लिंग पुराण : सूर्यवंश तथा चन्द्रवंशका वर्णन एवं शिवभक्त तण्डीप्रोक्त रुद्रसहस्त्रनाम | Linga Purana: Description of Suryavansh and Chandravansh and Shiva devotee Tandiprokta Rudrasahastranaam

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] पैंसठवाँ अध्याय

सूर्य वंश तथा चन्द्रवंश का वर्णन एवं शिव भक्त तण्डी प्रोक्त रुद्र सहस्त्रनाम

ऋषय ऊचुः

आदित्यवंशं सोमस्य वंशं वंशविदां वर।
वक्तुमर्हसि चास्माकं सङ्क्षेपाद्रोमहर्षण ।। १

ऋषिगण बोले- हे वंशविदोंमें श्रेष्ठ। हे रोमहर्षण ! आप संक्षेपमें सूर्य वंश तथा चन्द्रवंश के विषय में हम लोगों को बताने की कृपा करें ॥१॥

सूत उवाच

अदितिः सुषुवे पुत्रमादित्यं कश्यपाद् द्विजाः।
तस्यादित्यस्य चैवासीद्भार्यात्रयमथापरम् ॥ २

संज्ञा राज्ञी प्रभा छाया पुत्रांस्तासां वदामि वः । 
संज्ञा त्वाष्ट्री च सुषुवे सूर्यान्मनुमनुत्तमम् ॥ ३

यमं च यमुनाञ्चैव राज्ञी रेवतमेव च।
प्रभा प्रभातमादित्याच्छायां संज्ञाप्यकल्पयत् ॥ ४

सूतजी बोले- हे द्विजो। अदितिने कश्यपसे आदित्य नामक पुत्रको उत्पन्न किया। उस आदित्यकी ज्येष्ठ भार्याके अतिरिक्त तीन और भार्याएँ थीं। वे संज्ञा, राज्ञी, प्रभा तथा छाया थीं- मैं उनके पुत्रोंके विषयमें आप लोगोंको बताता हूँ। त्वष्टाकी पुत्री संज्ञाने सूर्यसे श्रेष्ठ मनुको उत्पन्न किया। राज्ञीने यम, यमुना तथा रेवतको जन्म दिया। प्रभाने सूर्यसे प्रभातको जन्म दिया। संज्ञाने ही छायाको अपने स्थानपर नियोजित किया ॥ २-४॥

छाया च तस्मात्सुषुवे सावणि भास्कराद् द्विजाः । 
ततः शनिं च तपतीं विष्टिं चैव यथाक्रमम् ॥ ५

छाया स्वपुत्राभ्यधिकं स्नेहं चक्रे मनौ तदा। 
पूर्वी मनुर्न चक्षाम यमस्तु क्रोधमूच्छितः ॥ ६

सन्ताडयामास रुषा पादमुद्यम्य दक्षिणम्। 
यमेन ताडिता सा तु छाया वै दुःखिताभवत् ॥ ७

छायाशापात्पदं चैकं यमस्य क्लिन्नमुत्तमम्। 
पूयशोणितसम्पूर्ण कृमीणां निचयान्वितम् ॥ ८

सोऽपि गोकर्णमाश्रित्य फलकेनानिलाशनः । 
आराधयन् महादेवं यावद्वर्षायुतायुतम् ॥ ९

भवप्रसादादागत्य लोकपालत्वमुत्तमम् । 
पितॄणामाधिपत्यं तु शापमोक्षं तथैव च ॥ १०

हे द्विजो ! छायाने उन सूर्यसे सावर्णि मनु, शनि, तपती तथा विष्टिको यथाक्रम जन्म दिया। छाया अपने पुत्र सावर्णि मनुसे अधिक स्नेह करती थी। पूर्व मनु [अपना] दाहिना पैर उठाकर छायापर प्रहार किया। (वैवस्वत मनु) तो इसे सहन कर गये, पर क्रोधसे विक्षुब्ध यम इसे सहन न कर सका और उसने क्रोधसे [पैरसे] यमके द्वारा मारे जानेपर वह छाया दुःखित हुई तब छायाके शापसे यमका वह सुन्दर पैर खराब हो गया, वह मवाद तथा रक्तसे भर गया और कीड़ोंके समूहसे युक्त हो गया। तदनन्तर वह [यम] गोकर्णमें रहकर एक फलक (पटरे) पर बैठकर [केवल] वायु पीता हुआ दस हजार वर्षोंतक महादेवजीकी आराधना करता रहा। शिवकी कृपासे श्रेष्ठ लोकपालत्व तथा पितरोंका स्वामित्व प्राप्त करके उसने देवदेव शूल- पाणि (शिव) के प्रभावसे शापसे मुक्ति प्राप्त की ॥ ८-१०॥

लब्धवान् देवदेवस्य प्रभावाच्छूलपाणिनः । 
असहन्ती पुरा भानोस्तेजोमयमनिन्दिता ।। ११

रूपं त्वाष्ट्री स्वदेहात्तु छायाख्यां सा त्वकल्पयत्। 
वडवारूपमास्थाय तपस्तेपे तु सुव्रता ॥ १२

कालात्प्रयत्नतो ज्ञात्वा छायां छायापतिः प्रभुः । 
वडवामगमत्संज्ञामश्वरूपेण भास्करः ।। १३

वडवा च तदा त्वाष्ट्री संज्ञा तस्माद्दिवाकरात्। 
सुषुवे चाश्विनौ देवौ देवानां तु भिषग्वरी ॥ १४

लिखितो भास्करः पश्चात्संज्ञा पित्रा महात्मना। 
विष्णोश्चक्रं तु यद् घोरं मण्डलाद्भास्करस्य तु ॥ १५

निर्ममे भगवांस्त्वष्टा प्रधानं दिव्यमायुधम्। 
रुद्रप्रसादाच्च शुभं सुदर्शनमिति स्मृतम् ॥ १६

पूर्वकाल में सूर्य के तेजोमय रूप को सहन न करती हुई त्वष्टाकी शुभ कन्या संज्ञाने अपने शरीर से [दूसरी] छाया नामक स्त्रीकी रचना की और वह सुव्रता स्वयं वडवा (घोड़ी) का रूप धारणकर तप करने लगी। कुछ समयके बाद प्रयत्नपूर्वक छायाको संज्ञाकी प्रतिकृति जानकर छायापति प्रभु सूर्यने घोड़ेका रूप धारणकर उस वडवारूपधारिणी संज्ञाके साथ रमण किया। तब घोड़ीके रूपवाली त्वष्टापुत्री संज्ञाने उन सूर्यसे देवस्वरूप दोनों अश्विनीकुमारोंको जन्म दिया; वे देवताओंके श्रेष्ठ वैद्य थे उसके बाद महान् आत्मावाले संज्ञापिता [त्वष्टा]- ने सूर्यको खरादा। भगवान् त्वष्टाने रुद्रकी कृपासे सूर्यके मण्डलसे विष्णुके चक्रका निर्माण किया, जो बड़ा भयानक था। वह उनका प्रधान तथा दिल्य अस्त्र था, जिसे शुभ सुदर्शन [चक्र] कहा गया है। भगवान् कृष्णने कालाग्निसदृश उस चक्रको प्राप्त किया था ॥ १५-१६॥

लब्धवान् भगवांश्चक्रं कृष्णः कालाग्निसन्निभम्।
मनोस्तु प्रथमस्यासन्नव पुत्रास्तु तत्समाः ॥ १७

इक्ष्वाकुर्नभगश्चैव धृष्णुः शर्यातिरेव च। 
नरिष्यन्तश्च वै धीमान् नाभागोऽरिष्ट एव च ॥ १८

करूषश्च पृषनश्च नवैते मानवाः स्मृताः। 
इला ज्येष्ठा वरिष्ठा च पुंस्त्वं प्राप च या पुरा ।। १९

सुद्युम्न इति विख्याता पुंस्त्वं प्राप्ता त्विला पुरा। 
मित्रावरुणयोस्त्वत्र प्रसादान्मुनिपुङ्गवाः ॥ २०

पुनः शरवणं प्राप्य स्त्रीत्वं प्राप्तो भवाज्ञया। 
सुद्युम्नो मानवः श्रीमान् सोमवंशप्रवृद्धये ॥ २१

