सोलह सोमवार व्रत-कथा और व्रत उद्यापन विधि ,महादेव जी की आरती Sixteen Monday fasting story and fasting Udyapan method, Mahadev ji's aarti

सोलह सोमवार व्रत-कथा और महादेव जी की आरती

16 सोमवार व्रत उद्यापन विधि

उद्यापन 16 सोमवार व्रत की संख्या पूरी होने पर 17 वें सोमवार को किया जाता है। श्रावण मास के प्रथम या तृतीय सोमवार को करना सबसे अच्छा माना जाता है। वैसे कार्तिक, श्रावण, ज्येष्ठ, वैशाख या मार्गशीर्ष मास के किसी भी सोमवार को व्रत का उद्यापन कर सकते हैं। सोमवार व्रत के उद्यापन में उमा-महेश और चन्द्रदेव का संयुक्त रूप से पूजन और हवन किया जाता है। इस व्रत के उद्यापन के लिए सुबह जल्दी उठ कर स्नान करें, और आराधना हेतु चार द्वारो का मंडप तैयार करें। वेदी बनाकर देवताओ का आह्वान करें, और कलश की स्थापना करें। इसके बाद उसमे पानी से भरे हुए पात्र को रखें। पंचाक्षर मंत्र (ऊँ नमः शिवाय) से भगवान् शिव जी को वहाँ स्थापित करें। गंध, पुष्प, धप, नैवेद्य, फल, दक्षिणा, ताम्बूल, फूल, दर्पण, आदि देवताओ को अर्पित करें। इसके बाद आप शिव जी को पञ्च तत्वो से स्नान कराएं, और हवन आरम्भ करें। हवन की समाप्ति पर दक्षिणा, और भूषण देकर आचार्य को गो का दान दें। पूजा का सभी सामान भी उन्हें दें और बाद में उन्हें अच्छे से भोजन कराकर भेजे और आप भी भोजन ग्रहण करें।
Sixteen Monday fasting story and fasting Udyapan method, Mahadev ji's aarti

