कलियुग में सत्यता राम भक्त श्लोक सार् बालकाण्ड {87-93}

कलियुग में सत्यता राम भक्त श्लोक सार् बालकाण्ड 

श्लोक
जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलि मल भाँड़ें॥
 इसका अर्थ 
"जो कलिकाल में जन्मता है, वह कराल (भयंकर) होता है। वह विभिन्न रूपों में विचरता है और बहुत से भेषों (अवतारों) में मर्ता है। वह शास्त्रों का त्याग करके दुर्मार्ग पर चलता है, और धर्म के भेष में कपटी रूप से धर्म का मल फैलाता है॥"
यह श्लोक किसी कलिकाल के अनुभवों और उस समय की सामाजिक स्थितियों को बताने के लिए प्रयोग किया जा सकता है जब व्यक्ति नैतिकता और धर्म के मानकों को नकारता है और धर्म के नाम पर अनैतिकता फैलाता है।
श्लोक
बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥
 इसका अर्थ 
"बंचक भक्त कहलाते हैं राम के, जो काम के कंचन की तरह होते हैं। उन तीनों के पहले रहते हैं जो संसार में प्रमुख हैं - धर्म, ध्वज और धंधक (कर्म)॥"
यह श्लोक भक्ति और नैतिकता को जोड़कर, किसी व्यक्ति के चरित्र और कार्यों की महत्ता को दर्शाने के लिए है। यह कहता है कि राम के सच्चे भक्त वह होते हैं जो नैतिकता, श्रद्धा और कर्म में सत्यता रखते हैं, जैसे कि कांचन की प्राचीर की सच्चाई निर्धारित होती है।
श्लोक
जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने॥
 इसका अर्थ 
"जो अपने दोषों को मैं सबको कह दूँ, वह कहानी बढ़ाने से पार नहीं कर सकता। इसलिए मैं बहुत कम अपने बारे में बताता हूँ, क्योंकि थोड़े ही लोग हैं जो समझदार होते हैं॥"
यह दोहा सीख देता है कि हमें अपने दोषों को स्वीकार करना चाहिए और दूसरों की तारीफ़ करने में ज्यादा अटकल नहीं करनी चाहिए। यह बताता है कि बुद्धिमान व्यक्ति होते हैं जो दूसरों के दोषों को समझते हैं और अपने बारे में बहुत कुछ नहीं कहते हैं।
श्लोक
समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥
 इसका अर्थ 
"समझो बिनती मेरी, विभिन्न तरीकों से, कोई मेरी कथा सुनकर न दे देरी॥
जो अनिश्चितता से ऊपर कुछ कर रहे हैं, वे मुझसे अधिक मूर्ख हैं।"
यह दोहा एक व्यक्ति के आदर्शों और उसकी अवस्था के बारे में बात करता है। यह कहता है कि जो व्यक्ति अनिश्चितता के साथ काम कर रहे हैं, वे बहुत ही मूर्ख होते हैं क्योंकि अनिश्चितता से ऊपर काम करने की कोशिश करना असंभव होता है।
श्लोक
कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥
 इसका अर्थ 
"कवि नहीं होता तो मैं चतुर न कहता, मेरी बुद्धि के अनुरूप राम की गुण गाता।
राघुपति (राम) की अपार चरित्र कहाँ होती है, कहाँ होती है मेरी बुद्धि संसार में निरंतर लीन।"
यह दोहा रामायण के महानायक राम के गुणों की महिमा और एक कवि की अनुभूतियों को दर्शाता है। यह कवि कह रहा है कि वह राम के गुणों का गान करता है जो उनकी बुद्धि के अनुरूप हैं, और उसकी बुद्धि संसार में लीन होती है।
श्लोक
जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥
 इसका अर्थ 
"जैसे हनुमान ने मेरु पर्वत को उड़ाया, वैसे ही तू भी कहे, क्या तेरे बल में कुछ कमी है?
राम की अमित प्रभुता को समझकर मन बहुत कथा करता है और उसकी महिमा को अत्यंत की प्रशंसा करता है।
यह दोहे रामायण के कथानक से संबंधित हैं और हनुमान जैसे भक्त की शक्ति और विश्वास पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो उसे मेरु पर्वत को उड़ाने में सक्षम बनाता है। इससे यह संदेश मिलता है कि जब हमारे पास पूरा विश्वास होता है, तो हम कुछ भी कर सकते हैं।
श्लोक
सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥
 इसका अर्थ 
"सारद, सेस, महेस, विधि, आगम, निगम, पुराण - इनमें से कोई भी भगवान की पूर्णता को समझने में समर्थ नहीं है। भगवान के गुणों की स्तुति करने वाले कहते हैं 'नेति नेति', अर्थात् 'न यह' और 'न वह' कहकर, क्योंकि उनकी महिमा को समझ पाना संभव नहीं है, और इसलिए उनकी गुणों का निरंतर गान करते रहते हैं॥"
यह श्लोक भगवान की अद्भुतता और उनकी पूर्णता को समझने की कठिनाई को बताता है। इसका संक्षेप में यहां यह संदेश है कि भगवान की महिमा को समझना हमारे सामान्य बुद्धि से परे है, और हम उनकी गुणों का सतत गान करते रहने के लिए प्रेरित होना चाहिए।

टिप्पणियाँ