इक्ष्वाकोरश्वमेधेन इला किम्पुरुषोऽभवत्। 
इला किम्पुरुषत्वे च सुद्युम्न इति चोच्यते ।। २२

प्रथम मनु [वैवस्वत] के नौ पुत्र हुए, जो उन्हींके समान थे। इक्ष्वाकु, नभग, धृष्णु, शर्याति, नरिष्यन्त, बुद्धिमान् नाभाग, अरिष्ट, करूष तथा पृषभ्र- ये नौ मनुपुत्र कहे गये हैं। उनकी ज्येष्ठ तथा वरिष्ठ पुत्री इला जो पूर्वकालमें पुरुष हो गयी थी, वह सुद्युम्न नामसे प्रसिद्ध हुई। है श्रेष्ठ मुनियो। मित्र तथा वरुणकी कृपासे वह इला पूर्वकालमें पुरुषत्वको प्राप्त हुई थी; पुनः शिवकी आज्ञासे शरवण [नामक वन] को प्राप्तकर सोमवंशकी वृद्धिके लिये वे मनुपुत्र श्रीमान् सुद्युम्न स्त्रीत्रको प्राप्त हुए। इक्ष्वाकुके अश्वमेधके समय वह इला किंपुरुष (पुरुष रूपवाली) हो गयी थी। वह इला किंपुरुष हो जानेपर 'सुद्युम्न' इस नामसे कही जाती थी ॥ १७-२२ ॥

मासमेकं पुमान् वीरः स्त्रीत्वं मासमभूत्पुनः । 
इला बुधस्य भवनं सोमपुत्रस्य चाश्रिता ।। २३

बुधेनान्तरमासाद्य मैथुनाय प्रवर्तिता। 
सोमपुत्राद् बुधाच्चापि ऐलो जज्ञे पुरूरवाः ॥ २४

सोमवंशाग्रजो धीमान् भवभक्तः प्रतापवान्। 
इक्ष्वाकोर्वशविस्तारं पश्चाद्वक्ष्ये तपोधनाः ॥ २५

पुत्रत्रयमभूत्तस्य सुद्युम्नस्य द्विजोत्तमाः । 
उत्कलश्च गयश्चैव विनताश्वस्तथैव च ॥ २६

उत्कलस्योत्कलं राष्ट्र विनताश्वस्य पश्चिमम् । 
गया गयस्य चाख्याता पुरी परमशोभना ॥ २७

वह इला एक महीनेतक वीर पुरुषके रूपमें और पुनः एक महीनेतक स्त्रीके रूपमें रहती थी। वह चन्द्रमाके पुत्र बुधके भवनमें रहने लगी। अवसर पाकर वह बुधके साथ मैथुनके लिये तत्पर हुई। तब सोमपुत्र बुध और इलासे पुरूरवा उत्पन्न हुए; जो सोमवंशमें प्रथम उत्पन्न होने वाले, बुद्धिमान्, शिवभक्त तथा प्रतापी थे। है तपोधनो! अब इसके बाद मैं इक्ष्वाकुवंशके विस्तारका वर्णन करूँगा हे उत्तम द्विजो ! उन सुद्युम्नके तीन पुत्र हुए- उत्कल, गय तथा विनताश्व। उत्कलका उत्कल [नामक] राष्ट्र था और विनताश्वका पश्चिमी प्रदेश था। गयको गया [नामक] परम सुन्दर पुरी कही गयी है, जिसमें देवताओं तथा पितरोंको स्थिति सर्वदा रहती है इक्ष्वाकुके ज्येष्ठ पुत्रने मध्यदेश प्राप्त किया। कन्या प्रकृतिवाले होनेके कारण महातेजस्वी सुद्युम्न [अपना] भाग नहीं पा सके; किंतु वसिष्ठके कहने से प्रतिष्ठानपुरमें धर्मराज महात्मा सुद्युम्नकी प्रतिष्ठा स्थापित बड़ा भयानक था। वह उनका प्रधान तथा दिल्य अस्त्र था, जिसे शुभ सुदर्शन [चक्र] कहा गया है। भगवान् कृष्णने कालाग्निसदृश उस चक्रको प्राप्त किया था ॥ २३-२७ ॥

सुराणां संस्थितिर्यस्यां पितॄणां च सदा स्थितिः ।
इक्ष्वाकुज्येष्ठदायादो मध्यदेशमवाप्तवान् ॥ २८

कन्याभावाच्च सुद्युम्नो नैव भागमवाप्तवान् ।
वसिष्ठवचनात्त्वासीत्प्रतिष्ठाने महाद्युतिः ॥ २९

प्रतिष्ठा धर्मराजस्य सुद्युम्नस्य महात्मनः ।
तत्पुरूरवसे प्रादाद्राज्यं प्राप्य महायशाः ॥ ३०

इक्ष्वाकुके ज्येष्ठ पुत्रने मध्यदेश प्राप्त किया। कन्या प्रकृतिवाले होनेके कारण महातेजस्वी सुद्युम्न [अपना] भाग नहीं पा सके; किंतु वसिष्ठके कहने से प्रतिष्ठानपुरमें धर्मराज महात्मा सुद्युम्नकी प्रतिष्ठा स्थापित हुई और स्त्री-पुरुषके लक्षणोंसे युक्त, महायशस्वी तथा महाभाग्यशाली मनुपुत्र [सुद्युम्न] ने राज्य प्राप्त करके उसे पुरूरवाको दे दिया ॥ २८-३०॥

मानवेयो महाभागः स्त्रीपुंसोर्लक्षणान्वितः । 
इक्ष्वाकोरभवद्वीरो विकुक्षिर्धर्मवित्तमः ॥ ३१

ज्येष्ठः पुत्रशतस्यासीद्दश पञ्च च तत्सुताः । 
अभूज्येष्ठः ककुत्स्थश्च ककुत्स्थात्तु सुयोधनः ।। ३२

ततः पृथुर्मुनिश्रेष्ठा विश्वकः पार्थिवस्तथा। 
विश्वकस्यार्द्रको धीमान् युवनाश्वस्तु तत्सुतः ।। ३३

शाबस्तिश्च महातेजा वंशकस्तु ततोऽभवत्। 
निर्मिता येन शाबस्ती गौडदेशे द्विजोत्तमाः ॥ ३४

वंशाच्च बृहदश्वोऽभूत्कुवलाश्वस्तु तत्सुतः । 
धुन्धुमारत्वमापन्नो धुन्धुं हत्वा महाबलम् ॥ ३५

धुन्धुमारस्य तनयास्त्रयस्त्रैलोक्यविश्रुताः । 
दृढाश्वश्चैव चण्डाश्वः कपिलाश्वश्च ते स्मृताः ।। ३६

दृढाश्वस्य प्रमोदस्तु हर्यश्वस्तस्य वै सुतः । 
हर्यश्वस्य निकुम्भस्तु संहताश्वस्तु तत्सुतः ॥ ३७

कृशाश्वोऽथ रणाश्वश्च संहताश्वात्मजावुभौ । 
युवनाश्वो रणाश्वस्य मान्धाता तस्य वै सुतः ।। ३८

मान्धातुः पुरुकुत्सोऽभूदम्बरीषश्च वीर्यवान्। 
मुचुकुन्दश्च पुण्यात्मा त्रयस्त्रैलोक्यविश्रुताः ॥ ३९

अम्बरीषस्य दायादो युवनाश्वोऽपरः स्मृतः । 
हरितो युवनाश्वस्य हरितास्तु यतः स्मृताः ॥ ४०

