भगवान परशुराम का इतिहास परशुराम का शाब्दिक अर्थ

परशुराम का शाब्दिक अर्थ

परशुराम नाम दो शब्दों से मिलकर बना है ‘परशु’ अर्थात कुल्हाड़ी और ‘राम’, जिसका शाब्दिक अर्थ है, कुल्हाड़ी के साथ राम। महाभारत और विष्णु पुराण के अनुसार परशुराम जी का मूल नाम राम था, परन्तु जब भगवान शिव ने उन्हें अपना परशु नामक अस्त्र प्रदान किया, तो उनका नाम परशुराम हो गया। इन्हे श्री राम की तरह ही वीरता का प्रतीक माना जाता है। हिन्दू धर्म की मान्यताओं के अनुसार परशुराम जी भी अमर हैं और आज भी पृथ्वी पर निवास करते हैं।

परशुराम का इतिहास 

माता पिता के लिए समर्पण की कहानी वे अपने माता पिता के प्रति बहुत अधिक समर्पित थे। एक बार की बात है, उनकी माता रेणुका गंगा नदी के तट पर हवन के लिए जल लेने गईं थीं। वहाँ पर गंधर्वराज चित्रसेन को अप्सराओं के साथ विहार और मनोरंजन करते देख वे मंत्रमुग्ध हो गईं।


इस प्रकार उन्हें आश्रम पहुँचने में बहुत देर हो गई। ऋषि जमदग्नि ने अपनी दिव्य दृष्टि से माता रेणुका के देरी से आने की वजह का पता लगा लिया। देर से आने के लिए देवी रेणुका की अनुचित मनोवृत्ति जान क्रोधवश ऋषिश्रेष्ठ ने सभी पुत्रों को बुलाया और माता का वध करने का आदेश दे दिया। उनके बाकी के पुत्रों ने माँ के लाडवश पिता की आज्ञा का पालन करने से इंकार कर दिया। जमदग्नि ने  सभी पुत्रों को अवज्ञा करने पर पत्थर बना दिया। जब परशुराम जी की बारी आई तो उन्होंने पिता की आज्ञा का पालन कर माँ का सर धड़ से अलग कर दिया। इस पर ऋषि जमदग्नि अपने पुत्र परशुराम से बहुत प्रसन्न हुए और मनचाहा वर मांगने के लिए कहा। परशुराम जी ने वरदान स्वरूप अपने सभी भाइयों और माता को पुनर्जीवित करने को कहा। ऋषि जमदग्नि अपने पुत्र के कर्तव्यपरायणता से इतने प्रसन्न थे कि उन्होंने उनकी इच्छा पूरी कर पत्नी रेणुका सहित बाकी चारों पुत्रों को जीवित कर दिया। इस प्रकार परशुराम जी ने अपने पिता और माता दोनों के लिए अपने कर्तव्य, प्रेम, और समर्पण का पालन किया। 

पिता के वध का प्रतिशोध

परशुराम भगवान के पिता जमदग्नि के वध का प्रतिशोध लेने की कथा भगवत पुराण में प्रस्तुत है। इस कथा के अनुसार, जब परशुराम ने अपने पिता की हत्या का सत्य जाना, तो उन्होंने अत्यंत रोष में आकर अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लेने का संकल्प बनाया।
परशुराम ने अपने पिता के हत्यारे, राजा कर्तवीर्यार्जुन के पास गए और उनके द्वारा सौभाग्य लाभ के लिए उद्दीप्त रखे गए एक आश्रम में पहुंचे। वहां परशुराम ने राजा के सपूत्र बंदीगण के सामरिक खेल को देखा और उन्हें पराजित कर दिया। इससे राजा कर्तवीर्यार्जुन का गुस्सा उबरा और उन्होंने अपनी अद्भुत शक्ति का उपयोग करके बड़ी सेना लेकर परशुराम के आश्रम पर हमला किया।परशुराम ने अपनी माता की आवाज में पापी राजा कर्तवीर्यार्जुन को संभाला और उनके साथ युद्ध किया। इस युद्ध में परशुराम ने राजा कर्तवीर्यार्जुन को वध कर दिया और अपने पिता की मृत्यु का प्रतिशोध लिया।
इस कथा से स्पष्ट होता है कि परशुराम भगवान ने अपने पिता की हत्या का प्रतिशोध लेने के लिए अपनी माता द्वारा प्रेरित होकर वीरता और धर्म का प्रतीक बनकर उन्हें संहार किया। यह कथा उनके प्रमाणसाधन, त्याग और धर्म के प्रति अपार आस्था को प्रदर्शित करती है।

