तुलसीदास के 15 दोहे 15 couplets of Tulsidas
नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन । 144
"नारायण और नार सरिस् (श्रेष्ठ) हैं, वे सभी के शुभ संगत हैं। वे जगत के पालनहार हैं और विशेष रूप से लोगों के रक्षक हैं।
उनकी भक्ति ही युगों का सबसे बड़ा आभूषण है, वे पवित्र ब्रह्मा और विष्णु हीतु में सर्वदा लोक के हित का पालन करते हैं।"
यहां बताया गया है कि नारायण और नार सरिस् सभी के लिए शुभ संगत हैं और वे जगत के पालनहार और रक्षक हैं। उनकी भक्ति ही सबसे बड़ा आभूषण है और वे निरंतर लोक के हित का पालन करते हैं।
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन मन मंजु कंज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥145
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"स्वाद, संतोष, सुगति, और सुधा के समान मधु का आनंद होता है। इसी तरह से, धरा पर शेष नाग के समान बसने से भी सुख का आनंद मिलता है।
मनुष्य श्रीराम के मनोहर रूप से मधुकर की भाँति मनोहर होते हैं और हरि, जो हल्दी लेकर हाथ में हैं, की तरह धन्य होते हैं।"
यहाँ कहा गया है कि मधु, संतोष, सुगंध, और सुख के साथ स्वाद का आनंद मिलता है। वैसे ही, धरा पर शेष नाग के समान रहकर भी सुख का आनंद मिलता है। जब मनुष्य श्रीराम की भक्ति करता है, तो वह उनके मनोहर रूप से मनोहर होता है और वह धन्य होता है, जैसे हरि (श्रीराम) हल्दी लेकर हाथ में होते हैं।
दो0-एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥ 146
यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"एक ही छत्र और एक ही मुकुट में सभी बिराजमान हैं, परन्तु उनमें से दोनों में श्रीराम का नाम ही शोभा प्रदान करता है।"
यहां बताया गया है कि सभी लोग एक ही छत्र और मुकुट में हैं, लेकिन उनमें से दोनों में श्रीराम का नाम ही उत्कृष्टता प्रदान करता है। यहां नाम की महत्ता और श्रीराम के नाम की शोभा को उजागर किया गया है।
समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥147
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"समझने वाला जानता है कि नाम और नामी एक ही हैं, और दोनों प्रभु को प्रेम से अनुगामी हैं।
नाम और रूप - ये दो उपाधियाँ हैं, जिनका अकथ और अनादि होने के कारण समझना साधना बहुत मुश्किल है।"
यहाँ बताया गया है कि समझने वाला जानता है कि नाम और नामी एक ही हैं और दोनों प्रभु को प्रेम से अनुगामी हैं। नाम और रूप - ये दो उपाधियाँ हैं, जिनका अकथ और अनादि होने के कारण समझना साधना बहुत मुश्किल है।
को बड़ छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेद समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥ 148
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"कोई बड़ा-छोटा कहे और अपराधी बताये, साधु उसकी गुणों का भेद समझकर समाधान करते हैं।
जब रूप और नाम को समझा जाता है, तो रूप भान नहीं, नाम भीना होता है, और नाम को बिना रूप के भी जाना जा सकता है।"
यहां बताया गया है कि कोई व्यक्ति बड़ा-छोटा कहे और दोषी बताये, परंतु साधु उसकी गुणों के भेद को समझते हैं और समाधान करते हैं। जब रूप और नाम को समझा जाता है, तो रूप भान नहीं, नाम भीना होता है, और नाम को बिना रूप के भी जाना जा सकता है।
रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥ 149
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"रूप को बिना विशेष जाने, उसके नाम की पहचान नहीं होती। करतल में गति होने के कारण उसे पहचान नहीं सकते।
नाम और रूप को समझकर नहीं देखकर, हृदय में सनेह को विशेष मानकर सिर्फ नाम की स्मरण करने से ही विशेष प्रेम आता है।"
यहां बताया गया है कि रूप को बिना विशेषता जाने, उसका नाम की पहचान नहीं होती है। करतल में गति होने के कारण उसे पहचान नहीं सकते। नाम और रूप को समझकर नहीं, बल्कि हृदय में सनेह को विशेष मानकर सिर्फ नाम की स्मरण से ही विशेष प्रेम आता है।
नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥150
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"नाम, रूप, गति, अकथ और कहानी - इन सब को समझना सुखद नहीं होता और परति तक इसे बखाना भी मुश्किल है।
सगुन और निर्गुण के बीच नाम की सुसाखी है, ये दोनों ही चेतना को जागरूक करने वाले और चतुर दुभाषी हैं।"
यहां बताया गया है कि नाम, रूप, गति, अकथ और कहानी - इन सब को समझना सुखद नहीं होता और इसे पूरी तरह से व्यक्त करना भी मुश्किल है। सगुन और निर्गुण के बीच नाम की सुसाखी है, ये दोनों ही चेतना को जागरूक करने वाले और चतुर दुभाषी हैं।
