कुंडेश्वर महादेव का इतिहास / जानिए भगवान शिव कैसे इस पृथ्वी पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए./History of Kundeshwar Mahadev / Know how Lord Shiva became famous on this earth by the name of Mahakaleshwar.
कुंडेश्वर महादेव का इतिहास / जानिए भगवान शिव कैसे इस पृथ्वी पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए.
एक बार माता पार्वती ने शिवजी से कहा कि उनका पुत्र वीरक कहां है तो शिवजी ने कहा कि तुम्हारा पुत्र महाकाल वन में तपस्या कर रहा है। इस पर पार्वती ने शिव से कहा कि वह उसे देखना चाहती है, इसलिए वह भी उनके साथ चले। दोनों नंदी पर सवार होकर महाकाल वन के लिए निकल पड़े। रास्ते में एक पर्वत पर पार्वती के भयभीत होने से कुछ देर के लिए रूक गए। शिवजी ने पार्वती से कहा कि तुम कुछ देर यहां रूको मै पर्वत देखकर आता हूं। कुण्ड नामक गण तुम्हारी सेवा में रहेगा ओर तुम्हारी आज्ञा मानेगा। शिवजी को पर्वत घुमते हुए10 वर्ष बीत गए। शिव के न लौटने पर पार्वती विलाप करने लगी। उन्होंने कुण्ड गण को आज्ञा दी कि वह उन्हें शिव के दर्शन कराए।
जब कुण्ड दर्शन नहीं करा सका तो पार्वती ने उसे मनुष्य लोक में जाने का श्राप दिया। इसी बीच शिव वहां उपस्थित हो गए। पार्वती ने कुण्ड से कहा कि तुम महाकाल वन में जाओ ओर वहां भैरव का रूप लेकर खड़े रहो। वहां उत्तर दिशा में सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला शिवलिंग है। उसका पूजन करो। शिवलिंग का नाम तुम्हारे नाम पर कुण्डेश्वर विख्यात होगा। कुण्ड ने पार्वती की आज्ञा से महाकाल वन में शिवलिंग का दर्शन कर पूजन किया ओर अक्षय पद को प्राप्त किया। मान्यता है कि शिवलिंग के दर्शन मात्र से सभी तीर्थो की यात्रा का फल प्राप्त होता है।
प्रचलित कथानुसार,
हजारों सालों पहले यहां पर एक पहाड़ी हुआ करती थी जहां पर खटीक जाति के लोग निवास करते थे, वहीं पर एक महिला ओखली में धान कूट रही थी तभी जमीन से अचानक भारी मात्रा में खून निकलने लगा और महिला घबरा कर ओखली पर मूसल रख लोगों को बुलाने चली गई और जब लोगों ने आकर देखा तो कुंडे के नीचे शिवलिंग प्रकट हुआ था। तभी से इनका नाम कुंडेश्वर भगवान हो गया।यह शिवलिंग प्रति साल चावल नुमा आकर में बढ़ता है और मोटा भी होता है यह एक पंच मुखी शिवलिंग है जो लोगों के कष्टों को हरता है यहां पर दर्शन करने हजारों की संख्या में भक्तगण करने आते हैं। सावन सोमवार को तो यहां की छटा ही अद्भुत होती है, श्रावण मास में भोले नाथ का अभिषेक करना विशेष फलकारी माना जाता है।
कुंडेश्वर महादेव का इतिहास
चंदनवन स्थित महर्षि सांदीपनि के आश्रम में अति प्राचीन श्री कुंडेश्वर महादेव का मंदिर विद्यमान है यह मंदिर उज्जैन के 84 महादेव में से 40 नंबर पर आता है ! उज्जैन में 84 महादेव प्रसिद्ध है !जहां पर भगवान शंकर किसी न किसी कारणवश उस शिवलिंग में प्रकट हुए और तपस्वियों को वरदान देते थे ! आज भी 84 महादेव अवंतिका पुरी में विराजमान है !