सौ पुत्रोंवाले इक्ष्वाकुके ज्येष्ठ पुत्र विकुक्षि थेः वे महान् धर्मज्ञ थे। उनके पचास पुत्र हुए; उनमें ककुत्स्थ सबसे बड़े थे। ककुत्स्थसे सुयोधन उत्पन्न हुए। है श्रेष्ठ मुनियो! उन [सुयोधन] से पृथु और पृथुसे विश्वक उत्पन्न हुए। विश्वकके पुत्र बुद्धिमान् आर्द्रक थे और उनके पुत्र युवनाश्व थे। हे श्रेष्ठ द्विजो! उनके पुत्र महातेजस्वी शाबस्ति थे, जिन्होंने गौड़देशमें शाबस्ती नगरीका निर्माण किया। उनसे वंशक [नामक पुत्र] उत्पन्न हुए और वंश [वंशक] से बृहदश्व हुए। कुवलाश्व उन [बृहदश्वके] पुत्र थे; उन्होंने महाबली 'धुन्धु' को मारकर धुन्धुमार नाम प्राप्त किया था। धुन्धुमारके तीन पुत्र हुए, जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध थे; वे दृढ़ाश्व, चण्डाश्व तथा कपिलाश्व [नामवाले] कहे गये हैं। दृढ़ाश्वके पुत्र प्रमोद और उनके पुत्र हर्यश्व थे। हर्यश्वके पुत्र निकुम्भ और उन [निकुम्भ) के पुत्र संहताश्व थे। संहताश्वके कृशाश्व तथा रणाश्व [नामक] दो पुत्र थे। रणाश्वके पुत्र युवनाश्व थे और उन [युवनाश्व] के पुत्र मान्धाता थे। मान्धाताके तीन पुत्र हुए-पुरुकुत्स, पराक्रमी अम्बरीष तथा पुण्यात्मा मुचुकुन्दः ये तीनों लोकोंमें विख्यात थे। अम्बरीषके पुत्र युवनाश्व द्वितीय बताये गये हैं। युवनाश्वके पुत्र हरित थे, जिनसे उत्पन्न सभी पुत्र 'हरित' [नामवाले] कहे गये हैं। ये सब अंगिराके वंशके ब्राह्मण थे, किन्तु क्षत्रिय- स्वभाववाले थे ॥ ३१-४० ॥

एते ह्यङ्गिरसः पक्षे क्षत्रोपेता द्विजातयः। 
पुरुकुत्सस्य दायादस्त्रसदस्युर्महायशाः ।। ४१

नर्मदायां समुत्पन्नः सम्भूतिस्तस्य चात्मजः ।
विष्णुवृद्धः सुतस्तस्य विष्णुवृद्धा यतः स्मृताः ॥ ४२

एते ह्यङ्गिरसः पक्षे क्षत्रोपेताः समाश्रिताः। 
सम्भूतिरपरं पुत्रमनरण्यमजीजनत् ॥ ४३

रावणेन हतो योऽसौ त्रैलोक्यविजये द्विजाः । 
बृहदश्वोऽनरण्यस्य हर्यश्वस्तस्य चात्मजः ॥ ४४

हर्यश्वात्तु दृषद्वत्यां जज्ञे वसुमना नृपः। 
तस्य पुत्रोऽभवद्राजा त्रिधन्वा भवभावितः ॥ ४५

प्रसादाद् ब्रह्मसूनोवै तण्डिनः प्राप्य शिष्यताम् । 
अश्वमेधसहस्त्रस्य फलं प्राप्य तदाज्ञया ॥ ४६

गणैश्वर्यमनुप्राप्तो भवभक्तः प्रतापवान् । 
कथं चैवाश्वमेधं वै करोमीति विचिन्तयन् ।। ४७

धनहीनश्च धर्मात्मा दृष्टवान् ब्रह्मणः सुतम्। 
तण्डिसंज्ञं द्विजं तस्माल्लब्धवान् द्विजसत्तमाः ॥ ४८

नाम्नां सहस्त्रं रुद्रस्य ब्रह्मणा कथितं पुरा। 
तेन नाम्नां सहस्त्रेण स्तुत्वा तण्डिर्महेश्वरम् ॥ ४९

लब्धवान् गाणपत्यं च ब्रह्मयोनिर्द्विजोत्तमः । 
ततस्तस्मान्नृपो लब्ध्वा तण्डिना कथितं पुरा ॥ ५०

पुरुकुत्सके पुत्र महायशस्वी त्रसदस्यु थे। उनके पुत्र सम्भूति थे, जो नर्मदाके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। उन [सम्भूति] के पुत्र विष्णुवृद्ध थे। विष्णुवृद्धके सभी वंशज विष्णुवृद्ध [नामवाले] कहे गये हैं। ये सब भी अंगिराके वंशमें [ब्राह्मण] थे, किंतु क्षत्रिय स्वभावसे युक्त थे। हे द्विजो। सम्भूतिने अनरण्य नामक दूसरे पुत्रको उत्पन्न किया, जो त्रैलोक्य-विजयके समय रावणके द्वारा मार दिये गये। अनरण्यके पुत्र बृहदश्व और बृहदश्वके पुत्र हर्यश्व थे। हर्यश्वसे [उनकी पत्नी] दृषद्वतीके गर्भसे राजा 'वसुमना' उत्पन्न हुए। उनके त्रिधन्वा नामक पुत्र हुए; वे शिवभक्त थे। उन प्रतापी तथा शिवभक्तने ब्रह्माके पुत्र तण्डीकी कृपासे उनकी शिष्यता प्राप्त करके और उनकी आज्ञासे हजार अश्वमेधका फल प्राप्तकर गणोंके स्वामीका पद ग्रहण कर लिया था। 'मैं अश्वमेध कैसे करूँ' [किसी समय ऐसा सोचते हुए उन धनहीन धर्मात्मा [त्रिधन्वा]- ने ब्रह्माके पुत्र तण्डी नामक ब्राह्मणको देखा और हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो। रुद्रसहस्रनामको उनसे प्राप्त कर लिया। पूर्वकालमें ब्रह्माजीने [तण्डीको रुद्रसहस्रनाम बताया था; उसी सहस्त्रनामसे महेश्वरकी स्तुति करके ब्रह्माजीके पुत्र द्विजश्रेष्ठ तण्डीने गणाधिप पद प्राप्त किया था। तदनन्तर पूर्वकालमें तण्डीके द्वारा बताये गये रुद्र सहस्त्रनामको ग्रहण करके राजा [त्रिधन्वा] ने भी गणाधिप पद प्राप्त किया ॥ ४१-५० ॥

नाम्नां सहस्त्रं जप्त्वा वै गाणपत्यमवाप्तवान् ।

ऋषय ऊचुः

नाम्नां सहस्त्रं रुद्रस्य तण्डिना ब्रह्मयोनिना ।। ५१

कथितं सर्ववेदार्थसञ्चयं सूत सुव्रत। 
नाम्नां सहस्त्रं विप्राणां वक्तुमर्हसि शोभनम् ॥ ५२

सूत उवाच

सर्वभूतात्मभूतस्य हरस्यामिततेजसः ।
अष्टोत्तरसहस्त्रं तु नाम्नां शृणुत सुव्रताः ॥ ५३

ऋषिगण बोले- ब्रह्माके पुत्र तण्डीके द्वारा कहा गया रुद्रसहस्त्रनाम समग्र वेदार्थोंसे परिपूर्ण है; हे सूतजी ! हे सुव्रत । उस उत्तम सहस्रनामको कृपा करके [हम] विप्रोंको बताइये सूतजी बोले- हे सुन्नतो! हे श्रेष्ठ मुनियो। सभी प्राणियों के आत्मस्वरूप तथा अमित तेजवाले रुद्रके एक हजार आठ नामोंवाले स्तोत्रको सुनिये, जिसका जप करके तण्डीने गणाधिप पद प्राप्त किया था॥ ५१-५३॥

यज्जप्त्वा तु मुनिश्रेष्ठा गाणपत्यमवाप्तवान् ।
ॐस्थिरः स्थाणुः प्रभुर्भानुः प्रवरो वरदो वरः ॥ ५४

सर्वात्मा सर्वविख्यातः सर्वः सर्वकरो भवः ।
जटी दण्डी शिखण्डी च सर्वगः सर्वभावनः ।। ५५

हरिश्च हरिणाक्षश्च सर्वभूतहरः स्मृतः ।
प्रवृत्तिश्च निवृत्तिश्च शान्तात्मा शाश्वतो ध्रुवः ॥ ५६ 

श्मशानवासी भगवान् खचरो गोचरोऽर्दनः ।
अभिवाद्यो महाकर्मा तपस्वी भूतधारणः ॥ ५७

उन्मत्तवेषः प्रच्छन्नः सर्वलोकः प्रजापतिः ।
महारूपो महाकायः सर्वरूपो महायशाः ।। ५८

महात्मा सर्वभूतश्च विरूपो वामनो नरः।
लोकपालोऽन्तर्हितात्मा प्रसादोऽभयदो विभुः ॥ ५९