दो0-राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥151
यह दोहा तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"राम नाम को मन की दीप्ति के समान अपने मन के घर के द्वार पर रखो।
तुलसीदास कहते हैं कि अपने भीतर और बाहर जाओ, जहाँ तुम चाहते हो कि प्रकाश हो।"
यहां बताया गया है कि राम नाम को अपने मन की दीप्ति के समान मन के घर के द्वार पर रखें। तुलसीदास कहते हैं कि चाहे तो आप अपने भीतर और बाहर जाएं, जहाँ आपको प्रकाश फैलाना है।
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥ 152
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"जोगी वहाँ जागता है, जहाँ वह नाम की जपने में रमता है, और प्रपंच से अलग हो जाता है।
वह अनूप ब्रह्मसुख का अनुभव करता है, जो अकथ और अनामय है, जिसका नाम और रूप नहीं होता।"
यहाँ बताया गया है कि जोगी वहाँ जागता है, जहाँ वह नाम की जपने में रमता है और सांसारिक जगत से अलग हो जाता है। वह अनूप ब्रह्मसुख का अनुभव करता है, जो अकथ और अनामय है, जिसका नाम और रूप नहीं होता।
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥ 153
"जो गोपनीय गति को जानते हैं, वे उसी में नाम की जाप करते हैं।
साधक जो नाम का जाप करते हैं, वे सिद्धियों जैसी अनिमा आदि को प्राप्त करते हैं।"
यहाँ बताया गया है कि जो लोग गोपनीय गति को जानते हैं, वे उसी में नाम की जाप करते हैं। साधक जो नाम का जाप करते हैं, वे सिद्धियों जैसी अनिमा आदि को प्राप्त करते हैं।
जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥ 154
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"नाम का जाप करने वाले व्यक्ति की आराधना भारी होती है। वह सभी कष्टों को मिटा देता है और सुख को प्राप्त कर लेता है।
राम के भक्त चार प्रकार के होते हैं और उनमें से चारों ओर से सुकृतियों से युक्त, अनघ और उदार होते हैं।"
यहाँ बताया गया है कि नाम के जाप करने वाले की आराधना बहुत भारी होती है। वह सभी कष्टों को मिटा देता है और सुख को प्राप्त कर लेता है। राम के भक्त चार प्रकार के होते हैं और वे सभी शुद्ध, उदार और सुकृतियों से युक्त होते हैं।
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति ना प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥ 155
"चारों युगों में और चारों वेदों में भी नाम ही आधार है। ज्ञानी व्यक्ति के लिए भगवान का प्रेम विशेष है।
चारों युगों में और चारों वेदों में भी नाम ही आधार है, किन्तु कलियुग में इसमें विशेषता नहीं है।"
यहाँ बताया गया है कि चारों युगों में और चारों वेदों में भी नाम ही मूल आधार है। ज्ञानी व्यक्ति के लिए भगवान का प्रेम विशेष होता है। चारों युगों में और चारों वेदों में नाम ही मूल आधार है, लेकिन कलियुग में इसमें विशेषता नहीं है।
दो0-सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष हद तिन्हहुँ किए मन मीन॥ 156
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"जो व्यक्ति सभी कामनाओं से रहित होकर सिर्फ राम की भक्ति में रस लिया करता है, उनके मन को राम नाम का सुप्रीम पियूष ही पीने की हद बन जाती है।"
यहाँ कहा गया है कि जो व्यक्ति सभी कामनाओं से रहित होकर सिर्फ राम की भक्ति में रस लिया करता है, उनके मन को राम नाम का सुप्रीम पियूष पीने की हद तक ही संतुष्ट हो जाती है।
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥ 157
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"ब्रह्म के दो रूप - सगुण और निर्गुण - हैं, जो कि अनादि और अतींद्रिय है। मेरा मत है कि उन दोनों नामों से बड़ा कुछ नहीं है, क्योंकि वे दोनों ही अनन्त और स्वयंप्रकाश हैं, जो युगों से स्वयं के ही बने हुए हैं।"
यहाँ कहा गया है कि ब्रह्म के दो रूप - सगुण और निर्गुण - हैं, जो कि अनादि और अतींद्रिय हैं। उन दोनों नामों से बड़ा कुछ नहीं है, क्योंकि वे अनन्त और स्वयंप्रकाश हैं, जो युगों से स्वयं के ही बने हुए हैं।
प्रोढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥ 158
यह दोहे तुलसीदास जी के "रामचरितमानस" से हैं। इसका अर्थ है:
"सुजन लोग समझते हैं कि वे जानते हैं दूसरों की सोच, अनुभव और मन की पसंद। एक ही धारण को देखकर ही वे अन्यत्र की तुलना करते हैं, जैसे अग्नि सभी प्राणियों के अंतर्निहित ब्रह्म की ओर दिखाती है।"
यहाँ कहा गया है कि सुजन लोग दूसरों की सोच, अनुभव और पसंद को समझते हैं। वे दूसरों की धारणा को देखकर ही उन्हें समझते हैं, जैसे अग्नि सभी प्राणियों के अंतर्निहित ब्रह्म की ओर दिखाती है।
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