार्णवः । 
कालो भूत्वा प्रसन्नाभिरद्भिहृदयसे पुनः ।। २६

त्वया सृष्टास्त्रयो लोकास्त्वयैव प्रतिसंहृताः । 
विशन्ति योगिनः सर्वे त्वामेव प्रतियोजिताः ॥ २७

युगे युगे युगान्ताग्निः कालमेघो युगे युगे।
मम भारावताराय देव त्वं हि युगे युगे ॥ २८

त्वं हि शुक्लः कृतयुगे त्रेतायां चम्पकप्रभः । 
द्वापरे रक्तसंकाशः कृष्णः कलियुगे भवान् ॥ २९

वैवर्ण्यमभिधत्से त्वं प्राप्तेषु युगसंधिषु । 
वैवर्ण्य सर्वधर्माणामुत्पादयसि वेदवित् ॥ ३०

भासि वासि प्रतपसि त्वं च पासि विचेष्टसे। 
कुद्ध्यसि क्षान्तिमायासि त्वं दीपयसि वर्षसि ॥ ३१

त्वं हास्यसि न निर्यासि निर्वापयसि जाग्रसि। 
निःशेषयसि भूतानि कालो भूत्वा युगक्षये ॥ ३२

आप शील, सदाचार और श्रेष्ठ गन्धसे युक्त, सर्वलोकमय वृक्ष, बारह आदित्योंसे युक्त द्वीप, ग्यारह रुद्ररूप नगर, आठों वसुरूप पर्वत, त्रिलोकीरूप जलसे परिपूर्ण महासागर, सिद्ध और साध्यरूप लहरोंसे युक्त, गरुड़रूप वायुसे सेवित, दैत्यसमूहरूप महान् ग्राह, राक्षस और नागरूपी मछलियोंसे व्याप्त, ब्रह्मारूप महान् धैर्यसम्पन्न, स्वर्गकी अप्सरारूप रत्नसे विभूषित हैं। आप बुद्धि, लक्ष्मी, लज्जा और कान्तिरूपी नदियोंसे नित्य सुशोभित तथा कालके योगसे उत्पन्न होनेवाले महापर्वके समय वेगपूर्वक प्रयागमें गमन करनेवाले हैं। नारायण! आप अपने योगरूपी महापराक्रमसे सम्पन्न महासागर हैं और पुनः आप ही काल बनकर निर्मल जलसे जगत्‌को आह्लादित करते हैं। आपने तीनों लोकोंकी सृष्टि की है और आपसे ही उनका संहार होता है। आपके द्वारा नियुक्त किये गये सभी योगी आपमें ही प्रविष्ट होते हैं। देव! आप प्रत्येक युगमें प्रलयाग्नि और प्रत्येक युगमें प्रलयकालीन मेघ हैं तथा मेरा भार उतारनेके लिये आप प्रत्येक युगमें अवतीर्ण होते हैं। आप कृतयुगमें श्वेतवर्ण, त्रेतामें चम्पक पुष्प-सदृश पीतवर्ण, द्वापरमें रक्तवर्ण और कलियुगमें श्यामवर्ण हो जाते हैं। वेदज्ञ ! युग-संधियोंके प्राप्त होनेपर आप विवर्णताको धारण करते हैं और सभी धर्मोंमें विपरीतता उत्पन्न कर देते हैं। आप प्रकाशित होते, प्रवाहित होते, तपते, रक्षा करते और चेष्टा करते हैं। आप क्रोध करते, शान्ति धारण करते, उद्दीप्त करते और वर्षा करते हैं। आप हँसते, स्थिर रहते, मारते और जागते रहते हैं तथा प्रलयकालमें काल बनकर सभी जीवोंको निःशेष कर देते हैं॥ २२-३२॥ 

शेषमात्मानमालोक्य विशेषयसि त्वं पुनः ।
युगान्ताग्न्यवलीढेषु सर्वभूतेषु किञ्चन ॥ ३३