पवित्रश्च महांश्चैव नियतो नियताश्रयः।
स्वयम्भूः सर्वकर्मा च आदिरादिकरो निधिः ॥ ६०

सहस्त्राक्षो विशालाक्षः सोमो नक्षत्रसाधकः ।
चन्द्रः सूर्यः शनिः केतुग्रहो ग्रहपतिर्मतः ॥ ६१

राजा राज्योदयः कर्ता मृगबाणार्पणो घनः ।
महातपा दीर्घतपा अदृश्यो धनसाधकः ॥ ६२

'ॐ स्थिर, स्थाणु, प्रभु, भानु, प्रवर, वरद, वर, सर्वात्मा, सर्वविख्यात, सर्व, सर्वकर, भव, जटी, दण्डी, शिखण्डी, सर्वग, सर्वभावन, हरि, हरिणाक्ष, सर्वभूतहर, स्मृत, प्रवृत्ति, निवृत्ति, शान्तात्मा, शाश्वत, ध्रुव, श्मशानवासी, भगवान्, खचर, गोचर, अर्दन, अभिवाद्य, महाकर्मा, तपस्वी, भूतधारण, उन्मत्तवेष, प्रच्छन्न, सर्वलोक, प्रजापति, महारूप, महाकाय, सर्वरूप, महायश महात्मा, सर्वभूत, विरूप, वामन, नर, लोकपाल, अन्तर्हितात्मा, प्रसाद, अभयद, विभु, पवित्र, महान्, नियत, नियताश्रय, स्वयम्भू, सर्वकर्मा, आदि, आदिकर, निधि, सहस्राक्ष, विशालाक्ष, सोम, नक्षत्रसाधक, चन्द्र, सूर्य, शनि, केतु, ग्रह (मंगल), ग्रहपति (बृहस्पति), मत (बुध), राजा (शुक्र), राज्योदय (राहु), कर्ता, मृगबाणार्पण, घन, महातप, दीर्घतप, अदृश्य, धनसाधक ॥ ५४-६२॥

संवत्सरः कृतो मन्त्रः प्राणायामः परन्तपः ।
योगी योगो महाबीजो महारेता महाबलः ॥ ६३

सुवर्णरताः सर्वज्ञः सुबीजो वृषवाहनः । 
दशबाहुस्त्वनिमिषो नीलकण्ठ उमापतिः ॥ ६४

विश्वरूपः स्वयंश्रेष्ठो बलवीरो बलाग्रणीः ।
गणकर्ता गणपतिर्दिग्वासाः काम्य एव च ॥ ६५

मन्त्रवित्परमो मन्त्रः सर्वभावकरो हरः ।
कमण्डलुधरो धन्वी बाणहस्तः कपालवान् ॥ ६६

शरी शतघ्नी खड्‌गी च पट्टिशी चायुधी महान्। 
अजश्च मृगरूपश्च तेजस्तेजस्करो विधिः ॥ ६७

उष्णीषी च सुवक्ाश्च उदग्रो विनतस्तथा।
दीर्घश्च हरिकेशश्च सुतीर्थः कृष्ण एव च ॥ ६८

शृगालरूपः सर्वार्थो मुण्डः सर्वशुभङ्करः ।
सिंहशार्दूलरूपश्च गन्धकारी कपद्यपि ॥ ६९

ऊर्ध्वरेतोर्ध्वलिङ्गी च ऊर्ध्वशायी नभस्तलः ।
त्रिजटी चीरवासाश्च रुद्रः सेना पतिर्विभुः ॥ ७०

अहोरात्रं च नक्तं च तिग्ममन्युः सुवर्चसः ।
गजहा दैत्यहा कालो लोकधाता गुणाकरः ॥ ७१

संवत्सर, कृत, मन्त्र, प्राणायाम, परन्तप, योगौ, योग, महाबीज, महारेता, महाबल, सुवर्णरता, सर्वज्ञ, सुबीज, वृषवाहन, दशबाहु, अनिमिष, नीलकण्ठ, उमापति, विश्वरूप, स्वयंश्रेष्ठ, बलवीर, बलाग्रणी, गणकर्ता, गणपति, दिग्वास, काम्य, मन्त्रवित्, परम, मन्त्र, सर्व-भावकर, हर, कमण्डलुधर, धन्वी, बाणहस्त, कपालवान् शरी, शतघ्नी, खड्‌गी, पट्टिशी, आयुधी, महान्, अज, मृगरूप, तेज, तेजस्कर, विधि, उष्णीषी, सुवक्त्र, उदग्र, विनत, दीर्घ, हरिकेश, सुतीर्थ, कृष्ण, शृगालरूप, सर्वार्थ, मुण्ड, सर्वशुभंकर, सिंहशार्दूलरूप, गन्धकारी, कपर्दी, ऊर्ध्वरेता, ऊर्ध्वलिङ्गी, ऊर्ध्वशायी, नभ, तल, त्रिजटी, चीरवासा, रुद्र, सेना, पति, विभु, अहोरात्र, नक्त, तिग्ममन्यु, सुवर्चस, गजहा, दैत्यहा, काल, लोकधाता, गुणाकर ॥ ६३-७१ ॥

सिंहशार्दूलरूपाणामार्द्रचर्माम्बरन्धरः
कालयोगी महानादः सर्वावासश्चतुष्पथः ॥ ७२

निशाचरः प्रेतचारी सर्वदर्शी महेश्वरः।
बहु भूतो बहुधनः सर्वसारोऽमृतेश्वरः ॥ ७३

नृत्यप्रियो नित्यनृत्यो नर्तनः सर्वसाधकः ।
सकार्मुको महाबाहुर्महाघोरो महातपाः ॥ ७४

महाशरो महापाशो नित्यो गिरिचरोऽमतः ।
सहस्त्रहस्तो विजयो व्यवसायो ह्यनिन्दितः ॥ ७५

अमर्षणो मर्षणात्मा यज्ञहा कामनाशनः।
दक्षहा परिचारी च प्रहसो मध्यमस्तथा ।। ७६

तेजोऽपहारी बलवान् विदितोऽभ्युदितोऽबहुः ।
गम्भीरघोषो योगात्मा यज्ञहा कामनाशनः ॥ ७७

गम्भीररोषो गम्भीरो गम्भीरबलवाहनः ।
न्यग्रोधरूपो न्यग्रोधो विश्वकर्मा च विश्वभुक् ॥ ७८

तीक्ष्णोपायश्च हर्यश्वः सहायः कर्म कालवित्।
विष्णुः प्रसादितो यज्ञः समुद्रो वडवामुखः ॥ ७९

हुताशनसहायश्च प्रशान्तात्मा हुताशनः ।
उग्रतेजा महातेजा जयो विजयकालवित् ॥ ८०

सिंहशार्दूलरूपाणामार्द्रचर्माबरंधर, कालयोगी, महा-नाद, सर्वावास, चतुष्पथ, निशाचर, प्रेतचारी, सर्वदर्शी, महेश्वर, बहु, भूत, बहुधन, सर्वसार, अमृतेश्वर, नृत्यप्रिय, नित्यनृत्य, नर्तन, सर्वसाधक, सकार्मुक, महाबाहु, महाघोर, महातप, महाशर, महापाश, नित्य, गिरिचर, अगत, सहस्रहस्त, विजय, व्यवसाय, अनिन्दित, अमर्षण, मर्षणात्मा, यज्ञहा, कामनाशन, दक्षहा, परिचारी, प्रहस, मध्यम तेज, अपहारी, बलवान्, विदित, अभ्युदित, अबहु, गम्भीरघोष, योगात्मा, यज्ञहा, कामना, अशन, गम्भीररोष, गम्भीर, गम्भीरबलवाहन, न्यग्रोधरूप, न्यग्रोध, विश्वकर्मा, विश्वभुक्, तीक्ष्णोपाय, हर्यश्व, सहाय, कर्म, कालवित्, विष्णु, प्रसादित, यज्ञ, समुद्र, वडवामुख, हुताशनसहाय, प्रशान्तात्मा, हुताशन, उग्रतेज, महातेज, जय, विजय- कालवित् ॥ ७२-८० ॥