परशुराम जी के अस्त्र

कुल्हाड़ी (Kulhadi) परशुराम जी के प्रमुख अस्त्रों में से एक थी, जिसे उन्होंने अपने योद्धा धर्म की रक्षा के लिए प्रयोग किया। इसका उपयोग आदिवासी जीवन में लक्ष्य को धारण करने और लड़ाई में सटीकता के लिए किया जाता है।
परशुराम जी के अस्त्र कुल्हाड़ी का वर्णन महाभारत में भी मिलता है। इसे उनके हाथ में वज्रकी तरह प्रभावी और अद्वितीय बताया गया है। यह अस्त्र कठोरता और असाधारण शक्ति का प्रतीक होता है जो परशुराम जी को युद्ध में अद्वितीय बनाता है।
परशुराम जी कुल्हाड़ी का उपयोग अधिकांशतः लड़ाई और युद्ध स्थलों में ही करते थे। यह अस्त्र उनकी शक्ति, वीरता और आक्रमक रणनीतियों का प्रतीक है। कुल्हाड़ी से वे अपने शत्रुओं को नष्ट कर देते थे और धर्म की रक्षा करते थे।

परशुराम रामायण

परशुराम जी का उल्लेख वाला एक प्रमुख कथा रामायण में भी है। परशुराम जी रामायण के कुछ महत्वपूर्ण घटनाओं में भी सामील हुए हैं। यहां कुछ महत्वपूर्ण कथाएं हैं:
  1. सीता हरण (Sita Haran): रामायण में, जब रावण सीता माता को हर लेते हैं और अपनी लंका में ले जाते हैं, तो परशुराम जी उनके पश्चात आते हैं। वे राम के वनवास के दौरान अयोध्या में आए हुए होते हैं। परशुराम जी राम से सीता माता की हरण के बारे में सुनते हैं और उनकी उत्कटता से प्रभावित होते हैं। उन्होंने राम को परीक्षा देने का निर्देश दिया, जिसमें राम ने धनुष तोड़कर विजय प्राप्त की और सीता माता को वापस पाया।
  2. धनुर्धारण प्रतियोगिता (Dhanurdharaan Pratiyogita): रामायण में, परशुराम जी राम से एक धनुर्धारण प्रतियोगिता का आयोजन करते हैं। इस प्रतियोगिता में, वह चाहते हैं कि केवल धनुर्धारी पुरुष ही उनके गुरुकुल में प्रवेश कर सकें। राम भगवान इस प्रतियोगिता में शामिल होते हैं, और उनकी साहसिक और पराक्रमी धनुर्धारण के बाद, परशुराम जी उनकी मान्यता को स्वीकार करते हैं और उन्हें अपने गुरुकुल में प्रवेश देते हैं।
  3. शिवधनुष धरण (Shivdhanush Dharan): रामायण में, श्रीराम जी सीता माता को पाने के लिए दंडकारण्य में जाते हैं, जहां परशुराम जी उनसे मिलते हैं। परशुराम जी राम से शिवधनुष धारण करने की प्रतियोगिता करते हैं और उन्हें पराजित करते हैं। इसके बाद, वे राम को अपनी उत्कटता के कारण माफ करते हैं और उनका आशीर्वाद देते हैं।
ये थीं कुछ महत्वपूर्ण परशुराम जी कथाएं जो रामायण में उल्लेखित हैं। परशुराम जी की उपस्थिति रामायण को और रोचक और गहरा बनाती है और धर्म के प्रतीक के रूप में उनका महत्वपूर्ण योगदान है।

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