यातेषु शेषो भवसि तस्माच्छेषोऽसि कीर्तितः ।
च्यवनोत्पत्तियुक्तेषु ब्रह्मेन्द्रवरुणादिषु ।। ३४

यस्मान्न च्यवसे स्थानात् तस्मात् संकीर्त्यसेऽच्युतः । 
ब्रह्माणमिन्द्रं च यमं रुद्रं वरुणमेव च ॥ ३५

निगृह्य हरसे यस्माद् तस्माद्धरिरिहोच्यसे । 
संतानयसि भूतानि वपुषा यशसा श्रिया ॥ ३६

परेण वपुषा देव तस्माच्चासि सनातनः । 
यस्माद् ब्रह्मादयो देवा मुनयश्चोग्रतेजसः ॥ ३७

न तेऽन्तं त्वधिगच्छन्ति तेनानन्तस्त्वमुच्यसे । 
न क्षीयसे न क्षरसे कल्पकोटिशतैरपि ॥ ३८

तस्मात् त्वमक्षरत्वाच्च अक्षरश्च प्रकीर्तितः । 
विष्टब्धं यत्त्वया सर्व जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ ३९

जगद्विष्टम्भनाच्चैव विष्णुरेवेति कीर्त्यसे। 
विष्टभ्य तिष्ठसे नित्यं त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ४०

यक्षगन्धर्वनगरं सुमहद्भूतपन्नगम् । 
व्याप्तं त्वयैव विशता त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ४१

तस्माद् विष्णुरिति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा। 
नारा इत्युच्यते ह्यापो ह्यषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ ४२

अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः । 
युगे युगे प्रनष्टां गां विष्णो विन्दसि तत्त्वतः ।॥ ४३

गोविन्देति ततो नाम्ना प्रोच्यसे ऋषिभिस्तथा। 
हृषीकाणीन्द्रियाण्याहुस्तत्त्वज्ञानविशारदाः ॥ ४४

फिर अपनेको शेष बचा हुआ देखकर पुनः आप उसकी वृद्धि करते हैं। युगान्तकी अग्निमें सभी भूतोंके दग्ध हो जानेपर एकमात्र आप शेष रहते हैं, इसलिये आप 'शेष' नामसे पुकारे जाते हैं। ब्रह्मा, इन्द्र, वरुण आदि देवता उत्पत्ति और पतनसे युक्त हैं, किंतु आप अपने स्थानसे च्युत नहीं होते, इसलिये 'अच्युत' कहलाते हैं। चूँकि आप ब्रह्मा, इन्द्र, यम, रुद्र और वरुणका निग्रहपूर्वक हरण करते हैं, इसलिये यहाँ 'हरि' कहे जाते हैं। देव! आप अपने शरीर, यश, श्री और विराट् शरीरद्वारा सभी जीवोंका विस्तार करते हैं, इसलिये 'सनातन' हैं। चूंकि ब्रह्मा आदि देवगण और उग्र तेजस्वी मुनिगण आपका अन्त नहीं जान पाते, इसीलिये आप 'अनन्त' कहे जाते हैं। सैकड़ों करोड़ कल्पोंमें भी न तो आप क्षीण होते हैं और न नष्ट होते हैं, इसलिये विनाशरहित होनेके कारण आप 'अक्षर' कहे गये हैं। आप सम्पूर्ण चराचर जगत्को स्तम्भित किये रहते हैं, इसीलिये जगत्‌का विष्टम्भन करनेके कारण 'विष्णु' कहे जाते हैं। आप सचराचर त्रिलोकीको नित्य अवरुद्ध करके स्थित रहते हैं तथा आप ही यक्षों एवं गन्धर्वोके नगरोंसे सम्पन्न और महान् नागोंसे युक्त चराचरसहित त्रिलोकीमें प्रवेश करके उसे व्याप्त किये रहते हैं, इसीलिये स्वंय ब्रह्माने आपको 'विष्णु' नामसे अभिहित किया है। तत्त्वदर्शी ऋषियोंने जलका नाम 'नारा' कहा है और वह पूर्वकालमें आपका निवासस्थान था, इसीसे आप 'नारायण' कहे जाते हैं। विष्णो ! प्रत्येक युगमें नष्ट हुई गोरूपिणी पृथ्वीको तत्त्वतः आप ही प्राप्त करते हैं, इसीलिये ऋषिगण आपको 'गोविन्द' नामसे पुकारते हैं। तत्त्वज्ञानमें निपुणजन इन्द्रियोंको हृषीक कहते हैं और आप उन इन्द्रियोंक शासक हैं, अतः 'हृषीकेश' कहे जाते हैं ॥ ३३-४४॥