ज्योतिषामयनं सिद्धिः सन्धिर्विग्रह एव च।
खड्गी शङ्खी जटी ज्वाली खचरो द्युचरो बली॥ ८१

वैणवी पणवी कालः कालकण्ठः कटङ्कटः ।
नक्षत्रविग्रहो भावो निभावः सर्वतोमुखः ॥ ८२

विमोचनस्तु शरणो हिरण्यकवचोद्भवः ।
मेखला कृतिरूपश्च जलाचारः स्तुतस्तथा ॥ ८३

वीणी च पणवी ताली नाली कलिकटुस्तथा।
सर्वतूर्यनिनादी च सर्वव्याप्यपरिग्रहः ।। ८४

व्यालरूपी बिलावासी गुहावासी तरङ्गवित्।
वृक्षः श्रीमालकर्मा च सर्वबन्धविमोचनः ॥ ८५

बन्धनस्तु सुरेन्द्राणां युधि शत्रुविनाशनः ।
सखा प्रवासो दुर्वापः सर्वसाधुनिषेवितः ।। ८६

प्रस्कन्दोऽप्यविभावश्च तुल्यो यज्ञविभागवित्।
सर्ववासः सर्वचारी दुर्वासा वासवो मतः ॥ ८७

हैमो हेमकरो यज्ञः सर्वधारी धरोत्तमः ।
आकाशो निर्विरूपश्च विवासा उरगः खगः ॥ ८८

ज्योतिषामयन, सिद्धि, सन्धि, विग्रह, खड्‌गी, शंखी, जटी, ज्वाली, खचर, द्युचर, बली, वैणवी, पणवी, काल, कालकण्ठ, कटंकट, नक्षत्रविग्रह, भाव, निभाव, सर्वतोमुख, विमोचन, शरण, हिरण्यकवचोद्भव, मेखला, कृतिरूप, जलाचार, स्तुत, वीणी, पणवी, ताली, नाली कलिकटु, सर्वतूर्यनिनादी, सर्वव्याप्य- परिग्रह व्यालरूपी, बिलावासी, गुहावासी, तरंगवित्, वृक्ष, श्रीमालकमां, सर्वबन्धविमोचन, बन्धन, सुरेन्द्राणां युधि-शत्रुविनाशन, सखा, प्रवास, दुर्वाप, सर्वसाधु- निषेवित, प्रस्कन्द, अविभाव, तुल्य, यज्ञविभागवित्, सर्ववास, सर्वचारी, दुर्वासा, वासव, मत, हैम, हेमकर, यज्ञ, सर्वधारी, धरोत्तम, आकाश, निर्विरूप, विवास, उरग, खग ॥ ८१-८८ ॥

भिक्षुश्च भिक्षुरूपी च रौद्ररूपः सुरूपवान्।
वसुरेताः सुवर्चस्वी वसुवेगो महाबलः ॥ ८९ 

मनो वेगो निशाचारः सर्वलोकशुभप्रदः ।
सर्वावासी त्रयीवासी उपदेशकरो धरः ॥ ९०

मुनिरात्मा मुनिर्लोकः सभाग्यश्च सहस्त्रभुक् ।
पक्षी च पक्षरूपश्च अतिदीप्तो निशाकरः ॥ ९९

समीरो दमनाकारो हार्थों हार्थकरो वशः ।
वासुदेवश्च देवश्च वामदेवश्च वामनः ॥ ९२

सिद्धियोगापहारी च सिद्धः सर्वार्थसाधकः ।
अक्षुण्णः क्षुण्णरूपश्च वृषणो मृदुरव्ययः ॥ ९३

महासेनो विशाखश्च षष्टिभागो गवां पतिः ।
चक्रहस्तस्तु विष्टम्भी मूलस्तम्भन एव च ॥ ९४

ऋतुऋतुकरस्तालो मधुर्मधुकरो वरः।
वानस्पत्यो वाजसनो नित्यमाश्रमपूजितः ॥ ९५

ब्रह्मचारी लोकचारी सर्वचारी सुचारवित् ।
ईशान ईश्वरः कालो निशाचारी ह्यनेकदृक् ॥ ९६

भिक्षु, भिक्षुरूपी, रौद्ररूप, सुरूपवान्, वसुरेता, सुवर्चस्वी, वसुवेग, महाबल, मन, वेग, निशाचार, सर्वलोकशुभप्रद, सर्वावासी, त्रयीवासी, उपदेशकर, धर, मुनि, आत्मा, मुनि, लोक, सभाग्य, सहस्रभुक्, पक्षी पक्षरूप, अतिदीप्त, निशाकर, समीर, दमनाकार, अर्थ, अर्थकर, वश, वासुदेव, देव, वामदेव, वामन सिद्धियोगापहारी, सिद्ध, सर्वार्थसाधक, अक्षुण्ण, क्षुण्णरूप, वृषण, मृदु, अव्यय, महासेन, विशाख, षष्टिभाग, गवांपति, चक्रहस्त, विष्टम्भी, मूलस्तम्भन, ऋतु, ऋतुकर, ताल, मधु, मधुकर, वर, वानस्पत्य, वाजसन, नित्य, आश्रमपूजित, ब्रह्मचारी, लोकचारी, सर्वचारी, सुचारवित्, ईशान, ईश्वर, काल, निशाचारी, अनेकदृक् ॥ ८९-९६ ॥

निमित्तस्थो निमित्तं च नन्दिर्नन्दिकरो हरः ।
नन्दीश्वरः सुनन्दी च नन्दनो विषमर्दनः ॥ ९७

भगहारी नियन्ता च कालो लोकपितामहः ।
चतुर्मुखो महालिङ्गश्चारुलिङ्गस्तथैव च ॥ ९८

लिङ्गाध्यक्षः सुराध्यक्षः कालाध्यक्षो युगावहः । 
बीजाध्यक्षो बीजकर्ता अध्यात्मानुगतो बलः ॥ ९९

इतिहासश्च कल्पश्च दमनो जगदीश्वरः । 
दम्भो दम्भकरो दाता वंशो वंशकरः कलिः ॥ १००

लोककर्ता पशुपतिर्महाकर्ता ह्यधोक्षजः ।
अक्षरं परमं ब्रह्म बलवाञ्छुक्र एव च ॥ १०१

नित्यो हानीशः शुद्धात्मा शुद्धो मानो गतिर्हविः ।
प्रासादस्तु बलो दर्पो दर्पणो हव्य इन्द्रजित् ॥ १०२

वेदकारः सूत्रकारो विद्वांश्च परमर्दनः ।
महामेघनिवासी च महाघोरो वशी करः ॥ १०३

अग्निज्वालो महाज्वालः परिधूम्रावृतो रविः ।
धिषणः शङ्करोऽनित्यो वर्चस्वी धूम्रलोचनः ॥ १०४

नीलस्तथाङ्गलुप्तश्च शोभनो नरविग्रहः।
स्वस्ति स्वस्तिस्वभावश्च भोगी भोगकरो लघुः ॥ १०५

उत्सङ्गश्च महाङ्गश्च महागर्भः प्रतापवान्।
कृष्णवर्णः सुवर्णश्च इन्द्रियः सर्ववर्णिकः ॥ १०६

महापादो महाहस्तो महाकायो महायशाः।
महामूर्धा महामात्रो महामित्रो नगालयः ॥ १०७

महास्कन्धो महाकर्णो महोष्ठश्च महाहनुः ।
महानासो महाकण्ठो महाग्रीवः श्मशानवान् ॥ १०८

