द्वितीय नवरात्र - माँ ब्रह्मचारिणी।

द्वितीय नवरात्र - माँ ब्रह्मचारिणी।

    शैलपुत्री ने हिमावन का महल छोड़ दिया(साधक ने रोजाना की दिनचर्या में बदलाव के लिए तैयारी कर ली)

नंदी में सवार होकर (उन्नत भक्त में सानिध्य में) अलग एकांत के लिए चली गयीं।



अब उनका रूप(साधक की मनोस्थिति) ब्रह्मचारिणी का है।

1. वाहन का त्याग कर दिया है।

2. एक हाथ में माला(108 रुद्राक्ष दानों की)

3. दूसरे में कमण्डल शुद्ध पानी(संभवतः गँगा जल) है।

4. पूर्ण श्वेताम्बरा हैं।

साधक भी नियमित होकर बाकी नवरात्रों में तपस चर्य के लिए दृढ़ है। एकांत की यात्रा है। अपने हिसाब से रात्रि संसार के शांत होने के बाद यथा संभव स्थान में जाकर/बनाकर मंत्रोक्त प्राणायाम की तैयारी कर ली है। अनवरत कोशिश करनी है,

प्राणायाम के द्वारा पंच वायु (प्राण - हृदय से, अपान - गुहा द्वार तक,  उदान - गले से, समान - नासिका पर, और व्यान सभी चक्रों पर) पर नियंत्रण पाना है।

1. सभी 108(छोटे बड़े कुल 108 नाड़ी संधि) पर ऊर्जा को नियंत्रण करना है। आंतरिक यात्रा के लिए इनका संधान जरूरी है। एक हाथ में माला है।

2. प्राणायाम में उदान की स्थिति में ससमय थोड़ी थोड़ी मात्रा में जल ग्रहण करना पड़ेगा, जिसके बिना संभवतः एक माला के बाद ही वायु तरंगें नियमित नहीं रह पावेंगी, कमण्डल भी जरूरी है।

बाकी किसी चीज की जरूरत नही। संसार पीछे छोड़ दिया।

3. अब सिर्फ माला और कमण्डल है। आज से ध्यान का समय है, जबतक प्राण वायु साध न लें आगे की यात्रा संभव नहीं। यात्रा संसार से अध्यात्म की है। जबतक प्राण पर नियंत्रण नहीं माया के पार जाना भी संभव नहीं।

4. सभी पहचान का त्याग किया है, रंगों में गुण हैं इसलिए अब श्वेताम्बरा है (चक्रों के जागरण के साथ उनसे जुड़े रंग और ध्वनियां हैं पहली घंटी बजने ही वाली है आगे जो संभालना सीखना भी है 🙏🙏🙏)

 साधक के लिए आज सबसे महत्वपूर्ण दिन है। पहला लंबा ध्यान करना है। शरीर स्थिर कर प्राण नियंत्रण का, बाकी सब क्रिया महत्व नहीं रखती। आसन ग्रहण कर सिर्फ साधना करनी है। यही ब्रह्मचर्य है यही (तपस्विनी + योगिनी = ब्रह्मचारिणी) अवस्था है। 

दूसरे दिन: देवी ब्रह्मचारिणी:

नवरात्रि पर्व के दूसरे दिन मां ब्रह्मचारिणी की पूजा की जाती है। यहां ब्रह्म का अर्थ है तपस्या और चारिणी यानी आचरण करने वाली, इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बायें हाथ में कमण्डल रहता है।

पौराणिक कथा:

पूर्वजन्म में इस देवी ने हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और नारदजी के उपदेश से भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। इस कठिन तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात्‌ ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। एक हजार वर्ष तक इन्होंने केवल फल-फूल खाकर बिताए और सौ वर्षों तक केवल जमीन पर रहकर शाक पर निर्वाह किया।

कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखे और खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के घोर कष्ट सहे। तीन हजार वर्षों तक टूटे हुए बिल्व पत्र खाए और भगवान शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद तो उन्होंने सूखे बिल्व पत्र खाना भी छोड़ दिए। कई हजार वर्षों तक निर्जल और निराहार रह कर तपस्या करती रहीं। पत्तों को खाना छोड़ देने के कारण ही इनका नाम अपर्णा नाम पड़ गया।

कठिन तपस्या के कारण देवी का शरीर एकदम क्षीण हो गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ने ब्रह्मचारिणी की तपस्या को अभूतपूर्व पुण्य कृत्य बताया, सराहना की और कहा कि हे देवी आज तक किसी ने इस तरह की कठोर तपस्या नहीं की। यह तुम्हीं से ही संभव थी। तुम्हारी मनोकामना परिपूर्ण होगी और भगवान चंद्रमौलि शिवजी तुम्हें पति रूप में प्राप्त होंगे। अब तपस्या छोड़कर घर लौट जाओ। जल्द ही तुम्हारे पिता तुम्हें बुलाने आ रहे हैं। मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। इस देवी की कथा का सार यह है कि जीवन के कठिन संघर्षों में भी मन विचलित नहीं होना चाहिए।

देवी ब्रह्मचारिणी की पूजा के नियम:

देवी ब्रह्मचारिणी की उपासना के समय पीले या सफेद वस्त्र पहनें.

देवी को सफेद वस्तुएं अर्पित करें जैसे- मिश्री, शक्कर या पंचामृत.

→ 'स्वाधिष्ठान चक्र' पर ज्योति का ध्यान करें या उसी चक्र पर अर्ध चन्द्र का ध्यान करें.

देवी ब्रह्मचारिणी के लिए "ऊं ऐं नमः" का जाप करें और जलीय और फलाहार पर विशेष ध्यान देना चाहिए.

देवी का करें इस मंत्र से जाप:

दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू।

देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥

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