ईशिता च त्वमेतेषां हृषीकेशस्तथोच्यसे।
वसन्ति त्वयि भूतानि ब्रह्मादीनि युगक्षये ॥ ४५

त्वं वा वससि भूतेषु वासुदेवस्तथोच्यसे । 
संकर्षयसि भूतानि कल्पे कल्पे पुनः पुनः ॥ ४६

ततः संकर्षणः प्रोक्तस्तत्त्वज्ञानविशारदैः । 
प्रतिव्यूहेन तिष्ठन्ति सदेवासुरराक्षसाः ॥ ४७

प्रविद्युः सर्वधर्माणां प्रद्युम्नस्तेन चोच्यसे। 
निरोद्धा विद्यते यस्मान्न ते भूतेषु कश्चन ॥ ४८

अनिरुद्धस्ततः प्रोक्तः पूर्वमेव महर्षिभिः । 
यत् त्वया धार्यते विश्वं त्वया संह्रियते जगत् ॥ ४९

त्वं धारयसि भूतानि भुवनं त्वं बिभर्षि च। 
यत् त्वया धार्यते किंचित् तेजसा च बलेन च ॥ ५०

मया हि धार्यते पश्चान्नाधृतं धारये त्वया। 
न हि तद् विद्यते भूतं त्वया यन्नात्र धार्यते ॥ ५१

त्वमेव कुरुषे देव नारायण युगे युगे। 
मम भारावतरणं जगतो हितकाम्यया ॥ ५२

तवैव तेजसाऽक्रान्तां रसातलतलं गताम् । 
त्रायस्व मां सुरश्रेष्ठ त्वामेव शरणं गताम् ॥ ५३

दानवैः पीड्यमानाहं राक्षसैश्च दुरात्मभिः । 
त्वामेव शरणं नित्यमुपयामि सनातनम् ।। ५४

तावन्मेऽस्ति भयं देव यावन्न त्वां ककुद्मिनम् । 
शरणं यामि मनसा शतशोऽप्युपलक्षये ॥ ५५

उपमानं न ते शक्ताः कर्तुं सेन्द्रा दिवौकसः । 
तत्त्वं त्वमेव तद् वेत्सि निरुत्तरमतः परम् ॥ ५६