निमित्तस्थ, निमित्त, नन्दि, नन्दिकर, हर नन्दीश्वर, सुनन्दी, नन्दन, विषमर्दन, भगहारी, नियन्ता, काल, लोकपितामह, चतुर्मुख, महालिङ्ग, चारुलिङ्ग, लिङ्गाध्यक्ष, सुराध्यक्ष, कालाध्यक्ष, युगावह, बीजाध्यक्ष, बीजकर्ता, अध्यात्म, अनुगत, बल, इतिहास, कल्प, दमन, जगदीश्वर, दम्भ, दम्भकर, दाता, वंश, वंशकर, कलि  लोककर्ता, पशुपति, महाकर्ता, अधोक्षज, अक्षर, परम, ब्रह्म, बलवान्, शुक्र, नित्य, अनीश, शुद्धात्मा, शुद्ध, मान, गति, हवि, प्रासाद, बल, दर्प, दर्पण, हव्य, इन्द्रजित्, वेदकार, सूत्रकार, विद्वान्, परमर्दन, महामेष- निवासी, महाघोर, वशी, कर, अग्निज्वाल, महाज्वाल, परिधूम्रावृत, रवि, धिषण, शंकर, अनित्य, वर्चस्वी, धूम्रलोचन  नील, अंगलुप्त, शोभन, नरविग्रह, स्वस्ति, स्वस्ति स्वभाव, भोगी, भोगकर, लघु, उत्संग, महांग, महागर्भ, प्रतापवान्, कृष्णवर्ण, सुवर्ण, इन्द्रिय, सर्ववर्णिक, महापाद, महाहस्त, महाकाय, महायश, महामूर्धा, महामात्र, महामित्र, नगालय, महास्कन्ध, महाकर्ण, महोष्ठ, महाहनु, महानास, महाकण्ठ, महाग्रीव, श्मशानवान् ॥ ९७-१०८ ॥

महाबलो महातेजा हान्तरात्मा मृगालयः ।
लम्बितोष्ठश्च निष्ठश्च महामायः पयोनिधिः ॥ १०९

महादन्तो महादंष्ट्रो महाजिह्वो महामुखः ।
महानखो महारोमा महाकेशो महाजटः ॥ ११०

असपत्नः प्रसादश्च प्रत्ययो गीतसाधकः ।
प्रस्वेदनोऽस्वहेनश्च आदिकश्च महामुनिः ॥ १११

वृषको वृषकेतुश्च अनलो वायुवाहनः ।
मण्डली मेरुवासश्च देववाहन एव च ॥ ११२

महाबल, महातेज, अन्तरात्मा, मृगालय, लम्बितोष्ठ, निष्ठ, महामाय, पयोनिधि, महादन्त, महाद्रंष्ट्र महाजिह्न, महामुख, महानख, महारोम, महाकेश, महाजट,असपत्न, प्रसाद, प्रत्यय, गीतसाधक, प्रस्वेदन, अस्वहेन, आदिक, महामुनि, वृषक, वृषकेतु, अनल, वायुवाहन, मण्डली, मेरुवास, देववाहन ॥ १०९-११२ ॥

अथर्वशीर्षः सामास्य ऋक्सहस्त्रोर्जितेक्षणः ।
यजुःपादभुजो गुह्यः प्रकाशौजास्तथैव च ॥ ११३

अमोघार्थप्रसादश्च अन्तर्भाव्यः सुदर्शनः ।
उपहारः प्रियः सर्वः कनकः काञ्चनस्थितः ।। ११४

नाभिर्नन्दिकरो हर्म्यः पुष्करः स्थपतिः स्थितः ।
सर्वशास्त्रो धनश्चाद्यो यज्ञो यज्वा समाहितः ॥ ११५ 

नगो नीलः कविः कालो मकरः कालपूजितः ।
सगणो गणकारश्च भूतभावनसारथिः ॥ ११६

भस्मशायी भस्मगोप्ता भस्मभूततनुर्गणः ।
आगमश्च विलोपश्च महात्मा सर्वपूजितः ॥ ११७

शुक्लः स्त्रीरूपसम्पन्नः शुचिर्भूतनिषेवितः ।
आश्रमस्थः कपोतस्थो विश्वकर्मा पतिर्विराट् ॥ ११८

विशालशाखस्ताम्रोष्ठो ह्यम्बुजालः सुनिश्चितः ।
कपिलः कलशः स्थूल आयुधश्चैव रोमशः ॥ ११९

गन्धर्वो ह्यदितिस्ताक्ष्यों ह्यविज्ञेयः सुशारदः ।
परश्वधायुधो देवो हृार्थकारी सुबान्धवः ॥ १२०

तुम्बवीणो महाकोप ऊर्ध्वरेता जलेशयः ।
उग्रो वंशकरो वंशो वंशवादी ह्यनिन्दितः ॥ १२१

सर्वाङ्गरूपी मायावी सुहृदो ह्यनिलो बलः।
बन्धनो बन्धकर्ता च सुबन्धनविमोचनः ।। १२२

राक्षसघ्नोऽथ कामारिर्महादंष्ट्रो महायुधः ।
लम्बितो लम्बितोष्ठश्च लम्बहस्तो वरप्रदः ॥ १२३

बाहुस्त्वनिन्दितः सर्वः शङ्करोऽथाप्यकोपनः ।
अमरेशो महाघोरो विश्वदेवः सुरारिहा ॥ १२४ 

अथर्वशीर्ष, सामास्य, ऋक्सहस्रोर्जितेक्षण, यजुः पादभुज, गुहा, प्रकाशौज, अमोधार्थप्रसाद, अन्तर्भाव्य, सुदर्शन, उपहार, प्रिय, सर्व, कनक, कांचनस्थित, नाभि, नन्दिकर, हर्म्य, पुष्कर, स्थपति, स्थित, सर्वशास्त्र, धन, आद्य, यज्ञ, यज्चा, समाहित, नग, नील, कवि, काल, मकर, कालपूजित, सगण, गणकार, भूतभावन- सारथि भस्मशायी, भस्मगोप्ता, भस्मभूततनु, गण, आगम, विलोप, महात्मा, सर्वपूजित, शुक्ल, स्त्रीरूपसम्पन्न, शुचि, भूतनिषेवित, आश्रमस्थ, कपोतस्थ, विश्वकर्मा, पति, विराटु, विशालशाख, ताम्रोष्ठ, अम्बुजाल, सुनिश्चित, कपिल, कलश, स्थूल, आयुध, रोमश, गन्धर्व, अदिति, तार्थ्य, अविज्ञेय, सुशारद, परश्वधायुध, देव, अर्थकारी, सुबान्धव  तुम्बवीण, महाकोप, ऊध्र्वरता, जलेशय, उग्र, वंशकर, वंश, वंशवादी, अनिन्दित, सर्वांगरूपी, मायावी, सुहद, अनिल, बल, बन्धन, बन्धकर्ता, सुबन्धन- विमोचन, राक्षसघ्न, कामारि, महादंष्ट्र, महायुध, लम्बित, लम्बितोष्ठ, लम्बहस्त, वरप्रद, बाहु, अनिन्दित, सर्व, शंकर, अकोपन, अमरेश, महाघोर, विश्वदेव, सुरारिहा ॥ १२१-१२४॥

अहिर्बुध्न्यो निर्ऋतिश्च चेकितानो हली तथा।
अजैकपाच्च कापाली शं कुमारी महागिरिः ॥ १२५

धन्वन्तरिधूमकेतुः सूर्यो वैश्रवणस्तथा।
धाता विष्णुश्च शक्रश्च मित्रस्त्वष्टा धरो ध्रुवः ।। १२६

प्रभासः पर्वतो वायुरर्यमा सविता रविः ।
धृतिश्चैव विधाता च मान्धाता भूतभावनः ॥ १२७

नीरस्तीर्थश्च भीमश्च सर्वकर्मा गुणोद्वहः।
पद्मगर्भो महागर्भश्चन्द्रवक्त्रो नभोऽनघः ॥ १२८

बलवांश्चोपशान्तश्च पुराणः पुण्यकृत्तमः ।
क्रूरकर्ता क्रूरवासी तनुरात्मा महौषधः ॥ १२९

सर्वाशयः सर्वचारी प्राणेशः प्राणिनां पतिः ।
देवदेवः सुखोत्सिक्तः सदसत्सर्वरत्नवित् ॥ १३०

कैलासस्थो गुहावासी हिमवद् गिरिसंश्रयः ।
कुलहारी कुलाकर्ता बहुवित्तो बहुप्रजः ॥ १३१

प्राणेशो बन्धकी वृक्षो नकुलश्चाद्रिकस्तथा। 
हुस्वग्रीवो महाजानुरलोलश्च महौषधिः ॥ १३२