महादेव जी की आरती

ॐ जय गंगाधर जय हर जय गिरिजाधीशा।
त्वं मां पालय नित्यं कृपया जगदीशा॥ हर...॥

कैलासे गिरिशिखरे कल्पद्रमविपिने।

गुंजति मधुकरपुंजे कुंजवने गहने॥
कोकिलकूजित खेलत हंसावन ललिता।

रचयति कलाकलापं नृत्यति मुदसहिता ॥ हर...॥

तस्मिंल्ललितसुदेशे शाला मणिरचिता।
तन्मध्ये हरनिकटे गौरी मुदसहिता॥

क्रीडा रचयति भूषारंचित निजमीशम्‌।

इंद्रादिक सुर सेवत नामयते शीशम्‌ ॥ हर...॥

बिबुधबधू बहु नृत्यत नामयते मुदसहिता।
किन्नर गायन कुरुते सप्त स्वर सहिता॥

धिनकत थै थै धिनकत मृदंग वादयते।
क्वण क्वण ललिता वेणुं मधुरं नाटयते ॥हर...॥

रुण रुण चरणे रचयति नूपुरमुज्ज्वलिता।

चक्रावर्ते भ्रमयति कुरुते तां धिक तां॥

तां तां लुप चुप तां तां डमरू वादयते।
अंगुष्ठांगुलिनादं लासकतां कुरुते ॥ हर...॥

कपूर्रद्युतिगौरं पंचाननसहितम्‌।
त्रिनयनशशिधरमौलिं विषधरकण्ठयुतम्‌॥

सुन्दरजटायकलापं पावकयुतभालम्‌।
डमरुत्रिशूलपिनाकं करधृतनृकपालम्‌ ॥ हर...॥

मुण्डै रचयति माला पन्नगमुपवीतम्‌।

वामविभागे गिरिजारूपं अतिललितम्‌॥

सुन्दरसकलशरीरे कृतभस्माभरणम्‌।
इति वृषभध्वजरूपं तापत्रयहरणं ॥ हर...॥

शंखनिनादं कृत्वा झल्लरि नादयते।
नीराजयते ब्रह्मा वेदऋचां पठते॥

अतिमृदुचरणसरोजं हृत्कमले धृत्वा।

अवलोकयति महेशं ईशं अभिनत्वा॥ हर...॥
ध्यानं आरति समये हृदये अति कृत्वा।

रामस्त्रिजटानाथं ईशं अभिनत्वा॥
संगतिमेवं प्रतिदिन पठनं यः कुरुते।

शिवसायुज्यं गच्छति भक्त्या यः श्रृणुते ॥ हर...॥

सोलह सोमवार व्रत-कथा

एक दिन की बात है शिव-पार्वती जब पृथ्वी भ्रमण के लिए निकले तो मार्ग में एक शिवालय देख वहाँ ठहर गये। उस रमणीक शिवालय ने उनका मन मोहित कर लिया, जिससे वे वहीं रहने का विचार कर अपनी लीला से संसार को मोहित करने के निमित्त वहीं ठहर गये। एक दिन पार्वतीजी शिवजी से चौंसर खेलने का आग्रह करने लगीं, शिवजी भार्या  (पार्वतीजी) के आग्रह को न टाल सके और चौंसर (पासा) खेलने लगे। उसी समय उस शिवालय का पुजारी आया, जिसे देख पार्वतीजी ने उससे पूछा हम दोनों में से कौन जीतेगा मैं या भगवान् शिवजी ? देवी पार्वतीजी के ऐसा पूछने पर ब्राह्मण बोला- इस खेल में महादेवजी जीतेंगे, परन्तु जीत पार्वतीजी की हुई, जिससे पार्वतीजी उस ब्राह्मण के मिथ्या भाषण पर क्रुद्ध हो गयीं और शाप देने को उद्यत हुई। यद्यपि शिवजी ने उन्हें बहुत समझाया, परन्तु वे न मानी और शाप देती हुई बोलीं- रे ब्राह्मण ! तू मिथ्याभाषी है इसलिये जा मैं तुझे कोढ़ी होने का शाप देती हूँ। देवी पार्वतीजी द्वारा शापित होने के कारण वह ब्राह्मण कोढ़ी हो गया, जिससे अत्यन्त कष्ट पाते हुए वहाँ निवास कर रहा था कि एक दिन देवलोक की कुछ देवांगनायें वहाँ आईं और उस ब्राह्मण को दुःखित देख पूछने लगीं - हे ब्राह्मण देव ! आपको यह रोग क्यों हुआ, जिसके कारण आप दुःखी है? ब्राह्मण ने अपना सब वृत्तान्त वर्णन किया। उस वृत्तान्त को सुन तथा उसके ऊपर माता पार्वती का कोप जान उन्होंने कहा- हे ब्राह्मण ! तुम भगवान् शिवजी की आराधना करो और उनके प्रसन्नार्थ सोलह सोमवार व्रत करो, तुम्हारा कल्याण होगा और उनकी कृपा से तुम्हारा यह दुःख भी दूर हो जायेगा। फिर तो उस दुःखी ब्राह्मण ने सोलह सोमवार के व्रत की विधि पूछी।