युगान्तके समय ब्रह्मा आदि सभी प्राणी आपमें निवास करते हैं और आप प्राणियोंमें निवास करते हैं, इसीलिये आप 'वासुदेव' कहलाते हैं। प्रत्येक कल्पमें आप पुनः पुनः प्राणियोंको आकर्षित करते हैं, इसीलिये तत्त्वज्ञानविशारदोंने आपको 'संकर्षण' कहा है। आपके प्रभावसे देवता, असुर और राक्षस अपने-अपने व्यूहों में स्थित रहते हैं तथा आप सभी धर्मोके विशेषज्ञ हैं, अतः 'प्रद्युम्न' नामसे कहे जाते हैं। चूँकि सभी प्राणियोंमें कोई भी आपका निरोध करनेवाला नहीं है, इसीलिये महर्षियोंने पहलेसे ही आपका 'अनिरुद्ध' नाम रख दिया है। आप विश्वको धारण करते हैं, आप ही जगत्‌का संहार भी करते हैं, आप ही प्राणियोंको धारण करते हैं और आप ही भुवनका पालन-पोषण करते हैं। आप अपने तेज और बलसे जो कुछ धारण करते हैं, उसीको पीछे मैं भी धारण करती हूँ। आपके द्वारा धारण न की हुई वस्तुको मैं धारण नहीं करती। ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जिसे आपने इस जगत्में धारण न किया हो। नारायण देव! आप ही प्रत्येक युगमें संसारकी कल्याण-भावनासे मेरे ऊपर पड़नेवाले असहनीय भारको दूर करते हैं। मैं आपके ही तेजसे आक्रान्त हो रसातलमें पहुँच गयी हूँ। सुरश्रेष्ठ ! मैं आपकी शरणागत हूँ, आप मेरी रक्षा कीजिये। मैं दुरात्मा दानवों एवं राक्षसोंसे पीड़ित होकर नित्य आप सनातनकी ही शरणमें जाती हूँ। देव! मेरे लिये भय तभीतक रहता है, जबतक मैं मनसे आप ककुद्मीकी शरणमें नहीं आती हूँ। मैंने सैकड़ों बार ऐसा देखा है। इन्द्रसहित समस्त देवगण आपकी समानता करनेमें समर्थ नहीं हैं। आप ही उस परम तत्त्वके ज्ञाता हैं। इसके बाद अब मुझे कुछ नहीं कहना है॥ ४५-५६ ॥

शौनक उवाच

ततः प्रीतः स भगवान् पृथिव्यै शार्ङ्गचक्रधृक् । 
काममस्या यथाकाममभिपूरितवान् हरिः ॥ ५७

अब्रवीच्च महादेवि माधवीयं स्तवोत्तमम् । 
धारयिष्यति यो मों नास्ति तस्य पराभवः ॥ ५८

लोकान् निष्कल्मषांश्चैव वैष्णवान् प्रतिपत्स्यते। 
एतदाश्चर्यसर्वस्वं माधवीयं स्तवोत्तमम् ॥ ५९

अधीतवेदः पुरुषो मुनिः प्रीतमना भवेत् ॥ ६०

मा भैर्धरणि कल्याणि शान्तिं व्रज ममाग्रतः । 
एष त्वामुचितं स्थानं प्रापयामि मनीषितम् ।। ६१

शौनकजीने कहा- तदनन्तर शार्ङ्गधनुष और चक्र धारण करनेवाले भगवान् विष्णुने पृथ्वीपर प्रसन्न होकर उसके यथेष्ट मनोरथको पूर्ण कर दिया। तत्पश्चात् उन्होंने कहा- 'महादेवि ! जो मनुष्य इस उत्तम माधवीय स्तोत्रको धारण करेगा, उसका कभी पराभव नहीं होगा। वह  पापरहित वैष्णव-लोकोंको प्राप्त होगा। यह उत्तम माधवीय स्तोत्र सभी आश्चर्योंसे परिपूर्ण है। वेदाध्यायी पुरुष और मुनि इससे प्रसन्न हो जाते हैं। धरणि! तुम भय मत करो। कल्याणि! तुम मेरे सामने शान्ति धारण करो। मैं तुम्हें मनसेप्सित उचित स्थान प्राप्त कराऊँगा' ॥ ५७-६१ ॥

शौनक उवाच

ततो महात्मा मनसा दिव्यं रूपमचिन्तयत्।
किं नु रूपमहं कृत्वा उद्धरेयं धरामिमाम् ॥ ६२

जलक्रीडारुचिस्तस्माद्वाराहं वपुरास्थितः ।
अधृष्यं सर्वभूतानां वाड्मयं ब्रह्म संस्थितम् ॥ ६३