अहिर्बुध्य, निर्ऋति, चेकितान, हली, अजैकपात्, कापाली, शं, कुमार, महागिरि, धन्वन्तरि, धूमकेतु, सूर्य, वैश्रवण, धाता, विष्णु, शक्र, मित्र, त्वष्टा, घर, ध्रुव, प्रभास, पर्वत, वायु, अर्यमा, सविता, रवि, धृति, विधाता, मान्धाता, भूतभावन, नीर, तीर्थ, भीम, सर्वकर्मा, गुणोद्वह, पद्मगर्भ, महागर्भ, चन्द्रवक्त्र, नभ, अनघ बलवान्, उपशान्त, पुराण, पुण्यकृत्, तम, क्रूरकर्ता क्रूरवासी, तनु, आत्मा, महौषध, सर्वाशय, सर्वचारी, प्राणेश, प्राणिनांपति, देवदेव, सुखोत्सिक्त, सत्, असत्, सर्वरत्लवित्, कैलासस्थ, गुहावासी, हिमवद्, गिरिसंश्रय, कुलहारी, कुलाकर्ता, बहुवित्त, बहुप्रज, प्राणेश, बन्धकी, वृक्ष, नकुल, अद्रिक, ह्रस्वग्रीव, महाजानु, अलोल, महौषधि ॥ १२५-१३२॥

सिद्धान्तकारी सिद्धार्थश्छन्दो व्याकरणोद्भवः ।
सिंहनादः सिंहदंष्ट्रः सिंहास्यः सिंहवाहनः ॥ १३३

प्रभावात्मा जगत्कालः कालः कम्पी तरुस्तनुः ।
सारङ्गो भूतचक्राङ्कः केतुमाली सुवेधकः ॥ १३४

भूतालयो भूतपतिरहोरात्रो मलोऽमलः ।
वसुभृत्सर्वभूतात्मा निश्चलः सुविदुर्बुधः ॥ १३५

असुहृत्सर्वभूतानां निश्चलश्चलविद् बुधः ।
अमोघः संयमो हुष्टो भोजनः प्राणधारणः ॥ १३६

धृतिमान् मतिमांस्व्यक्षः सुकृतस्तु युधांपतिः ।
गोपालो गोपतिर्यामो गोचर्मवसनो हरः ।। १३७

हिरण्यबाहुश्च तथा गुहावासः प्रवेशनः ।
महामना महाकामो चित्तकामो जितेन्द्रियः ॥ १३८

गान्धारश्च सुरापश्च तापकर्मरतो हितः ।
महाभूतो भूतवृतो ह्यप्सरो गणसेवितः ॥ १३९

महाकेतुर्धराधाता नैकतानरतः स्वरः ।
अवेदनीय आवेद्यः सर्वगश्च सुखावहः ॥ १४०

सिद्धान्तकारी, सिद्धार्थ, छन्द, व्याकरणोद्भव, सिंहनाद, सिंहदंष्ट्र, सिंहास्य, सिंहवाहन, प्रभावात्मा, जगत्काल, काल, कम्पी, तरु, तनु, सारंग, भूतचक्रांक, केतुमाली, सुवेधक, भूतालय, भूतपति, अहोरात्र, मल, अमल, वसुभृत्, सर्वभूतात्मा, निश्चल, सुविदु, बुर सर्वभूतानामसुहृद्, निश्चल, चलविद्, बुध, अमोए संयम, हृष्ट, भोजन, प्राणधारण 
धृति मान्, मतिमान्, त्र्यक्ष, सुकृत, युधर्धापति, गोपाल, गोपति, ग्राम, गोचर्मवसन, हर, हिरण्यबाहु, गुहावास, प्रवेशन, महामना, महाकाम, चित्तकाम, जितेन्द्रिय, गान्धार, सुराप, तापकर्मरत, हित, महाभूत, भूतवृत, अप्सर, गणसेवित, महाकेतु, धराधाता, नैकतानरत, स्वर, अवेदनीय, आवेद्य, सर्वग, सुखावह ॥ १३३-१४० ॥

तारणश्चरणो धाता परिधा परिपूजितः।
संयोगी वर्धनो वृद्धो गणिकोऽथ गणाधिपः ॥ १४१

नित्यो धाता सहायश्च देवासुरपतिः पतिः ।
युक्तश्च युक्तबाहुश्च सुदेवोऽपि सुपर्वणः ॥ १४२

आषाढश्च सुषाढश्च स्कन्धदो हरितो हरः ।
वपुरावर्तमानोऽन्यो वपुःश्रेष्ठो महावपुः ॥ १४३

शिरो विमर्शनः सर्वलक्ष्यलक्षणभूषितः ।
अक्षयो रथगीतश्च सर्वभोगी महाबलः ॥ १४४

साम्नायोऽथ महाम्नायस्तीर्थदेवो महायशाः ।
निर्जीवो जीवनो मन्त्रः सुभगो बहुकर्कशः ॥ १४५

रत्नभूतोऽथ रत्नाङ्गो महार्णवनिपातवित् ।
मूलं विशालो ह्यमृतं व्यक्ताव्यक्तस्तपोनिधिः ॥ १४६

आरोहणोऽधिरोहश्च शीलधारी महातपाः ।
महाकण्ठो महायोगी युगो युगकरो हरिः ॥ १४७

युगरूपो महारूपो वहनो गहनो नगः।
न्यायो निर्वापणोऽपादः पण्डितो हृाचलोपमः ।। १४८

तारण, चरण, धाता, परिधा, परिपूजित, संयोगी, वर्धन, वृद्ध, गणिक, गणाधिप, नित्य, धाता, सहाय, देवासुरपति, पति, युक्त, युक्तबाहु, सुदेव, सुपर्वण, आषाढ़, सुषाढ़, स्कन्धद, हरित, हर, वपु, आवर्तमान, अन्य, वपुश्रेष्ठ, महावपु, शिर, विमर्शन, सर्वलक्ष्य-लक्षण-भूषित, अक्षय, रथगीत, सर्वभोगी, महाबल साम्नाय, महाम्नाय, तीर्थदेव, महायश, निर्जीव, जीवन, मन्त्र, सुभग, बहुकर्कश, रत्नभूत, रत्नांग, महार्णवनिपातवित्, मूल, विशाल, अमृत, व्यक्ताव्यक्त, तपोनिधि, आरोहण, अधिरोह, शीलधारी, महातप, महाकण्ठ, महायोगी, युग, युगकर, हरि, युगरूप, महारूप, वहन, गहन, नग, न्याय, निर्वापण, अपाद, पण्डित, अचलोपम ॥ १४१-१४८ ॥

बहुमालो महामालः शिपिविष्टः सुलोचनः।
विस्तारो लवणः कूपः कुसुमाङ्गः फलोदयः ॥ १४९ 

ऋषभो वृषभो भङ्गो मणिबिम्बजटाधरः ।
इन्दुर्विसर्गः सुमुखः शूरः सर्वायुधः सहः ॥ १५०

निवेदनः सुधाजातः स्वर्गद्वारो महाधनुः ।
गिरावासो विसर्गश्च सर्वलक्षणलक्षवित् ।। १५१

गन्धमाली च भगवाननन्तः सर्वलक्षणः ।
सन्तानो बहुलो बाहुः सकलः सर्वपावनः ॥ १५२

करस्थाली कपाली च ऊर्ध्वसंहननो युवा।
यन्त्रतन्त्रसुविख्यातो लोकः सर्वांश्रयो मृदुः ॥ १५३

मुण्डो विरूपो विकृतो दण्डी कुण्डी विकुर्वणः ।
वार्यक्षः ककुभो वज्री दीप्ततेजाः सहस्रपात् ॥ १५४

सहस्त्रमूर्धा देवेन्द्रः सर्वदेवमयो गुरुः । 
सहस्त्रबाहुः सर्वाङ्गः शरण्यः सर्वलोककृत् ॥ १५५ 

पवित्रं त्रिमधुर्मन्त्रः कनिष्ठः कृष्णपिङ्गलः ।
ब्रह्मदण्डविनिर्माता शतघ्नः शतपाशधृक् ॥ १५६ 