सोलह सोमवार के व्रत की विधि पूछी। अप्सरायें बोलीं- हे ब्राह्मण! ध्यान से सुनो, सोलह सोमवार के व्रत में व्रतकर्ता को चाहिए कि वह शिवजी का ध्यान करते हुए स्नान करके स्वच्छ वस्त्र धारण करे और बड़ी भक्ति भावना के साथ शिवजी का व्रत करे तथा पूजा के निमित्त आधा सेर गेहूँ का आटा लेवे और उसका चूरमा बनाकर तीन भाग करे तथा प्रदोषकाल प्राप्त होने पर धूप, दीप, घी, गुड़, नैवेद्य, पूंगीफल, बेलपत्र, जनेऊ, चन्दन, अक्षत तथा पुष्पादि से भगवान् शिव और माता पार्वतीजी का पूजन करें तथा जो तीन भाग करके चूरमा रखा है उसका भोग लगावे तथा एक भाग शिवजी के निमित्त अर्पण कर दे तथा दूसरा भाग उपस्थित सज्जनों में बाँट दें और तीसरे भाग को स्वयं खा लेवें। इस प्रकार प्रति सोलह सोमवारों तक व्रत रखें, सत्रहवें सोमवार को पाँच सेर गेहूँ के आटे की बाटी बनावें तथा घी, गुड़ मिलाकर चूरमा बनावें और पूर्वोक्त नियमानुसार सबको बाँटकर स्वयं भोजन करें। इस प्रकार सोलह सोमवार तक जो मनुष्य व्रत करक सत्रहवें सोमवार को उसे पूर्ण करता है। वह भगवान् शिवजी की कृपा से समस्त मनोरथों को पाता है। इसलिये हे द्विजवर्य! तुम इस व्रत को करो, इसके करने से तुम्हारे समस्त संकट नष्ट हो जायेंगे। ऐसा कह वह अप्सरायें वहाँ से अपने धाम को चली गयीं। पश्चात् उस ब्राह्मण ने सोलह सोमवारों का व्रत किया और भगवान् शिवजी की कृपा से रोग मुक्त हुआ।
कुछ समय पश्चात् शिवजी तथा पार्वतीजी पुनः उस मंदिर में आये तथा उस ब्राह्मण को स्वस्थ तथा निरोग देखकर अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गये, ब्राह्मण को निरोग देख पार्वतीजी ने उससे कारण पूछा। ब्राह्मण ने सोमवार व्रत का समस्त वृत्तान्त कह सुनाया। पार्वतीजी भी उस व्रत के माहात्म्य से अति प्रसन्न हुईं और उन्होंने भी ब्राह्मण से व्रत के समस्त विधान को पूछा और व्रत किया, जिसके फलस्वरूप उनके रूठे हुए पुत्र स्वामी कार्तिकेयजी घर लौट आये तथा माता के प्रति अनुगामी हुए। अपने विचारों में एकाएक परिवर्तन हो आया, उसका कारण वे स्वयं न जान सके। एक दिन उन्होंने अपनी माता पार्वती से पूछा तो पार्वतीजी ने उन्हें व्रत का समस्त विधान वर्णन किया। स्वामी कार्तिकेयजी ने भी व्रत किया, जिससे उनका बहुत दिनों से बिछुड़ा हुआ द्विज मित्र उनसे आकर मिला। बहुत दिनों पर एकाएक मिलन होने के कारण उस विप्र मित्र को बड़ा आश्चर्य हुआ, जिसका वर्णन उसने कार्तिकेयजी से किया तो कार्तिकेयजी ने सोलह सोमवार व्रत की कथा का वर्णन माहात्म्य सहित किया। फिर तो उस ब्राह्मण ने जो कि अभी कुँवारा था, विवाह करने की इच्छा से व्रत किया तथा कुमार से पूछकर सब नियमों का पालन किया। एक दिन किसी काम से वह किसी दूसरे नगर में गया। भाग्यवश वहाँ राजा की कन्या का उस दिन स्वयंकर होने वाला था। स्वयंवर में बड़े-बड़े महान् तथा शक्तिशाली राजा-महाराजा पधारे तथा बहुत से लोग केवल स्वयंवर देखने आये, दर्शकों में वह ब्राह्मण-पुत्र भी गया था। जब स्वयंवर की सारी तैयारी हो गयी तब तक एक खूब सजी हुई सुन्दर हथिनी वरमाला लिये हुए निकली तथा घूमते-घूमते उसने दर्शकों के मध्य बैठे हुए उस ब्राह्मण-पुत्र के गले में जयमाला डाल दी। राजा ने अपनी प्रथा के अनुसार राजकुमारी का विवाह उसी ब्राह्मण के साथ कर दिया तथा दान-दहेज में. बहुत-सा धन दिया। सुन्दर स्त्री तथा विपुल धन-धान्य पाकर वह ब्राह्मण अति प्रसन्न हुआ तथा सोलह सोमवार के व्रत की महिमा वर्णन करते एवं शिवजी में अत्यन्त प्रीति रखते हुए आनन्द से रहने लगा।