शतयोजनविस्तीर्णमुच्छ्रितं द्विगुणं ततः ।
नीलजीमूतसंकाशं मेघस्तनितनिःस्वनम् ।। ६४

गिरिसंहननं भीमं श्वेततीक्ष्णाग्रदंष्ट्रिणम्। 
विद्युदग्निप्रतीकाशमादित्यसमतेजसम् ।
पीनवृत्तायतस्कन्धं दृप्तशार्दूलगामिनम् ॥ ६५

पीनोन्नतकटीदेशे वृषलक्षणपूजितम् ।
रूपमास्थाय विपुलं वाराहमजितो हरिः ॥ ६६

पृथिव्युद्धरणायैव प्रविवेश रसातलम् ।
वेदपादो यूपदंष्टः क्रतुदन्तश्चितीमुखः ॥ ६७

अग्निजिह्वो दर्भलोमा ब्रह्मशीर्षो महातपाः ।
अहोरात्रेक्षणधरो वेदाङ्गश्रुतिभूषणः ॥ ६८

आज्यनासः स्रुवतुण्डः सामघोषस्वनो महान् ।
सत्यधर्ममयः श्रीमान् कर्मविक्रमसत्कृतः ॥ ६९

प्रायश्चित्तनखो घोरः पशुजानुर्मखाकृतिः । 
उद्गीथहोमलिङ्गोऽथ बीजौषधिमहाफलः ॥ ७०

वाय्वन्तरात्मा यज्ञास्थिविकृतिः सोमशोणितः । 
वेदस्कन्धो हविर्गन्धो हव्यकव्यविभागवान् ॥ ७१

प्राग्वंशकायो द्युतिमान् नानादीक्षाभिरन्वितः ।
दक्षिणाहृदयो योगी महासत्रमयो महान् ॥ ७२

उपाकर्मोष्ठरुचकः प्रवर्त्यावर्तभूषणः । 
नानाच्छन्दोगतिपथो गुह्योपनिषदासनः ।
छायापत्नीसहायो वै मणिशृङ्ग इवोच्छ्रितः ॥ ७३

रसातलतले मग्नां रसातलतलं गताम् । 
प्रभुर्लोकहितार्थाय दंष्ट्राग्रेणोञ्जहार ताम् ॥ ७४

शौनकजीने कहा- तदनन्तर भगवान् विष्णुने मनमें दिव्य स्वरूपका चिन्तन किया और सोचने लगे कि मैं कौन-सा रूप धारणकर इस पृथ्वीका उद्धार करूँ। ऐसा सोचते हुए उन्हें जलक्रीडाकी रुचि उत्पन्न हो गयी, इसलिये उन्होंने शूकरका शरीर धारण किया। वह रूप सभी प्राणियोंके लिये अजेय, वाड्मय, ब्रह्मस्वरूप, सौ योजनों में विस्तृत, उससे दुगुना ऊँचा, नील मेघके समान कान्तिमान्, मेघोंकी गड़गड़ाहटके सदृश शब्दसे युक्त, पर्वतके समान सुदृढ़, भयंकर, श्वेत एवं तीखे अग्रभागवाले दाढ़ोंसे युक्त, बिजली एवं अग्निकी भाँति कान्तिमान्, सूर्यके समान तेजस्वी, मोटे एवं चौड़े कंधेसे सुशोभित, गर्वीले सिंहकी-सी चालवाला, मोटे एवं ऊँचे कटिभागसे सम्पन्न और वृषभके लक्षणोंसे युक्त था। तब अजेय भगवान् विष्णुने ऐसा विशाल वाराह स्वरूप धारणकर पृथ्वी का उद्धार करनेके लिये रसातलमें प्रवेश किया। उन महातपस्वी भगवान वराहके वेद चारों पैर थे, यज्ञ-स्तम्भ उनकी दाढ़ें थीं, यज्ञ उनके दाँत थे, यज्ञका कुण्ड उनका मुख था, अग्नि उनकी जीभ थी, कुश उनके रोएँ थे, ब्रह्म उनका मस्तक था, 