श्रावण मास और हर 3 वर्ष में एक बार आने वाले पुरुषोत्तम मास में इन 84 महादेव की यात्रा होती है जिसके फलस्वरूप 8400000 योनियों से मुक्ति मिलती है सांदीपनि आश्रम परिसर स्थित 84 महादेव में 40 नंबर पर आने वाली श्री कुंडेश्वर महादेव विराजमान है इनकी भी एक कथा प्रसिद्ध है जो निम्न है !एक बार की बात है भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती बड़े वेग से नंदी पर बैठकर भ्रमण के लिए निकले , महाकाल वन पहुंचकर माता पार्वती को बड़ी थकान महसूस होने लगी, थकी हुई पार्वती को देखकर भगवान भोलेनाथ ने माता पार्वती से कहा पार्वती तुम यहीं पर विराजमान हो ताकि तुम्हारी थकान दूर हो जाएगी ! मैं थोड़ा आगे तक घूम कर आता हूं , और तुम्हारी सुरक्षा के लिए मेरा यह गण जिसका नाम कुंड है और नंदी तुम्हारे साथ रहेंगे ऐसा कहकर भगवान भोलेनाथ आगे की ओर प्रस्थान कर गए, प्रतीक्षा करते हुए माता पार्वती को कइ प्रहर बीत गए भोलेनाथ नहीं आए तो उन्हें काफी चिंता सताने लगी माता पार्वती निकुंज नामक गणों को आज्ञा दी कि तुम जाओ और भगवान शंकर का पता करके आओ कुंड ने माता से कहां माता भगवान महादेव ने मुझे आप की सुरक्षा के लिए यहां नियुक्त किया है !
माता के आदेश की अवहेलना को देख माता पार्वती अत्यंत क्रोधित हो गई और क्रोध वश उन्होंने कुंड को मनुष्य योनि में जाने का शाप दे डाला बहुत अनुनय विनय करने पर माताजी ने कहा हे कुंड मेरा श्राप कभी खाली नहीं जात ,लेकिन तुम यही महाकाल वन स्थित चंदन वन में भगवान शिव की उपासना करो तो तुम्हारा उद्धार हो जाएगा
भगवान शंकर जब वापस लौटे तो श्राप के बारे में उन्हें ज्ञात हुआ तो बड़ा दुख हुआ , लेकिन थोड़े वर्षों के बाद भगवान भोलेनाथ शिवलिंग में से प्रकट हुए जिसके सामने कुंड नामक गण तपस्या कर रहा था और कुंड को वापस शगुन के रूप में शामिल करने का वरदान दिय
जानिए भगवान शिव कैसे इस पृथ्वी पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए.
शिव पुराण की ‘कोटि-रुद्र संहिता’ के सोलहवें अध्याय में तृतीय ज्योतिर्लिंग भगवान महाकाल के संबंध में सूतजी द्वारा जिस कथा को वर्णित किया गया है, उसके अनुसार अवंती नगरी में एक वेद कर्मरत ब्राह्मण रहा करते थे। वे अपने घर में अग्नि की स्थापना कर प्रतिदिन अग्निहोत्र करते थे और वैदिक कर्मों के अनुष्ठान में लगे रहते थे। भगवान शंकर के परम भक्त वह ब्राह्मण प्रतिदिन पार्थिव लिंग का निर्माण कर शास्त्र विधि से उसकी पूजा करते थे।
हमेशा उत्तम ज्ञान को प्राप्त करने में तत्पर उस ब्राह्मण देवता का नाम ‘वेदप्रिय’ था। वेदप्रिय स्वयं ही शिव जी के अनन्य भक्त थे, जिसके संस्कार के फलस्वरूप उनके शिव पूजा-परायण ही चार पुत्र हुए। वे तेजस्वी तथा माता-पिता के सद्गुणों के अनुरूप थे। उन चारों पुत्रों के नाम ‘देवप्रिय’, ‘प्रियमेधा’, ‘संस्कृत’ और ‘सुवृत’ थे।