इस प्रकार बहुत दिन व्यतीत हो गये कि एक दिन राजकुमारी ने पति से पूछा- हे स्वामिन् ! आपने ऐसा कौन-सा पुण्य किया था, जिसके प्रभाव से सब बड़े-बड़े राजाओं को छोड़कर हथिनी ने आपके गले में हार डाल दिया। जिसके कारण आपसे मेरा यह विवाह सम्पन्न हुआ, हे स्वामिन् ! आप कृपा करके सत्य-सत्य कहिये ? राजकुमारी के ऐसे वचनों को सुन उस ब्राह्मण ने सोलह सोमवार के व्रत का वर्णन किया। राजकुमारी ने भी पुत्र की कामना से व्रत किया तथा शिवजी से प्रार्थना करते हुई बोली- हे शिवजी ! मुझे आपके ही समान पुत्र उत्पन्न हो, जो अति धर्मात्मा तथा आपकी भक्ति करने वाला हो। ऐसा कहकर वह सोमवार व्रत करने लगी, जिसके फलस्वरूप उसे सर्वगुण-सम्पन्न एक उत्तम पुत्र उत्पन्न हुआ, जिससे वह ब्राह्मण तथा राजकुमारी अर्थात् ब्राह्मणी अति प्रसन्न हुई और बड़े लाड़-प्यार से उसका पालन-पोषण होने लगा। इस प्रकार बहुत समय व्यतीत होने पर वह पुत्र युवक हुआ तो एक दिन उसने अपनी माता से अति आदर के साथ यह पूछा- हे माँ! आपने ऐसा कौन-सा पुण्य या व्रत किया था कि मेरे जैसा पुत्र आपको मिला? माता ने सोलह सोमवार व्रत तथा शिवजी की महिमा का समस्त वृत्तान्त पुत्र को सुना दिया। पुत्र भी राज्य पाने की इच्छा से सोलह सोमवार का व्रत किया। शिवजी की असीम कृपा से किसी देश के वृद्ध राजा के दूतों ने आकर उस ब्राह्मण-पुत्र को सर्वगुण-सम्पन्न देखकर उसी को राजकन्या के निमित्त वरण किया। राजा के कोई पुत्र नहीं था, इस कारण राजा का देहान्त होने पर वह ब्राह्मण राजा नियुक्त हुआ। जिससे वह ब्राह्मणपुत्र अति सम्पन्न हुआ और राजा बनने पर भी मिथ्या गर्व न करके वह शिव-भक्ति प्रेमपूर्वक करता रहा और सोलह सोमवार का व्रतं भी नियमपूर्वक करता रहा। इस प्रकार नियमपूर्वक व्रत करते हुये राजा को जब सत्रहवाँ सोमवार आया तो राजा ने अपनी पत्नी को सब सामग्री के साथ शिवालय में आने के लिए कहा और स्वयं पहले चला गया, परन्तु राजकन्या ने मूढ़तावश अपने पति की बात न मानी तथा पूजा की सामग्री एवं नैवेद्य के लिए तीन भाग बाटी के चूरमे के स्थान पर तीन थैली स्वर्ण मुद्रा दासी द्वारा पहुँचवा दिया और स्वयं न गयी। तदुपरान्त जब राजा शिवपूजन समाप्त कर चुका तो यह आकाशवाणी हुई कि हे राजन् ! तुम्हारा कल्याण हो, तुम तो बड़े शिव-भक्त हो परन्तु तुम्हारी रानी बड़ी मूढ़ और कुलनाशिनी है, अतः तुम इस रानी को शीघ्र ही महल से निकाल दो, ऐसा कह आकाशवाणी चुप हो गयी। राजा ने आकाशवाणी का समस्त वृत्तान्त अपने मंत्रियों से कहा। मंत्रियों ने उसकी बात को विश्वास न किया परन्तु राजा ने किसी की बात पर बिना विचार किये ही रानी को घर से निकाल दिया। रोती-बिलखती रानी अपने भाग्य को कोसती हुई, एक नगर में पहुँची, जहाँ एक वृद्धा सूत कात रही थी, उस वृद्धा का सूत बाजार में बेचना था। उसने उस दुःखी रानी को देखकर अपने पास बुलाया और बोली- मैं वृद्धा हूँ, जरा मेरा सूत अपने सिर पर रखकर बाजार चल और मोल तोल करके बिकवा दे, मैं तुझे भोजन दूँगी और अपने पास रख लूँगी। रानी ज्योंही वृद्धा का सूत अपने सिर पर रखकर चली कि बड़ी जोर से आँधी आई और वृद्धा का सारा सूत हवा में उड़ गया। वृद्धा बड़ी दुःखित हुई और रानी को वास्तव में भाग्यहीन कहकर भगा दिया। रोती हुई रानी एक तेली के घर गई, ज्योंही उसने उसके घर में पैर रखा कि उसका तेल से भरा हुआ सारा घड़ा चटक गया और उसका तेल गिर गया। तेली