दिन और रात उनके नेत्र थे, वेदोंके छः अङ्ग कानके आभूषण थे, घृताहुति उनकी नासिका थी, खुवा उनका थूथुन था, सामवेदका उच्चस्वर शब्द था, वे सत्य और धर्मसे युक्त, श्रीसम्पन्न और कर्मरूप पराक्रमसे सत्कृत थे। प्रायश्चित्त उनके भीषण नख और पशुगण जानु भाग थे। यज्ञ उनकी आकृति थी। उद्‌गीथद्वारा किया गया हवन उनका लिङ्ग था, बीज और ओषधियाँ महान् फल थीं, वायु उनका अन्तरात्मा, यज्ञ अस्थिविकार, सोमरस रक्त, वेद कंधे और हवि गन्ध था। वे भगवान् हव्य तथा कव्यके विभाग करनेवाले थे। प्राग्वंश उनका शरीर था। वे कान्तिमान् और अनेकों दीक्षाओंसे दीक्षित थे। दक्षिणा उनका हृदय था, वे परम योगी और महान् यज्ञमय महापुरुष थे। उपाकर्म उनके होंठोंके फलक, प्रवर्य सम्पूर्ण आभूषण, समस्त वेद गमन-मार्ग और गोपनीय उपनिषदें उनकी आसन थीं। छाया उनकी पत्नी थी, वे मणि-शृङ्गके समान ऊँचे थे। ऐसे वराहभगवान्‌ने रसातलमें जाकर डूबी हुई पृथ्वीका लोकहितकी कामनासे अपने दाढ़ों के अग्रभागपर रखकर उद्धार किया ॥ ६२-७४॥ 

ततः स्वस्थानमानीय वराहः पृथिवीधरः ।
मुमोच पूर्वं मनसा धारितां च वसुंधराम् ॥ ७५ 

ततो जगाम निर्वाणं मेदिनी तस्य धारणात्।
चकार च नमस्कारं तस्मै देवाय शम्भवे ॥ ७६

एवं यज्ञवराहेण भूत्वा भूतहितार्थिना।
उद्धृता पृथिवी देवी सागराम्बुगता पुरा ॥ ७७

अथोद्धृत्य क्षितिं देवो जगतः स्थापनेच्छया।
पृथिवीप्रविभागाय मनश्चक्रे ऽम्बुजेक्षणः ॥ ७८

रसां गतामेवमचिन्त्यविक्रमः सुरोत्तमः प्रवरवराहरूपधृक् ।
वृषाकपिः प्रसभमथैकदंष्ट्रया समुद्धरद्धरणिमतुल्यपौरुषः ॥ ७९

इसके बाद पृथ्वीको धारण करनेवाले वराहभगवान्ने पहले मनसे धारण की हुई वसुंधराको अपने स्थानपर लाकर छोड़ दिया। उनके धारण करनेसे पृथ्वीने भी शान्ति-लाभ किया और उन कल्याणकारी भगवान्‌को नमस्कार किया। इस प्रकार पूर्वकालमें भगवान्ने प्राणियोंक हित करनेकी इच्छासे यज्ञवराहरूप धारणकर सागरके जलमें निमग्न हुई पृथ्वीदेवीका उद्धार किया था। इस प्रकार पृथ्वीका उद्धार कर कमलनयन भगवान् विष्णुने जगत्‌की स्थापनाके लिये पृथ्वीको विभक्त करनेका विचार किया। इस प्रकार अचिन्त्य पराक्रमी, अनुपम पुरुषार्थी, सुरश्रेष्ठ, श्रेष्ठ वराहका रूप धारण करनेवाले भगवान् वृषाकपिने रसातलमें गयी हुई पृथ्वीका बलपूर्वक अपनी एक दाढ़द्वारा उद्धार किया था ॥ ७५-७९ ॥

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे वराहप्रादुर्भावो नामाष्टचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २४८ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें वराहप्रादुर्भाव नामक दो सौ अड़तालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २४८ ॥

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