उन दिनों रत्नमाल पर्वत पर ‘दूषण’ नाम वाले धर्म विरोधी एक असुर ने वेद, धर्म तथा धर्मात्माओं पर आक्रमण कर दिया। उस असुर को ब्रह्मा से अजेयता का वर मिला था। सबको सताने के बाद अन्त में उस असुर ने भारी सेना लेकर अवन्ति (उज्जैन) के उन पवित्र और कर्मनिष्ठ ब्राह्मणों पर भी चढ़ाई कर दी। उनके भयंकर उपद्रव से भी शिव जी पर विश्वास करने वाले वे ब्राह्मणबन्धु भयभीत नहीं हुए। अवन्ति नगर के निवासी सभी ब्राह्मण जब उस संकट में घबराने लगे, तब उन चारों शिवभक्त भाइयों ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा- ‘आप लोग भक्तों के हितकारी भगवान शिव पर भरोसा रखें।’ उसके बाद वे चारों ब्राह्मण-बन्धु शिव जी का पूजन कर उनके ही ध्यान में मग्न हो गए।
सेना सहित दूषण ध्यान मग्न उन ब्राह्मणों के पास पहुंच गया। उन ब्राह्मणों को देखते ही ललकारते हुए बोल उठा कि इन्हें बांधकर मार डालो। वेदप्रिय के उन ब्राह्मण पुत्रों ने उस दैत्य के द्वारा कही गई बातों पर कान नहीं दिया और भगवान शिव के ध्यान में मग्न रहे। जब उस दुष्ट दैत्य ने यह समझ लिया कि हमारे डांट-डपट से कुछ भी परिणाम निकलने वाला नहीं है, तब उसने ब्राह्मणों को मार डालने का निश्चय किया।उसने ज्योंही उन शिव भक्तों के प्राण लेने हेतु शस्त्र उठाया, त्योंही उनके द्वारा पूजित उस पार्थिव लिंग की जगह गम्भीर आवाल के साथ एक गडढा प्रकट हो गया और तत्काल उस गड्ढे से विकट और भयंकर रूपधारी भगवान शिव प्रकट हो गये। दुष्टों का विनाश करने वाले तथा सज्जन पुरुषों के कल्याणकर्त्ता वे भगवान शिव ही महाकाल के रूप में इस पृथ्वी पर विख्यात हुए। उन्होंने दैत्यों से कहा- ‘अरे दुष्टों! तुझ जैसे हत्यारों के लिए ही मैं ‘महाकाल’ प्रकट हुआ हूं।
इस प्रकार धमकाते हुए महाकाल भगवान शिव ने अपने हुंकार मात्र से ही उन दैत्यों को भस्म कर डाला। दूषण की कुछ सेना को भी उन्होंने मार गिराया। इस प्रकार परमात्मा शिव ने दूषण नामक दैत्य का वध कर दिया। जिस प्रकार सूर्य के निकलते ही अन्धकार छंट जाता है, उसी प्रकार भगवान आशुतोष शिव को देखते ही सभी दैत्य सैनिक पलायन कर गये। शिवभक्त ब्राह्मणों पर अति प्रसन्न भगवान शंकर ने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि ‘मै महाकाल महेश्वर तुम लोगों पर प्रसन्न हूं, तुम लोग वर मांगो।’महाकालेश्वर की वाणी सुनकर भक्ति भाव से पूर्ण उन ब्राह्मणों ने हाथ जोड़कर विनम्रतापूर्वक कहा- ‘दुष्टों को दण्ड देने वाले महाकाल! शम्भो! आप हम सबको इस संसार-सागर से मुक्त कर दें। हे भगवान शिव! आप आम जनता के कल्याण तथा उनकी रक्षा करने के लिए यहीं हमेशा के लिए विराजि हो जाए। प्रभो! आप अपने दर्शनार्थी मनुष्यों का सदा उद्धार करते रहें।’ भगवान शंकर ने उन ब्राह्माणों को सद्गति प्रदान की और अपने भक्तों की सुरक्षा के लिए उस गड्ढे में स्थित हो गये। उस गड्ढे के चारों ओर की लगभग तीन-तीन किलोमीटर भूमि लिंग रूपी भगवान शिव की स्थली बन गई। ऐसे भगवान शिव इस पृथ्वी पर महाकालेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
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