श्लोक ३४ से ३६ बालकाण्ड भावार्थ सहित

श्लोक ३४ से ३६ बालकाण्ड  भावार्थ सहित  Verses 34 to 36 with Balkanda meaning

श्लोक
भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती ।।
 सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू ।।
 गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई।। ३४
  भावार्थ
यह दोहे गोस्वामी तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से हैं और इसमें अच्छे और बुरे कार्यों के फल के बारे में बताया गया है।
यह दोहे मानवीय गुणों और बुराइयों के बारे में हैं।
भल - भलाई
अनभल - बुराई
निज निज - अपनी-अपनी
करतूती - कर्म
लहत - प्राप्त करते हैं
सुजस - सजीवता
अपलोक - दृश्यमान
बिभूती - भूषित
सुधा - अमृत
सुधाकर - चंद्रमा
सुरसरि - सरस्वती (ज्ञान की देवी)
साधू - साधु
गरल - विष
अनल - अग्नि
कलिमल - कलुषित
सरि - सब
ब्याधू - पीड़ादायक
गुण - अच्छाई
अवगुण - बुराई
जानत - जानना
सब - सभी
कोई - कोई
जो - जो
जेहि भाव - जैसा भाव
नीक - अच्छा
तेहि सोई - वही होता है
इस दोहे में कहा गया है कि अच्छे या बुरे कर्मों को हम स्वयं करते हैं और उनके परिणाम भी हमें ही भुगतने पड़ते हैं। जो भी कार्य हम करते हैं, उन्हें सभी देखते हैं और उनका प्रभाव हमारे चरित्र को बदल सकता है। साधुता वाले कार्य हमें सुंदरता और भव्यता देते हैं, जबकि दुष्टता वाले कार्य हमें दुख और दरिद्रता में डाल सकते हैं। सभी लोग अच्छे और बुरे कार्यों को जानते हैं, और जैसी भावना होती है, वैसा ही परिणाम मिलता है।
यह दोहा हमें यह बताता है कि हमें अपने कर्मों के प्रभाव को समझना चाहिए और सदा नेक भावना और कार्यों में लगना चाहिए।
इस दोहे में कहा गया है कि हर व्यक्ति के कर्मों और उनकी विशेषताओं से वह भूषित होता है, जैसे सूर्य, चंद्रमा, सरस्वती, और साधु अपनी विशेषताओं से प्रसिद्ध होते हैं। उसी तरह, बुराई और दुःख के द्वारा व्यक्ति अपनी जीवनी बनाता है। व्यक्ति को अपनी अच्छी और बुरी क्रियाओं को समझना चाहिए, क्योंकि उनके आचरणों से उन्हें प्रशंसा या आलोचना मिलती है।
श्लोक
भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु । 
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु ॥ ३५ ॥
  भावार्थ
यह दोहा गोस्वामी तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से हैं और इसमें नीचे का उच्चता और उच्चता का महत्त्व बताया गया है।
यह दोहा व्यक्ति को उन्नति और नीचता के विषय में सोचने पर विचार करता है।
भलो - अच्छा
भलाइहि - अच्छाई
पै - पाया जाता है
लहइ - प्रशंसा होती है
निचाइहि - नीचता
नीचु - नीचाई
सुधा - अमृत
सराहिअ - प्रशंसा होती है
अमरताँ - अमृत
गरल - विष
सराहिअ - प्रशंसा होती है
मीचु - मधु
इस दोहे में कहा गया है कि भले कामों को करने से ऊँचाई प्राप्त होती है, और नीच कामों को करने से नीचाई होती है। सुधा (मिठास) को सराहा जा सकता है, लेकिन गरल (कड़वाहट) को सराहना नहीं किया जा सकता।
यह दोहा हमें यह बताता है कि हमें हमेशा भले कार्यों को करना चाहिए, जो हमारी ऊँचाई को बढ़ाते हैं, और बुरे कामों से दूर रहना चाहिए, जो हमारे चरित्र को गिराते हैं। अच्छे कामों की सराहना की जा सकती है, जबकि बुरे कामों की सराहना नहीं की जानी चाहिए।
इस दोहे में कहा गया है कि अच्छाई की प्रशंसा की जानी चाहिए, जैसे अमृत की प्रशंसा की जाती है, और नीचता की तुलना में नीचाई की जाती है, जैसे विष की प्रशंसा की जाती है।
श्लोक
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा।। 
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने ।। ३६
  भावार्थ
यह दोहा गोस्वामी तुलसीदास जी के 'रामचरितमानस' से हैं और इसमें सद्गुणों की महिमा और दुष्टता के बारे में बताया गया है।
खल - दुर्जन
अघ - पापी
अगुन - बुराई
साधु - साधु
गुन - गुण
गाहा - गाते हैं
उभय - दोनों
अपार - असीम
उदधि - समुद्र
अवगाहा - समझते हैं
तेहि - वही
तें - तो
कछु - कुछ
गुन - गुण
दोष - दोष
बखाने - बताते हैं
संग्रह - संग्रह (इकट्ठा)
त्याग - छोड़ना
न - नहीं
बिनु - बिना
पहिचाने - पहचाना
इस दोहे में कहा गया है कि दुर्जन और पापी लोग गुणों और बुराइयों का गान करते हैं, जबकि साधु लोग सम्पूर्णता समझते हैं। हालांकि, उनमें से कुछ गुणों और दोषों को बताते हैं, लेकिन वह समझते नहीं कि गुणों का संग्रह करके उन्हें त्यागना चाहिए बिना उन्हें पहचाने।
इस दोहे में कहा गया है कि दुर्जन (खल), पापी (अघ), और गुणी (साधु) का वर्णन करना बड़ी कठिन बात है, क्योंकि उनके गुण और दोष अनवरत और अपार होते हैं। उनमें से कुछ गुणों और दोषों को बताना संग्रह करने की तरह है, और उसे छोड़ने की तरह है उसे पहचानना नहीं।
यह दोहा हमें यह सिखाता है कि हमें लोगों के गुणों और दोषों को संग्रह करने की बजाय उन्हें समझने की कोशिश करनी चाहिए। संग्रह करने से नहीं, पहचानने से हमें सही तथ्यों की पहचान होती है।

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