कला काष्ठा लवो मात्रा मुहूर्तीऽहः क्षपा क्षणः ।

बहुमाल, महामाल, शिपिविष्ट, सुलोचन, विस्तार, लवण, कूप, कुसुमांग, फलोदय, ऋषभ, वृषभ, भंग, मणिबिम्बजटाधर, इन्दु, विसर्ग, सुमुख, शूर, सर्वायुध, सह, निवेदन, सुधाजात, स्वर्गद्वार, महाधनु, गिरावास, विसर्ग, सर्वलक्षणलक्षवित्, गन्धमाली, भगवान्, अनन्त, सर्वलक्षण, सन्तान, बहुल, बहु, सकल, सर्वपावन  करस्थाली, कपाली, ऊर्ध्वसंहनन, युवा, यन्त्रतन्त्रसुविख्यात, लोक, सर्वाश्रय, मृदु, मुण्ड, विरूप, विकृत, दण्डी, कुण्डी, विकुर्वण, वार्यक्ष, ककुभ, वज्री, दीप्ततेज, सहस्त्रपात्, सहस्रमूर्धा, देवेन्द्र, सर्वदेवमय, गुरु, सहस्रबाहु, सर्वांग, शरण्य, सर्वलोककृत्, पवित्र, त्रिमधु, मन्त्र, कनिष्ठ, कृष्णपिंगल, ब्रह्मदण्डविनिर्माता, शतघ्न, शतपाशधृक् ॥ १४९-१५६ ॥

विश्वक्षेत्रप्रदो बीजं लिङ्गमाद्यस्तु निर्मुखः ॥ १५७

सदसद् व्यक्तमव्यक्तं पिता माता पितामहः ।
स्वर्गद्वारं मोक्षद्वारं प्रजाद्वारं त्रिविष्टपः ॥ १५८

निर्वाणं हृदयश्चैव ब्रह्मलोकः परागतिः ।
देवासुरविनिर्माता देवासुरपरायणः ॥ १५९

देवासुरगुरुर्देवो देवासुरनमस्कृतः ।
देवासुरमहामात्रो देवासुरगणाश्रयः ॥ १६०

देवासुरगणाध्यक्षो देवासुरगणाग्रणीः ।

कला, काष्ठा, लव, मात्रा, मुहूर्त, अहः, क्षपा, क्षण, विश्वक्षेत्रप्रद, बीज, लिङ्ग, आद्य, निर्मुख, सदसद्, व्यक्त, अव्यक्त, पिता, माता, पितामह, स्वर्गद्वार, मोक्षद्वार, प्रजाद्वार, त्रिविष्टप, निर्वाण, हृदय, ब्रह्मलोक, परागति, देवासुर-विनिर्माता, देवासुरपरायण, देवासुरगुरु, देव, देवासुरनमस्कृत, देवासुर-महामात्र, देवासुर- गणाश्रय ॥ १५७-१६० ॥

देवाधिदेवो देवर्षिर्देवासुरवरप्रदः ॥ १६१

देवासुरेश्वरो विष्णुर्देवासुरमहेश्वरः ।
सर्वदेवमयोऽचिन्त्यो देवतात्मा स्वयम्भवः ॥ १६२

उद्गतस्त्रिक्रमो वैद्यो वरदोऽवरजोऽम्बरः ।
इज्यो हस्ती तथा व्याघ्रो देवसिंहो महर्षभः ॥ १६३

विबुधाग्र्यः सुरः श्रेष्ठः स्वर्गदेवस्तथोत्तमः ।
संयुक्तः शोभनो वक्ता आशानां प्रभवोऽव्ययः ॥ १६४ 

गुरुः कान्तो निजः सर्गः पवित्रः सर्ववाहनः ।
शृङ्गी शृङ्गप्रियो बभ्रू राजराजो निरामयः ॥ १६५

अभिरामः सुशरणो निरामः सर्वसाधनः । 
ललाटाक्षो विश्वदेहो हरिणो ब्रह्मवर्चसः ।। १६६ 

स्थावराणां पतिश्चैव नियतेन्द्रियवर्तनः ।
सिद्धार्थः सर्वभूतार्थोऽचिन्त्यः सत्यः शुचिव्रतः ।। १६७ 

व्रताधिपः परं ब्रह्म मुक्तानां परमा गतिः।
विमुक्तो मुक्तकेशश्च श्रीमाञ्छ्रीवर्धनो जगत् ॥ १६८

यथाप्रधानं भगवानिति भक्त्या स्तुतो मया। 
भक्तिमेवं पुरस्कृत्य मया यज्ञपतिर्विभुः ॥ १६९

ततो हानुज्ञां प्राप्यैवं स्तुतो भक्तिमतां गतिः । 
तस्माल्लळ्या स्तवं शम्भोर्नृपस्वैलोक्यविश्रुतः ॥ १७०

अश्वमेधसहस्त्रस्य फलं प्राप्य महायशाः । 
गणाधिपत्यं सम्प्राप्तस्तण्डिनस्तेजसा प्रभोः ॥ १७१

यः पठेच्छृणुयाद्वापि श्रावयेद् ब्राह्मणानपि। 
अश्वमेधसहस्त्रस्य फलं प्राप्नोति वै द्विजाः ॥ १७२

ब्रह्मघ्नश्च सुरापश्च स्तेयी च गुरुतल्पगः । 
शरणागतघाती च मित्रविश्वासघातकः ॥ १७३

मातृहा पितृहा चैव वीरहा भ्रूणहा तथा। 
संवत्सरं क्रमाज्जप्त्वा त्रिसन्ध्यं शङ्कराश्रमे ॥ १७४

देवमिष्ट्वा त्रिसन्ध्यं च सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १७५

देवासुरगणाध्यक्ष, देवासुरगणाग्रणी, देवाधिदेव, देवर्षि, देवासुरवरप्रद, देवासुरेश्वर, विष्णु, देवासुरमहेश्वर, सर्वदेवमय, अचिन्त्य, देवतात्मा, स्वयम्भव, उद्गत, त्रिक्रम, वैद्य, वरद, अवरज, अम्बर, इज्य, हस्ती, व्याघ्र, देवसिंह, महर्षभ, विबुधाग्र्य, सुर, श्रेष्ठ, स्वर्गदेव, उत्तम, संयुक्त, शोभन, वक्ता, आशानांप्रभव, अव्यय  गुरु, कान्त, निज, सर्ग, पवित्र, सर्ववाहन, श्रृंगी, श्रृंगप्रिय, बभ्रु, राजराज, निरामय, अभिराम, सुशरण, निराम, सर्वसाधन, ललाटाक्ष, विश्वदेह, हरिण, ब्रह्मवर्चस, स्थावराणां पति, नियतेन्द्रियवर्तन, सिद्धार्थ, सर्वभूतार्थ, अचिन्त्य, सत्य, शुचिन्नत, व्रताधिप, परब्रह्म, मुक्तानां परमा गति, विमुक्त, मुक्तकेश, श्रीमान्, श्रीवर्धन, जगत् इन नामोंकी प्रधानताके अनुसार मैंने भक्तिपूर्वक समाहितचित्त होकर भगवान् यज्ञपति विभु शिवकर्का स्तुति की। इस प्रकार उनसे आज्ञा पाकर मैंने भक्तोंकों गतिस्वरूप शिवकी स्तुति की। उन तण्डीसे शिवजीका स्तोत्र प्राप्त करके तीनों लोकोंमें विख्यात तथा महायशस्वी राजा [त्रिधन्या] ने हजार अश्वमेधयज्ञका फल प्राप्तकर प्रभु तण्डीके तेजसे गणाधिपपद प्राप्त किया  हे द्विजो! जो इसे पढ़ता है, सुनता है अथवा ब्राह्मणोंको सुनाता है, वह हजार अश्वमेधयज्ञका फल अवश्य प्राप्त करता है। ब्राह्मणका वध करनेवाला, सुरापान करनेवाला, सुवर्ण चुरानेवाला, गुरुपत्नीके साथ व्यभिचार करनेवाला, शरणमें आये हुएका वध करनेवाला, मित्रके साथ विश्वासघात करनेवाला, माता-पिताका वध करनेवाला, वीर-हत्या करनेवाला तथा भ्रूणहत्या करनेवाला भी शिवमन्दिरमें वर्षपर्यन्त तीनों सन्ध्याकालोंमें क्रमसे [इन नामोंका] जप करके एवं तीनों सन्ध्याकालोंमें देब [शिव] का पूजन करके समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है ।। १६९-१७५ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे रुद्रसहस्त्रनामकथनं नाम पञ्चषष्टितमोऽध्यायः ॥ ६५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'रुद्रसहस्रनामकथन' नामक पैंसठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६५ ॥

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