ने भी उसे अपने घर से निकाल दिया। इस प्रकार सबके द्वारा निष्कासित रानी एक वन में गई तथा एक सुन्दर तालाब देख उसमें जल पीने गयी तो उसका कुछ जल सूख गया तथा जो बचा वह भी गंदा और छोटे-छोटे कीड़ों से युक्त हो गया। भाग्य की मारी रानी ने उसी गंदे जल को पिया और एक वृक्ष की छाया में बैठी तो उस के बैठते ही वृक्ष के भी भाग्य फूट गये और वह भी पत्तों से विहीन हो गया। फिर वहाँ से उठकर एक दूसरे वृक्ष के नीचे गयी। परन्तु वह जिस वृक्ष के भी नीचे जाती उसी का पत्ता झड़कर नीचे गिर जाता था। उसी वन में कुछ ग्वाले अपनी गौओं के चरा रहे थे। जब उन्होंने वन की ऐसी दशा देखी तो वे बड़े अप्रसन्न हुए और रानी को पकड़ कर वहीं मन्दिर में स्थित शिवालय के पुजारी के समीप ले गये और उसकी सारी दशा कह सुनाई। तब उस पुजारी ने रानी की ओर देखा तो देखने में वह भाग्य की मारी कुलीन स्त्री के समान प्रतीत हो रही थी। थोड़ी देर बाद वे विचार कर बोले- पुत्री तेरी यह दशा क्यों हो गयी है, तू तो किसी कुलीन घर की शोभा-सी प्रतीत हो रही है। तेरे ऊपर किसी देवता का कोप तो नहीं है? हे पुत्री, निःसंकोच अपना सारा वृत्तान्त मुझसे वर्णन करो। रानी से ऐसा कह वे ग्वालों को धैर्य देकर उन्हें विदा किया और पुनः रानी की ओर प्रश्नसूचक दृष्टि से देखने लगे। रानी ने अपना परिचय दिया तथा शिव- पूजन की सामग्री न ले जाने की भी बात कही। फिर उन पुजारी ने विचार कर कहा- पुत्री! तुम्हारे ऊपर शिवजी का कोप है, अतः तुम उसके निवारणार्थ सोलह सोमवार का व्रत करो, ऐसा करने से तुम्हारे सब कष्ट नष्ट हो जायेंगे। पुनः रानी उस पुजारी से सोलह सोमवार का व्रत विधिपूर्वक पूछ करके मन में शिवजी का ध्यान करती हुई सत्रहवें सोमवारको विधि-विधान से पूजन किया। शिवजी रानी के व्रत से अति प्रसन्न हुएऔर उनकी प्रसन्नता के प्रभाव से राजा ने फिर विचार किया कि रानी को घर से निकाले बहुत दिन व्यतीत हुए अब उसका प्रायश्चित हो गया होगा। अतः उसे घर लाना चाहिए। ऐसा विचार कर उन्होंने चारों तरफ रानी को खोजने के लिये दूत भेज दिये। कुछ दूत रानी को खोजते हुए उसी शिवालय में पहुँचे। परन्तु महात्माजी ने दूतों के साथ रानी को नहीं भेजा और कहा कि, जाकर राजा को भेज दो जिसने निकाला है, वही सब प्रमाण सहित अपनी पत्नी को ले जायें। दूतों ने जाकर राजा से सब वृत्तान्त का वर्णन किया, जिसे सुन राजा स्वयं ही उस शिवालय में गये और वहाँ के पुजारी से पूर्व वृत्तान्त कहा और यह भी बताया कि मैंने शिवजी के शाप के कारण ही निकाला था। अब मुझे ऐसा लगता है कि शिवजी का क्रोध कुछ शान्त हो गया है, इसलिये अब मैं इसे ले जाना चाहता हूँ आप आज्ञा दीजिये। उन महात्मा पुजारी ने राजा के वचनों को सत्य माना और आज्ञा दे दी। बड़ी प्रसन्नता से राजा-रानी को अपने घर ले गये और समस्त नगर में खूब खुशी मनाई गई और राजा ने बहुत-सा दान-दक्षिणा दिया और शिवजी के अति भक्त हो गये तथा नियमपूर्वक सोलह सोमवार का व्रत करने लगे। जिससे उनके ऊपर शिवजी की अति कृपा हुई और वे मृत्यु के पश्चात् शिवधाम को गये।

सोलह सोमवार व्रत पूजा सामग्री

शिव जी की मूर्ति, भांग, बेलपत्र, जल, धूप, दीप, गंगाजल, धतूरा, इत्र, सफेद चंदन, रोली, अष्टगंध, सफेद वस्त्र, नैवेद्य जिसे आधा सेर गेहूं के आँटे को घी में भून कर गुड़ मिला कर बना लें।

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